SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कि मुनिराज वैश्रवण 'तीर्थंकर' नाम की प्रकृति के असाधारण कारण दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं को | मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सदा अपने मन में भाते रहते थे। दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं के भाने से उनके अनन्त कल्याणों का करनेवाली एवं तीनों लोक को कम्पायमान कर डालनेवाली 'तीर्थंकर' प्रकृति का बन्ध हो गया ।।१८।। सर्वथा अतीचारों से रहित समस्त मूल-गुणों का पालन करनेवाले मुनिराज वैश्रवण के सम्यग्ज्ञानपूर्वक उत्तम तप तपने से अनेक प्रकार की ऋद्धियों का समूह प्रकट हो गया । दीर्घ काल तक तप करते-करते मुनिराज वैश्रवण को ज्ञान हो गया कि उनकी आयु बहुत ही कम रह गई है तथा इस प्रकार की उत्तम आयु का पाना दुर्लभ | है। अतः उन्होंने अन्तकाल में समाधि आदि की सिद्धि के लिए निर्मल परिणामों से सन्यास धारण कर लिया ||१६-२०|| ____उन मुनिराज ने समस्त पापों के नाश के लिए साक्षात् मोक्ष प्रदान करनेवाली सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा तप--इन चारों आराधनाओं की भक्तिपूर्वक बड़े उत्साह से भावना भाई ।।२१।। क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि समस्त परीषहों को उत्साह तथा बल से जीतने के कारण यद्यपि उन मुनिराज का शरीर नितान्त कृश हो गया था तथापि भूख-प्यास आदि के कारण उनके चित्त में रन्चमात्र भी क्लेश न था, परमात्मपद की प्राप्ति की अभिलाषा से सदा उनका चित्त प्रसन्न रहता था ।।२२।। मनिराज वैश्रवण के चित्त से आर्त तथा रौद्रध्यान सर्वथा नष्ट हो चुके थे, सदा धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान का ही चिन्तवन था; इसलिए चित्त को स्थिर कर वे सदा इन्हीं दोनों प्रशस्त ध्यानों का चिन्तवन करते रहते थे, निन्दित ध्यान की ओर स्वप्न में भी उनकी दृष्टि नहीं जाती थी ।।२३।। अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं का चिन्तवन करनेवाले वे मुनिराज मन की विशुद्धता के लिए सबसे पहिले अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधु--इन पाँचों परमेष्ठियों का ध्यान करते थे, तत्पश्चात् जीव-अजीव आदि तत्वों का ध्यान करते थे ।।२४।। पाँचों परमेष्ठी तथा तत्वों के चिन्तवन के बाद वे मुनिराज मन को सर्वथा | निश्चल कर चिदानन्द चैतन्य स्वरूप एवं अनन्त गुणों के स्थान अपनी आत्मा का भली प्रकार ध्यान करते थे ।।२५।। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत--पाँच इन्द्रियाँ; मनोबल, वचनबल, कायबल--तीन बल; एवं श्वासोच्छ्वास तथा आयु--ये कुल मिलाकर दश प्राण हैं । इस प्रकार ध्यान करनेवाले योगियों के इन्द्र सदृश मुनिराज वैश्रवण ने प्रसन्न 449404 ||३२ Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy