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सप्तम परिच्छेद भव्यों की सभा (समवशरण) के अन्दर विराजमान, समीचीन-धर्म के उपदेश देने के लिए उद्यत, बाह्य अन्तरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी के स्वामी, त्रिभुवन के गुरु एवं अगणित गुणों के समुद्र देवाधिदेव श्रीमल्लिनाथ भगवान को मैं (ग्रन्थकार) मस्तक झुका कर भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ।।१।। इन्द्रगण जिस समय नमस्कार कर उठे, उस
समय उन्होंने देवों के साथ पवित्र स्वच्छ जल, दिव्य चन्दन, मुक्ताफलों के अक्षत, कल्पवृक्षों के पुष्पों की मालायें, अमृत || म के पिंडस्वरूप नैवेद्य, स्वर्गलोक में प्रयुक्त रत्नमयी दीपक, धूम, उत्तम फल, पुष्पों की अन्जली गीत एवं नृत्य रूप - उत्कृष्ट दिव्य सामग्री से श्रीजिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों की भक्तिभाव से सानन्द पूजा की ।।१-४।। सौधर्म स्वर्ग
के इन्द्र की इन्द्राणी ने श्रीजिनेन्द्र भगवान के सामने नाना प्रकार के वर्णवाले अत्यन्त शोभा से अलंकृत रत्नमयीचूर्णों ना|| से दैदीप्यमान बलि (माढना) माड़ा ।।५।। जिस समय यह कार्य समाप्त हो चुका, उस समय भक्ति के भार से वशीभूत थ|| एवं प्रसन्न चित्त देवेन्द्रों ने श्री जिनेन्द्र भगवान के असाधारण गुणों की इस प्रकार स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी--
"तीव्र पुण्य के उदय से आपके चरणकमलों का आज हमें दर्शन हुआ है; इसलिए आज हम धन्य हैं एवं हमारा | जीवन सफल है ।।५-६।। हे देव ! आप तीन जगत् के नाथ हो । गुरुओं के महागुरु हो । तीन जगत् के स्वामियों
के अर्थात् देवेन्द्र, नरेन्द्र एवं नागेन्द्रों के आप स्वामी हो एवं जिन योगियों को बड़े-बड़े पदवीधारी भी पूजते हैं, वे | पूज्य योगी भी आपकी सेवा करते हैं । हे भगवान ! ज्ञानियों में आप सर्वज्ञ हैं, प्रचण्ड तप तपनेवाले तपस्वियों में | महा तपस्वी हैं, योगियों के अन्दर महायोगी एवं कर्मों के जीतनेवाले 'जिनो' में आप श्रेष्ठ 'जिन' हैं ।।७-६।। हे भगवान ! आपका चित्त संसार के दुःखों से समस्त जगत का उद्धार करने का है, आपकी संसार के किसी भी पदार्थ में इच्छा नहीं; इसलिए आप निरीह हैं, समस्त जगत का हित करनेवाले हैं, बहिरंग एवं अन्तरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी से शोभायमान हैं एवं संसार में समस्त निर्ग्रन्थों के आप राजा हैं ।।१०।। हे भगवान ! यह बड़े अचरज की बात है कि इन्द्राणी तुल्य आपके चरणकमलों की सेवा करती हैं, तब भी आप ब्रह्मचारी हैं; यद्यपि आप समस्त संसार के पदार्थों के ज्ञाता हैं; तथापि इन्द्रियों के ज्ञान से आप दूर हैं अर्थात् इन्द्रियजन्य ज्ञान आपके अन्दर नहीं है ।।११।। हे भगवान ! जिस प्रकार सूर्य के द्वारा अन्धकार का नाश होता है, उसी प्रकार आपके दर्शनरूपी किरणों से हमारा
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का बात ||८५
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