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________________ म वि विक्रिया से इच्छापूर्वक रचा गया था, बड़े ठाट-बाट से सजाया गया था, महामनोहर तथा श्वेतवर्ण का था ।।६१-६२।। || इस ऐरावत गजराज के मुख बत्तीस थे, हरएक मुख में आठ-आठ दाँत थे, हर एक दाँत पर एक-एक सरोबर विद्यमान था, हरएक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी (कमलों की बेल थी), प्रत्येक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस कमल थे, हरएक कमल के बत्तीस-बत्तीस पत्ते थे, प्रत्येक पत्ते में नाचनेवाली बत्तीस-बत्तीस देवियाँ थीं, जो कि पूर्ण श्रृंगार से शोभायमान थीं तथा लीलापूर्वक बड़े हाव-भाव के साथ नृत्य करती थीं ।।६३-६५।। इस प्रकार के उत्तम वर्णनों | के धारक उस ऐरावत गजराज पर सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र सवार हो गया एवं श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिए चल | म दिया ।।६६।। श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिए इन्द्र को इस प्रकार तैयार देखकर सामानिक देव आदि भी | अपने-अपने वाहनों पर सवार हो गये एवं अपनी विभूति के साथ चारों ओर से इन्द्र को वेष्टित कर बड़े हर्ष से | खड़े हो गये ।।६७।। ऐशान इन्द्र को आगे करके अन्य स्वर्गों के इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर सवार हो गये तथा || अपनी-अपनी विभूति के साथ ज्योतिषी आदि निकायों के इन्द्र भी अपने-अपने भवनों से निकल पड़े। जिस समय चारों निकायों के देवेन्द्र तीर्थंकर की पूजा के लिए निकल पड़े, उस समय 'हे देव ! आप जयवन्त हों, नादें एवं विरदें इत्यादि अनेक कोलाहलों से तथा अनेक प्रकार के वाद्यों से समस्त दिशायें व्याप्त हो गई थीं। शरीर पर पहिने हुए भूषणों की कान्ति से समस्त आकाश जगमगा उठा था एवं उत्तमोत्तम विमान एवं वाहन आदि से सारा आकाश ढंका सरीखा जान पड़ता था। इस प्रकार सैकड़ों महोत्सवों के साथ वे देव जिस वन में श्रीमल्लिनाथ भगवान को केवलज्ञान हुआ था, उस वन की भूमि पर आकर पहुँच गये ।।६६-१००।। शिल्पकला में पूर्ण चातुर्य रखनेवाला कुबेर पहिले ही इन्द्र की आज्ञा से वहाँ पहुँच चुका था एवं उसने बड़ी सुन्दरता के साथ समवशरण की रचना कर रक्खी थी। जिस समय देवेन्द्रगण भूमि पर उतरे, तब उन्होंने दूर से ही साक्षात् तेजों से पुन्ज स्वरूप तीर्थंकर का 'समवशरण' देखा एवं बडा हर्ष प्रकट करने लगे ।।१०१।। समवशरण की रचना सज्जनों को परमानन्द प्रदान करनेवाली होती है. | अनुपम एवं समस्त प्रकार की ऋद्धियों से व्याप्त रहती है; इसलिए सज्जन पुरुषों को आनन्दित करने के लिए समस्त प्रकार की ऋद्धियों से व्याप्त उस अनुपम समवशरण का मैं (ग्रन्थकार) संक्षेप में वर्णन करता हूँ-- जिस भूमि पर तीर्थंकर का समवशरण रचा गया था, उस भूमि का विस्तार तीन योजन प्रमाण था, वह इन्द्रनील | FFb PF S4 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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