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________________ श्रीमल्लिनाथ का जन्म हुआ था, वह महल स्वयं अपनी प्रभा से जगमगा रहा था । राजमहल के आँगन में देवों के पहुँचते ही सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की इन्द्राणी ने शीघ्र ही उस मनोहर महल के अन्दर प्रवेश किया एवं वहाँ पर शिशु भगवान श्रीमल्लिनाथ के साथ अत्यन्त कोमल शैय्या पर शयन करती हुई माता प्रजावती को बड़े हर्ष के साथ निरखा ।।६६।। आनन्द से पुलकित हो इन्द्राणी ने तीन लोक के गुरु भगवान श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र की बारम्बार प्रदक्षिणा दी । तत्पश्चात् अत्यन्त भक्ति सहित नमस्कार किया । वह श्री जिनेन्द्र भगवान की माता के सामने विनयपूर्वक बैठ गई एवं मनोहर शब्दों में इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगी- श्री म ल ना थ पु रा ण हे माता ! तीनों लोकों के गुरु भगवान श्री मल्लिनाथ को तुमने जन्म दिया है; इसलिए तुम समस्त लोक की माता हो । तुम्हीं ने देवों के देव महादेव पुत्र को उत्पन्न किया है; इसलिए हे माता ! तुम्हीं संसार के अन्दर महादेवी हो ।।७०-७१।। माता ! तुम्हारे समान तीनों लोक के अन्दर अन्य कोई भाग्यवती स्त्री नहीं; इसलिए तुम्ही तीनों लोक की स्त्रियों की शिरोमणि हो । तुम्हीं समस्त जगत् में उत्कृष्ट हो । तुम्ही तीनों लोक की स्वामिनी हो एवं तुम्हीं कल्याणरूपिणी एवं मंगलमयी हो ।। ७२ ।। इस प्रकार महामनोहर शब्दों से स्तुति कर इन्द्राणी ने अपनी माया माता प्रजावती को सुख निद्रा में निद्रित कर दिया । ठीक भगवान के ही आकार-प्रकार के एक मायामयी पुत्र का निर्माण कर उसे माता की गोद में सुला दिया। तीन लोक के गुरु भगवान श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र को माता की शैय्या से अपने हाथों से उठा कर बड़े आश्चर्य से उनके महामनोहर रूप एवं सौंदर्य को देख कर मारे आनन्द के वह गद्गद् हो गई ।।७३-७४।। जहाँ पर सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र खड़ा हुआ था, श्री जिनेन्द्र भगवान को लेकर इन्द्राणी उसी ओर चली । समस्त जगत् के मंगल के कर्ता भगवान श्री मल्लिनाथ के आगे-आगे जिनके हाथों में छत्र, चमर आदि लगे हुए हैं, ऐसे मांगलिक द्रव्यों को धारण करनेवाली दिक्कुमारियाँ चलने लगीं ।। ७५ ।। पास में आकर इन्द्राणी ने सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र के शुभ हाथों में भगवान श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र को सौंप दिया । वह भी श्री जिनेन्द्र भगवान का अद्वितीय रूप देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ एवं आनन्द से गद्गद् होकर इस प्रकार भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगा- Jain Education International हे भगवन् ! हे बालचन्द्र ! हम लोगों को परमानन्द प्रदान करने के लिए संसार में आपका उदय हुआ है, क्योंकि For Private & Personal Use Only श्री म ल्लि ना थ पु रा ण ५२ www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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