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________________ विशाख ने भी समस्त भव्य जीवों का उपकार हो, मोक्ष - मार्ग की प्राप्ति हो एवं अहिंसारूपी धर्म - तीर्थ की प्रवृत्ति हो, इस अभिलाषा से अपनी निरूपम प्रखर बुद्धि से श्रीजिनेन्द्र के मुख 'तत्व-स्वरूप प्राप्त कर उसे करोड़ों नयों की भंगियों के साथ द्वादशांग महासमुद्र रूप रच दिया ।। ६५-६६ ।। भगवान की दिव्य - ध्वनि का खिरना जिस समय समाप्त हुआ एवं मनुष्यों का कोलाहल शान्त हो गया, उस समय धर्म - तीर्थों में श्रीजिनेन्द्र भगवान का विहार हो, इस पवित्र अभिलाषा को हृदय में धारण कर समस्त प्राणियों के हित के इच्छुक सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने बड़े आनन्द से श्री जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणकमलों में प्रणाम किया एवं धर्मोपदेश से जायमान जो गुण हैं, उन्हें लक्ष्य कर वह श्रीजिनेन्द्र भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगा -- थ हे भगवन् ! आपकी वचनरूपी किरणों से मोह एवं अज्ञानरूपी अन्धकार आज सर्वथा नष्ट हो रहा है, जिससे भव्य जीवों को वास्तविक मार्ग का ज्ञान हो रहा है। इसलिए तीनों लोक के भरण-पोषण करनेवाले आप ही हैं एवं आप ही समस्त भव्य जीवों के बन्ध - स्वरूप हैं ।। ६७-६६ ।। गम्भीर समुद्र के अन्दर पड़नेवाले जीव जिस प्रकार जहाज के सहारे अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच जाते हैं, उसी प्रकार हे स्वामी ! यह संसाररूपी समुद्र दुस्तर है--जल्दी तिरा पु नहीं जा सकता, इसमें गोता मारते हुए प्राणियों को धर्मोपदेशरूपी जहाज की सहायता से आप ही तार सकते हो एवं पु उन प्राणियों की अभिलाषा मोक्षरूपी पत्तन को प्राप्त करने की है, सो उस पत्तन में आप ही उन्हें पहुँचा सकते हो, अन्य किसी की इस समय वैसी सामर्थ्य नहीं ।। १०० । संसार में तारागण, कन्दमूल के अन्दर रहनेवाले जीव, समुद्र की लहरें, आकाश के प्रदेश एवं एकेन्द्रिय आदि जीवों की गणना नहीं की जा सकती -- कितना भी कोई प्रयत्न क्यों न करें, उन्हें गिन नहीं सकता । उसी प्रकार हे भगवन् ! आपके गुण समुद्र हैं; इसलिए आपके अगणित गुणों को भी गिना नहीं जा सकता अर्थात् आप अनन्त गुणों के पिण्ड स्वरूप हैं ।। १०१ । इसलिए हे नाथ ! आपके गुण अनन्त हैं एवं हमारे सरीखे हीन-शक्ति के पुरुष उन्हें वर्णन करने की सामर्थ्य नहीं रखते; अतः आपके गुणों का वर्णन करने के लिए हम किसी प्रकार का परिश्रम नहीं उठाना चाहते ।। १०२ ।। हे तीनों लोक के स्वामी भगवन् ! जिस प्रकार सूर्य के उग्र ताप से मुरझाये हुए धान्यों के पौधों को जल की फुहार से सींचा जाता है; उस समय वे उत्तम फलों को प्रदान करते हैं, उसी प्रकार ये भव्यरूपी धान्य पाप के आताप आदि से मुरझाए हुए हैं-- पाप की तीव्रता से इनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only श्री म लि 9464 ण श्री म ल्लि ना 5 2 55 थ रा ण ९६ www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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