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________________ अत्यंत सुन्दर शरीर से शोभायमान विशाल गजराज उसके मुख-कमल में प्रवेश कर रहा है । रानी प्रजावती के तीव्र पुण्य के उदय से पहिले तो रत्न-सुवर्ण आदि पदार्थों की वर्षा हुई, जिससे उसके कुटुम्बीजन, अन्य मनुष्य, बड़े-बड़े देव उसका आदर-सत्कार करने लगे एवं उन्होंने समस्त सौभाग्य का सार प्राप्त किया। उसके बाद उस महारानी प्रजावती ने भगवान जिनेन्द्र की उत्पत्ति को सूचित करनेवाले उपर्युक्त सोलह स्वप्न देखे, जिससे रनिवास के अन्दर अनेक रानियों के रहते हुए भी उनकी शिरोमणि पटरानी वही हुई ।। १०३।। स्वर्ग || एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाले समस्त विघ्नों के नाशक, मोक्षलक्ष्मी के अभिलाषी जीवों को धर्म-मार्ग पर ले चलनेवाले, ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मरूपी बैरियों को मूल से नष्ट करनेवाले, अखण्ड ज्ञान के विधाता एवं जयशील भगवान श्री मल्लिनाथ हमारे लिए सिद्धि प्रदान करें ।। १०४।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा कृत संस्कृत भाषा में भी मल्लिनाथ चरित्र की पं. गजाधरलालजी न्यायतीर्थ विरचित हिन्दी वचनिका में अहमिन्द्र भव का वर्णन करनेवाला तीसरा परिच्छेद समाप्त हुआ ।।३।। चतुर्थ परिच्छेद जिनके शरीर की कांति इन्द्रनील मणि के रंग के समान महामनोहर है, जो मोक्षरूपी लक्ष्मी के परम प्रिय हैं, तीनों लोक के स्वामी हैं एवं समस्त जगत् का हित करनेवाले हैं, ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं मस्तक झुका कर नमस्कार करता हूँ ।।१।। यह प्राचीन प्रथा है कि महाराज एवं महारानियों का जो समय जागने का होता है. उस समय मधुर शब्द करनेवाले वाद्य बजाए जाते हैं एवं बंदीगण स्तुति गान करते हैं, उनके शब्द से महाराज एवं महारानी की निद्रा भंग होती है एवं उस समय वे उठ कर अपनी प्रातःकाल की नित्य क्रिया में प्रवृत्त होते हैं । प्रातःकाल में जिस समय महारानी प्रजावती के उठने का समय उपस्थित हुआ, उस समय उसे जगानेवाले उत्कृष्ट एवं महामनोहर शब्द ||४२ करनेवाले तूर्य जाति के वाद्य बजने लगे तथा बंदीगणों के द्वारा अत्यन्त मण्डल को सूचित करनेवाली महामनोहर अनेक प्रकार की स्तुतियाँ की जाने लगीं। महारानी प्रजावती उस समय सूक्ष्म निद्रा में निद्रित पर्यक पर लेटी हुई थीं। ज्यों ही प्रातःकाल में उसने महामनोहर भेरी का शब्द सुना, समस्त जगत का मंगल करनेवाली वह देवी पर्यक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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