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यह लोक दुःख एवं सुख का स्थान है, अत्यन्त विषम है, अनादि है एवं ऊर्ध्वलोक - मध्यलोक -पाताललोक के भेद से तीन प्रकार का सदा रहनेवाला है । संसार में मनुष्य भव का पाना, समस्त इन्द्रियों का पूरा होना, उत्तम कुल का मिलना एवं सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्र स्वरूप 'बोधि' का होना महादुर्लभ है -- बड़ी कठिनता से इनकी प्राप्ति होती है । धर्म समस्त संसार के सुखों का स्थान है । १. उत्तम क्षमा २. उत्तम मार्दव ३.उत्तम आर्जव ४.उत्तम शौच ५.त्तम सत्य ६. उत्तम संयम ७. उत्तम तप ८. उत्तम त्याग ६. उत्तम आकिंचन्य एवं १०. उत्तम ब्रह्मचर्य, के भेद से दश प्रकार का है एवं संसार के अन्दर जितने भी दुःख हैं, उन सबका सर्वथा नाश करनेवाला है ।। १०७ ।। इस प्रकार १.अनित्य २.अशरणत्व ३.संसार ४. एकत्व ५. अन्यत्व ६ . अशुचित्व ७. आस्रव ८. सम्वर ६. निर्जरा १०. लोक ११. ल्लि बोधि दुर्लभ तथा १२. धर्म -- इन बारह भावनाओं का अपने निर्मल चित्त में विचार करने से उन कुमार भगवान श्रीमल्लिनाथ को संसार शरीर तथा विषय-सुख आदि से मोक्ष प्राप्ति का प्रधान कारण संवेग हो गया । उस समय से सिवाय आत्म-स्वरूप के कोई भी उन्हें अपना न सूझता था ।। १०८ ।।
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इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा कृत संस्कृत भाषा में श्री मल्लिनाथ चरित्र की पं. गजाधरलालजी न्यायतीर्थ पु विरचित हिन्दी वचनिका में भगवान श्री मल्लिनाथ की वैराग्य उत्पत्ति का वर्णन करनेवाला पाँचवाँ परिच्छेद समाप्त रा हुआ ।।५।।
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छटवाँ परिच्छेद
जिन भगवान श्रीमल्लिनाथ ने तपरूपी जाज्वल्यमान अग्नि के द्वारा विषयरूपी विस्तीर्ण वन को मयदुष्कर्म - रूपी वृक्षों की श्रेणी के बाल्य अवस्था में ही देखते-देखते भस्म कर डाला, उन बाल- ब्रह्मचारी श्रीजिनेन्द्र को मैं भक्ति-भाव
प्रणाम करता हूँ || १|| संसार तथा शरीर - भोगों से विरक्त होकर जिस समय भगवान श्रीमल्लिनाथ बारह भावनाओं का चिन्तवन कर रहे थे, उसी समय लौकान्तिक देव, जो कि अपने परम पवित्र भावों से देवों में 'ऋषि' कहे जाते हैं, महा चतुर होते हैं, स्वभाव से ही ब्रह्मचारी होते हैं, एक भवावतारी होते हैं--अर्थात् मनुष्य भव धारण करके ही मोक्ष चले जाते हैं; अतएव पूज्य होते हैं, चौदह पूर्वों के धारक होते हैं एवं सारस्वत, आदित्य, आदि आठ जिनके भेद हैं, वे शीघ्र ही भगवान के समीप आये तथा मस्तक झुका कर नमस्कार किया एवं भक्ति से गद्गद् होकर भगवान
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