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श्री जिनेन्द्र की इस रूप से स्तुति करने लगे-
श्री
म
‘हे देव ! आप तीन जगत् के स्वामी हो, संसाररूपी अगाध समुद्र में डूबते हुए प्राणियों की रक्षा करनेवाले आप ही हैं । हे तीर्थों के राजा ! इस लोक में इस समय धर्म- तीर्थ के प्रवर्तक आप ही हैं ।। २४ ।। हे प्रभो ! आप समस्त जगत् के अकारण बन्धु हैं, कृपानाथ हैं एवं आप ही स्वयं मुक्तिरूपी स्त्री के स्वामी होनेवाले हैं ।।५।। लोग ऐसा समझते हैं कि जिस समय भगवान तीर्थंकर को वैराग्य होता है, उस समय लौकान्तिक देव उन्हें आकर सम्बोधित करते हैं तथा उनके वैराग्य को दृढ़ करते हैं । परन्तु हे भगवान ! यह कहना कल्पनामात्र है; क्योंकि जिस प्रकार ल्लि अखण्ड दीप्ति का भण्डार सूर्य स्वयं प्रकाशमान है, उसे प्रकाशित करने के लिए दीपक की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसी प्रकार हे नाथ ! उत्तम ज्ञान के धारक आप इन सबों को सम्बोधित करनेवाले हैं-- हमें समीचीन मार्ग के सुझानेवाले हैं, हमारे द्वारा कभी भी आप सम्बोधित नहीं किए जा सकते; अर्थात् हमें आपको सम्बोधन करनेवाला कहना, सूर्य को दीपक दिखाना है ।। ६ ।। हे भगवान ! आप स्वयं उत्पन्न होनेवाले है; इसलिए स्वयम्भू हैं । आपको सम्बोधन करनेवाला कोई अन्य नहीं - - स्वयं को सम्बोधन करनेवाले आप ही हैं; इसलिए आप स्वयंबुद्ध हैं; समस्त लोक- अलोक को जानने के कारण आप सर्वज्ञ हैं; ज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं । हे देव ! आपने जो विचार किया है, वह अपना-पराया हित करनेवाला है, इसलिए वह सर्वथा उपर्युक्त है; क्योंकि हे दयासागर भगवान ! बाल्यावस्था में ही आपने वैराग्यरूपी तीक्ष्ण खड्ग के द्वारा अत्यन्त भयंकर कामदेव आदि के साथ मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर महा कठिन सम्यक्चारित्र को धारण करने का साहस किया है ।। ७-८ ।। अनेक प्रकार के भोगों को भोग कर जो पुरुष तृप्त होने पर भी उनसे विरक्त नहीं होते, यह आश्चर्य है, अर्थात् तृप्ति हो जाने पर भोगों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए; किंतु जो ऐसा नहीं करते, वे बड़े आश्चर्य का काम करते हैं । परन्तु मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वथा उद्यत आपने भोगों को बिना भोगे ही उनका सर्वथा त्याग कर दिया, यह सबसे बढ़कर आश्चर्य की बात है । इसलिए हे नाथ ! इस संसार में सबसे अधिक धन्यवाद के पात्र आप ही हैं। हे भगवान ! बाल्यावस्था ही में आप राग को जीतनेवाले हैं; अर्थात् किसी भी पदार्थ में आपका राग नहीं । सबसे अधिक राग का कारण स्त्री है, सो उसका बन्धन भी आपने नष्ट कर दिया--विवाह से ही विरक्त हो गए; इसलिए मुख में पहुँचते हुए ग्रास के त्याग के कारण अर्थात् राग के
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