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________________ 4 449 आदि में अकेले ही विहार करते फिरते थे, अपनी निर्भय वृत्ति के कारण किसी का भी संग नहीं चाहते थे ।।७।। | १. दर्शनविशुद्धि, २. विनयसम्पन्नता, ३. अतीचार रहित शीलव्रतों का पालना, ४. सर्वदा ज्ञानाभ्यास करना, ५.संवेग रखना, ६. शक्ति के अनुसार दान करना, ७. शक्ति के अनुसार तप करना, ८. साधुसमाधि, ६. वैयावृत्य करना, १०. अर्हन्त भगवान की भक्ति करना, ११. आचार्य भगवान की भक्ति करना, १२. शास्त्रों के मर्मज्ञ (जानकार) उपाध्यायों की भक्ति करना, १३. प्रवचन में भक्ति करना, १४. छः आवश्यकों का पालन करना, १५. मोक्षमार्ग की प्रभावना करना तथा १६. वात्सल्य भाव रखना, यह सोलह भावना हैं । इन सोलह प्रकार की भावनाओं के भाने से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है । मुनिराज वैश्रवण ने भी इस प्रकार सोलह भावनाओं का भाना प्रारम्भ कर | दिया। मुनिराज वैश्रवण का जीवादि पदार्थों का श्रद्धान शंका-कांक्षा आदि दोषों से रहित था एवं निःशंकित तत्व तथा निकांक्षितत्व आदि गुणों से विभूषित था; इसलिये सदा सम्यग्दर्शन के अन्दर विशुद्धता रहने के कारण उनके दर्शनविशुद्धि भावना थी ।।८।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा तप--इन चारों आराधनाओं का तथा इन | चारों प्रकार की आराधनाओं को पालन करनेवालों की वे अच्छी तरह विनय करते थे, इसलिये उनके विनय भावना का पालन था ।।६।। किसी प्रकार शीलव्रतों में अतीचार नहीं लग जाय, इस रूप से वे शीलव्रतों का पालन करते थे; इसलिये उनके अतीचार रहित शीलव्रतों का पालन रूप भावना थी, वे श्रुतज्ञान का निरन्तर अध्ययन करते थे तथा दूसरों को अध्ययन कराते थे; इसलिये उनके सर्वदा ज्ञानाभ्यास करना रूप भावना थी ।।१०।। शरीर भोग एवं स्त्री-पुत्र आदि समस्त संसार के पदार्थों से उन्हें प्रतिकाल संवेग भाव रहता था, इसलिये वे संवेग भावना का पालन करते थे। अन्य मुनियों को सिद्धान्त का रहस्य प्रदान करते थे, इसलिये शक्ति के अनुसार दान देना रूप उनके भावना थी। ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों को जड़ से नष्ट करने के लिये वे शक्ति को न छिपा कर समस्त तप तपते थे, इसलिये उनके शक्ति के अनुसार तप भावना का पालन था । मुनियों के तप में किसी प्रकार का विघ्न आकर उपस्थित हो जाए तथा उससे उनके आवश्यक कर्म में किसी प्रकार की रुकावट उपस्थित हो जाए, तो उनका समाधान कर देना समाधि है । मुनिराज वैश्रवण अच्छी तरह साधुओं को समाधि कराते थे; इसलिये वे पूर्णरूप से ३० Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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