________________
42FFFF
चित्त एकाग्र कर ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए ।
जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर निर्जरा एवं मोक्ष--ये सात तत्व हैं । इन जीव-अजीव आदि तत्वों के भेद, उनका विस्तार, कौन तत्व हेय है एवं कौन उपादेय है यह बात; जीव-अजीव आदि का लक्षण एवं द्रव्य पर्यायों के भेद, इन सब बातों को उन्होंने कहा ।।२०-२३।। तथा बोले कि यह संसाररूपी समुद्र अपार है, इस अपार संसाररूपी समुद्र से उठा कर जो जीवों को मोक्ष में ले जाकर रक्खे, उसे 'धर्म' कहा जाता है एवं वह अनन्त सुखों का समुद्र स्वरूप है ।।२४।। यह दयामय धर्म, 'सकल' एवं 'विकल' के भेद से दो प्रकार का है--सकल-धर्म को धारण करनेवाले मुनि होते हैं एवं विकल-धर्म को धारण करनेवाले श्रावक होते हैं एवं वह स्वर्ग तथा मोक्ष के सुखों को प्रदान करनेवाला || है ।।२५।। गृहस्थों को ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन करते हुए श्रीजिनेन्द्र कहने लगे--धर्म का मूल कारण समस्त दोषों से रहित सम्यग्दर्शन है एवं वह मोक्ष की परम प्यारी वस्तु है । जो महानुभाव धर्म को धारण कर मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं, वे चाहे गृहस्थ या मुनि कोई हों, उन्हें सबसे पहिले सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए। मद्य, माँस, मधु एवं पाँच उदम्बर (अर्थात् ऊमर, कठूमर, कटहर, पीपर एवं पाकर)--इन आठों का त्याग गृहस्थों के आठ मूलगुण हैं । जो महानुभाव अणुव्रत एवं महाव्रतों को धारण करने के अभिलाषी हैं, उन्हें पहिले इन आठ मूलगुणों को धारण करना चाहिए।
खेलना २.शराब पीना ३.माँस खाना ४.वेश्या गमन करना ५.पर नारी-सेवन करना ६.चोरी करना एवं ७.शिकार खेलना-- ये सात व्यसन माने गए हैं । इन सातों प्रकार के व्यसनों का सर्वथा त्याग कर जो पुरुष आठ मूलगुणों को धारण करता है, वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध कहा जाता है एवं जो महानुभाव इस प्रकार सात व्यसनों का त्याग कर आठ मूलगुणों को धारण करता है, वह 'दर्शन' नामक पहिली प्रतिमा का धारक माना जाता है ।।२६-२८।। १.हिंसा २.चोरी ३.झूठ ४.कुशील एवं ५.परिग्रह-- स्थूल रूप से इन पाँचों पापों का त्याग करना पाँच प्रकार का अणुव्रत है । दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत तथा भोगोपभोग परिमाणव्रत--इस प्रकार ये तीन गुणव्रत हैं एवं ८७ १.देशावकाशिक २.सामायिक ३.प्रोषधोपवास तथा ४.अतिथिसंविभागवत--ये चार शिक्षाव्रत हैं; इस प्रकार ये बारह व्रत श्रावकों के हैं ।।२६।। मन से करना-कराना तथा करने की अनुमोदना करना, वचन से करना-कराना तथा अनुमोदना करना एवं शरीर से करना-कराना तथा अनुमोदना करना, इस प्रकार मन-वचन-काय तथा कृत-कारित
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org