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________________ अरति ८.शोक ६.भय १०.जुगुप्सा ११.क्रोध १२.मान १३.माया एवं १४.लोभ--इस प्रकार यह चौदह प्रकार का || अन्तरंग परिग्रह-- कुल योग चौबीस प्रकार के बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रहों का मन-वचन एवं काय की विशुद्धता से सर्वथा त्याग कर दिया । वे श्रीमल्लिनाथ भगवान उसी समय पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठ गए । आठों कर्मों के सम्बन्ध से रहित भगवान ने सिद्ध-परमेष्ठी को नमस्कार किया एवं पल्यंक आसन (पलोती मारकर पाँच मुष्टियों से शीघ्र ही केशलुंच कर फेंक दिए ।।४६-४८।। उन श्रीमल्लिनाथ भगवान ने अत्यन्त शुभ अगहन सुदी एकादशी | म|| के दिन जब कि अत्यन्त कल्याणकारी अश्विनी नाम का नक्षत्र था “ॐ नमः सिद्धेभ्यः, सिद्ध भगवान को नमस्कार हो"--ऐसा उच्चारण किया एवं सिद्धों की साक्षीपूर्वक मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति की अभिलाषा से उन्होंने अट्ठाईस प्रकार के मूलगुणों को धारण किया एवं सायंकाल के समय वीतरागी मोक्षाभिलाषी एवं महादक्ष तीनसौ राजाओं के साथ शीघ्र ही मोक्षरूपी लक्ष्मी की सखीस्वरूप दिगम्बर जैन दीक्षा धारण कर ली । उन श्री जिनेन्द्र भगवान ने दो उपवासों का नियम लिया। मन-वचन-काय की क्रियारूप योग तथा संकल्पों का निरोध किया । वास्तविक आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए समस्त सावद्य योगों का परिहार कर दिया एवं परमात्मा के स्वरूप में उन्होंने ध्यान लगाया ।।५०-५३।। तीर्थंकर ने जो केश उखाड़ कर फेंक दिए थे, इन्द्र ने उन्हे बड़ी भक्ति एवं आदर से रत्नमयी पिटारी में रखा, अतिशय उत्तम वस्त्र से ढंक लिया एवं बड़े ठाट-बाट के साथ क्षीरोदधि समुद्र के जल में जाकर क्षेपण कर दिया ।।५४।। जिनके मुख-मस्तक नम्रीभूत हैं एवं भगवान के गुणों पर जिनका पूरा-पूरा अनुराग है; ऐसे वे इन्द्र उस समय के अनुकूल उत्तमोत्तम वाक्यों से तीर्थंकर की इस प्रकार भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे-- 'हे देव ! आप तीनों लोक के स्वामी हो । जो योगी लोग बड़े-बड़े लोगों के भी गुरु हैं; उन पूज्य योगियों के भी आप गुरु हैं। समीचीन-धर्म के स्वरूप के सब प्रकार जानकार हैं । जिनके पूजन करने से सैकड़ों भव्य जीव तर जाते हैं--संसार से छूट कर मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति कर लेते हैं, उन पवित्र तीर्थों के आप प्रवर्तक हैं एवं समस्त ||७४ जीवों पर कृपा करनेवाले कृपानाथ आप हैं ।।५५।। हे भगवान ! अन्तरंग एवं बाह्य मैल के दूर हो जाने पर जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न चमचमा उठते हैं, उसी प्रकार अन्तरंग एवं बाह्य मल के नाश हो जाने से आज आपके निर्मल एवं अपरिमित गुण चमचमा रहे हैं ।।१६।। प्रभो ! यद्यपि आप स्वर्गों के सुखों में सर्वथा अभिलाषा रहित हैं; परंतु 44444 Jain Education increational For Private & Personal Use Only ___wiww.jainelibrary.org
SR No.002720
Book TitleMallinatha Purana
Original Sutra AuthorSakalkirti Acharya
AuthorGajadharlal Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size8 MB
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