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________________ FbFF ॥ है, तब-तब क्षीर समुद्र के विपुल जल से ही हुआ है; इसलिए उस पांडुकशिला पर जिन-जिन महापुरुष तीर्थंकरों का अभिषेक हुआ है, उनके अभिषेकों के साथ उस शिला का भी अनेक बार अभिषेक हो चुका है; अतएव पवित्रता से वह सिद्ध शिला के समान महापवित्र एवं उत्तम है। वह निर्मल शिला सौ योजन लम्बी है, आठ योजन प्रमाण ऊँची है एवं पचास योजन प्रमाण उसकी चौड़ाई है । सदा उसके ऊपर छत्र, चन्दोवे आदि मांगलिक द्रव्य तैयार रहते हैं; इसलिए उनकी प्रभा से सदा जगमगाती हुई वह अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती है।।६।। उस महामनोहर शिला के || मध्यभाग में एक महामनोज्ञ सिंहासन है, जो अगणित उत्तमोत्तम रत्नों से व्याप्त है एवं सुवर्णमय है। भगवान श्री || जिनेन्द्र को उस पर ले जाकर विराजमान कर दिया गया । उस समय भगवान के दिव्य शरीर की प्रभा से समस्त दिशाएँ शोभायमान थी एवं इन्द्र आदि देवों से चारों ओर से वेष्टित वे भगवान श्री मल्लिनाथ उस समय महामनोहर जान पड़ते थे; इसलिए ऐसे तीनों लोक के जीवों को तारनेवाले भगवान को मैं उनकी गुण-सम्पदा की प्राप्ति की अभिलाषा से भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ एवं उनका गुणानुवाद करता हूँ।।६३।।। इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा कृत संस्कृत भाषा में श्री मल्लिनाथ चरित्र की पं. गजाधरलालजी न्यायतीर्थ विरचित हिन्दी वचनिका में उनके गर्भ और जन्म इन दो कल्याणकों का वर्णन करनेवाला चौथा परिच्छेद समाप्त हुआ ||४|| पंचम परिच्छेद जो भगवान तीनों लोकों के जीवों को आनन्द प्रदान करनेवाले हैं तथा जो सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य स्वरूप भी हैं एवं महामोहरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाले चन्द्रमा स्वरूप भी हैं; अर्थात् जो चन्द्रमा है, वह सूर्य नहीं हो सकता एवं जो सूर्य है, वह चन्द्रमा नहीं हो सकता क्योंकि दोनों का स्वरूप परस्पर विरोधी एवं भिन्न है; इसलिए एक ही श्री जिनेन्द्र भगवान सर्य एवं चन्द्रमा दोनों स्वरूप में नहीं हो सकते, परन्तु ऐसा होने पर भी सर्य के समान अपने ज्ञान से पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले होने के कारण जो सूर्य स्वरूप भी हैं एवं चन्द्रमा जिस प्रकार अन्धकार का नाशक है. उसी प्रकार जो महामोहरूपी अन्धकार को नाश करनेवाले हैं, इसलिए चन्द्रमा स्वरूप भी हैं. ऐसी अदभत गति के धारक भगवान श्री जिनेन्द्र को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।। १।। जिस पांडुक शिला का वर्णन ऊपर किया 9449 ॐ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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