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________________ साधु समाधि नामक भावना के पालक थे ।।११-१२।। १.आचार्य २. उपाध्याय ३. तपस्वी ४. शैक्ष्य ५. ग्लान ६. गण ७. कुल ८. संग ६. साधु तथा १०. मनोज्ञ--इस प्रकार ये दश भेद साधुओं के होते हैं । इन दश प्रकार के साधुओं को दुःख उपस्थित होने पर उस दुःख को दूर करने की इच्छा से जो टहल-चाकरी करनी होती है, उस वैयावृत्यकरण नाम की भावना का भी उनके अखण्ड रूप से पालन था । वे मुनिराज मन-वचन एवं काय की शुद्धि रख कर अर्हन्त तथा आचार्यों की पूर्ण भक्ति करते थे; इसलिये उनके अर्हन्त भगवानकी भक्ति तथा आचार्य भगवान की भक्ति--ये दोनों भावनायें भी अखण्ड रूप से थीं। वे मुनिराज श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए बहुत शास्त्रों के जानकार उपाध्यायों की एवं शास्त्रों की भी मन-वचन-काय रूप योगों की शद्धता से मोक्षरूप स्त्री की सखी स्वरूप अखण्ड भक्ति करते थे, इसलिये उनके बहुश्रुतभक्ति तथा प्रवचनभक्ति नाम की भी दोनों भावनाओं का अखण्डरूप से पालन था ।।१४।। १.सामायिक २.चतुर्विंशतिस्तव ३.वन्दना ४.प्रतिक्रमण ५.प्रत्याख्यान तथा ६. कायोत्सर्ग--ये छः भेद आवश्यक क्रियाओं के माने गए हैं । जहाँ पर हिंसादि समस्त पापयोगों की निवृत्ति है, वह सामायिक नाम का | आवश्यक है। चौबीसों तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन करना, चतुर्विंशतिस्तव नाम का आवश्यक है। मन-वचन-काय की शुद्धि रखना, दोनों प्रकार के आसनों का उपयोग में लाना, चारों दिशाओं में चार बार मस्तक का झुकाना तथा प्रत्येक दिशा में तीन-तीन के भेद से बारह आवर्त करना वन्दना है, भूतकाल में लगे हुए दोषों का परिहार करना | प्रतिक्रमण, भविष्यत में लगनेवाले दोषों का परिहार करना प्रत्याख्यान एवं कुछ परिमित काल का संकल्प कर “यह मेरा है" इस रूप से शरीर से ममत्व बुद्धि का त्याग कर देना कायोत्सर्ग है । वे मुनिराज प्रमाद को सर्वथा दूर कर जिस आवश्यक क्रिया का जिस समय में विधान था, उसी समयमें उसे परिपूर्ण रूप से किया करते थे; किन्तु किसी आवश्यक क्रिया की हानि वे कभी नहीं करते थे, इस रूप से छहों आवश्यकों का पालन होने से वे 'छह आवश्यकों का नियम से पालना' नाम की भावना को भी अच्छी तरह पालते थे ।।१५।। वे मुनिराज नाना प्रकार के उग्र तपों | को तप कर भगवान श्री जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य भी अच्छी तरह प्रदर्शित करते थे; इसलिए मार्ग प्रभावना नाम भावना का भी उनके अच्छी तरह पालन होता था। वे मुनिराज साधर्मी भ्राताओं में गौ-बछड़े के समान अत्यन्त प्रेम रखते थे; इसलिए प्रवचन वात्सल्य नाम की भावना का भी उनके अखण्ड रूप से पालन था ।।१६।। इस प्रकार वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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