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________________ 44 में चन्द्रमा के उदय से लोगों का हर्ष होता है। यह प्रत्यक्ष सिद्ध है तथा जिस प्रकार चन्द्रमा अन्धकार का नाश करनेवाला होता है, उसी प्रकार मोहरूपी गाढ़ अन्धकार के आप नियम से नाश करनेवाली भी होंगे ।।७६।। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने का स्थान उदयाचल है, उसी प्रकार हे नाथ ! केवलज्ञानरूपी सूर्य के उदय होने के लिए आप उदयाचल हो तथा हे भगवन् ! विद्वान लोग आपको ही मिथ्याज्ञान एवं निद्रारूपी अन्धकार का नाश करनेवाला मानते हैं।।७७-७८।। हे भगवन् ! संसार के समस्त प्राणी मोहरूपी अन्धकार से परिपूर्ण कूप में पड़े हुए हैं, उनको धर्मरूपी | हाथ का अवलम्बन देकर आप ही उद्धार करेंगे, दूसरे किसी व्यक्ति में सामर्थ्य नहीं, जो उद्धार कर सके । इसलिए || संसार में बिना प्रयोजन के यदि बन्धु हैं तो आप ही हैं, अन्य कोई आपके समान निष्प्रयोजन बन्धु नहीं हो सकता ||७६|| __इसलिए हे नाथ ! आप समस्त लोक को आनन्द प्रदान करनेवाले हैं, अतः आपके लिए नमस्कार है। आप संसार में सबको प्रसन्न करनेवाले बालचन्द्रमा हैं । इसलिए आपके लिए नमस्कार है। आप आश्चर्यकारी मूर्ति के धारक हो; इसलिए आपके लिए नमस्कार है। हे प्रभो ! मोक्षरूपी स्त्री के चित्त को हरण करनेवाले आप ही हो एवं आप ही सुख-स्वरूप हो; इसलिए आपको नमस्कार है । हे देव ! आप ही समस्त लोक के स्वामी हो एवं आप ही | पु समस्त प्रकार के कल्याणकों को प्राप्त करनेवाले हो; इसलिए आपके लिए भक्तिपूर्वक नमस्कार है ।।८०-८१।। इस प्रकार भक्तिपूर्वक मनोहर शब्दों में स्तुति कर इन्द्र ने भगवान श्री मल्लिनाथ को ऐरावत हाथी पर बैठे ही बैठे अपनी | गोद में ले लिया एवं उनका अभिषेक करने के लिए अनेक देवों से वेष्टित वह मेरु पर्वत की ओर चल दिया ।।२।। भगवान श्रीमल्लिनाथ को इन्द्र की गोद में विराजमान देख कर समस्त देव मारे आनन्द के पुलकित हो गए एवं मन के अन्दर अपार प्रमोद धारण कर वे "हे स्वामी ! आप चिरकाल तक जीवो, नादो, विरदो" इस प्रकार गम्भीर शब्दों में प्रचण्ड कोलाहल करने लगे ।।८३।। तीन जगत् के गुरु भगवान श्री मल्लिनाथ को सौधर्म इन्द्र की गोदी में | विराजमान देखकर ऐशान स्वर्ग के इन्द्र को बड़ा भारी सन्तोष हुआ । आनन्द से गद्गद् होकर बड़े आदर से उसने भगवान पर छत्र लगा दिया ।।४।। सनत्कुमार एवं माहेन्द्र स्वर्गों के इन्द्र भी धर्म के चक्रवर्ती भगवान श्रीमल्लिनाथ पर चमर ढोरने लगे, जो (चमर) क्षीर समुद्र की तरंगों के समान महामनोहर एवं श्वेत थे ।।८५।। भगवान के पाँचों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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