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प्रश्न--संसार में उत्तम कार्य क्या माना जाता है ? उत्तर--जिसके करने से सर्वत्र यश विस्तरे, धर्म का लाभ हो तथा समस्त प्रकार के सुखों की प्राप्ति हो । प्रश्न--संसार में अकार्य या निन्दित कार्य क्या है ? उत्तर--जिससे पाप की उत्पत्ति हो । सर्वत्र निन्दा फैले एवं अनेक प्रकार के दुःखों की प्राप्ति हो ।।५।भगवान श्रीमल्लिनाथ की माता प्रजावती के प्रति देवियों ने ऊपर कहे गए प्रश्नों आदि को लेकर अन्य भी अनेक अत्यन्त कठिन-कठिन प्रश्न किए, जिनका कि उत्तर देना साधारण कार्य नहीं था तथापि उस माता के गर्भ में तीन ज्ञानरूपी नेत्रों के धारक स्वयं तीर्थंकर विराजमान थे; इसलिए देवियों के प्रश्नों का उत्तर उनके प्रभाव से माता ने बड़ी युक्ति एवं गम्भीरता के साथ स्पष्ट रूप से दिया था। गर्भ में विराजमान श्री तीर्थंकर भगवानके माहात्म्य से ऐसा कोई भी देवियों का प्रश्न नहीं बचा था, जिसका उत्तर माता से नहीं बन पड़ा हो ।।५२-५३।। यद्यपि वे तीन लोक के नाथ भगवान श्री मल्लिनाथ गर्भ के अन्दर विराजमान थे, गर्भ से बाहिर उनका कोई भी शरीर का अवयव प्रकट नहीं था तथापि जिस प्रकार रत्नों की प्रभा से दैदीप्यमान खानों की धारक पृथ्वी अत्यन्त शोभायमान जान पड़ती है, उसी प्रकार उस माता के शरीर में भी अलौकिक शोभा की छटा प्रगट होने लगी थी।।५४।। यद्यपि तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ अपनी माता प्रजावती के उदर में विराजमान थे तथापि जिस प्रकार सीप के मध्य भाग में मोती रहता है--पर वह रन्चमात्र भी सीप को क्लेश का देनेवाला नहीं होता, उसी प्रकार माता प्रजावती को भी उनके गर्भ में रहने पर किसी प्रकार का || क्लेश नहीं था, अर्थात् गर्भ के भार से जैसा अन्य स्त्रियों को क्लेश उठाना पड़ता है, वैसा भगवान श्रीमल्लिनाथ को गर्भ में धारण करने से माता प्रजावती को रन्चमात्र भी क्लेश नहीं था।।५५।। गर्भ से पहिले माता प्रजावती का उदर त्रिवली से शोभायमान था । भगवान श्रीमल्लिनाथ के गर्भ में आने पर त्रिवली नष्ट होकर उदर को बढ़ना चाहिए था; परन्तु उन श्रीजिनेन्द्र के अनुपम प्रभाव से वह त्रिवली जैसी थी, वैसी की वैसी ही विद्यमान रही, रन्चमात्र भी उदर के अन्दर किसी प्रकार का विकार नहीं हुआ । परन्तु ऐसा होने पर भी गर्भ--गर्भ के अन्दर बालक भगवान ||५० का शरीर निरन्तर बढ़ ही रहा था अर्थात् उदर के नहीं बढ़ने से गर्भ नहीं बढ़ता था, यह बात नहीं थी।।६।।
जब ठीक नवमा मास पूर्ण हो गया, उस समय अगहन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन जब कि अश्विनी नाम का शुभ नक्षत्र था, लग्न भी अत्यन्त सुन्दर था, योग भी शुभ था, माता प्रजावती ने मति-श्रुति
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