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________________ सूर्य था । सदा न्याय-मार्ग का अनुसरण करनेवाला था एवं काश्यप गोत्र का तिलक स्वरूप था ।।७७।। समस्त लोक के आभूषण, दिव्य एवं मनोहर वस्त्र, माला, तेजस्विता एवं मनोहरता से उसका शरीर शोभायमान था । वह अत्यन्त धर्मात्मा था, उत्तम आचरण का पालनेवाला एवं पदार्थों के स्वरूप का भली प्रकार जानकार था ।।७८।। उत्तमोत्तम पात्रों को आहार आदि दान देने के कारण दाता था। धर्मानकल भोगों का भोगनेवाला होने के कारण भोक्ता था । राज-कार्य में अत्यन्त प्रवीण था । अहिंसादि पाँच अणुव्रत एवं तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत--इस प्रकार सात प्रकार का शीलव्रत एवं अन्यान्य व्रतों का भी ठीक प्रकार आचरण करनेवाला था। श्री भगवान जिनेन्द्र का परम भक्त था, विवेकी एवं सम्यग्दृष्टि था। समस्त लोक का प्यारा था एवं महान था ।।७६। वह महानुभाव कुम्भ नाम का राजा चक्रवर्ती के समान था, क्योंकि चक्रवर्ती जिस तरह समस्त प्रकार की ऋद्धियों से विभूषित रहता है, उसी प्रकार यह राजा भी अनेक प्रकारकी ऋद्धि-विभूतियों से विभूषित था । चक्रवर्ती का जिस प्रकार सब लोग आदर-सत्कार करते हैं, उसी प्रकार राजा कुम्भ का भी सब लोग आदर-सत्कार करते थे एवं उन्हें मानते थे । चक्रवर्ती जिस प्रकार नीति-मार्ग से प्रजा की रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा कुम्भ भी नीति-मार्ग से प्रजा का पालन करता था । साथ ही वह राजा चक्रवर्ती के समान अत्यन्त पुण्यवान था एवं महान् जैन-धर्म का संसार में सर्वत्र प्रवर्तन करनेवाला था ॥८॥ ____ महानुभाव, राजा कुम्भ की प्राणों से भी अतिशय प्यारी प्रजावती नाम की पटरानी थी, जो कि समस्त शुभ-लक्षणों के कारण शरीर से शुभ थी एवं दैदीप्यमान प्रभा के धारक अनेक प्रकार के आभूषणों से भूषित थी । महादेवी प्रजावती के दशों नखरूपी चन्द्रमा की किरणों से शोभित एवं दिव्य दोनों चरण-कमल थे। केला के खम्भों के समान अत्यन्त मनोहर दोनों जंघाएँ थीं ।।८१-८२।। महामनोहर करधनी एवं सारभूत किरणों से उसका कटिभाग अत्यन्त जाज्वल्यमान था। उसका उदर अत्यन्त संकीर्ण होने से वह कशोदरी थी। उसकी नाभि भीतर में चक्करदार एवं गोल थी एवं दोनों उरोज अत्यन्त मनोहर थे ।।८।। उसका उदर व वृक्षःस्थल महामूल्यवान हीरों से युक्त होने के कारण जगमगाता था एवं उसके अत्यन्त कोमल महा-मनोहर दोनों हाथ मुद्रिका एवं कड़ों से अत्यन्त शोभायमान जान पड़ते थे ।।१४।। संसार के समस्त उत्तमोत्तम आभूषणों की कान्ति से उसका सारा अंग अत्यन्त दैदीप्यमान था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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