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________________ म शोभायमान भगवान श्री जिनेन्द्र के मन्दिरों की पंक्तियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो वे साक्षात् धर्म की समुद्र हैं--कोई || भी आकर उनमें धर्मलाभ कर सकता है; इसलिए जिन-मन्दिरों की पंक्तियाँ से वह मिथिलापुरी उस समय अत्यन्त शोभायमान थी। मिथिलापुरी के जिन-मन्दिरों में सुवर्णमय एवं रत्नमय जिनबिम्ब विराजमान थे। उनमें सदा गीत, नृत्य एवं स्तवन आदि हुआ करते थे। छत्र, चमर आदि दिव्य उपकरण भी जगह-जगह मन्दिरों की शोभा बढ़ाते थे। नौबत (बाजे) फिरा करती थी एवं धर्मात्मा लोगों का सदा आवागमन बना रहता था; इसलिए वे मन्दिर बड़े श्रा रमणीक जान पड़ते थे ।।७०-७१।।. ____ उस समय मिथिलापुरी में उत्तम पात्रों को दान देने से तीव्र पुण्य का बन्ध होता था; इसलिए उसके फलस्वरूप || रत्न, पुष्प एवं गन्धोदक आदि की वर्षा होती रहती थी तथा अन्य भी नाना प्रकार के मांगलिक कार्य हुआ करते थे; इसलिए वह मिथिलापुरी अनेक महोत्सवों से सदा जगमगाती रहती थी ।।७२।। उस मिथिलापुरी के रहनेवाले पुरुष | श्री जिनेन्द्र भगवान एवं जैन मुनियों के परम भक्त थे; अनेक प्रकार एवं ज्ञान-विज्ञान के कला-कौशलों में प्रवीण थे। ||थ सदा आहार आदि दानों के देने से वे परम दानी थे, धर्मात्मा एवं शीलवान थे। उत्तमोत्तम व्रतों के आचरण करनेवाले थे। जो मार्ग पुण्य प्राप्ति करानेवाला था, उसी के अनुयायी थे, पापवर्धक मार्ग का कभी अनुगमन नहीं करते थे; || पु परम सम्यग्दृष्टि थे, जैन-धर्म के परम श्रद्धानी थे; अत्यन्त विनयी एवं सदा शुद्धचित्त के धारक थे, धर्मानुकूल भोगों | को भोगनेवाले थे, धर्म को ही सब कुछ माननेवाले थे, शूरवीर थे एवं अच्छे-बुरे विचारों की मीमांसा करने में अत्यन्त प्रवीण थे। जिस प्रकार पुरुषों के अन्दर गुण थे, उसी प्रकार स्त्रियों के अन्दर भी गुण थे, अर्थात् वे भी पुरुषों के ही समान श्री भगवान जिनेन्द्र एवं निग्रंथ गुरुओं की भक्त थीं एवं अनेक प्रकार के कला-कौशलों में सिद्धहस्त थीं। इस प्रकार पहिले जन्म में कमाए गए पुण्य के उदय से महान् कुलों में उत्पन्न वे स्त्री-पुरुष उस मिथिलापुरी के ऊँचे-ऊँचे महलों में बड़े आनन्द से निवास करते थे ।।७३-७५।। इस प्रकार उत्तम वर्णनों से सुप्रसिद्ध उस मिथिलापुरी का राजा कुम्भ था, जो कि अनेक राजाओं का शिरोमणि था, पृथ्वी पर प्रसिद्ध था एवं अत्यन्त पुण्यवान था ।।७६।। वह राजा कुम्भ मति, श्रुति, अवधि--इन तीनों ज्ञानों का धारक था। हितकारी एवं परिमित वचनों के बोलने के कारण वाग्मी था। इक्ष्वाकु वंशरूपी आकाश के लिए दैदीप्यमान Jain Education international For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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