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स्थान
तीव्र बन्धन विवाह से सर्वथा मुंह मोड़ने तथा सम्यक्चारित्र में प्रवृत्त होने के कारण आप एक अद्वितीय व्यक्ति हैं; आपके समान कोई भी नर-रत्न संसार के अन्दर नहीं है ।।६-१०।। हे प्रभो ! आपके अन्दर महाज्ञान 'केवलज्ञान' का उदय होगा । उस केवलज्ञानरूपी जहाज का आश्रय लेकर अर्थात् उस केवलज्ञान की कृपा से यथार्थ उपदेश पाकर ये विद्वान भव्य प्राणी संसार-रूपी बड़े गहरे समुद्र को तैर जावेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।११।। गहरे जल से भरा हुआ गंगा आदि का तीर्थ जिस प्रकार मैल का काटनेवाला माना जाता है, उसी प्रकार आपके वचनरूपी अमृत से परिपूर्ण विशाल धर्मरूपी तीर्थ को पाकर भव्य जीवों के दुष्कर्मरूपी मैल का समूह नियम से धुल जाएगा ।।१२।। हे देव ! आपके ज्ञानरूपी ज्योत्स्ना की ही कृपा से मोह रूपादि विपुल अन्धकार को नष्ट कर ये भव्य जीव इस संसार में मोक्ष के मार्ग को भली प्रकार देखेंगे ।।१३।। जिस प्रकार रत्नों के व्यापारी सेठ जहाज की सहायता से अपने अभीष्ट
ते हैं, उसी प्रकार जो योगी रत्नत्रयरूपी विशिष्ट धन के स्वामी हैं, वे जहाज के समान आपकी सहायता पाकर मोक्ष को प्राप्त होंगे ।।१४।। हे भगवन् ! आपके द्वारा समीचीन धर्म का उपदेश सुन कर उत्तम धर्म का उपार्जन कर कोई-कोई भव्य 'सर्वार्थसिद्धि' प्राप्त करेंगे। बहुत-से स्वर्ग जायेंगे एवं बहुत-से आपके समान मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त करेंगे; अर्थात् आपके समान तीर्थंकर होकर अनन्त विभूति प्राप्त करेंगे ।।१५।। कोई-कोई दिव्य ग्रैवेयक में जन्म धारण करेंगे, कोई-कोई अत्यन्त पुण्यशाली चक्रवर्ती को होनेवाले वैभव को प्राप्त करेंगे एवं कोई-कोई महानुभाव नियम से मोक्ष प्राप्त करेंगे; किन्तु बिना उपदेश के ‘सर्वार्थसिद्धि' आदि विशिष्ट अभ्युदय के कारण स्थानों की प्राप्ति नहीं हो सकती ।।१६।। इसलिए हे देव ! हमारी यह विनम्र प्रार्थना है कि आप अल्प-काल भी विलम्ब नहीं कर शीघ्र ही संयम धारण करें, जिससे अपना-पराया अलौकिक हित हो; क्योंकि जब तक आप संयम नहीं धारण करेंगे, तब तक न तो आप अपना ही हित कर सकते हैं एवं न किसी दूसरे का ही ।।१७।।" इस प्रकार तीर्थंकर के दीक्षा-कल्याणक की प्रशंसा करनेवाले लौकान्तिक देवों ने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान श्रीमल्लिनाथ की स्तुति कर, 'आपको जो कुछ विभूति प्राप्त है, वह विभूति हमें भी प्राप्त हो' ऐसी प्रार्थना कर बारम्बार नमस्कार कर एवं मनोहर दिव्य वाक्यों से प्रशंसा कर अपना नियोग समाप्त किया तथा इन शुभ चेष्टाओं के द्वारा बहुत प्रकार से पुण्य उपार्जन कर वे अपने निवासस्थान ब्रह्म लोक को सानंद चले गये ।।१८-१६।।
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