Book Title: Jine ki Kala
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __द आर्ट ऑफ लिविंग जीने की कला सुरवी, सफल एवं मधुर जीवन जीने का बेहतरीन मार्गदर्शन श्री ललितप्रभ For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द आर्ट ऑफ लिविंग जीने की कला सुरवी, सफल एवं मधुर जीवन जीने का बेहतरीन मार्गदर्शन श्री ललितप्रभ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीने की कला श्री ललितप्रभ प्रकाशन वर्ष : फरवरी, 2012 प्रकाशक : श्री जितयशा फाउंडेशन बी-7, अनुकम्पा द्वितीय, एम. आई. रोड, जयपुर (राज.) ___ आशीष : गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी म. मुद्रक : हिन्दुस्तान प्रेस, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश से पूर्व जो लोग महान जीवन के मालिक बनना चाहते हैं उनके लिए यह किताब गुरु की भूमिका अदा करेगी। जीवन का सफ़र बहुत रोमांचक और विविधतापूर्ण है। हर व्यक्ति जीना चाहता है, लेकिन इसे कैसे जिया जाए कि इसका सौंदर्य परिपूर्ण और शांतिदायक बना रहे, इसका उसे प्रायः कम ही भान होता है। सफल और सार्थक जीवन के लिए हमारी दैनंदिनी में किन बातों का समावेश हो । इसके लिए पूज्य गुरुवर महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागर जी ने सारगर्भित प्रभावी प्रवचन दिए हैं। उन्हीं में से कुछ विशिष्ट प्रवचनों का समावेश प्रस्तुत पुस्तक 'जीने की कला' में किया गया है। महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागर महाराज आज देश के नामचीन विचारक संतों में हैं । प्रभावी व्यक्तित्व, बूंद-बूंद अमृतघुली आवाज, सरल, विनम्र और विश्वास भरे व्यवहार के मालिक पूज्य गुरुदेव श्री ललितप्रभ जी मौलिक चिंतन और दिव्य ज्ञान के द्वारा लाखों लोगों का जीवन रूपांतरण कर रहे हैं। उनके ओजस्वी प्रवचन हमें उत्तम व्यक्ति बनने की समझ देते हैं। अपनी प्रभावी प्रवचन शैली के लिए देश भर हर कौम-पंथ-परंपरा में लोकप्रिय इस आत्मयोगी संत का शांत चेहरा, सहज भोलापन और रोम-रोम से छलकने वाली मधुर मुस्कान इनकी ज्ञान सम्पदा से भी ज़्यादा प्रभावी है 1 संत श्री ललितप्रभ जी ने जहां भी जनमानस को संबोधित किया है वहां सुधार की लहर चल पड़ी। लोगों में चेतना जागी और वे अंधविश्वास के अंधकूप से निकलकर सामाजिक और आध्यात्मिक प्रगति की राह की ओर अग्रसर हुए। उन्होंने जाना कि जीवन कितनी सहजतापूर्वक जिया जा सकता है और जीवन को कितनी सहजता से आध्यात्मिक सौंदर्य प्रदान किया जा सकता है। चिंता, तनाव, क्रोध जैसे विकारों से बचकर यदि व्यक्ति प्रेम, मित्रता, पारिवारिकता और शांति जैसे तत्त्वों को महत्त्व दे तो निश्चय ही जिंदगी का आध्यात्मिक आनंद लिया जा सकता है। पूज्यश्री ने सहज सरल भाषा में जीवन की आम सच्चाइयों को उद्घाटित किया है। मनुष्य आज जहां पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों का विस्मरण कर तथाकथित भौतिक प्रगति का अनुसरण कर रहा है वहां प्रस्तुत पुस्तक ठहरकर जीवन को समझने का बोध प्रदान करती है । हमारी जीवनशैली और मानसिकता को For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेहतर बनाने के लिए पूज्यश्री ने इतने प्रभावी उद्बोधन दिये हैं कि अन्तर्मन में जमी नकारात्मकता की धूल झड़ जाए और हम नए स्वरूप में निखर उठे। प्रस्तुत पुस्तक में गुरुश्री संकेत देते हैं कि जीवन के मूल्यों और मर्यादाओं का पालन करने से हम स्वयं परिवार, समाज और राष्ट्र सुखी संपन्न हो सकते हैं। मर्यादाओं का पालन करने से जहां परिवार में शांति आती हैं वहीं बच्चों और बड़ों में एक दूजे के प्रति सम्मान की भावना विकसित होती है। वे कहते हैं कि जीवन को सुखमय बनाने का मूलमंत्र त्याग की भावना है। जीवन में सकारात्मक सोच रखकर जीवन को सही सार्थक स्वरूप प्रदान किया जा सकता है। ___ जीवन के प्रति स्वस्थ सोच और बेहतर नज़रिया विकसित कर जीवन को आह्लादपूर्ण बनाया जाना चाहिए और इसमें वृद्ध भी पीछे न रहें। वृद्ध अपने बुढ़ापे को अभिशाप न समझें, वे अपने अनुभवों से परिवार का मार्गदर्शन करें। उन कार्यों को अंजाम दें जो युवावस्था में चाह कर भी न कर पाए हों। उसे बोझ समझने की बजाय स्वयं के लिए शांति और मुक्ति का द्वार समझें। हमारा आज का जीवन बहुत अस्त-व्यस्त हो गया है। सभी किसी-न-किसी प्रकार के तनाव से ग्रस्त हैं और सभी सुगम समाधान भी चाहते हैं। प्रस्तुत पुस्तक जीवन के संभाव्यों का दर्शन कराती हुई सरल व अनुकरणीय समाधान देती है। जीने की कला' जीवन को समरस और सकारात्मक बनाने का सुगम मार्ग प्रदान करती है। 'द आर्ट ऑफ लिविंग' जानने के लिए प्रस्तुत पुस्तक किसी कुंजी की तरह है। यह मनुष्य की व्यस्त जिंदगी के सुचारु प्रबंधन के सही तरीक़े समझाती है। हमारे लुप्त हो रहे पारिवारिक मूल्य और सामाजिक दायित्वों का नैतिक बोध कराते हुए जीवन का लुत्फ उठाने का संकेत प्रदान कराती है। प्रस्तुत पुस्तक में पूज्य गुरुदेवश्री ने मन की उलझनों को परत-दर-परत उघाड़ा है। इसमें तनाव, चिंता, क्रोध, अहंकार, प्रतिशोध और अवसाद जैसे रोगों को न केवल पकड़ने की कोशिश की गई है अपितु यह किताब उन रोगों का निदान भी करती है। इस किताब का हर पन्ना तनाव, घुटन और अवसाद से उबरने के लिए किसी टॉनिक का काम करता है। पूज्यश्री अहंकार और क्रोध को जीवन से हटाने की सलाह देते हुए कहते हैं कि ये विनाश के बीज हैं। जब व्यक्ति के अहंकार को चोट लगती है तब वह मानसिक तौर पर तिलमिलाता है और क्रोध में व्यक्ति दूसरों को दुःखी कर पाए या न कर पाए पर स्वयं तो दुःखी हो जाता है। शांत मन का मालिक बनने के लिए प्रस्तुत पुस्तक में सुझाव दिया गया है कि हम अपनी सोच को उन्नत रखें, प्रकृति तथा परमात्मा की व्यवस्थाओं में विश्वास रखें और अपने जीवन को सजगता तथा सहजतापूर्वक जीने का प्रयास करें। जो लोग महान् जीवन के मालिक बनना चाहते हैं, एक आध्यात्मिक संत श्री की यह पुस्तक उन लोगों के लिए एक गुरु की भूमिका अदा करेगी। किसी सद्गुरु की तरह इस पुस्तक को सम्मानपूर्वक अपने साथ रखिए और अपने मन की हर उलझन को सुलझाने का प्रयास कीजिए। -लता भंडारी 'मीरा' For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. अनुक्रम सुखी जीवन का राज़ कैसे सुलझाएँ मानसिक तनाव की गुत्थियाँ बाहर निकलिए चिंता के चक्रव्यूह से क्रोध पर कैसे काबू पाएँ अहंकार : कितना जिएँ, कितना त्यागें प्रतिशोध हटाएँ, प्रेम जगाएँ सदाबहार प्रसन्न रहने की कला जीवन की मर्यादाएँ और हम किसे बनाएँ अपना मित्र बुढ़ापे को ऐसे कीजिए सार्थक व्यवहार को प्रभावी बनाने के गुर जीवन को निर्मल बनाने के सरल उपाय जीवन की बुनियादी बातें परिवार की ख़ुशहाली का राज़ For Personal & Private Use Only 9 20 34 53 68 80 90 103 114 125 136 149 159 170 . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखी जीवन का राज स्वयं को उस सरोवर और तरुवर की तरह बनाइये, जो हर हाल में दूसरों को भी सुख, शांति और मधुर फल दे। - प्रत्येक मनुष्य के अन्तर्मन में यह कामना होती है कि वह अपने जीवन में अधिकतम खुशियाँ बटोर ले । प्रार्थना से पूजा तक और व्यवसाय से भोजन-व्यवस्था तक उसके द्वारा जितने भी कार्य किये जाते हैं, वे सभी जीवन में सुख और खुशियाँ उपलब्ध करने से ही संबंधित होते हैं। मनुष्य जन्म से मृत्यु तक सदा इसी चेष्टा में रहता है कि जीवन में अधिकाधिक सुविधाओं को कैसे उपलब्ध किया जा सके? व्यक्ति यह नहीं जानता कि उसे भाग्य के द्वारा सुविधाएँ तो उपलब्ध हो सकती हैं, परन्तु जीवन को सुख-शांति पूर्वक खुशियों से भरकर जीना व्यक्ति के स्वयं के हाथ में है । यद्यपि हम जीवन को सुखपूर्वक जीना चाहते हैं तथापि हम ऐसे कार्य नहीं कर पाते, जिनसे जीवन को प्रसन्नतापूर्वक जिया जा सके । हम भली-भाँति जानते हैं कि समस्त सुविधाओं के बावजूद व्यक्ति अपने ही कुछ कृत्यों के कारण सुख से वंचित रह जाता है। सुविधाएँ सुख का मापदंड नहीं हो सकती हैं हम जिसे सुविधाओं के आधार पर सुखी महसूस कर रहे हैं संभव है, वह मानसिक रूप से दुःखी हो। सच्चाई तो यह है कि शहर के सबसे संपन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी उसका आंतरिक दुःख उसे खोखला कर रहा है। शांति में ही सुख 'संपन्न ही सुखी है' - अब इस परिभाषा को बदल दिया जाना चाहिए। मध्यमवर्गीय प्रायः अधिसम्पन्न व्यक्ति की सुविधाओं को देखकर सोचा करते हैं कि इसके पास कार है, बड़ा बिजनेस है, महलनुमा मकान है, सुंदर-सी पत्नी है-अतः यह जरूर सुखी होगा, लेकिन इस बाह्य सम्पन्नता में कितनी विपन्नता छिपी है, यह बात कोई उसके दिल से पूछे! कितनी भागमभाग है, कितने तनाव, कितनी चिन्ताएँ हैं, यह केवल वही जानता है क्योंकि उसके पास शांति से बैठने के लिए समय ही नहीं है। वह For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो घड़ी भी चैन से नहीं बिता सकता । संपन्नता व्यक्ति को सुविधा दे सकती है, किन्तु सुख नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बाहर से मुस्कुराने वाला व्यक्ति भीतर में घुट-घुट कर जी रहा हो। यदि आप धनदौलत, जमीन-जायदाद को ही जीवन का सुख मानते हैं तो आपकी दृष्टि से मैं दुःखी हो सकता हूँ क्योंकि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है न धन, न दो फुट ज़मीन और न ही बीवी-बच्चे । फिर भी मैं आपसे ज़्यादा सुखी हूँ क्योंकि मेरे पास शांति है, अन्तर्मन की शांति। यदि तुम सुख की दो रोटी खा सको और रात में चैन की नींद सो सको और कोई मानसिक जंजाल न हो, तो जान लेना कि तुमसे अधिक सुखी कोई नहीं है। सुख और दुःख व्यवस्थाओं से कम, वैचारिक तौर पर अधिक उत्पन्न होते हैं। व्यवस्थाओं के यथावत् रहते हुए भी आदमी कभी दुःखी और कभी सुखी हो जाता है। निमित्तों के चलते सुख और दुःख के पर्याय बदलते रहते हैं। ये निमित्त भी बाहर ही तलाशे जाते हैं, पर हमें न तो कोई दुःख दे सकता है और न ही सुख। अपने सुख और दुःख के जिम्मेदार हम स्वयं हैं, अन्यथा जो व्यवस्था कल तक सुख दे रही थी वह आज अचानक दु:ख क्यों देने लगी? कल तक जो पत्नी सुख देती हुई प्रतीत हो रही थी, वही आज अगर क्रोध करने लगी तो दुःख क्यों हो रहा है? दरअसल सुख पत्नी से नहीं बल्कि उसके व्यवहार से था और वही व्यवहार बदला तो पत्नी दुःखदायी हो गई। सुविधाओं में सुख कहाँ देखिए आप सुखी और दुःखी कैसे होते हैं ? आप एक मकान में रहते हैं, जिसके दोनों ओर भी मकान हैं। एक मकान आपके मकान से ऊँचा और भव्य है तथा दूसरा मकान आपके मकान से छोटा और झोंपड़ीनुमा है। आप घर से बाहर निकलते हैं और जब भी आलीशान कोठी को देखते हैं , आप दु:खी हो जाते हैं और जब झोंपडी को देखते हैं तो सखी हो जाते हैं। भव्य इमारत को देखकर मन में विचार आता है. ईर्ष्या जगती है-यह मझसे ज्यादा सखी. जब तक मैं भी ऐसा तीन मंजिला मकान न बना लँ तब तक सुखी न हो सकूँगा। लेकिन जैसे ही झोंपड़ी को देखते हैं, तो सुखी हो जाते हैं, क्योंकि आपको लगता है कि यह तो आपसे अधिक दुःखी है। प्रकृति की व्यवस्थाएँ तो सबके लिए समान हैं, लेकिन प्राय: स्वयं के अन्तर्कलह के कारण ही व्यक्ति दु:खी हो जाता है। जैसे कि आपने लॉटरी का टिकिट खरीदा। लॉटरी खुली और आपने अखबार में देखा कि उसमें वे ही नंबर छपे हैं जो आपके टिकिट पर हैं। आपकी तो क़िस्मत ही खुल गई, आपने प्रसन्न होकर घर में बताया कि पाँच लाख की लॉटरी खुली है। सब बहुत खुश हैं। प्रसन्नता के मारे आपने एक अच्छी-सी पार्टी का आयोजन भी कर डाला। मित्र आए, ऊपरी मन से आपको बधाइयाँ भी मिली, अंदर से तो उन्हें डाह हो रही थी लॉटरी तो उन्होंने भी खरीदी थी, पर इसके कैसे खुल गई। खैर, रात में जब सोने लगे तो विचार आया कि इस इनामी राशि को कैसे खर्च किया जाए? सोचा कि एक कार ही ले ली जाए । तभी दूसरे विचार ने जोर मारा कि दो लाख रुपये जमा करा दिए जाएँ, ताकि भविष्य सुरक्षित रहेगा। इसी 10 For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधेड़बुन में रात निकली । दूसरे दिन सुबह प्रतिदिन की भाँति अखबार उठाया। जिस कोने में कल नम्बर छपे थे, आज वहीं एक अन्य विज्ञापन भी था। नजरें वहाँ गईं और आप दुःखी हो गए, क्योंकि उसमें एक कॉलम था, 'भूल सुधार' वहाँ लिखा था कि प्रथम इनाम के लिए कल जो लॉटरी खुली थी उसमें अंतिम नम्बर तीन के बजाय दो पढ़ा जाय। न रुपये आए और न गए, फिर भी वे सुख और दुःख दोनों दे गए। सुविधाओं के आधार पर जो लोग सुखी होते हैं, वे सुविधाएँ छिन जाने पर दुःखी हो जाते हैं। जो जीवन के आरपार सुखी होते हैं, वे सुविधाओं के चले जाने पर भी सुखी ही रहते हैं। आज मैं आपको कुछ ऐसे मंत्र देना चाहता हूँ कि जिन्हें यदि आप अपने पास सहेजकर रखते हैं, जिनको आप अपने मनमस्तिष्क में प्रवेश करने के लिए स्थान देते हैं, जिन्हें आप जीवन की दैनंदिन गतिविधियों के साथ जोड़ते हैं तो ये मंत्र आपके जीवन के कायाकल्प के लिए कल्याणकारी हो सकते हैं। ये मंत्र आपके जीवन के हर पल को सुखी बना सकते हैं। __मैं कभी ईश्वर से सुख की कामना नहीं करता। यह अटूट विश्वास है कि दुनिया में कोई भी व्यक्ति कभी ईश्वर से दुःख की कामना नहीं करता पर हरेक को दुःख से गुजरना होता है वैसे ही सुख की कामना की जरूरत नहीं। जब दुःख अपने आप बिन मांगे आता है तो सुख को वैसे भी बिना मांगे स्वत: आने दीजिए। जीवन में चाहे सुख आये या दुःख दोनों का स्वागत तहेदिल से कीजिए सुख का स्वागत तो हर कोई करता है पर सुखी आदमी तभी हो पाता है जब जीवन में आने वाले दुःखों का स्वागत करने के लिए भी वह तैयार हो। इसे यों समझे - जैसे हमारे घर चाचाजी मेहमान बन कर आते हैं । हम । हम उनका सम्मान करते हैं और दो मिठाईयों के साथ उन्हें भोजन कराते हैं पर जाते समय वे हमारे बच्चे के हाथ नोट पकड़ा जाते हैं, यानि तीस का खाया सौ दे दिए। पर हमारे घर जंवाई भी आता है जिसका हम चाचाजी से भी ज्यादा सम्मान करते हैं और मान-मनहार पूर्वक चार मिठाईयों से जंवाई को भोजन भी करवाते है और चाचाजी तो जाते समय सौ रूपए देकर गए पर जंवाई को तो जाते समय सौ रूपए हम देते हैं। सुख दुःख का यही विज्ञान है। सुख आए तो समझो चाचाजी आए हैं और दुःख आए तो समझो जंवाई आया है। दोनों का सम्मान करो भाई। चाचाजी के सम्मान में कमी रह जाए तो चल भी जाएगा पर जंवाई के सम्मान में चूक न हो, सावधानी रखना। सादगी सर्वश्रेष्ठ श्रृंगार यदि आप जीवन में खुशियाँ बटोरना चाहते हैं तो पहला मंत्र है-जीवन को सादगी-पूर्वक जीने की कोशिश करें। आपने सुना है-सादा जीवन उच्च -विचार । व्यवहार में सादगी हो, आचरण में श्रेष्ठता हो और विचारों में पवित्रता हो। तुम जितने ऊपर उठोगे उतनी ही विनम्रता तुम्हारे व्यवहार में आ जाएगी। आम के पेड़ पर लटकती हुई कैरी जब कच्ची होती है, तब तक अकड़ी हुई रहती है लेकिन जैसे-जैसे वह कैरी रस से भरती है, मिठास और माधुर्य पाती है, वैसे-वैसे वह आम में तब्दील होती हुई झुकना 11 For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुरू हो जाती है। जो अकड़ कर रहती है वह कच्ची कैरी और जो झुक जाय वह पका हुआ आम । जीवन में महानताएँ श्रेष्ठ आचरण से मिलती हैं - वस्त्र - आभूषण और पहनावे से नहीं । इसलिए जीवन को सादगीपूर्ण ढंग से जिएँ । सादगी से बढ़कर जीवन का अन्य कोई शृंगार नहीं है। ईश्वर को जो शारीरिक सौन्दर्य देना था, वह तो उसने दे दिया । उसे और भी अधिक सुंदर बनाने के लिए 'उच्च विचार और सादा जीवन' अपनाएँ, न कि कृत्रिम सौन्दर्य-प्रसाधन । क्या आप नहीं जानते कि जिन कृत्रिम सौंदर्य-प्रसाधनों का उपयोग आप कर रहे हैं वे हिंसात्मक रूप से तैयार किए गए हैं ? क्या आपने यह जानने की कोशिश की है कि आपकी शृंगार सामग्री के निर्माण में कितने पशुओं का करुण क्रंदन छिपा हुआ है ? क्या लिपिस्टिक लगाने वाली किसी भी महिला ने यह जानने की कोशिश की कि लिपिस्टिक में क्या है ? आखिर चौबीस घंटे तो बन-ठनकर नहीं जीया जा सकता। क्यों न हर समय सहज रूप में रहें ताकि हमारा सहज सौन्दर्य भी उभर सके । सादगी से बढ़कर सौन्दर्य क्या ? राष्ट्रपति कलाम साहब जब राष्ट्रपति पद के लिए नामांकित हुए तो समाचार-पत्रों में उनके चित्र आने लगे कि अगर वे अपने बाल चित्रों में बताए गए तरीके से कटवा लेंगे या संवारने लगेंगे तो अधिक खूबसूरत लगेंगे, या कहा गया कि वे अपनी वेशभूषा में कुछ परिवर्तन कर लेंगे तो अधिक प्रभावशाली लगेंगे। लेकिन मैं सोचा करता कि अगर यह व्यक्ति काबिल है तो राष्ट्रपति बनने के बाद भी ऐसा ही रहेगा और मैं प्रशंसा करूँगा कलाम साहब की कि वे आज भी देश के साधारण व्यक्ति के समान ही जी रहे हैं । यही उनका शृंगार है- 'सादा जीवन, उच्च-विचार' । सादगी से बढ़कर और कोई श्रृंगार नहीं होता । अंत: सौंदर्य की सुवास वस्त्रों और आभूषणों से जीवन में कृत्रिम सुंदरता पाने की बजाय आप उत्तम विचार और आचार से जीवन के वास्तविक सौन्दर्य के मालिक बनें। आपके पहनावे का भड़कीलापन कुछ मनचलों को आपकी ओर आकर्षित कर सकता है, पर आपकी सादगी और जीवन की श्रेष्ठता किसी महान व्यक्ति को भी आपकी ओर आकर्षित कर सकती है । वस्तुओं को बटोरना तो सामान्य बात है, लेकिन बटोरी हुई वस्तुओं का त्याग करना जीवन की महानता है। वैभव की व्यवस्था केवल आपके ही पास नहीं है । महावीर और बुद्ध भी ऐसे ही सम्पन्न थे, लेकिन उन्होंने देखा कि बाहर का वैभव आंतरिक वैभव के समक्ष फीका है। महावीर निर्वस्त्र रहते थे तब भी लोग उनके पास जाया करते थे, क्योंकि उनके पास आंतरिक सौंदर्य की सुवास थी और यही उनका श्रृंगार था । जो अपने जीवन को सादगीपूर्वक उच्च विचारों के साथ जीते हैं, वे कितने भी बूढ़े क्यों न हो जाएं, कुरूप नहीं हो सकते। आपने महात्मा गांधी के युवावस्था और बुढ़ापे के चित्र देखे होंगे। मेरी नज़र में उनका बुढ़ापे में चेहरा अधिक सुंदर हो गया था। श्री अरविंद के बुढ़ापे के चित्रों में भी कितना सौंदर्य छलक रहा है ! रवीन्द्रनाथ टैगोर का सौंदर्य भी वृद्धावस्था में निखर आया था। जैसे-जैसे हमारे विचार निर्मल होते हैं, व्यवहार पवित्र होता है हमारा चेहरा भी उतना ही 12 For Personal & Private Use Only . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजस्वी होता जाता है, जिसके पास जीवन का सौन्दर्य है, उसे कभी शरीर का सौन्दर्य नहीं लुभाता । जीवन ही हर व्यवस्था में स्वयं को अनुकूल करने का प्रयास करें और अपने बच्चों में भी यह संस्कार अवश्य डालें कि जीवन में चाहे जो भी दुविधाएँ आएं वे उन्हें जीने और भोगने में समर्थ हो सकें। अन्यथा आज की सुविधाओं को तो वे आराम से भोग लेंगे लेकिन दुविधा आने पर रोने-धोने के अलावा कुछ न कर सकेंगे। अपनी संतान को इस बात का अहसास कराते रहें कि हर हरी घास एक दिन सूख जाती है, अतः उसका प्रेमपूर्वक मुकाबला करने के लिए हमें हमेशा तैयार रहना चाहिये । काया नहीं, हृदय संवारें जीवन का दूसरा मंत्र है- ' अपने शरीर पर अधिक ध्यान न दें।' शरीर जीवन जीने का, जीने की व्यवस्थाओं को सम्पादित करने का साधन मात्र है। बार-बार आईने में न देखें कि चेहरे पर यहाँ कैसा दाग़ है या यह सांवला क्यों? शरीर के प्रति अधिक अनुरक्ति न रखें। अगर हर समय शरीर का ही ध्यान रहेगा तो छोटी-छोटी तकलीफों को सहन कैसे कर पाएँगे? रोज-रोज यह क्या कि सिर दुख रहा है या पेट दर्द हो रहा है । छोटी-छोटी तकलीफों को जीने की कोशिश करें। अगर हाथ में फोड़ा हो गया है तो तटस्थता अनुभव करें कि 'मैं' अलग हूँ और शरीर अलग है। जो इस बोध के साथ जीता है उसके जीवन में चाहे जितने उपद्रव आएँ, लेकिन वे उसे सता न सकेंगे। वरना एक छोटे-से फोड़े में आह ऊह - ओह दिनभर चलती रहेगी। शरीर के रंग का भी क्या देखना ! अगर देख सकते हो तो हृदय की सुंदरता देखो। मैं देखा करता हूँ कि कुछ लड़के कुंवारे रह जाते हैं क्योंकि उन्हें बहुत सुंदर पत्नी चाहिए। चेहरे की सुंदरता का कैसा मोह? यह सुंदरता कब ढल जाएगी पता भी नहीं चलेगा। अगर बना सको तो अपने हृदय को जरूर सुंदर बनाओ। जो मिला है, उसे सहजता से स्वीकार करें और अपने शरीर पर ज्यादा ध्यान देने की कोशिश न करें। मैं देखा करता हूँ कि लोग स्वयं के शरीर को सजाने-संवारने में घंटों खर्च कर देते हैं। मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो रोज तैयार होने में दो घंटे लगाते हैं लेकिन वे मंदिर जाते होंगे तो बैठ पाते होंगे। देह के प्रति कितनी अनुरक्ति है उन्हें ! मिनट ही वहाँ शरीर का मोह छोड़िए अगर आपके शरीर पर कोई दाग हो गया है और अगर आप उसी का चिंतन करते रहे तो जीवन भर दुखी रहेंगे, पर यदि यह सोचेंगे कि ठीक है शरीर पर दाग है, मुझ पर नहीं, तो सुखी होंगे। शरीर से अनासक्ति रखें। आज जवानी है, कल बचपन था, परसों बुढ़ापा आएगा और फिर कहानी खत्म! सूरज की तरह जीवन है कि रात होते ही जीवन भी समाप्त हो जाता है । रोज सुबह और सांझ के रूप में जन्म और मृत्यु हमारे द्वार पर दस्तक दे रहे हैं आप नहीं बता सकते कि किस दिन से आपके बाल सफेद होने शुरू हुए या किस तारीख को आपके बाल उड़ गए ? दिन प्रतिदिन शरीर ढलता जा रहा है और काले बाल सफेदी की ओर बढ़ रहे हैं । 13 For Personal & Private Use Only . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं, दशरथ नहा-धोकर आईने के सामने खड़े हुए तो उन्होंने देखा कि उनके सिर का एक बाल सफेद हो गया है। एक सफेद बाल देखकर उनकी चेतना हिल गई कि अब सूचना आ गई है अब अपने मन को भी सफेद कर लो। यहाँ तो लोगों के सिर के सारे बाल सफेद हो जाते हैं तब भी मन की कालिमा बरकरार रहती है। जिन्होंने जैन रामायण पढ़ी है वे जानते हैं, कि दशरथ महल के रनिवास में जाते हैं और संसार-त्याग का निर्णय सुना देते हैं। तीनों रानियाँ स्तब्ध रह जाती हैं कि रात में तो संसार में रमे थे और सुबह वैराग्य ! यह कैसा निर्णय । दशरथ ने कहा, 'देखो मेरे सिर का एक बाल सफेद हो गया है, और मुझे संसार से वैराग्य / संन्यास लेने का संदेश आ गया है।' सिर का एक सफेद बाल देखकर दशरथ वैराग्य-वासित हो जाते हैं और हमारे सारे बाल भी सफेद हो जाएँ तो भी हम नहीं जाग पाते । चेतना में कोई बोध नहीं जगता कि हम किस ओर जा रहे हैं। यह जो बहुत सुंदर चेहरा है, इस पर एक दिन झुर्रियाँ छा जाने वाली हैं, यह सीधी कमर एक दिन झुक जाने वाली है, आंखों से एक दिन रोशनी कम हो जाने वाली है, कानों से सुनने की शक्ति भी कम हो जाने वाली है । यह शरीर जिसे तुम इतना सजा-सँवार रहे हो, एक दिन यह भी टूट जाने वाला है।' अंगम् गलितम्, पलितम् मुंडं दशनविहीनं जातम् तुंडं, वृद्धोयाति गृहीत्वा दंडम्, तदपि न मुंचति आशापिंडम् ', आचार्य शंकर कहते हैं अंग गल गए हैं, कमर झुक गई है, आँखें देख नहीं पा रही हैं, कान सुनने में असमर्थ हैं, वाणी बंद हो रही है, सिर के बाल सफेद हो गए हैं लेकिन फिर भी शरीर का मोह है कि छूटता ही नहीं है । काम से प्यार करें सुखी जीवन का तीसरा मंत्र है ' अपने कार्य के प्रति ईमानदार रहें ।' अगर आप डॉक्टर हैं तो अपने पेशे के प्रति जागरूक रहें, दुकान चला रहे हैं तो दुकान के कार्य से प्यार करें। अगर किसी के यहाँ नौकरी कर रहे हैं तो उसके प्रति कार्य में प्रतिबद्धता रखें। मैं कहना चाहूँगा कि आप किसी के यहाँ नौकरी करके पाँच हजार का वेतन पाते हैं तो सात हजार का काम अवश्य करें। ऐसा न हो कि तीन हजार का काम करें और वेतन पाएं पांच हजार । सरकारी कर्मचारी हैं तो ऐसा न करें कि ऑफिस में कुर्सी पर बैठकर गप्पे मारें या नींद निकालें। सरकार के आधे काम इसीलिए अटक जाते हैं और दुगुने ऑफीसर इसीलिए चाहिये क्योंकि आधे लोग तो झपकियाँ ही लेते रहते हैं या काम करने की बजाय गप्पे मारते रहते हैं। जितना वेतन लेते हैं, उतना काम अवश्य करें और वह भी ईमानदारी से करें। तब बॉस भी आपके अधीन हो जाएगा और वह आपको नौकरी से न निकाल सकेगा। याद रखें कहीं भी, कभी भी इतना अवकाश न लें कि बॉस यह समझे कि बिना आपके काम चल सकता 1 हम अपने जीवन में काम से प्यार करने की कोशिश करें। अपने जीवन व्यर्थ न गंवाएँ । जानते हैं न, खाली दिमाग शैतान का घर होता है। हर पल का उपयोग करें। जिस कार्य से आप जुड़े हैं, उसे तत्परता, तन्मयता, एकाग्रता, लयबद्धता से पूर्ण करें। आप अनुभव करेंगे ऐसा करके आप सच्चे कर्मयोगी बन गये हैं। 14 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मल करें स्वभाव चौथा मंत्र देना चाहूँगा, आप अपने स्वभाव के प्रति सजग रहें। यदि आप स्वयं सुखी रहना चाहते हैं और दूसरों से भी सुख पाना चाहते हैं तो अपने स्वभाव का अवलोकन जरूर करें। आप देखें कि पूरे सप्ताह में आपने क्या अच्छा और क्या बुरा किया? किससे प्रेम किया और किसके प्रति क्रोध किया? किसके प्रति क्षमा-भाव रखा और किसे अपशब्द कहे? सप्ताह में एक दिन तय कर लें कि आप अपने क्रिया-कलापों का उस दिन पर्यवेक्षण करेंगे। दूसरे दिन उन सभी कार्यों को दोहराएँ और संकल्प लें कि अच्छे काम अधिक करेंगे और बुरे तथा गलत कार्यों को छोड़ने का प्रयास करेंगे। सदा श्रेष्ठ कार्यों से प्यार स्वयं ईश्वर से प्यार करने के बराबर है। यदि जीवन में सत्संग करने के बाद भी हमारा स्वभाव नहीं बदल रहा है तो मनन करें कि हमने आखिर क्या पाया? तीस दिन पहले भी आप क्रोध करते थे और आज भी आपको गुस्सा आ रहा है तो आप यहाँ आकर व्यर्थ का एक घंटा न गंवाएँ। आप और कुछ काम करें। अगर आप अपने जीवन को रूपान्तरित करने के प्रति सजग नहीं हैं तो यहाँ सत्संग में आने का औचित्य ही क्या हैं? आप अपने स्वभाव को पढ़ें कि उसमें क्या विकृति या सुधार आया है ? स्वभाव में कितनी अनुकूलता या प्रतिकूलता आई है? अगर आप चाहते हैं कि जीवन में आपको लोगों का प्यार मिले मरने के बाद दुनिया आपको याद रखे तो आप अपनी ओर से सबको प्रेम और मधुर व्यवहार दें। आपका निर्मल और पवित्र स्वभाव जीवन-विकास के मार्ग खोलेगा। शांत स्वभाव के लोग जहाँ इ स्वर्ग की शांति पाते हैं. वहीं कडवे और झगडाल स्वभाव के लोग महल में रहकर भी नरक को जीने को मजबर हो जाते हैं। वाणी का मिठास जीवन में मिठास घोलना है वहीं वाणी का खटास जीवन में घोलता है। संतोषी, सदा सुखी सुखी जीवन का अगला मंत्र है-'संतुष्ट रहना।' हम कहते हैं -'संतोषी सदा सुखी'। और अतिलोभी सदा दुःखी। जिसके जीवन में संतोष-धन आ जाता है वह अपार सुख का मालिक हो जाता है। जो मिला है, जैसा मिला है, जिस रूप में मिला है, उसे स्वीकार करना सीखें। अति लोभ विनाश का कारण बनता है। लोभ तो पाप का बाप है। भगवान् महावीर ने कहा है-'क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का और लोभ सब कुछ नाश कर देता है इसलिए संतोष रूपी धन बटोर लें। विधाता और भाग्य ने जो दिया है, अच्छा दिया है, श्रेष्ठ दिया है। अतः सुखी जीवन के लिए इससे बढ़कर दूसरा धन और क्या हो सकता है? तरुवर बनें, सरोवर बनें जीवन में दूसरों के काम आना - यह भी सुखी जीवन का एक मंत्र है। इसमें हमारे मन को तो 15 For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकून मिलता ही है, साथ ही साथ मानवता के कल्याण में भी हम सहयोगी बनते हैं। आप जिंदगी में दूसरों के काम आने की कोशिश करें। आप देखते हैं, वृक्ष फल स्वयं नहीं खाते और वे दूसरों के लिये उन्हें गिरा देते हैं। सरोवर दूसरों की प्यास बुझाने को सदा तत्पर रहते हैं। ___ हमारी महानता इसी में है कि हम दूसरों के काम आ सकें। आप अपने घर में ऐसा पेड़ लगाएँ जिसकी छाया पड़ौसी के घर तक जाए। पड़ौसी को अपने व्यवहार से सुकून दें। स्वयं की सुविधा, स्वयं की भलाई तथा खुद के विकास की संभावनाएँ तो सभी ढूंढते हैं लेकिन महान वे हैं जो औरों के लिए स्वयं को समर्पित कर देते हैं। हृदय में करुणा, मैत्री, प्रार्थना हो तथा जीव-जन्तुओं के प्रति भी दया-भाव हो। जीवन में कोई आपके लिए कितना भी बुरा क्यों न करे, लेकिन आप उसके प्रति उदारता रखें और उसकी विपत्ति में काम आएँ। अगर हमारे पास अधिक धन है तो उसे सेवाकार्य में खर्च करें। जीवन में ऐसे कुछ नेक कार्य करें कि ऊपर जायें तो ऊपर वाले के सामने हमारा चेहरा दिखाने लायक अवश्य हो। एक दफा अकबर ने बीरबल से पूछा-'मेरी हथेली में बाल क्यों नहीं हैं?' अजीब सा प्रश्न था, लेकिन पूछा भी तो बीरबल से था। तुरंत उत्तर मिला, 'जहाँपनाह, आप अपने हाथों से निरंतर दान करते हैं, इसीलिए आपकी हथेलियों के बाल घिस गए हैं।' 'बात तो ठीक है, लेकिन बीरबल जो देते नहीं हैं उनकी हथेलियों में भी बाल क्यों नहीं होते?', सम्राट ने अगला सवाल किया।, 'बादशाह। वे लोग लेते हैं इसलिए लेते-लेते उनके बाल घिस जाते हैं', बीरबल ने उत्तर दिया। अकबर ने कहा, 'यह भी ठीक है, लेकिन जो न देते हैं और न लेते हैं उनकी हथेलियों में बाल क्यों नहीं होते?' बीरबल ने जो जवाब दिया वह गंभीरता से ग्रहण करने लायक है। बीरबल ने कहा, 'जहाँपनाह । वे हाथ मलते रह जाते हैं इसलिए उनकी हथेलियों में बाल नहीं होते।' हम भी कहीं हाथ मलते न रह जाएँ। प्रकृति हमें देती है, नदी हमें देती है, वृक्ष -जमीन और आकाश भी हमें देते हैं, फिर हम देने में कंजूसी क्यों करें! हम देने की भाषा सीखें, देने का पाठ पढ़ें। हमारे जीवन में देने के संस्कार है। हमारे पास जरूरत से ज्यादा वस्त्र हैं तो फटेहाल जिंदगी जीने वालों की सहायता करें। अगर आपके पास पचास साड़ियाँ हैं तो उनमें से पाँच साड़ियाँ झोंपड़-पट्टी में जाकर उन्हें दे दें, जिन महिलाओं के दो साड़ियाँ भी नहीं हैं। इससे हमारी संग्रहवृत्ति कम होगी और किसी गरीब महिला होगा। यह अपरिग्रह व्रत का जीवन्त आचरण होगा। हम अपने हृदय में करुणा लाएँ। औरों के जीवन की विपदाओं को हम कम करने की, ठीक करने की कोशिश करें। कोई आपका कितना भी अहित करे, पर आप उसका अहित न करें। जो तोके कांटा बुवै, ताहि बोय तू फूल॥ तोको फूल को फूल है, वाको है त्रिशूल। पहले दिन आप अपने कार्य का पर्यवेक्षण करें। दूसरे दिन उन सभी कार्यों को दोहराएँ और संकल्प लें कि अच्छे काम पुनः करेंगे और बुरे-गलत कार्यों को छोड़ने का प्रयास करेंगे। श्रेष्ठ कार्यों से 16 For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यार करें और जीवन को श्रेष्ठ बनाएँ। सजगता रखिए जीवन-रूपांतरण के प्रति ___लोग मुझसे कहते हैं 'चातुर्मास शुरू हो गया, पर तपस्या, उपवास कम हो रहे हैं।' मैं कहता हूँ 'इस बार उपवास तो कम हो सकते हैं, शायद पिछले वर्ष अधिक तपस्या हुई हो, उसके पिछले वर्ष और भी अधिक उपवास हुए हों। इस बार उपवास तो कम हुए हैं, मगर एक और चीज भी कम हुई है, वह यह कि लोगों का क्रोध बहुत कम हो गया है।' यह जीवन का बहुत बड़ा उपवास है। उपवास करके भी क्रोध कर लिया तो उपवास व्यर्थ है और भोजन करके भी विपरीत वातावरण में शान्त और तटस्थ हैं तो उपवास सध गया है। अगर हम अपने स्वभाव को सुधार लेते हैं, उसे पवित्र और निर्मल बना लेते हैं तो इससे बड़ी जीवन की तपस्या अन्य क्या होगी? तेला करने से पहले कहीं जरूरी है झमेले मिटाना। इस वर्ष तपस्या भले ही कम हुई हो, पर घर-घर की समस्याएं भी कम हुईं। आपने भगवान महावीर के जीवन की बहुत-सी घटनाओं को पढ़ा होगा। लेकिन आज मैं जिस घटना की चर्चा करने जा रहा हूँ, हम सभी उससे अनभिज्ञ हैं। क्योंकि हमने महावीर के जीवन को आधा-अधूरा ही पढ़ा है। हम यह तो जानते हैं कि महावीर के कानों में कीलें ठोंकी गईं और वे उन्हें सहन कर गए। हम यह भी जानते हैं कि उनके पांव में चंडकौशिक सर्प ने डंक मारा और उसे भी वे सहन कर गए। उनके पांवों में अंगीठी जलाई गई और उन्होंने उसे भी सहन कर लिया। उन्हें कुएँ में उल्टा लटकाया गया और वे सहन कर गए। उनके पीछे कुत्ते छोड़े गए और वे सहन कर गए। कानों में कीलें ठोके जाने की घटना तो हम सब जानते हैं, लेकिन आगे का प्रसंग बड़ा मार्मिक है। कुछ दिनों बाद एक वैद्य ने उन कीलों को बाहर निकाला। जिस समय कान में से कीलें निकाली जा रही थी; सम्पूर्ण साधनाकाल के दौरान पहली बार, भगवान की आँखों में से आँसू आ गए। वैद्य ने पूछा, 'क्षमा करें भगवन् , क्या इतनी अधिक पीड़ा हो रही है? मैं तो आपकी पीड़ा को दूर कर रहा हूँ, आपके दर्द को कम करने की कोशिश कर रहा हूँ। क्या इतनी पीड़ा हो रही है जिससे कि आपकी आँखों में आँसू आ गए ?' भगवान् ने करुणा भरे भाव से कहा, 'वत्स, मेरी आँखों में आँसू पीड़ा से नहीं आए हैं, ये आँसू तो करुणा और दया के आँसू हैं, मैं सोच रहा हूँ कि जब मैं साधना काल में था तो मेरे कानों में कीलें ठोंकी गईं और मैं सहन कर गया, लेकिन जब उस ग्वाले के कान में कीलें ठोंकी जाएंगी तो वह बेचारा कैसे सहन करेगा!' __ इसे कहते हैं प्रेम और अन्तर् हृदय की करुणा कि जिसने कान में कीलें ठोंकी, उसके प्रति भी करुणा और कल्याण की कामना। महावीर तो वही होता है जो जीवन में महानता को जीता है। जो तुम्हें क्रॉस पर लटकाये, तुम उसके लिए भी कल्याण की कामना करो, तभी तुम जीसस बन पाओगे। आप अपने द्वारा त्याग की भावना को प्रस्तुत करें। अगर आप शिक्षक हैं तो किसी भी एक गरीब छात्र को निःशुल्क पढ़ाएँ। यदि आप डॉक्टर है तो प्रतिदिन किसी एक जरूरतमंद रोगी का इलाज 17 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःशुल्क करें । अगर आप व्यवसायी हैं तो अपने व्यापार का गुर किसी एक व्यक्ति को सिखाकर उसे पांवों पर खड़ा करने का पुण्य अवश्य कमायें। आपका यह छोटा-सा सहयोग मानवता के लिए स्वस्तिकर होगा। समतामय जीवन ही साधना सुखी जीवन का एक सूत्र यह भी है कि आप अपने जीवन को समतापूर्वक जीने की कोशिश करें। उठापठक तो सभी के जीवन में आती है लेकिन इससे अपने हृदय को आन्दोलित न करें। भाग्यवश आपके पांव में अगर जूते नहीं हैं तो दुःखी न हों। आप यह सोचें कि दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जिनके पांव भी नहीं हैं । कम से कम उनसे तो आप ज्यादा सुखी हैं। ईश्वर को धन्यवाद दें कि उसने जूते नहीं दिये तो क्या हुआ, उसने पांव तो दिए हैं। जीवन में मिलने वाली हर चीज को हम प्रेम से स्वीकार करें। परिवर्तन को हँस कर झेलने की कोशिश करें क्योंकि परिवर्तन तो जीवन में आएँगे ही। सुख आने पर गुमान और दु:ख आने पर गम, दोनों ही आपके लिए घातक है। संत फ्रांसिस अपने शिष्य लियो के साथ एक नगर से दूसरे नगर की ओर जा रहे थे। वे जंगल से गुजर रहे थे और भंयकर बारिश हो रही थी। शिष्य पीछे और गुरु आगे चल रहे थे। मिट्टी गीली हो गई थी और दोनों के पाँव फिसल रहे थे। कपड़े मिट्टी से गंदे हो गए, पाँवों में कीचड़ लग गया, और तो और; हाथ की अंगुलियाँ और हथेली भी मिट्टी से सन गईं। बारिश में भीगते हुए शिष्य लियो ने अपने गुरु संत फ्रांसिस से पूछा, 'गुरुवर, यह बताएँ कि दुनिया में सच्चा संत कौन होता है ?' फ्रांसिस ने कहा, 'वह सच्चा संत नहीं है जो पशु-पक्षियों की आवाज समझ लेता है।' दो मिनट बाद लियो ने फिर पूछा, 'फिर सच्चा संत कौन होता है ?' 'लियो, वह व्यक्ति भी सच्चा संत नहीं होता जो कपड़े बदलकर साधु हो जाए।' शिष्य ने फिर पूछा, 'प्रभु, तो फिर सच्चा संत कौन होता है ?' संत ने कहा, 'लियो संत वह भी नहीं होता जो अंधों को आँखें और गूगों को जबान दे दे।' शिष्य चकराया कि अगर वह भी संत नहीं है तो फिर संत कौन है ? उसने अपना प्रश्न पुनः दोहराया। फ्रांसिस ने कहा, 'संत वह भी नहीं है जो गरीब को अमीर बना दे।' लियो चकराया कि मेरा प्रश्न तो यह है कि संत कौन होता है और मेरे गुरु बार-बार यह बता रहे हैं कि संत कौन नहीं होता। वह झुंझला गया और कहा, 'गुरुवर, आप साफ-साफ बता दें कि आखिर सच्चा संत कौन होता है?' - गुरु ने कहा, 'सुनो, हम लोग जब तक नगर में पहुंचेंगे, मध्य रात्रि हो जाएगी। बारिश हो रही है हाथ-पांव-कपड़े सब गीले होकर मिट्टी से सन गए हैं ऐसे में रात्रि के एक-डेढ़ बजे तक नगर में पहुँच पाएँगे। वहाँ पहुँचकर किसी धर्मशाला के द्वार पर जाकर उसे खटखटाएँगे। तब भीतर से चौकीदार पूछेगा, 'बाहर कौन है ?' हम कहेंगे, 'दो संत हैं। सराय में रहना चाहते हैं।' तब वह गुस्से में कहेगा, 'भगो-भगो, पता नहीं कहाँ से संत आ जाते हैं ? पैसा तो देंगे नहीं, रात की नींद खराब करेंगे, चलो भगो।' तब पन्द्रह 18 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिनट बाद हम लोग फिर से दरवाजा खटखटाएँगे कहेंगे, 'भैया दरवाजा खोलो।' भीतर सोया हुआ चौकीदार पूछेगा, ‘बाहर कौन?' तब हम फिर कहेंगे 'वही दो संत।' चौकीदार कहेगा 'अरे, क्या तुम अभी तक बैठे हो ? भगो यहाँ से, नहीं तो डंडा मार कर भगाऊंगा। मैं तुम लोगों के लिए दरवाजा नहीं खोलूँगा। मुफ्तखोरों! एक कौड़ी देकर नहीं जाओगे। रात की नींद बिगाड़ रहे हो, भगो यहाँ से।' _ 'लियो, पन्द्रह मिनिट बाद हम फिर दरवाजा खटखटाएँगे। फिर वह पूछेगा, ‘बाहर कौन?' तब भी अपना जवाब होगा, 'वे ही दो संत। और तब वह चौकीदार हाथ में डंडा लेकर बाहर आएगा और दरवाजा खोलते ही हम लोगों की पीठ पर आठ-दस डंडे मारेगा।' लियो, जब वह हमें डंडे मार रहा हो तब भी हमारे हृदय में अगर उसके लिए प्रेम उमड़ता रहे तो समझना हम सच्चे संत हैं।' इस तरह का व्यवहार किए जाने के बाद भी हमारे हृदय में प्रेम और भाईचारे की भावना पलती रही तो मान लेना कि हम सच्चे संत हैं। जीवन की उठापटक में समतापूर्वक जीवन जीना ही साधना है। मन की शांति को सर्वाधिक मूल्य दीजिए। संतोष रखें और सादगी से जिएँ। शरीर के सौन्दर्य से भी ज़्यादा अच्छे स्वभाव और हृदय के गुण-सौन्दर्य को महत्त्व दीजिए। स्वयं को सरोवर और तरुवर की तरह बनाइए जो हर हाल में अपनी ओर से दूसरों को सुख और शीतलता की छाया देता है। 19 For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे सुलझाएँ मानसिक तनाव की गुत्थियाँ तनाव-मुक्ति के लिए मुस्कान वैसा ही सहारा है जैसे बूढ़े के लिए लांठी । हजार सुख-सुविधाएँ होने के बावजूद अगर आज का मनुष्य दुःखी और उदास नजर आता है तो जरूर वह किसी न किसी मानसिक अशांति से पीड़ित है। मनुष्य के पास इतनी सुविधाएँ कभी नहीं हुई होंगी जितनी आज हैं। इसके बावजूद हर मनुष्य के चेहरे पर एक विशेष प्रकार का शोक और द्वंद्व झलकता है। सब कुछ होने के बावजूद अगर मन की शांति और जीवन की प्रसन्नता गायब है, तो उसका मुख्य कारण हमारे अन्तर्मन में पलने वाला तनाव । तनाव हमारी मानसिक एकाग्रता को भंग कर देता है, जीवन की खुशहाली हमसे छीन लेता है । और तो और, दिन की रोटी और रात की नींद तक वह हराम कर देता है। आखिर यह तनाव क्या है, इसे जानबूझ कर क्यों पाला जाता है ? क्या हैं इसके परिणाम और कैसे इससे उबर सकते हैं ? आइए इन प्रश्नों के उत्तर हम अपने ही इर्द-गिर्द तलाशते हैं । रोगों का मूल, न दें इसे तूल हर व्यक्ति जो बाहर से स्वयं को स्वस्थ बता रहा है, वह जरा मानसिक निरीक्षण करे कि उसके भीतर कहीं तनाव का रोग छिपा हुआ तो नहीं है ? व्यक्ति पत्नी, परिवार और व्यवसाय से भी ज्यादा मानसिक उलझन, चिंता तथा तनाव से घिरा हुआ है। किशोर भी इसी तनाव से ग्रस्त हैं और वृद्ध भी। कोई जवान भी तो कहाँ बचा है। इससे ? कैंसर, एड्स और सार्स जैसी भयानक बीमारियाँ तो दुनिया में पाँच-दस फीसदी लोगों तक ही पहुँची हैं लेकिन तनाव ने तो हर किसी को घेर रखा है। दुनिया की एक प्रतिशत आबादी एड्स से ग्रस्त है, दो प्रतिशत आबादी कैंसर से ग्रस्त है, पांच प्रतिशत पोलियो से ग्रस्त है, दस प्रतिशत विभिन्न प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो सकती है लेकिन शायद इन सबको भी मिलाकर तनाव का प्रतिशत ज्यादा ही होगा। इस रोग की पीड़ा और इसकी उलझन को तो वही जान सकता है जो इससे गुजरा है। दुनिया के किसी भी रोग से ज्यादा पीड़ादायी है तनाव का रोग जो जीते-जी व्यक्ति को मारकर ख़त्म कर देता है। 20 For Personal & Private Use Only . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे पचास प्रतिशत रोगों का मूल कारण तनाव है। सावधान रहें, चाहे सिर दुख रहा है या पेट, जरूर इसके मूल में किसी प्रकार का तनाव ही जुड़ा होगा। शरीर में रोग होता है, रोगी डॉक्टर के पास जाता है और डॉक्टर रोग के लक्षणों के आधार पर दवा देता है। वह रोग तो दब जाता है पर नया रोग पैदा हो जाता है। मन को स्वस्थ किये बगैर जब भी तन का इलाज होगा- वह निष्प्रभावी ही होगा। इलाज तो पहले मन का हो और उसके बाद तन का | अच्छी सेहत के लिए तनाव-रहित जीवन सर्वप्रथम आवश्यक है । तनाव से घिरा हुआ व्यक्ति यदि व्यापार भी करेगा तो उसका व्यापार भारभूत बनकर उसे असफलता ही दिलाएगा। तनावग्रस्त विद्यार्थी की मानसिक क्षमता और एकाग्रता क्षीण हो जाती है वह रातभर जग कर पढ़ाई करता है, उसके बावजूद अनुत्तीर्ण हो जाता है । तनावग्रस्त व्यक्ति अगर मिठाई और पकवान भी खाए तो वे बेस्वाद हो जाते हैं, तनाव ग्रस्त व्यक्ति अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं कर पाता है। वहीं जीवन का उत्साह, उमंग और आनंद जीवन की हर गतिविधि में जान डाल देता है । तनाव है घुन, बजाएँ शांति की धुन दुनिया में चाहे जितने आश्चर्य हों पर मानव मस्तिष्क से बड़ा आश्चर्य दूसरा नहीं हो सकता। लेकिन इंसान धोखा भी तो अपने इसी दिमाग के कारण खाता है । अस्वस्थ या असंतुलित दिमाग़ आदमी की सबसे बड़ी है। प्रकृति ने हमें प्रज्ञा - शक्ति, ज्ञान- शक्ति मस्तिष्क के रूप में प्रदान की हैं लेकिन कभी-कभी छोटी-सी चर्चा, छोटी-सी बात, छोटी-सी घटना या छोटा-सा अवसाद मनुष्य के भीतर उस घुन का काम करता है जो भीतर ही भीतर गेहूँ को खाकर समाप्त कर देता है। यह अवसाद, बेचैनी, घुटन, तनाव उस दीमक का काम करते हैं जिससे कि मनुष्य भीतर-ही-भीतर समाप्त हो जाता है। बाहर से अखंड दिखाई देने वाला शरीर अंदर से खंडखंड हो जाता है। यह रोग कभी भी लग सकता है। बचपन, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था में। बुढ़ापे में अगर यह रोग लग गया तो इससे निजात पाना और भी मुश्किल हो जाता है क्योंकि तनावग्रस्त बूढ़ा व्यक्ति अनेक प्रकार की शारीरिक बीमारियों से भी ग्रस्त हो जाता है । आज तनावरहित जीवन की कल्पना करना व्यर्थ है। तनाव ने हमें शांति से जीवन जीना भुला दिया है। और हमारे जीवन के भावात्मक जुड़ाव को समाप्त प्रायः कर दिया है। अखूट ऐश्वर्य एवं वैभव की चाह तथा रातों-रात करोड़पति बनने की चाहत लोगों में तनाव और अवसाद पैदा कर रही है। हमारी आधुनिक जीवनशैली हमें कुछ घंटे या कुछ दिन तो सुख देती है, पर उससे जीवन में अनियमितताएं एवं विसंगतियाँ ही पैदा हो रही हैं । अनियमित जीवन-शैली के कारण लोग शारीरिक बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं, उसी से मानसिक बीमारियाँ भी बढ़ी हैं और मनोरोग विश्वव्यापी समस्या बनता जा रहा है। हर तीसरे घर में तनाव और अवसाद ने अपनी जगह बना ली है। रोग-शोक का मूल : तनाव कोई व्यक्ति कितना भी सम्पन्न क्यों न हो, उसने भले ही शरीर पर आभूषण पहन रखें हों पर यदि थोड़ा 21 For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा भी तनाव उसके अन्तर्मन में पल रहा हो तो उसका चेहरा अप्रसन्न ही नजर आता है। दुनिया का कोई भी व्यक्ति जो आत्महत्या करता है, उसका मूल कारण शारीरिक या पारिवारिक दुःख नहीं होता बल्कि व्यक्ति किन्हीं कारणों से स्वयं ही मानसिक रूप से दुःखी हो जाता है। जब वह तनावग्रस्त या अवसादग्रस्त हो जाता है तो वह आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। समाचार पत्रों में हम रोज आत्महत्या की खबरों के बारे में पढ़ते हैं। मैं समझता हूँ इस तरह आत्महत्या करने वाली महिलाएँ दहेज के कारण ऐसा कदम कम उठाती हैं इसमें भी मूल कारण कहीं न कहीं मानसिक तनाव ही रहता है। ___ जितना तनावग्रस्त मनुष्य आज है उतना पहले नहीं था। हमारी दिन-रात की व्यवस्थाओं में ऐसी अनेक बातें और घटनाएँ होती हैं जो हमारे तनाव को बढाती हैं। यह संभव नहीं है कि दनिया में हर आदमी जो चाहे उसे वही मिल जाये। सम्पन्नता पहले भी थी और आज भी है । अभाव पहले भी थे और आज भी हैं । आज अगर कोई चीज बढ़ी है, तो हमारी आपसी खींचतान ही बढी है, मानसिक द्वंद्व ही बढा है। महानगरों में बसों और नों से प्रतिदिन शुरू होती है जीवनयात्रा। दिनभर इतनी उलझन भरी रहती है कि व्यक्ति कुछ पल के लिए भी दिन में अपने मन और मस्तिष्क को विश्राम नहीं दे पाता। और उसमें भी रात को सोने से पहले देखे जाने वाले सेक्स से भरी फिल्में या टी.वी. के उल्टे-सीधे दृश्य मन की शांति को भंग करने में अहम् भूमिका अदा करते हैं। शरीर के रोग और विकारों पर विश्व में तेजी से अनुसंधान हो रहा है और उनका निदान भी हो रहा है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार रोगों की उत्पत्ति केन्द्रों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है इसलिए इन पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। तनाव, अवसाद, घुटन, ईर्ष्या, चिंता ये सब विश्वभर के चिकित्सकों के लिए गंभीर चुनौती बन गए हैं। दमा हो या दाद, एग्जीमा हो या ब्लडप्रेशर, शुगर का बढ़ना हो या हार्ट प्रोब्लम, वास्तव में इनके पीछे चिंता, अवसाद और मानसिक तनाव छिपे रहते हैं । आधुनिकता की इस दौड़ में तेज रफ्तार की जिंदगी और दम घोटने वाला वातावरण हमें जहाँ मानसिक तनाव से ग्रस्त करता है वहीं तनाव रोगों के रूप में शरीर पर अपना प्रभाव दिखाता है। विश्व के कई चिकित्सकों ने मन और शरीर के रोगों पर काफी गहरा अनुसंधान किया है। एक बात साफ तौर पर सिद्ध हो गयी है कि भय, ग़म, चिंता, ईर्ष्या, बुरे विचार और इनसे पैदा हुई बुरी तरंगें हमारे पेट और आंतों के रोगों को जन्म देती हैं वहीं स्वस्थ विचार हमारे शरीर को शक्ति प्रदान करते हैं और स्वास्थ्य लाभ देते हैं। अच्छे विचार का परिणाम जहाँ अच्छी तरंगे, प्रसन्नचित्त मन तथा निरोगी जीवन होता है, वहीं बुरे विचार का परिणाम रोगी मन, बुरी तरंगे, दुःखी तथा रुग्ण जीवन ही निकलता है। निवारण से पहले समझें कारण __ तनाव क्यों होता है, यह जानने से पहले यह समझें कि तनाव क्या है ? किसी एक बिंदु पर निरंतर व व्यर्थ का किया जाने वाला चिंतन जब चिंता का रूप धारण कर ले, मस्तिष्क में स्थान बना ले, इस स्थान बनाने का नाम ही तनाव है। जब कोई व्यक्ति किसी एक बात विशेष पर अपने क्षुद्र अहंकार के चलते बार-बार 22 For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकारात्मक सोच रखता है तब तनाव की स्थिति निर्मित होती है। ___ तनाव से घिरा हर व्यक्ति जानता है कि तनाव में जीना बुरा है पर तनाव को छोड़ पाना क्या हर किसी के हाथ में है ? बुद्धि मारी जाती है जब व्यक्ति तनावग्रस्त होता है और बुद्धि का उपयोग करके ही व्यक्ति इस चक्रव्यूह से बाहर निकल सकता है। कैसे बचें तनाव से, इस पर हम कुछ समझें, उससे पहले उन कारणों को समझना जरूरी होगा जिनके कारण तनाव जन्मता है। भले ही हम तनाव के उपचार के लिए किसी चिकित्सक के पास चले जाएँ लेकिन कोई भी न्यूरोफिजिशियन इसका समूल समापन नहीं कर पाता है। डॉक्टर दवाइयाँ देता है पर वे दवाइयाँ तनाव-मुक्ति की नहीं होती, नींद की होती है। निद्रा में हमारा मस्तिष्क अक्रियाशील हो जाता है, उसे थोड़ी सी राहत भी मिलती है पर फिर से छोटा-सा निमित्त पाकर तनाव हम पर पुनः हावी हो जाता है। तोड़ें, चिंता का चक्रव्यूह तनाव का प्रमुख कारण है- चिंता। चिता की दहलीज पर व्यक्ति एक बार जलता है पर चिंता की दहलीज पर वह जीवन भर जलता रहता है। किसी सार्थक, सकारात्मक, विधायात्मक बिंदु पर किया गया चिंतन और मनन तो व्यक्ति को सार्थक परिणाम देता है किंतु निरर्थक, नकारात्मक बिंदु पर पुनः पुनः किया जाने वाला चिंतन व्यक्ति के मनोमस्तिष्क में तनाव भर देता है। चिंता तो चक्रव्यूह है, अभिमन्यु की तरह हम इसमें प्रवेश करना तो जानते हैं पर इसमें से बाहर निकलना नहीं जानते। रात में सोये तो सुबह की चिंता, सुबह जागे तो दिन की चिंता, दोपहर में शाम की चिंता। चिंता का यह रोग मनुष्य को दिन में सुख की रोटी और रात में चैन की नींद नाव जब मन में समा जाते हैं तब व्यक्ति मनोरोगी भी हो जाता है। व्यक्ति चिंता-ग्रस्त हो जाता है कि सारी सुख-सुविधाएँ भी उसे संतुष्ट नहीं कर पातीं। वह नींद की गोली लिये बिना सो ही नहीं सकता। ___ मैं देखा करता हूँ कि लोग व्रत-उपवास करते हैं और दूसरे दिन जब व्रत खोलेंगे तब क्या खाएँगे, यही सोचा करते हैं। आज व्रत किया है लेकिन, कल के भोजन की चिंता कर रहे हैं। अरे, जब कल आएगा तब ही सोचना न; अभी से क्यों चिंता कर रहे हो? अंतर्मन में पलने वाली बेवजह की चिंताएँ तनाव की जड़ हैं। क्रोध तो हमारे संबंधों को कमजोर करता ही है पर चिंता हमारी देह के साथ दिमाग को भी कमजोर करती है। चिता व्यक्ति को एक बार जलाती है लेकिन चिंताग्रस्त व्यक्ति जीवन में बार-बार मरने को मजबूर होता है। यही वह चिंता है जो धीरे-धीरे हमारे मनोमस्तिष्क को अवरुद्ध कर देती है। जैसे घुन गेहूँ को भीतर ही भीतर खाकर खत्म करती है ऐसे ही चिंता हमें खोखला बना देती है। व्यक्ति छोटी-छोटी बातों को लेकर चिंतित होता है पर, दुनिया में कोई भी चिंता किसी समस्या का समाधान नहीं बनी है। अगर हम समाधान का हिस्सा बनना चाहते हैं तो चिंता की बजाय चिंतन को अपने जीवन में स्थान दें। चिंता जहाँ हमारी मानसिक क्षमता को अवरुद्ध करती है, वहीं चिंतन उसे प्रखर करता है। तनाव और चिंता यकायक हों तो आदमी उससे छुटकारा भी पा सकता है लेकिन ये अंगुली पकड़कर आते हैं, और धीरे 23 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीरे हमारे, तन-मन को अपने आगोश में समेट लेते हैं। तनावग्रस्त व्यक्ति की स्थिति वैसी ही हो जाती है जैसी जाले में फंसी मकड़ी की। जिसने जाला भी खुद बनाया और फँसी भी खुद। भगाएं, भय का भूत तनाव का दूसरा कारण है भय । मनुष्य के भीतर भय की ऐसी ग्रंथि निर्मित हो जाती है कि वह हाथी और शेर जैसी शक्ति रखते हुए भी गीदड़ से भी पस्त हो जाता है। कमजोर शरीर पर मजबूत मन जहाँ निश्चित ही विजयी होता है, वहीं इसके विपरीत मजबूत शरीर और कमजोर मन जीवन में पराजय का मुख्य कारण बनता है। हमें महाभारत का वह घटनाक्रम याद है। जब अर्जुन जैसा धनुर्धर योद्धा युद्ध-भूमि में लड़ाई के कुछ समय पूर्व ही शत्रुसेना में अपने परिजनों को देखकर बैचेन हो जाता है और कृष्ण से कहता है, 'प्रभु, युद्ध भूमि में अपने परिजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुँह सूख रहा है, शरीर काँप रहा है। प्रभु, मेरा गांडीव मुझसे उठाया नहीं जा रहा है । मुझे चक्कर आ रहे हैं। और तो और, मैं खड़ा भी नहीं रह पा रहा हूँ।' ये सारे लक्षण चिंता और घबराहट के ही तो हैं। चिंता और भय से ग्रस्त व्यक्ति उन निमित्तों से मुकाबला करने की बजाय अपने आपको कमजोर महसूस करता है। उसे लगता है कि उसके हाथ-पाँव ठंडे पड़ते जा रहे हैं। भय की स्थिति में मुँह और गला सूखता है, भूख कम हो जाती है और आमाशय में रोग पैदा होने शुरू हो जाते हैं । भयग्रस्त व्यक्ति सामने वाले का मुकाबला करना तो दूर, सही ढंग से किसी बात का जवाब भी नहीं दे पाता। जैसे सूखी घास के ढेर में लगी छोटी-सी चिंगारी शुरुआत में थोड़ी ही दिखाई देती है लेकिन धीरे-धीरे पूरी घास को ही राख में तब्दील कर देती है; ऐसी ही स्थिंति भयग्रस्त व्यक्ति की हो जाती है। व्यक्ति को जीवन में सबसे बड़ा भय होता है मृत्यु का। तुम्हें किसी ने फोन पर धमकी दे दी, रात भर तुम्हें नींद नहीं आयी। डर गये यह सोचकर कि पता नहीं, अब क्या होगा? भला इससे डरना कैसा? दुनिया में कोई भी व्यक्ति जन्मा है तो उसका मरना तय है और हर व्यक्ति सोमवार से रविवार के बीच ही गया है। आंठवाँ वार तो किसी के लिए नहीं हआ।जिनके भीतर भय की गत्थी है. वे सदैव इस बात को याद रखें कि मारने वाले के सौ हाथ होते हैं पर बचाने वाले के हजार हाथ। समय से पहले हमें कोई मार नहीं सकता। भय होता है रोग का, विशेषकर उन रोगों का जो लाइलाज होते हैं- जैसे कैंसर, एड्स। इन खतरनाक रोगों के बारे में सोचकर भी व्यक्ति भयभीत हो जाता है। अब तक के अनुभव हमें यह बता चुके हैं कि भयभीत व्यक्ति जहाँ उन रोगों से घिरकर जल्दी पस्त हो जाता है, वहीं व्यक्ति निर्भय चित्त होकर इन पर कुछ अंश तक विजय भी प्राप्त कर लेता है। तेज का नाश करे उत्तेजना उत्तेजना तनाव का तीसरा कारण है। कुछ लोगों की आदत पटाखों की तरह होती है कि एक तीली लगाई और बम फूटा। उन्हें कुछ भी कहा नहीं कि बस लड़ने-भिड़ने को पहले से ही तैयार ! ऐसा लगता है कि बस अब बरसे कि तब बरसे। जो छोटी-छोटी बातों में उत्तेजित हो जाते हैं, उनके जीवन में शांति का अभाव होता है। हमने आज के युग में तकनीकी चमत्कारों से बहुत कुछ पाया है किन्तु यदि कुछ खोया है तो केवल मन की 24 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांति को । सुख-सुविधा की चकाचौंध में शांति के मार्ग, मौन के मार्ग, साधना के मार्ग और जीवन की सहजता के मार्ग हमारे हाथ से फिसल गए हैं। चारों ओर अशांति का साम्राज्य है। आशंका, आवेश, आग्रह ये सब उत्तेजना के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं । जो व्यक्ति किसी के दो कड़वे शब्दों को शांति से सहन नहीं कर सकता वह जीवन में कभी भी मन की शांति का मालिक नहीं बन सकता। दूसरों की बातों पर गौर न करते हुए अपनी ही बात का आग्रह करते रहना और छोटी-मोटी बातों में क्रोधित और उत्तेजित हो जाना तनाव के प्रारम्भिक लक्षण हैं । भगवान महावीर अगर अपने कानों में कीलें ठुकवा सकते हैं और श्रीकृष्ण शिशुपाल की निन्यानवें गलतियों को माफ कर सकते हैं तो क्या हम किसी के दो कड़वे शब्द सुनने और किसी की नौ गलतियों को माफ करने का बड़प्पन नहीं दिखा सकते ? परिवार में रखिए वैचारिक संतुलन तनाव का एक और कारण होता है जो केवल व्यक्ति को ही नहीं पूरे परिवार और समाज को तनावग्रस्त कर देता है और वह है ‘हमारा वैचारिक असामंजस्य' । हम एक दूसरे के विचारों का न तो सम्मान कर पाते हैं और न ही उन्हें सही अर्थ में समझ पाते हैं। ऐसी स्थिति में पिता-पुत्र, भाई-भाई, सास-बहू, पति-पत्नी इन सब में मानसिक दूरियाँ बढ़ती हैं और इनके पारस्परिक सम्बन्ध वैसे ही हो जाते हैं जैसे सूखे तालाब की मिट्टी में पड़ी दरारें । परिवार का हर व्यक्ति अगर अपने आपको ज्यादा बुद्धिमान मानेगा और स्वयं को बड़ा समझकर अपने अहंकार की पुष्टि करने का प्रयास करेगा तो आप यह मानकर चलें कि वह घर, घर नहीं अपितु सूखा मरुस्थल होगा जिसमें हर सदस्य एक-दूजे के प्रति शक, आक्रोश और विपरीत भावना से भरा होगा। वे साथ रहेंगे पर दूरदूर। एक घर में रहेंगे पर एक दूजे से कटकर तनावग्रस्त होंगे। किसी को पति के कारण तनाव, किसी को सास के कारण, किसी को बहू के कारण तनाव होगा तो कहीं देवराणी-जेठाणी में अनबन के कारण तनाव होगा। आप अपने द्वारा परिवार को तनाव दे रहे हैं या परिवार के द्वारा आप तनाव में हैं, दोनों ही स्थितियों में हमारा घर नरक बन सकता है । अगर हम वैचारिक संतुलन बनाने में सफल हो जाते हैं तो हमारा घर अपने-आप ही स्वर्ग बन जाएगा । न अतीत, न भविष्य; केवल वर्तमान तनाव का एक और कारण है, 'अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना ।' उसने मेरे साथ ऐसा किया, अब मैं उसके साथ वैसा करूँगा। अगर उस समय मैंने वैसा नहीं किया होता तो अभी ऐसा नहीं होता । यदि उस समय ऐसा कर देता तो ठीक रहता। पता नहीं, इस तरह की कितनी यादें व्यक्ति अपने मन में संजोए रखता है । जो बीत गया उसे वापस लौटाया नहीं जा सकता तो उसे याद करने का क्या औचित्य है ? और जो होने वाला है, वह होकर ही रहेगा तो उसके बारे में व्यर्थ का तनाव या चिंता पालने का क्या औचित्य ? जो बीत चुका है उस पर विलाप करने से क्या लाभ और जो अभी उपस्थित नहीं है उसकी कल्पना के जाल क्यों बुनना ? माह बीत जाता है कलेन्डर से पन्ना फाड़ देते हैं, वर्ष बीत जाता है तो कलेन्डर को ही हटा देते हैं लेकिन व्यक्ति अपने भीतर पलने वाली उत्तेजना को, अनर्गल विचारों को, दूसरों के प्रति होने वाले वैमनस्य को 25 For Personal & Private Use Only . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हटा नहीं पाता। साठ वर्ष की उम्र के बाद व्यक्ति अपने अतीत को बहुत अधिक याद करता है और सबसे अधिक चिंता और तनाव से ग्रस्त होता है। जीवन की शेष आयु चिंता और तनाव में बीतती है क्योंकि हमारी अपेक्षाएँ अपनी संतानों से बढ़ जाती हैं और जब अपेक्षा उपेक्षा में बदल जाती है तो तनाव उत्पन्न होता है। अच्छा होगा यदि हम औरों से अपेक्षा न पालें। जो, जितना, जैसा मिल जाए, हो जाए उसी में प्रसन्न रहने की कोशिश करें। जीवन में जो मिला है, जैसा मिला है उसे प्रभु का प्रसाद मानकर जो स्वीकार कर लेता है वह कभी तनावग्रस्त नहीं होता। मनुष्य दूसरी चिंता करता है 'भविष्य की।' वह न जाने किन-किन कल्पनाओं में खोया रहता है। जो कुछ है नहीं, उसके ही सपने बुनता है। वह अपनी कल्पनाओं के जाल में मकड़ी की तरह उलझा रहता है। न अतीत में जाओ और न भविष्य की रूपरेखा बनाओ अपितु वर्तमान में जीओ। जैसा हो रहा है, उसको वैसा ही स्वीकार कर लो। जिसने कल दिया था उसने कल की व्यवस्था भी दी थी और जो कल देगा वह उस कल की व्यवस्था भी अपने आप देगा। तुम क्यों व्यर्थ में चिंता करते हो, तुम्हारी चिंता से कुछ होता भी नहीं है। तुम व्यर्थ के विकल्पों में क्यों जीते हो? क्यों स्वयं को अशांत और पीडित कर रहे हो? तम्हारे किये कछ होता नहीं है क्योंकि जो प्रकृति की व्यवस्थाएँ हैं वे अपने आप में पूर्ण हैं । माँ की कोख से बच्चे का जन्म बाद में होता है किन्तु उसके दूध की व्यवस्था प्रकृति की ओर से पहले ही हो जाती है। तनाव के और भी कई कारण होते हैं। सभी कारणों में हमारी नकारात्मक सोच जुड़ी है। वह हमारी बुद्धि को विपरीत बना देती है। अत्यधिक काम का बोझ, गलाकाट स्पर्धा, क्षमता से अधिक कार्य भी तनाव के कारण बन सकते हैं। हीन-भावना भी तनाव का कारण बनती है। सुंदरता, कद-काठी, अंग-भंग, बीमारियाँ या शारीरिक क्षमताओं को लेकर हीन-भावना उत्पन्न हआ करती है। चिंता, भय, अतिलोभ, उत्तेजना, विचारों का असामंजस्य- ये सब तनाव के मूल आधार हैं। तनाव का पहला प्रभाव पड़ता है हमारे मनोमस्तिष्क पर। उससे हमारा आज्ञाचक्र शिथिल होता है। आज्ञाचक्र को हम शिव का तीसरा नेत्र कहते हैं या दर्शनकेन्द्र भी कहते हैं। जैसे ही व्यक्ति तनाव का शिकार होता है, वैसे ही आज्ञाचक्र शिथिल हो जाता है। उसे लगता है जैसे उसे चक्कर आ रहे हैं, सिर में दर्द हो रहा है और उसका मन कमजोर पड़ता जा रहा है। तनाव के रोग : दिल से दिमाग़ तक तनाव मन का सबसे भयंकर रोग है। रोगी मन ही शरीर को बीमार करता है। निश्चित तौर पर तनाव से उबरा जा सकता है, पर इससे पूर्व यह समझना जरूरी है कि वह हमारे तन, मन और जीवन पर क्या प्रभाव डालता है ? तनाव के वश में है कि हमारे गृहस्थ जीवन को दुःखदायी कर दे, जीवन-विकास को रोक दे, मन की प्रसन्नता को भंग कर दे और एकाकीपन में जीने को मजबूर कर दे। पता नहीं ऐसे कितने ही काम तनाव कर देता है। आप अगर स्वयं गहरे तनाव में जी रहे हैं या किसी तनावग्रस्त व्यक्ति के साथ जीने का मौका मिला है तो तनाव-जनित रोगों को जरूर देखा होगा। दिल की धड़कन से लेकर पेट और आँतों तक की बीमारियों को तनाव 26 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैदा करता है । किसी को यह कब्ज की बीमारी कर देता है तो किसी को दस्त की। किसी के गले में रोग पैदा कर देता है तो किसी के कमर और जोड़ों में। थकान, कमजोरी, स्मरण-शक्ति का ह्रास, आत्मविश्वास में कमी और अनिद्रा जैसी बातें तो यह हर किसी के साथ कर ही देता है। तनावग्रस्त व्यक्ति जब देखो तब उदास ही मिलता है। खुशियों के अवसर आने पर भी वह ग़म और उदासी में ही जीता है। काम-काज में उसकी दिलचस्पी नहीं रहती। किसी से बात करना भी वह पसंद नहीं करता। हर समय वह एक विशेष उदासी में जीता है। अगर कोई चेहरा लटकाकर बैठा हो तो एक बच्चा भी पछ लेगा, क्या बात है, किस बात का टेंशन है ?' जैसे तेज धूप में फूल मुरझा जाते हैं, वैसे ही तनाव में हमारा चेहरा। चिकित्सकों को चाहिये कि जब वे किसी के शरीर का इलाज करें उससे पहले उसके मन का इलाज जरूर कर लें। तनाव सीधे तौर पर दूसरा प्रभाव डालता है हमारी रोगों से लड़ने की क्षमता पर । वह हमारी रोगनिरोधक क्षमता को घटा देता है। अमेरिका में डॉ. बौक ने लगभग 1500 छात्रों पर एक प्रयोग किया। उन्होंने ऐसे छात्रों को चुना जो सदैव जुकाम और पेट के रोग से ग्रस्त रहते थे। रोगियों से गहरी बात करने पर उन्हें पता लगा उनमें प्राय: अधिकांश विद्यार्थी ऐसे थे जो भय, गम, अवसाद, निराशा या तनाव से पीड़ित थे। डॉ. बौक ने प्रयोग किया और आश्चर्यजनक परिणाम सामने आये कि जुकाम और पेट के रोग तब मिट गये जब मनोवैज्ञानिक समझ देकर भय और तनाव से छात्रों को मुक्त कर दिया गया। मन का तन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, अगर तनावग्रस्त व्यक्ति को उसके रोग के मूल कारणों का पता चल जाये तो वह शीघ्र स्वस्थ हो सकता है। भय, चिंता, फिक्र ये सबसे पहले हमारे दिमाग पर अपना प्रभाव डालते हैं । शरीर की संचालन-व्यवस्था में मस्तिष्क का सबसे बड़ा हाथ है । विपरीत मनोभाव मानसिक खिंचाव पैदा करते हैं। मानसिक खिंचाव हमारे शरीर पर अपना विपरीत प्रभाव छोड़ता है। परिणामस्वरूप शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग पनपने शुरू हो जाते हैं। माइग्रेन की समस्या का मूल कारण भी तनाव ही है। साथ ही रोग-प्रतिरोधक क्षमता में कमी आने के कारण आए दिन कई तरह के रोग पैदा हो जाते हैं । इससे हमारी याददाश्त भी कमजोर हो जाती है। मन के हारे हार है तनाव पहला प्रभाव डालता है व्यक्ति की कार्यकुशलता पर । जैसे-जैसे व्यक्ति इसके मकड़जाल में उलझता पके मनोबल में कमजोरी आनी शुरू हो जाती है। हमने कई बार देखा है कि जब किसी टूर्नामेंट में दो देशों की टीम एक मैदान में उतरती हैं तो लोग पहले ही अंदेशा लगा लेते हैं, खिलाड़ियों के चेहरे को देखकर कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा? जो मैदान में उतरने से पहले ही दूसरी टीम को लेकर मनोवैज्ञानिक दबाव में आ गया है, उसका हारना तय हो जाता है। अगर आप दूसरी टीम से जीतना चाहते हैं तो मैदान में उतरने से पहले ही उस पर इतना मनोवैज्ञानिक दबाव डाल दीजिये कि मानसिक रूप से वह स्वयं को हारा हुआ महसूस करने लग जाये। ऐसी स्थिति में खिलाड़ी तनाव-ग्रस्त हो जाता है और उसका आत्म-विश्वास कमजोर हो जाता है। 27 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक रूप से हारा हुआ व्यक्ति मैदान में भी हारता ही है। हमारे जीवन की असफलताओं का पहला कारण है हमारी मानसिक कमजोरी। ____ तनाव-ग्रस्त व्यक्ति एक विशेष प्रकार की परेशानी से ग्रस्त होता है और हर समय उदास रहता है। अपने आप से ही अप्रसन्न रहना, खुद को हीन समझना और उन लोगों से दूर रहना जो हमारी प्रसन्नता के कारण हैं, ये सब तनाव के स्पष्ट प्रभाव हैं। उदासी और अप्रसन्नता से हमारी समझ. तर्कशक्ति और वैचारिक क्षमता कमजोर हो जाती है और हर समय व्यक्ति का दृष्टिकोण निराशावादी हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे वह कुछ नहीं कर पाएगा। छोटी-मोटी बातों पर वह अपने-आपको अपराधी मानता है और उसका शरीर कुम्हलाया-सा हो जाता है। उसे भोजन करने के लिए पूरी भूख नहीं लगती और भोजन करने बैठ जाए तो भोजन स्वादिष्ट नहीं लगता। शायद मन की शांति का सुकून तो उसे सपने में भी नहीं मिल पाता। भरोसा रखें, प्रकृति की व्यवस्था पर ऐसा नहीं है कि तनाव से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। आवश्यकता सिर्फ अपने आप पर नियंत्रण रखने की और अनुकूल वातावरण बनाने की है। उससे मुक्ति पाने के लिए जीवन में थोड़ा-सा परिवर्तन ही पर्याप्त होता है। आखिर कैसे बचें तनाव से-शायद हर व्यक्ति के भीतर यह प्रश्न उठता है। अगर थोड़ी-बहुत सावधानियाँ रखी जायें तो हम तनाव से बच सकते हैं। __ तनाव-मुक्ति का पहला उपाय है निश्चलता-'रिलेक्शेसन'। अगर आप चिंताग्रस्त या भ्रमित हैं, कई प्रकार के मानसिक दुःखों के शिकार हैं और परिणामस्वरूप शरीर में कई प्रकार के रोग प्रभावी हो गये हैं तो ऐसी स्थिति में निश्चलता, विश्राम, शरीरभाव से मुक्ति हमें रोग-मुक्त कर सकती है। पहले चरण में मैं मन की निश्चलता के बारे में कहना चाहूँगा। व्यक्ति सदैव यह सोचकर बेफिक्र रहे कि जो हुआ वह तो होना ही था इसलिए हो गया और जो नहीं हुआ उसका होना संभव नहीं था इसलिए नहीं हुआ। किसी वस्तु के मिलने पर गुमान न हो और खो जाने पर गिलान हो। प्रकृति की अपनी जबरदस्त व्यवस्था होती है और वह प्रायः हमारी हर जरूरत को पूरा करती है । बच्चा पीछे पैदा होता है और उसके लिए माँ के आँचल में दूध की व्यवस्था पहले होती है। दुनिया में असंख्य जानवर जन्म लेते हैं, प्रकृति उनकी भी व्यवस्था करती है। माना कि जानवर खेती नहीं कर सव य अपने लिए अन्न पाने के लिए जब खेती करता है तो धान पीछे आता है किंत जानवरों के लिए घास पहले उग आती है और इस तरह मनुष्य एवं पशु- दोनों के आहार की व्यवस्था प्रकृति द्वारा हो जाती है। करें, तनावोत्सर्ग-ध्यान तनाव से बचने या उबरने के लिए प्रतिदिन 15 मिनट ही सही भौंहों के बीच आज्ञाचक्र पर अपनी मानसिकता को एकाग्र करने की कोशिश करें। उससे हम 2-3 माह में ही तनाव से उबर जाएँगे। अगर आपको लगता है कि तनाव ने आपको गहरे जकड़ लिया है तो आप शरीर की निश्चलता का ध्यान करें। निश्चलता का अर्थ होता है शरीर की वह अवस्था जब हमारे सम्पूर्ण शरीर की माँसपेशियाँ और मस्तिष्क की सम्पूर्ण कोशिकाएँ पूर्ण विश्राम में हों। निश्चलता हमारी माँसपेशियों के तनाव को समाप्त करती है। 28 For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर आप किसी भी प्रकार के तनाव से ग्रस्त हैं तो आप तनावोत्सर्ग ध्यान करें। इस ध्यान की प्रक्रिया से गुजरना मन-मस्तिष्क के लिए काफी उपयोगी होता है । तनावोत्सर्ग ध्यान करने के लिए किसी शांत स्थान का चयन करें। ऐसा कोई स्थान या कमरा चुनें जहाँ किसी तरह का कोई व्यवधान न हो। वैन्टीलेटर के अलावा कमरे के दरवाजे एवं खिड़कियाँ बंद भी रख सकते हैं ताकि हल्का-सा अँधेरा हो जाये। यदि रात को कर रहे हों तो खिड़कियाँ खुली भी रखी जा सकती हैं। फर्श पर कोई आरामदेय आसन या गद्दा बिछा लें ताकि लेटने में तकलीफ न हो। सावधान रहें कि इस विधि से गुजरते समय ढ़ीले कपड़े पहनना ज्यादा उचित रहता है। अगर सर्दी हो तो कोई शाल भी ओढ़ सकते हैं और गर्मी हो तो हवा की व्यवस्था कर सकते हैं। आप तनावोत्सर्ग विधि प्रारम्भ करें। बड़े आराम से लेट जाएँ। दानों पाँव थोड़े फासले पर रहें, दोनों हाथ शरीर से थोड़े दूर और सीधे रखें, हथेलियाँ ऊपर की ओर हों। हथेलियाँ इतनी ढीली छोड़ दें कि अंगुलियाँ स्वत: ही थोड़ी-सी मुड़ जाएँ । इस विधि में कुछ बातों की सावधानी रखनी उचित रहती है। साँस आराम से और आहिस्ते-आहिस्ते लें और धीरे-धीरे उसे सहज छोड़ दें। साँस बाहर निकालने के बाद अंदर खींचने की जल्दी न करें और अंदर खींचने के बाद बाहर निकालने की भी जल्दी न करें। दोनों ही प्रक्रियाओं में आप जितनी सहजता से सांस को अंदर करने के बाद रोक सकते हैं तो अवश्य रोंके। सबसे पहले शरीर को ढीला छोड़कर मधुर मुस्कान लें। शरीर निर्जीव वस्तु की तरह पड़ा रहे और मधुर मुस्कान जारी रहे । अगर हँसने का जी कर रहा है तो किसी अच्छे से चुटकले या घटनाप्रसंग को यादकर हँस भी लें और फिर स्वसंबोधन द्वारा अपने शरीर को तनावप्रक्रिया में प्रवेश करने दें। -मुक्ति की धीरे-धीरे श्वास लेते हुए पूरे शरीर में कसावट दें। श्वास को रोकते हुए सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ समस्त माँसपेशियों को नाभि की ओर दो क्षण के लिए खिंचाव दें और तत्क्षण उच्छ्वास के साथ शरीर ढीला छोड़ दें । यह प्रक्रिया कुल तीन बार करें। अब शरीर के प्रत्येक अंग को मानसिक रूप से देखते हुए एक-एक अंग को शिथिल होने के लिए आत्म-निर्देशन दें और प्रत्येक अंग में प्रसन्नता और मुस्कुराहट को विकसति करें। पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक रोम-रोम को प्रमुदितता और अन्तर् प्रसन्नता का सुझाव दें। सर्वप्रथम पाँव के अंगूठे, अंगुलियाँ, तलवा, पंजा, एडी, टखना, पिंडली, घुटना, जाँघ, नितंब, कटिप्रदेश को शिथिल करते हुए वहाँ प्रसन्नता का संचार करें। फिर हाथ के अंगूठे, अंगुलियों, हथेली, पृष्ठ भाग, कलाई, हाथ, कोहनी, भुजा एवं कंधों को प्रसन्नता और मुस्कुराहट का सुझाव दें । तदुपरान्त पेट, पेट के अंदरूनी अवयव, बड़ी आँत, छोटी आँत, पक्वाशय, आमाशय, किडनी, लीवर तथा हृदय, फेंफड़े, पसलियाँ, पूरी पीठ, रीढ की हड्डी, कंठ और गर्दन के भाग में शिथिलता, प्रसन्नता एवं मुस्कुराहट को विकसित करें। इसके बाद चेहरे के एक-एक अंग - ठुड्डी, होंठ, गाल, आँख, कान, नाक, ललाट, सिर, बाल, मस्तिष्क और कोशिकाओं पर आनन्द भाव केन्द्रित करें और मन ही मन मुस्कुराएँ । आत्मनिरीक्षण करें और देखें कि यदि अब भी तनाव महसूस हो रहा है तो खिलखिलाकर हँसते हुए लोटपोट हो जायें और तनाव- - मुक्ति 29 For Personal & Private Use Only . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरकरार रखें। सकारात्मक सोच : तनाव-मुक्ति की औषधि तनाव-मुक्ति का दूसरा उपाय है- 'सकारात्मक सोच।' व्यक्ति अपनी सोच को सदैव विधायात्मक रखे। जैसी सोच होती है वैसा ही अनुकूल और प्रतिकूल हमारा जीवन होता है। किसी की छोटी-मोटी टिप्पणी पर ध्यान न दें और अपने द्वारा भी छोटी-मोटी घटनाओं पर टिप्पणी न करें। सकारात्मक सोच एक ऐसा मंत्र है जिससे चुटकियों में ही व्यक्ति तनावमुक्त हो सकता है। तनाव-मुक्ति की बेहतर औषधि है 'सकारात्मक सोच'। किसी ने हमारे लिए अच्छा किया और हमने भी उसके लिए अच्छा किया- यह जीवन की सामान्य व्यवस्था है। प्रेम के बदले में प्रेम दिया ही जाता है, लेकिन सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि वह अपना अहित करने वाले का भी हित करता है, शत्रु में मित्रता के सूत्र तलाशने की कोशिश करता है। वह काँटे बोने वाले के लिए भी फूल बिछाता है। सकारात्मकता व्यक्ति के मनोमस्तिष्क में विपरीत चिंतन को घर नहीं करने देती। आवेश, आशंका, आग्रह आदि सोच के वे दोष हैं, जो हमें नकारात्मकता की ओर धकेलते हैं। जब भी किसी बिंदु पर सोचें, समग्रता पूर्वक और विधायक नजरिये से सोचें। प्रसन्न रहें, तनाव-मुक्ति के लिए सदैव प्रसन्न रहना तनाव से बचने का अच्छा टॉनिक है। जिस प्रकार अंधे के लिए लकड़ी सहारा बनती है और बीमार के लिए दवा, वैसे ही तनावग्रस्त व्यक्ति के लिए प्रसन्नता औषधि का काम करती है। हँसने, मुस्कुराने, प्रसन्न और आनन्दित रहने से मन का मैल तो साफ होता ही है, शरीर की सम्पूर्ण कोशिकाएँ- नाड़ियाँ सक्रिय भी होती हैं । एक प्रसन्नता सौ दवा का काम करती है। मैंने सुना है, एक व्यक्ति बुखार से ग्रस्त हो गया। वह कई दिन तक घरेलू इलाज कराता रहा पर स्वस्थ न हो पाया। वह चिकित्सक के पास पहँचा। चिकित्सक ने उसे पीने की दवा दी। उस व्यक्ति के बंदर था। व्यक्ति ने दवा की एक खुराक ली। पास बैठे बंदर ने जब अपने मालिक को दवा पीते देखा तो उसके मन में भी दवा पीने की इच्छा हुई। उसने मालिक से नजर चुराकर दवा पी ली। दवा जबरदस्त कड़वी थी। दवा पीते ही बन्दर ने बड़ा विचित्र-सा मुँह बनाया। वह दाँत किटकिटाने लगा और अपने मालिक को घुड़काने लगा। बन्दर की इस भाव-भंगिमा को देखकर मालिक को बड़ी जोर की हँसी आयी। वह आधे घंटे तक लगातार हँसता रहा, क्योंकि बंदर बार-बार अपना मुँह बिगाड़ रहा था। आश्चर्य ! दो घंटे बाद जब उसने थर्मामीटर से अपना बुखार मापा तो उसे खबर लगी कि उसका बुखार उतर चुका है। वह अपने आपको काफी हल्का महसूस करने लगा। मैं यही बताना चाह रहा हूँ कि जो काम दवा की दस खुराक नहीं कर पाती है, वह काम प्रसन्नता की एक खुराक कर जाया करती है। प्रसन्नता हमारे भीतर उत्साह पैदा करती है। उत्साह से मनोयोग जन्मता है और मनोयोग किसी भी कार्य की पूर्णता का प्राण होता है। उत्साहहीन व्यक्ति भले ही कितना भी काम करता रहे लेकिन उसे मनचाहा परिणाम नहीं मिल सकता। दुनिया के जितने भी महापुरुषों ने बड़े-बड़े कार्य किये हैं, 30 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके पीछे उनका उत्साह ही था। जीवन-विकास का मंत्र : आत्मविश्वास तनाव-मुक्ति के लिए प्रसन्नता और उत्साह का ही मित्र बनता है हमारा आत्मविश्वास'। यह तो जीवन में वही काम करता है जो कार या बस को चलाने में पैट्रोल या डीजल करता है। शरीर में जितना रक्त का महत्व है उतना ही महत्व जीवन में आत्मविश्वास का है। एक मैदान में दो खिलाड़ी उतरते हैं। एक हारता है और एक जीतता है। इसमें अगर सबसे बड़ा कारण है तो दो में से एक का आत्मविश्वास ही है। यह जीवन का वह पुख्ता सहारा है जिससे हम बड़ी-से-बड़ी सफलता को आत्मसात् करते हैं और हर बाधा को लांघ सकते हैं। _जन्म से मूक, बधिर और नेत्रहीन हेलन केलर अगर दुनिया की महान् नारी बनी तो उसके मूल में उसका आत्मविश्वास ही था। हजारों बार प्रयोग करने के बाद दुनिया की रातों को रोशन करने के लिए बल्ब की रोशनी का आविष्कार करने का श्रेय अगर अल्वा एडिसन को जाता है तो उसके पीछे उनका आत्मविश्वास ही काम करता है। इसी आत्मविश्वास ने कोलम्बस से नई दुनिया की खोज करवा ली थी। इसी आत्मविश्वास ने सिंकदर को विश्व-विजयी बनाया था। दुनिया के हर महान् व्यक्ति के जीवन-विकास में आत्मविश्वास ने मंत्र का काम किया है। व्यस्त रहें, मस्त रहें एक और उपाय किया जा सकता है तनाव-मुक्ति के लिए वह यह है कि कार्य से प्यार करें। हर समय व्यस्त रहो, हर हाल में मस्त रहो- यही तनाव-मुक्ति की रामबाण दवा है। मुझे नहीं मालूम कि शैतान का घर किस पाताल-लोक में होता है पर यह अनुभव की बात है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है, अगर आपके जीवन में कोई बड़ी दुर्घटना घटित हो गयी है, पति-पत्नी या पुत्र की मृत्यु भी हो गयी है तो भी आप इस सदमें से उभर सकते हैं अगर आप अपने आपको किसी श्रेष्ठ कर्मयोग से जोड़ लें। एक महानुभाव को मैं जानता हूँ जिनके पत्नी और बेटी की हत्या हो गयी, घर में डकैती हो गयी। लेकिन उन्होंने दूसरी शादी करने की बजाय 'होनी' को ही स्वीकार किया और किसी प्रकार के अवसाद या तनाव से कुंठित होने की बजाय कुछ ही दिनों में स्वयं को सामाजिक कल्याण की गतिविधियों से जोड़ लिया जिसके परिणामस्वरूप वे जीवन के सबसे बड़े सदमे से सहज ही उबर गये। जीवन का महान योग : कर्मयोग जीवन में किसी भी कार्य को तन्मयता से करें और उसे बोझ समझने की बजाय योग समझें। अगर आप लगनपूर्वक किसी भी कार्य को सम्पादित करते हैं तो आप उस कार्य को शीघ्रता से तो पूर्ण कर ही लेते हैं, साथ ही साथ अनावश्यक मानसिक खिंचाव से भी बच जाते हैं । अगर तुम झाड़ भी निकालो तो इतनी लगनपूर्वक कि उधर से स्वर्ग के देवता भी अगर गुजर जाएँ तो तुम्हारी पीठ थपथपायें और कह पड़ें कि क्या बेहतर सफाई की है। इससे जुड़ा हुआ ही एक और बिन्दु है, एक वक्त में एक ही काम करें। यह भी कर दूँ, और वह भी कर 31 For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ,-सोचकर अपने दिमाग को भारी करने की बजाय धीरे-धीरे ही सही व्यवस्थित तौर पर एक-एक कार्य को पूर्ण करें। दिन भर में बीस कार्यों की योजना बनाने की बजाय किन्हीं दो कार्यों को पूर्ण करना कहीं ज्यादा लाभदायी है। जो व्यक्ति अपने दिन भर के कार्यों को समयबद्ध व्यवस्थित तौर पर करता है, वह सात दिन के कार्यों को एक दिन में पूरा कर लेता है। अच्छा होगा कि सुबह उठने के बाद जब आप आवश्यक कार्यों से निवृत्त हो जाएँ तो दिन भर में किये जाने वाले कार्यों की एक सूची बना लें और फिर उसमें पहले किसको करना है और पीछे किसको करना है, इसके आधार पर क्रम डाल दें। आप पाएंगे कि आपने सभी कार्यों को सरलता से सम्पादित कर लिया है और कोई भी काम आपके लिए तनाव का कारण नहीं बना है। न करें हड़बड़ी, होगी नहीं गड़बड़ी एक सावधानी और रखें। कार्य को जल्दबाजी में पूर्ण करने का प्रयास न करें। हम व्यस्त रहें पर अस्तव्यस्त न रहें। हड़बडी में गड़बड़ी की ज्यादा संभावना होती है और ज्यादा जल्दबाजी हमारे दिमाग में खिंचाव और तनाव पैदा करती ही है। इससे कार्य जल्दी होने की बजाय देरी से होता है और शक्ति भी कहीं ज्यादा खर्च होती है। जीवन में अपने परिश्रम पर भरोसा रखें, जो लोग जीवन में कर्मयोग से जी चुराते हैं और रातों-रात करोड़पति होने का ख्वाब देखा करते हैं, वे लोग जीवन में सदैव वहीं के वहीं पड़े रह जाते हैं। मुझे याद है कि किसी पर्यटनस्थल पर एक होटल खुला। दुनिया का अद्भुत होटल ! बाहर लिखा था 'आप होटल में आएँ, जी भर कर खायें। जो इच्छा हो सो खाएं, बिल की तनिक भी चिंता न करें। आप के बेटेपोतों से उसका भुगतान ले लिया जाएगा।' एक मुफ्तखोर उधर से गुजरा। उसने भी उसे पढ़ा। उसे लगा कि मुफ्त में माल खाने का यह सबसे अच्छा अवसर है। मेरी तो शादी ही नहीं हुई है। यह बिल का भुगतान किससे लेगा? वह भीतर गया, जम के मनपसंद भोजन किया। बाहर जाने लगा तो होटल के मैनेजर ने सात सौ रुपये का बिल पकड़ा दिया। वह चौंका। उसने कहा, 'आपने बाहर लिखा है कि जी भर के खाओ, भुगतान बेटे-पोतों से लिया जाएगा फिर मुझे बिल क्यों दिया जा रहा है ?' होटल के मैनेजर ने कहा, 'जनाब, यह आपका खाने का बिल नहीं है। यह तो आपके बाप-दादा खाकर गये उनका बिल है।' उसे लगा कि आज बुरे फंसे। जीवन-भर याद रखें, मुफ्त के मालपुए खाने की बजाय परिश्रम की रूखी-सूखी रोटी बेहतर होती है। चिंता-तनाव : डुबाए जीवन की नाव तनाव से बचने के लिए बेवजह की चिंताओं से भी बचें। कोई काम करना हो तो उस पर व्यक्ति सोच कर निर्णय ले ले, यह तो उचित है, लेकिन किसी भी बिंदु पर केवल सोचते रहना और निर्णय न ले पाना अपने मस्तिष्क पर जानबूझ कर बोझ डालना है। वास्तव में चिंता व्यक्ति को तब सताती है जब कोई कार्य हमारी इच्छा या अपेक्षा के अनुकूल न हो रहा हो। व्यक्ति एक ही बात को जब बार-बार अपने भीतर घोटता रहता है तो उसके परिणामस्वरूप वह तनाव में आ जाता है और कभी-कभी तो बिना किसी ठोस कारण के मात्र किसी भावी अनिष्ट की आशंका से व्यक्ति चिंता में डूब जाता है। ऐसी स्थिति में तो तनाव और भी गहरा हो जाता है जब व्यक्ति हर पहलू पर नकारात्मक दृष्टि से सोचता है। हर समय प्रसन्न रहना और छोटी-मोटी बातों की चिंता करने की 32 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजाय उन्हें भुला देना ही तनाव-मुक्ति की अमृत औषधि है । जो कुछ और जैसा भी हमको मिला है उसी में संतुष्ट रहना अगर मनुष्य को आ जाए तो तनाव की आधी बीमारी खत्म हो सकती है। आपके पास खुशी का कोई साधन नहीं है तो भी आप मुस्कुराते हुए बच्चे को देखकर प्रसन्न हो सकते हैं। खिले हुए फूल व खेत-खलिहान को, पर्वत-नदियों व प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर खुश हो सकते हैं और तो और, उगते हुए सूरज, खिला हुआ चांद और टिमटिमाते तारों को देखकर भी हम प्रसन्न हो सकते हैं। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से एक दिन यों ही किसी ने पूछा कि आप रात को बारह बजे तक कार्य करते हैं फिर भी तरोताजा बने रहते हैं। इसका कारण क्या है? आपकी तंदुरुस्ती का राज़ क्या है ? पंडित जी ने कहा, 'मैं रोज थोड़ी देर बच्चों के बीच रहता हूँ। जिनसे ढेर सारी खुशियाँ बटोर लेता हूँ। रोज सुबह बगीचे में टहलता हूँ जिससे ताजी हवा पा लेता हूँ और एक काम जो वर्षों से करता आया हूँ, वह है - बीती बातों को ज्यादा सोचा नहीं करता हूँ।' बीते का चिंतन न कर, छूट गया जब तीर। अनहोनी होती नहीं, होती वह तकदीर ॥ तनाव-मुक्ति के लिए हम इस सूत्र का सहारा ले सकते हैं। कुछ अच्छी बातें होती हैं जिन्हें हम अपने जीवन में जीने का प्रयास करें। ये बातें पंगु के लिए वैसाखी का काम कर सकती हैं। औरों की निंदा, ईर्ष्या, दोषारोपण की भावना, बिना सोचे समझे कुछ भी बोल जाना, ये सब पछतावे के कारण होते हैं और धीरे-धीरे हमें तनाव की ओर खींच लेते हैं। हम अपने ही भीतर जन्मने वाले विचारों का निरीक्षण करें। जो विचार औरों से जुड़े हुए हैं, देखें कि वे विचार ईर्ष्या और द्वेष से प्रेरित तो नहीं है ? अगर ऐसा है तो उन्हें दरकिनार करें। आपकी भूलने की आदत हैं, यह अच्छी बात है। आप उसका उपयोग करें। प्लीज'! आप अपने जीवन की खुशियों के लिए उन बातों को भूल जाएँ जो बार-बार आपकी जिंदगी में तनाव के काँटे उगा रही हैं। इस बात का बोध रखें कि हमारा मूल स्वभाव क्या है- पीड़ा या आनंद? और जब इन दो में से एक के चयन का मौका आए तो झट से आनंद को चुन लें।अपनी जेब में ऐसी मुहर रखें, जिससे सदा एक ही शब्द छपता हो और वह है खुशी। सुबह उठते ही एक मिनट तक तबीयत से मुस्कुराएं। वह एक मिनिट की मुस्कान आपके चौबीस घंटे की दैनंदिनी व्यवस्थाओं में माधुर्य घोल देगी। सुबह उठकर मुस्कुराना अपनी झोली में खुशियों को बटोरने का पहला साधन है। 33 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर निकलिए चिंता के चक्रव्यूह से चिंता चिता से बदतर है। मस्त रहने की आदत डालिये, चिंता से छुटकारा मिलेगा। पूरी दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसे किसी प्रकार की चिंता न सता रही हो। चिंता करना मनुष्य का सहज स्वभाव है। जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता है और जैसे-जैसे उसकी व्यवस्थाएँ बढ़ती हैं वैसे-वैसे मनुष्य के मनोमस्तिष्क में चिंता अपना बसेरा शुरू कर देती है। बचपन तक तो हम फिर भी चिंता-मुक्त रहते हैं, लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे अपनी दैनंदिन व्यवस्थाओं में इतने ज्यादा चिंतित हो जाते हैं कि हमारी चिंतन की धार समाप्त हो जाती है और हमें चिंता का जंग लग जाता है। किसी को इम्तहान की चिंता, किसी को होमवर्क की चिंता, कोई अपने कैरियर के लिए चिंतित, तो कोई नौकरी के लिए। किसी को विवाह के पहले चिंता सता रही है और किसी को बाद में। घर-खर्च, बेटी की शादी, बीमारियाँ, सेहत, बच्चों का भविष्य, प्रमोशन, पत्नी की फरमाइशें, कर्ज और भी पता नहीं जिंदगी में कितने-कितने कारण बन जाते हैं व्यक्ति की चिंता के लिए। चिंता : समाधान नहीं, स्वयं समस्या चिंता इस तरह अपना घर बनाती है कि चिंता से मुक्त रहने की सलाह देने वाला भी स्वयं चिंतित ही होता है। सच्चाई तो यह है कि चिंता किसी समस्या का हल नहीं अपितु अपने आप में एक बड़ी समस्या है। जैसे-जैसे यह हमारे जिंदगी में पाँव पसारना शुरू करती है वैसे-वैसे यह तन-मन धन तीनों को ही खाना शुरू कर देती है। चिंताग्रस्त व्यक्ति जी-जीकर भी जीवन भर मरने को मजबूर होता है। कई बार तो वह इतना अधिक टूटा हुआ, उदास और बैचेन हो जाता है कि उस व्यक्ति की जिंदगी को देखकर हमें दया आने लगती है। पद, प्रतिष्ठा, पहचान, पैसा इन सबको पाने की अकूत चाहना हमारे मन की अशांति का मूल निमित्त बनती है। पहले का मनुष्य कम चिंतित था, क्योंकि उसकी जिंदगी में उलझनें कम थीं। उसकी इच्छाओं की सीमा थी और फिजूलखर्ची पर रोक थी। लेकिन आधुनिक युग का मनुष्य जैसे-जैसे विकास करता चला गया वैसे 34 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसे चिंता उसकी पिछलग्गू बन गयी। मैं मानता हूँ कि हमारी आधुनिक सभ्यता ने हमें अनेक सुख-सविधाएँ दी हैं पर साथ ही साथ हमारी मन की खुशियों को चूसने वाली चिंता भी दी है। इससे हमारा परिवार प्रभावित होता है, व्यवसाय प्रभावित होता है और हमारा सामाजिक स्वरूप भी प्रभावित होता है। धीरे-धीरे चिंता हमारे जीवन की आदत बन जाती है। चिंतन करें, चिंता छोड़ें यद्यपि हम सभी इस चिंता के रोग से ग्रस्त हैं फिर भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर यह चिंता होती क्या है ? चिंता कोई शारीरिक रोग नहीं है अपितु घटित या घटने वाले किसी बिन्दु पर लगातार सोचने पर होने वाला मानसिक तनाव ही चिंता है। किसी कार्य पर चिंतन करने से वह आराम से पूर्ण हो जाता है किंतु उसी कार्य की लगातार चिंता करते रहने से वह दुरूह होने लगता है। अगर व्यक्ति जीवन में स्वास्थ्य, सुख और सफलता को प्राप्त करना चाहता है तो इसके लिए जरूरी है कि वह अपने जीवन में चिंता पर विजय प्राप्त करे। हमारी यह मानसिकता रहती है कि अगर हम किसी बिन्दु पर बार-बार सोचेंगे तो उसका कोई समाधान निकलकर आ जाएगा पर इसमें एक सावधानी रखने की बात यह है कि अगर हम किसी भी बिंदु पर सकारात्मक नजरिये से सोचते हैं तो वह हमारे लिए समाधान के द्वार खोलता है। अगर हम नकारात्मक नजरिये से सोचेंगे तो वही सोच चिंता बनकर हमारी अशांति का मूल कारण बन जाएगा। जैसे, आपने किसी को दो लाख रुपये ब्याज में दे रखे थे। संयोग की बात कि उस व्यक्ति ने अपना दिवाला निकाल दिया। आपको खबर लगी और आप यकायक तनाव और चिंता से ग्रस्त हो गए। किसी ग्राहक से बात करने का भी आपका मड न रहा, अत: उस दिन का सारा व्यवसाय भी प्रभावित हो गया। आप घर पहुँचे। पत्नी ने स्वादिष्ट भोजन बना रखा था किंतु आप चिंताग्रस्त थे, इसलिए यह कहते हुए भोजन नहीं किया कि आज मेरा खाने का मूड नहीं है।' रुपये गए सो गये, सुख की रोटी भी हाथ से गई। रात भर कमरे में लेफ्ट-राइट करते रहे अथवा बिस्तर पर पड़े-पड़े करवटें बदलते रहे और नींद न ले पाए । कभी सोचते, 'मैंने रुपये दिए ही क्यों थे? पिछले महीने किसी ने कहा भी था कि यह व्यक्ति हाथ ऊँचा करने वाला है, पर मैंने उस समय ध्यान नहीं दिया। अगर मैं उस समय ही रुपए वापस ले लेता तो आज यह नौबत नहीं आती।' पत्नी ने समझाया कि रुपये के पीछे नींद हराम करने से क्या होगा? पर तुम इतने ज्यादा चिंतित हो गए कि पूरी रात ही खुली आंखों बिस्तर पर पड़े रहे। यह हुआ चिंता के कारण तीसरा नुकसान, रुपए गए सो गए, चैन की नींद भी गई। और तो और, अगले दिन सुबह तुम्हारे मित्र तुम्हारे घर आए पर तुम उनसे भी प्रेम से बात न कर पाये क्योंकि तुम चिंतित थे। परिणामस्वरूप मैत्री भी कमजोर हुई। हजार चिताओं से बदतर एक चिंता एक चिंता हजार चिताओं से भी बदतर है। चिता एक बार जलाती है पर चिंता जिन्दगी में हजार बार जलने को मजबूर करती है। उसमें भी चिता तो मरे हुए को जलाती है पर चिंता तो जीते जी व्यक्ति को ही जला डालती है। चिंता हमारा कोई प्राकृतिक धर्म नहीं है और न ही यह हमारा स्वभाव है। यह धीरे-धीरे कुछ निमित्तों 35 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के चलते हमारे भीतर प्रवेश करती है या यों कहें कि हमारे भीतर बीज के रूप में प्रकट होती है और धीरे-धीरे स्वस्थ व्यक्ति को भी अपने आगोश में जकड़ लेती है। सच्चाई तो यह है जो चिंता पहले किसी बड़ी बात को लेकर हमारे भीतर जगती है, पीछे वही छोटी-छोटी बातों पर भी हम पर हावी होती है और उसके परिणामस्वरूप धीरे-धीरे मनुष्य उसका आदी हो जाता है। चिंता करने वाला व्यक्ति औरों की बजाय कहीं अधिक भावुक और संवेदनशील होता है और इस कारण छोटी-छोटी बातें भी उस पर गहरा दुष्प्रभाव छोड़ती है। चिंता की आदत बीड़ी-सिगरेट और शराब की आदत से भी कहीं ज्यादा खर्चीली है। बीड़ी पीने वाला बीड़ी पर खर्च करता है, सिगरेट पीने वाला सिगरेट पर और शराब पीने वाला शराब पर, वैसे ही चिंताग्रस्त व्यक्ति भी अपना बहुत बड़ा खर्चा डॉक्टर और दवाओं पर कर देता है। किसी भी कार्य को एक ही तरीके से बार-बार करना ही आदत पड़ने का मूल कारण है। फिर चाहे हम चाहें या न चाहें। आदत एक रस्सी की तरह होती है, जिसका एक-एक धागा हम बुनते हैं और उसके बाद रस्सी का रूपलेकर वे ही धागे हमें ही बाँध लेते हैं । चिंतित व्यक्ति सदैव निराशावादी और भयग्रस्त होता है। यदि चिंता ग्रस्त व्यक्ति चिंता की आदत को छोड़ने की बार-बार कोशिश करे तो वह कुछ समय के अभ्यास से इस रोग पर काफी विजय प्राप्त कर सकता है। विपरीत नजरिया चिंता का स्रोत चिंता का आभास मुख्यत: दो स्रोतों से होता है, या तो व्यक्ति के वस्तु, स्थान और परिस्थिति को देखने का दृष्टिकोण अथवा मन में बैठा हुआ उसका भय या आशंका। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति को देखने के लिए दो नजरिये होते हैं। अगर हम हर समय उन्हें विपरीत नजरिये से देखते रहेंगे तो परिणाम यह आएगा कि एक दिन वे सब हमारी चिंता के मूल कारण बन जाएँगे जिससे हमारे विचार खराब होंगे। हमारा हर विचार चिंता और दुःख से भरा हुआ होगा और हमें हर कार्य में असफलता महसूस होगी। फिर तो स्थिति यह होगी कि हम एक विशेष प्रकार के भ्रम के शिकार हो जाएँगे। बादल गरजेंगे तो तुम्हें महसूस होगा कि तुमसे टकराने के लिए ही वे तुम्हारे पास से गुजरे हैं। अगर कार में बैठोगे तो बैठते ही किसी परिचित की दुर्घटना याद हो आएगी और इस तरह तुम्हारा हर कार्य तुम्हें मानसिक तौर पर बैचेन करता रहेगा। चिंता हृदय में लगी हुई वह आग होती है जिसकी पीड़ा को वही जान सकता है जो उसमें झुलस रहा होता है। उसके कारण कई सुनहरे अवसर हाथ से छूट जाते हैं और खुशियों के दिन बीत जाया करते हैं। प्रकृति की व्यवस्था है कि जो जन्म देता है, वह जीवन की व्यवस्था भी कर देता है- 'चोंच देई सो चून हू देगो'। जो चोंच देता है वह चुग्गा भी देता है । इसके बावजूद व्यक्ति भविष्य की कल्पनाओं और अतीत की स्मृतियों में डूबा हुआ चिंता, अवसाद और घुटन को भोगता रहता है। आखिर क्या कारण हैं चिंता के? निवारण से पहले समझें कारण मेरी नजर में चिंता का सबसे बड़ा कारण है हमारा निराशावादी दृष्टिकोण । व्यक्ति सफलताओं की ओर बढ़कर भी बार-बार इसलिए असफल हो जाता है क्योंकि उसके भीतर घर कर चुकी निराशा उसे सफलता के 36 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम चरण में लाकर वापस लौटने को मजबूर कर देती है। अगर व्यक्ति छोटी-छोटी रुकावटों को देखकर निराश हो जाता है तो उसका चिंतित होना स्वाभाविक है। सदा याद रखें प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य होता है लेकिन उस प्रयास का परिणाम देना किसी और के हाथ में होता है। जितनी गंभीरता से व्यक्ति परिणाम को देखना चाहता है, संभवतः उतनी गंभीरता से वह प्रयास नहीं करता। मैंने देखा है कि हम लोग प्रायः किसी भी कार्य में असफल हो जाने पर तकदीर का ही दोष बताते हैं। अच्छा होगा यदि हम अपने भाग्य का रोना रोने की बजाय कार्यशैली के जो दोष रहे हैं, उन दोषों को पहचानें। हजार रुकावटें और मुसीबतें आने के बावजूद जो व्यक्ति धैर्य को बरकरार रखता है वह कभी चिंताओं के मकड़जाल में नहीं उलझा करता। निराशावादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति को फूल के इर्द-गिर्द काँटे ही नजर आएँगे और आशावादी व्यक्ति को काँटों के बीच भी फूल ही नजर आएगा। व्यक्ति दुकान खोलता है, ऑफिस चलाता है, कोई फैक्ट्री या किसी संस्थान की योजना प्रारम्भ करता है तो उसे शुरुआती दौर पर मिलने वाली असफलताओं को देखकर विचलित होने की बजाय भविष्य के गर्भ में छिपी हुई सफलता को देखने की कोशिश करनी चाहिए। भूलें बंद द्वार, खोजें खुलेद्वार निराशावादी दृष्टिकोण वाला व्यक्ति न केवल चिंतित होता है अपितु हतोत्साहित भी हो जाता है । मैं कर नहीं सकता, मैं कुछ हो नहीं सकता, मेरा तो भाग्य ही खराब है, क्या करूँ, जहाँ हाथ डालूँ वहीं हाथ जलता है; ये सब बातें वे लोग किया करते हैं जो निराशावादी होते हैं। जीवन भर याद रखें प्रकृति की व्यवस्था जब एक द्वार बंद करती है तो दूसरा द्वार खोल भी दिया करती है। हमें बंद द्वारों को देखकर रोना रोने की बजाय जीवन में किसी खुले द्वार की खोज करनी चाहिए। जिंदगी में निन्यानवे द्वार बंद हो जाएँ तो भी हताश न हों क्योंकि प्रकृति की व्यवस्था है कि वह सौवां द्वार जरूर खुला रखती है। ___ हमारा आशावादी दृष्टिकोण ही विफलता में भी सफलता का मार्ग खोज लेता है। आशावादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति पर चाहे दु:खों का पहाड़ भी क्यों न टूट पड़े, वह तो हमेशा मुस्कुराहट के साथ उन सबका सामना करता है। अगर जिंदगी में ऐसी नौबत आ जाए कि पाँव में जूते भी न हों और नंगे पाँव चलना पड़े तब भी तुम ईश्वर को साधुवाद दो कि उसने जूते नहीं दिए तो क्या हुआ, पाँव तो दिए हैं। दुनिया में लाखों लोग ऐसे हैं जिनको उसने पाँव भी नहीं दिए हैं। भगाएं, भय का भूत चिंता का दूसरा कारण है मन में बैठा हुआ भय; अनावश्यक भय । जैसे ही मनुष्य भयग्रस्त होता है, वह चिंतित भी हो जाता है। उसकी शारीरिक और मानसिक शक्ति कमजोर पड़ जाया करती है। भयग्रस्त व्यक्ति . अँधेरे में रस्सी को भी सर्प मान कर भयभीत हो जाता है और निर्भयचित्त व्यक्ति महावीर की तरह साँप को भी रस्सी मान कर उसे उठा कर फेंक देता है। किसी ने फोन पर छोटी सी धमकी दे दी अथवा किसी का कोई उलटा-सीधा खत आ गया तो हम तत्काल उद्वेलित हो जाते हैं और भयभीत होकर अनिर्णय की स्थिति में 37 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुँच जाते हैं। परिणामतः हम सभी ओर से कमजोर पड़ जाते हैं। जब होनी को टाला नहीं जा सकता और अनहोनी को किया नहीं जा सकता तो व्यर्थ की चिंता क्यों? जो लोग अपने जीवन में भय से ग्रस्त हैं वे अपने आत्मविश्वास को बटोरें और भय को नेस्तनाबूत करें। मुझे याद है : एक बच्चा अपनी सौतेली माँ के गलत व्यवहार से तंग आकर घर छोड़कर कहीं और जा रहा था। चलते-चलते एक गाँव में पहुँचा। उसने गाँव वालों से ठहरने के लिए जगह माँगी तो गाँव वालों ने कहा, 'गाँव के बाहर एक सुनसान मंदिर है। तुम उसमें ठहर सकते हो पर ध्यान रखना रात में उस मंदिर में मत रहना क्योंकि उस मंदिर में रात को भूत रहता है और जो भी रात को इस मंदिर में रहता है वह उसे मारकर खा जाता है।' बच्चा मंदिर में गया, यह सोच कर रातबसेरा का भी उसने निर्णय ले लिया कि यहाँ का भूत मेरी सौतेली मम्मी से ज्यादा खतरनाक थोड़े ही होगा। वह निर्भय मन हो रात को वहीं टिका रहा। रात के लगभग बारह बजे भूत आया और मंदिर में किसी बच्चे को देखकर उसे आश्चर्य हुआ। उसने बच्चे को उठाया और कहा, 'क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि इस मंदिर में जो भी रात को रहता है वह मेरा भोजन बन जाता है ?' उसने अट्टहास करते हुए कहा, 'मुझे जोरों की भूख भी लगी थी, अच्छा हुआ तू आ गया।' बच्चे ने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ते हुए भूत से कहा, 'भूत अंकल, आप मुझे मत मारो। मैं तो वैसे भी अपनी सौतेली माँ के द्वारा बहुत ज्यादा सताये जाने के बाद घर छोड़ कर यहाँ आया हूँ। आप मुझ पर दया करें, रहम खाएँ और मुझे जीवित रहने दें। मैं आपके लिए रोज खाना भी बना दूंगा, मालिश कर दूंगा और आप जो कहेंगे, वह भी कर दूंगा।' भूत उसकी सौतेली माँ से थोड़ा ठीक था। उसे बच्चे पर दया आ गई। उसने कहा, 'मैं एक शर्त पर तुम्हें जीवित रख सकता हूँ कि तुम कभी भी इस मंदिर से बाहर नहीं जाओगे। तुम जैसे ही बाहर जाने के लिए कदम बढ़ाओगे, मैं तत्काल तुम्हें जान से मार दूंगा।' कई महीने बीत गए। बच्चा वहीं रहता रहा। भूत के भय से उसने बाहर जाने की कभी हिम्मत भी नहीं की। भूत भी समय-समय पर बच्चे को डराता रहता था। एक दिन भूत ने कहा, 'बेटा मैं यमराज के पास जा रहा हूँ, उनसे प्रार्थना करने के लिए। क्या तुम्हारा कोई काम है उनसे?' बच्चे ने कहा, 'भूत अंकल, कोई विशेष काम तो नहीं है किंतु आप केवल इतना-सा उनसे पूछ आएँ कि मेरी उम्र कितनी है?' भूत यमराज के पास जाकर वापस आया और उस बच्चे से कहा, 'तुम्हारी उम्र सत्तर साल, आठ महीने, तीन दिन और आठ घंटे की है।' बच्चे ने कहा, 'ठीक है।' कुछ दिन बाद भूत फिर यमराज के पास जाने लगा तो बच्चे ने भूत से कहा, 'अंकल, आप जरा यमराज से इतना कहिएगा कि या तो मेरी उम्र एक घंटा ज्यादा कर दे या कम कर दे।' थोड़े दिन बाद भूत वापस लौट कर आया और कहा, 'भैया, माफ करो। यमराज कहते हैं कि किसी की उम्र का एक घंटा बढ़ाना और घटाना उनके हाथ में नहीं है।' बच्चा बात समझ गया। वह शाम को मंदिर से बाहर निकलने लगा तो भूत ने उसे धमकाया और कहा, 'बाहर निकलने की कोशिश की तो जान से मार दूंगा।' बच्चा चूल्हे के पास गया और उसने जलती हुई बड़ी 38 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकड़ी उठाई और भूत के पीछे भागा और कहा, 'हे भूत! तुम मुझे क्या मारोगे? जब यमराज के हाथ में भी मेरी जिन्दगी को बढ़ाना और घटाना नहीं है तो तेरी क्या मजाल है ?' लड़का जलती लकड़ी लेकर भूत के पीछे पड़ा। भूत समझ गया कि अब इस बच्चे को नहीं डराया जा सकता है क्योंकि इसके भीतर के भय का भूत मर गया है। तभी उसने मंदिर में जोर की आवाज सुनी, 'भागो भूत ! भूत आया। उसके बाद आज तक भूत वापस उस मंदिर में नहीं आया। अभय बनो, अभयदाता बनो तीर्थंकर महावीर ने पच्चीस सौ वर्ष पूर्व मानव-जाति को अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त करने के लिए निर्भयचित्त होने की प्रेरणा देते हुए कहा था कि व्यक्ति न तो औरों से भयभीत हो और न ही अपने द्वारा औरों को भयभीत करे।' तुम अभय बनो और अभयदाता भी बनो। कायर भय से डरता है और साहसी व्यक्ति से भय डरता है। एक निर्भय व्यक्ति सौ भयभीत व्यक्तियों पर भारी पड़ सकता है। भयाकुल व्यक्ति अपने वर्तमान का उपयोग कम करता है । वह कल का चिंतन ज्यादा करता है कि कहीं ऐसा हो गया तो मेरा क्या होगा? यह सोच ही हमारे मन को निर्बल कर देती है। मैं यह भी नहीं कहता कि भय सदा के लिए ही हानिकारक है या साहस सदैव लाभकारी है लेकिन प्रायः ये दोनों हमारे लिए हानि और लाभ से जुड़े रहते हैं । वह भय हमारे लिए चिंता का निमित्त बन जाता है जो बार-बार किसी एक ही बिन्दु, स्थान या व्यक्ति से जुड़ा रहता है। श्री कृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिया गया वह संदेश चिंता और तनाव से भरे हर किसी व्यक्ति के लिए बार-बार मननीय है कि हे अर्जुन! हीनता और नपुंसकता तुम्हें शोभा नहीं देती। मन में घर कर चुकी दुर्बलता का त्याग करो और अपने कर्त्तव्य के लिए सन्नद्ध रहो । मैं भी आपसे यही कहना चाहूँगा कि साहस और भय में हमेशा संतुलन रखा जाए। कुछ बिंदु ऐसे होते हैं जिनमें कुछ भय रखना अच्छी बात है और कुछ बिंदु ऐसे होते हैं जिनमें साहस की सीमा रखना ज्यादा श्रेष्ठ रहता है। मैं समझता हूँ कि पुलिस जितना काम नहीं करती उससे ज्यादा उसका भय काम करता है। तो यह भय अच्छा है क्योंकि इससे व्यक्ति समाज-विरोधी, राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों से बचता है। हाँ, मूर्खतापूर्ण साहस करना भी हानिकारक है। अगर कोई खूखार शेर के सामने निहत्था लड़ने के लिए चला जाएगा तो उसकी मृत्यु निश्चित है। जिएँ, संतुलित जीवन ___ अच्छा होगा कि हम विवेकपूर्ण और संतुलित जीवन जिएँ और ज्ञान के प्रकाश में तथ्यों का भलीभाँति अवलोकन करें। हम वास्तविकता और अंधविश्वास में भेद समझें और ऐसे भय को अपने पास में न फटकने दें जो आपकी शारीरिक और वैचारिक शक्तियों का दमन करता है। अगर इसके बावजूद कोई अनजाना भय हमारे मनोमस्तिष्क में अपना घर बना ले तो हम भय के कारणों का विश्लेषण करें और पूरी शक्ति से भय की ग्रंथि को बाहर खदेड़ दें। आवेश और डर- इन दोनों से ही मुक्त होकर हम सफल और सक्षम व्यक्ति बन सकते हैं । याद रखें, हमारी चिंताएँ हमेशा हमारी कमजोरियों का कारण होती हैं। अगर हम कुछ कर सकते हैं तो हीनता की वृत्ति से भी बचें। हीनभावना अथवा सदैव दुःखदायी विचारों 39 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जीना हमारी मानसिक ग्रंथियों को अवरुद्ध करता है। उससे हमारे ज्ञानतंतु कमजोर होते हैं। जीवन में संभव है कि किसी प्रकार का कोई एक दुःख आ जाए अथवा जिससे हम बहुत अधिक प्रेम कर रहे हों वही हमें दग़ा दे जाए। बजाए इसके हम निरन्तर उन्हीं विचारों में जीते रहें, कोशिश करें उन बातों और निमित्तों को भूलने की। दुःखदायी विचार हमारे दुःखों को कम नहीं करते अपितु उनमें और भी अधिक बढ़ोतरी किया करते हैं । चाह और चिंता : चोली-दामन का रिश्ता चिंता के कारणों में एक है 'हमारी अति-महत्वाकांक्षा ।' व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति करे वहाँ तक तो जीवन संयम के बाँध में बँधा रहता है लेकिन आकांक्षाओं के मकड़जाल में उलझ जाने के बाद उससे मुक्त पाना आदमी के लिए मुश्किल हो जाता है। सागर और आकाश का अंत हो सकता है, लेकिन मनुष्य की तृष्णा और आकांक्षा का कभी अंत नहीं हो सकता। और वे आकांक्षाएँ हमारे लिए चिंता का कारण बन जाती हैं। हम आकांक्षाएँ तो ढेर सारी बटोर लेते हैं लेकिन पूरी दो-चार भी नहीं कर पाते हैं। कुछ अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति होते हैं जो रात-दिन योजनाएँ बनाते हैं और हर जगह हाथ मारने की कोशिश करते हैं। वे करते कम हैं और सोचते ज्यादा हैं, परिणामस्वरूप वे चिंताओं से बोझिल होते रहते हैं । 'चाह गई, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह ।' चाह और चिंता में चोली-दामन का रिश्ता है। लगभग चालीस फीसदी चिंताओं का कारण हमारी महत्वाकांक्षा होती है, जो नहीं मिला है उसके लिए उधेड़बुन करने में है । व्यक्ति इसी में जीता रहता है और यही उधेड़बुन उसकी चिंता का मूल कारण बनती है। मैंने देखा है कि कुछ ऐसी प्रकृति के लोग होते हैं, जो जहाँ भी जाएँगे, जिस किसी देवी-देवता के मंदिर में भी तो उनकी संपूर्ण पूजा या उपासना में कोई-न-कोई चाह छिपी रहती है। जो मिला है, व्यक्ति उसका उपभोग नहीं कर पाता और जो नहीं मिला है उसके पीछे दौड़ता रहता है । आज अगर मंदिरों में भण्डार भर रहे हैं तो यह मत समझिएगा कि लोग भगवान को चढ़ा रहे हैं। वास्तव में वे लोग अपनी भविष्यनिधि की व्यवस्था कर रहे हैं। मनुष्य को धर्म के नाम पर यह समझाया गया है कि तुम्हें अगले जन्म में एक का सौ मिलेगा और सौ का लाख । हवा निकालें, हवाई कल्पनाओं की मनुष्य के मन में पलने वाली तृष्णा उसकी चिंता का मूल कारण है। तृष्णा हमारे संतोष को समाप्त करती है और असंतोष मानसिक तनाव का कारण बनता है। मुझे एक महानुभाव बताया करते थे कि उन्हें कई बार एक जैसा सपना आता है कि वे एक सोने के महल के सामने खड़े हैं। महल की खूबसूरत सीढ़ियों से चढ़कर वे महल की छत पर पहुँचते हैं। महल पर उनका राज्य है और वे महल की दीवारों पर टहल रहे हैं। लेकिन थोड़ी देर के बाद ही वे सपने में देखते हैं कि जिस दीवार पर वे खड़े हैं उसकी सारी ईंटें हिल रही हैं। उनका संतुलन बिगड़ने लगता है । वे दीवार से नीचे उतरने के लिए जैसे-तैसे सीढ़ियों के पास पहुँचते हैं लेकिन सीढ़ियों के पास पहुँच ही सीढ़ियाँ भी भरभराकर नीचे गिर जाती हैं। वे भयभीत हो जाते हैं और सोने का महल उन्हें जानलेवा लगता है और घबराकर वे जोर से चीखते हैं और उनकी आँख खुल जाती है। आँख खुलने पर भी इतनी तेज घबराहट रहती है कि सारी रात वे बैचेन रहते हैं और नींद नहीं ले पाते । 40 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैंने कहा कि जिस महल की एक ईंट भी हमने नहीं लगाई उसके ऊपर भला हम चढ़ें ही क्यों ? जीवन में अगर महल पर चढ़ना है तो पहले परिश्रम करो, एक-एक ईंट का संयोजन कर मजबूती से महल बनाओ फिर अगर महल पर चढ़ोगे, तो न तो ईंटे हिलेंगी और न ही सीढ़ियाँ गिरेंगी। बाकी तो जीवन में सब लोग हवाई किले बनाते हैं किन्तु कल्पना के हवाई किलों की उम्र आखिर कितनी होती है ? तृष्णा का मकड़जाल व्यक्ति खुद बुनता है और उसमें उलझ कर छटपटाता हुआ अनेक रोगों से घिर जाता है। बिना परिश्रम के केवल कल्पना के हवाई किलों का निर्माण करना हमारी तृष्णा का ही विकृत रूप है। अनन्त हैं तृष्णा के तीर तृष्णा का सबसे खतरनाक रूप है अपनी आवश्यकता से अधिक सुख-साधन और उपलब्धियों को पा लेने के बावजूद भी और अधिक धन, सम्पत्ति, यश, वैभव आदि को पाने की आकांक्षा। अर्थात् दूसरों की खुशियों की कब्र पर अपनी कामयाबी के झण्डे गाड़ देने की तृष्णा। तृष्णा का यह रूप या तो व्यक्ति को चिंताग्रस्त करके अधमरा कर देता है या फिर व्यक्ति को निरंकुश तानाशाह बना कर विकृत कार्य करने के लिए प्रोत्साहित कर देता है। सद्दाम हुसैन और उनके बेटे इसके सबसे ताजा नमूने हैं। हिटलर, नादिरशाह, सिकंदर, महमूद गजनवी, चंगेज खां जैसे पता नहीं कितने तानाशाह और स्वेच्छाचारी लोग हुए, जिन्होंने अपनी तृष्णा को शांत करने के लिए कितने ही बेगुनाह लोगों के खून से होली खेली और इतिहास के पन्नों को खून में डूबो दिया। तृष्णा के ये दोनों ही रूप खतरनाक हैं। पहली विकृति चिंता, तनाव, घुटन जहाँ स्वयं आदमी को नष्ट करती है वहीं दूसरी विकृति हिंसा, आतंक भी हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय ढाँचे को कमजोर करते है। ऐसे लोगों का अंत भी बड़ा दुःखद होता है । मुसोलिनी और उसकी पत्नी को लोगों ने मार कर चौराहे पर लटका दिया था। हिटलर ने विक्षिप्त होकर आत्महत्या कर ली थी। सिकंदर वापस अपनी धरती पर भी न पहुँच पाया था। दूसरी ओर माया की आपा-धापी में व्यक्ति इतना ज्यादा उलझ गया है कि स्वयं ही नष्ट हुआ जा रहा है। उसके पास आलीशान कोठी व बंगला है लेकिन घर की सौहार्दमयी संवेदना मर चुकी है। घूमने के लिए एक से बढ़कर एक लक्जरी कारें हैं लेकिन भागम-भाग ने मन की शांति छीन ली है। उसके पास अथाह सम्पत्ति है लेकिन वहाँ प्रेम नहीं अपितु अहंकार का प्रदर्शन है। जीवन में शांति के बजाय तृष्णा है, कुण्ठा है, तनाव, अवसाद और घुटन है। ___मैं एक महानुभाव को जानता हूँ जिन्हें जमीन और सम्पत्ति की इतनी तृष्णा थी कि पूरे शहर की हर जमीन को वे अपनी ही सम्पत्ति मानते थे। जमीनों को पाने के लिए वे खोटे-खरे हर तरह के काम कर देते थे। 'धन आए मुट्ठी में, धर्म जाए भट्ठी में' वाली सोच के व्यक्ति थे। साम, दाम, दण्ड, भेद हर तरह की नीति-अनीति वे कर दिया करते थे। अरबों रुपये की जमीनें उन्होंने बटोर ली लेकिन खुद अकाल मौत मारे गए। उनके दो लड़के हैं, दोनों के दो-दो लड़कियाँ हैं। बड़े लड़के की दोनों लड़कियाँ मानसिक रूप से विक्षिप्त हैं और छोटे लड़के की दोनों लड़कियाँ किसी दुर्घटना में अपंग हो चुकी हैं। वे दोनों लड़के काफी सुरक्षा में जीते हैं और शायद सोचा करते हैं कि अगर उनके पास धन नहीं होता तो आज वे अपनी लड़कियों का इलाज कैसे करवाते? For Perso4.1& Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं सोचा करता हूँ, काश! दूसरों की जमीने हड़प कर उनकी बद्दुआएँ न ली होती तो बच्चियों के इलाज की आवश्यकता ही न पड़ती। है दुखों की खाई, व्यर्थ की सिरखपाई __ चिंता के कारणों में एक और कारण है- 'छोटी-छोटी बातों में सिर खपाई।' इससे परिवार का माहौल कलुषित होता है। सब लोग आपस में टूटते हैं और हर व्यक्ति तनाव और चिंता से ग्रस्त रहता है। कोई बड़ी बात हो और हम सिरखपाई करें तो बात जमती भी है लेकिन छोटी-छोटी बातों को सहजतापर्वक न लेना और उन पर विपरीत टिप्पणियाँ करना परिवार में सिर फटव्वल की नौबत लाना है। मझे याद है, एक महिला अपनी बच्ची को छोटी-छोटी बातों में टोका करती थी और उसकी टोकने की आदत इतनी बढ़ गई कि दिन में पच्चीस-पचास बार तो वह उसे टोक ही देती। धीरे-धीरे बच्ची पर टोका-टोकी का प्रभाव कम होने लगा। वह न केवल चिड़चिड़ी हो गयी अपितु माँ की बातों पर ध्यान देना भी उसने बंद कर दिया। परिणामतः माँ इस बात को लेकर चिंताग्रस्त हो गयी कि आखिर मेरी बेटी मेरा कहना क्यों नहीं मानती? अभी कुछ दिन पूर्व एक महानुभाव मेरे पास चैन्नई से आए। अपनी व्यथा सुनाते हुए वे कहने लगे, 'शादी के साल-छ: महीने तक तो मेरी और मेरी पत्नी में काफी प्रेम बना रहा लेकिन उसके बाद पता नहीं क्या हुआ कि हमारी अनबन बढ़ती गई जिसके कारण मैं चिंतामुक्त नहीं रहता हूँ। मुझे जिंदगी भार-भूत लगने लग गई है। जब मैंने उनकी पत्नी से बात की तो उसने बताया कि ये अपने ही कारण दु:खी हैं। छोटी-छोटी बातों पर इतनी ज्यादा सिर खपाई करते हैं कि खुद तो दु:खी होते ही हैं, पूरे घर को नरक बना देते हैं।' ___ कोई बड़ी बात हो जाय और हम अपनी ओर से कोई टिप्पणी करें तब तो बात शोभा भी देती है लेकिन छोटी-मोटी बातों पर सिरखपाई करते रहोगे या छोटी-मोटी बातों को समझ नहीं पाओगे तो खुद भी दुःखी हो जाओगे और औरों को भी दुःखी करोगे। ___ कुल मिला कर निराशावादी दृष्टिकोण, हीनभावना, मन में बैठा हुआ भय, हर समय दुःखदायी विचारों में डूबे रहना, वैर की गाँठों को बाँधना अथवा छोटी-मोटी बातों को सही तरीके से नहीं समझना ही चिंता का मूल कारण है। याद रखें, किसी निश्चय/निष्कर्ष पर पहुँचना चिंतन का उद्देश्य है लेकिन निश्चय हो जाने के बाद भी उसी बिंदु पर सोचते रहना चिंता का मूल कारण बन जाता है। चिंता एक, रोग अनेक ऐसे कुछ उपाय हैं जिन्हें अपनाकर हम चिंता से मुक्त हो सकते हैं पर इसके लिए जरूरी है कि पहले हम यह समझें कि इसके कौन-कौन से गम्भीर दुष्परिणाम हो सकते हैं। चिंता से जीवन में कई सुनहरे अवसर हाथ से निकल जाते हैं और निजी जीवन कटुता से भर जाता है। चिंताग्रस्त व्यक्ति केवल एक ही काम कर सकता है और वह है- 'हर बात पर चिंता'। हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को कमजोर कर चिंता हमें कर्महीन तो करती ही है, साथ ही साथ हमारे भीतर ऐसे हानिकारक भावावेग भी पैदा करती है जिनसे हमारा स्वास्थ्य खराब होता है। मनुष्य के भीतर मनोवेग अच्छे व बुरे विचारों से पैदा होता है। संतोष, सहनशीलता, प्रसन्नता, 42 For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हँसी, मेल-मिलाप, साहस, सेवा और प्रेम आदि से हमारे भीतर अच्छे आवेग पैदा होते हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते हैं । भय, चिंता, घृणा, दंभ, निराशा, निंदा, ईर्ष्या, लड़ाई-झगड़े आदि से बुरे आवेग पैदा होते हैं जो हमारे स्वास्थ के लिए बड़े हानिकारक होते हैं। अच्छे आवेग जहाँ हमारे शरीर के लिए बहुत लाभदायक होते हैं वहीं बुरे आवेग हमें शारीरिक और मानसिक तौर पर पीड़ित करते रहते हैं । प्राय: हम सोचा करते हैं कि चिंताग्रस्त रहने वाले लोगों में कोई न कोई प्राकृतिक कमी रहती होगी, पर ऐसी बात नहीं है । चिंतित अथवा तनाव ग्रस्त रहने वाले लोगों में किसी तरह की कमजोरी नहीं होती बल्कि उसके मूल में वह अशुभ वातावरण होता है जिसमें वे रहते हैं। मैंने कई चिंताग्रस्त लोगों को देखा है जो तरहतरह की बीमारियों से ग्रस्त होते हैं। मैंने कुछ ऐसे चिंतित लोगों को भी देखा है जिन्हें चिंता का दौरा आने पर उनका दिल तेजी से धड़कता है और हाथ पांव भी ठण्डे पड़ जाते हैं । ऐसे लागों को मानसिक, बैचेनी, सिर दुःखना और चक्कर आना आदि रोग लगने भी शुरू हो जाते हैं । सामान्यतया हम चार घंटा काम करके जितनी थकावट पाते हैं उससे चार गुना थकावट हमें चार घंटे की चिंता दे देती है । चिंताग्रस्त व्यक्ति थोड़ा-सा काम करने से ही स्वयं को थका हुआ महसूस करता है । चिंता और बुरे आवेग - ये दोनों एक दूजे के पर्याय हैं और इनसे शरीर में शुगर की मात्रा बढ़ती है और शरीर कमजोर पड़ना शुरू हो जाता है । अधिक चिंता अधिक थकान देती है जबकि कम चिंता कम थकान देती है। हकीकत तो यह है कि चिंताग्रस्त व्यक्ति सदैव ही थका हुआ रहता है क्योंकि मनुष्य की थकान प्रायः उसके मस्तिष्क में ही उत्पन्न होती है । यदि आप रात भर सोये हैं और इसके बावजूद सुबह आपकी थकान नहीं उतरी है तो इसका मुख्य कारण चिंता और मानसिक तनाव ही है । कार्य को समझें कर्तव्य मैंने देखा है कि कुछ लोग जब सुबह उठते हैं तो उसके एक-दो घंटे बाद ही वे स्वयं को थका हुआ महसूस करते हैं। मेरी नजर में इसका मुख्य कारण किसी प्रकार की चिंता है या ऊब है। दिन का आरम्भ होते ही जब व्यक्ति अपने कार्यों को व्यवस्थित क्रम नहीं दे पाता तो वह बार-बार दिनभर के कार्यों को याद करके बोझिल होता है और उस पर उन कार्यों की चिंता सवार हो जाती है अथवा एक ही कार्य को बार-बार करने से व्यक्ति ऊब जाया करता है। विशेषकर घरेलू काम-काज करने वाली महिलाएँ इस परिस्थिति से गुजरती हैं। वे घर के काम काज में इस वातावरण को समझ नहीं पाती अथवा कार्यों को व्यवस्थित सम्पादित नहीं कर पाती इसलिए वे ऊब जाया करती हैं। कई बार 'वर्क लोड ' ज्यादा होने पर वे यही सोचने लगती हैं, क्या सारे कार्यों का ठेका मैंने ही ले रखा है, ? यह सोच कर महिलाएँ कार्य को बेमन से करती हैं। परिणामस्वरूप वह कार्य भारभूत भी होता है और चिंता देने वाला भी । अच्छा होगा कि वे महिलाएँ घर के कार्य को अपना कर्त्तव्य समझते हुए बड़प्पन दिखाएँ और क्रमश: एक-एक कार्य को सम्पन्न करें। दिन में दो-तीन बार शरीर को आराम भी दें। दीपावली या अन्य किसी त्यौहार के मौके पर घर की सफाई के नाम पर एक साथ सारे काम हाथ में न उठाएँ। वे महिलाएँ अपने घर में सदैव दीवाली मनाती हैं जो केवल दीवाली के मौके पर ही घर की साफ-सफाई 43 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करतीं अपितु बारहों महिने इसके प्रति सजग रहा करती हैं । भरोसा रखें भवितव्यता पर अगर लगे कि आप किसी बात को लेकर बार-बार तनावग्रस्त हो रहे हैं तो अच्छा होगा कि उसे आप भवितव्यता पर छोड़ दें और स्वयं को किसी भी सृजनात्मक कार्य में जोड़ दें क्योंकि खाली बैठने से हमारा मन व्यर्थ की चिंताओं के प्रति ज्यादा आकर्षित होता है । अपने द्वारा या परिवार के अन्य किसी सदस्य के द्वारा किसी प्रकार की गलती हो जाए या काम बिगड़ जाए तो उसको अधिक तूल न दें। माफी मांग लें, माफ कर दें और उसे भूलने की कोशिश करें । चिंता के शारीरिक रूप से भी जबरदस्त प्रभाव पड़ते हैं । हमारी मानसिक अवस्था और पाचन शक्ति का गहरा संबंध है। ज्यादा चिंता करने वाले व्यक्ति की पाचनशक्ति बिगड़ती है और भोजन हजम नहीं होता । चिंतातुर व्यक्ति का दिमाग ही तनावग्रस्त नहीं रहता अपितु पेट भी तनावग्रस्त रहता है। यदि मनुष्य चिंताग्रस्त है। तो उसका पेट एक विशेष प्रकार की कसावट में आ जाता है। परिणामस्वरूप चिंतित व्यक्ति को भूख कम लगती है । भय और चिंता से पेट में अल्सर होने की संभावना भी रहती है। छोटी आंत, बड़ी आंत, आमाशय, किडनी सब कुछ प्रभावित होती हैं चिंता से । चिंता का दुष्परिणाम : सबकी नींद हराम आज की तारीख में चिंता ने जो सबसे गहरा दुष्परिणाम दिया है वह है- 'लोगों की नींद हराम करना ।' पहले चिंता के कारण नींद नहीं आती और फिर नींद न आने की चिंता बढ़नी शुरू हो जाती है । हमारे यहाँ संबोधि-साधना शिविर में कई साधक ऐसे आते हैं जो अनिद्रा रोग के शिकार होते हैं। वर्षों तक दवाइयाँ खा लेने के बावजूद वे इस रोग को मिटा नहीं पाते लेकिन सात दिन का साधना-शिविर उन्हें आश्चर्यजनक परिणाम देता है और वे नींद की गोली खाये बगैर ही बेहद आराम से सोते हैं क्योंकि नींद न आने के जो भी कारण थे, वे साधना से स्वतः ही मिट जाते हैं । अनिद्रा के कई कारण हो सकते हैं पर सबसे बड़ा कारण है भय और चिंता । किसी डॉक्टर ने एक मेडिकल केस में कागजों की हेराफेरी कर दी । संयोग से अगले दिन अखबार में इस बात की हल्की-सी आशंका की न्यूज आ गई। बस हो गयी, उसकी नींद हराम ! कागजों को वापस सही करना उसके हाथ में नहीं था और मन में भय फँसा रहता था कि कहीं पुलिस को इस धोखाधड़ी की खबर न लग जाए। डॉक्टर जो अब तक लोगों का इलाज करता रहा, वह अपने ही मनोमस्तिष्क में पनपी हुई चिंता के कारण अनिद्रा का शिकार हो गया । 1 एक बहिन ने मुझे बताया कि वह कई वर्षों से अनिद्रा की शिकार है। देश में कई मनोचिकित्सकों से वह अपना उपचार करवा चुकी है। स्पष्ट तौर पर उसके मन में किसी प्रकार की चिंता और तनाव भी नहीं है। उसके जीवन में सारी सुख-सुविधाएँ हैं। थोड़े दिन बाद मुझे ज्ञात हुआ कि उसकी जेठानी से उसकी काफी अनबन रही। दोनों वर्षों तक साथ रहीं लेकिन एक दूजे को तनाव देने के अलावा उन्होंने कुछ भी नहीं किया। वर्षों तक ऐसा ही चलता रहा । परिणामस्वरूप अलग हो जाने के बाद भी उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया, इन्हीं सब बातों 44 For Personal & Private Use Only . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के तनाव और चिंता के कारण उसकी अनिद्रा बढ़ती चली गई। __संबंधों में जब ज्यादा अपेक्षा पाल-ली जाती है और जब वे अपेक्षाएं पूर्ण नहीं होती हैं तो हम तनावग्रस्त हो जाते हैं। हमें प्रत्येक व्यक्ति और उसके व्यवहार को सहजता से लेना चाहिए, अगर कोई हमारे काम आए तब भी और न आए तब भी। मेरे सामने दो तरह की घटनाएँ हैं। एक बहिन अपनी देवरानी की यह कहकर जमकर आलोचना कर रही थी कि जब उसकी डिलेवरी हुई तो मैंने दो महीने तक पल-प्रतिपल उसकी सेवा की लेकिन वह इतनी खुदगर्ज निकली कि मैं कुछ दिनों के लिए पीहर चली गई तो वह दस दिन भी मेरे बच्चों को प्रेम से खाना नहीं खिला सकी। वहीं कल आगरा की एक बहिन बता रही थी कि उसके पाँव की हड्डी टूट गई थी पर उसकी देवरानी ने इतनी सार-संभाल की कि वह उसकी कर्जदार हो गयी। वह कहने लगी, 'मेरी बेटी भी ऐसी सेवा नहीं कर सकती जैसी उस देवरानी ने की।' मैंने देखा कि देवरानी की तारीफ करते-करते उस महिला की आँखें भर आई थीं। सावधान रहें ! दुनिया में दोनों तरह के लोग होते हैं। कुछ आपके जीवन में मददगार बनते हैं तो कुछ आपके जीवन-विकास में बाधक भी होते हैं। जो आपके काम आए उससे तो प्रेम करें ही, पर उससे भी प्रेम करें जो आपके काम नहीं आ रहा है, शायद आपका प्रेम उसे काम आने लायक बना दे। दें, मन को विश्राम नींद लेने के लिए शांत वातावरण की जितनी जरूरत होती है उससे भी कहीं ज्यादा जरूरत मानसिक शांति की होती है अन्यथा वह वातावरण की शांति और अधिक मानसिक अशांति पैदा कर देती है। यदि आपको नींद नहीं आती है तो सीधे लेटे रहें। शरीर को ढीला छोड़ दें और जीवन की किसी अच्छी घटना या स्मृतियों के बारे में सोचें ताकि अन्य चिंताओं से उबर सकें।अनिद्रा से बचने के लिए आप सदैव शांत व प्रसन्नचित्त हृदय से 'बेडरूम' में जाएँ और सावधान रहें ! चिंता, भय और तनाव नींद के शत्रु होते हैं । बिस्तर पर जाने के बाद दिनभर के काम-काज के झमेले को याद न करें। जो लोग रात को बिस्तर पर पड़े हुए भी कारोबार के बारे में सोचते रहते हैं, वे अनिद्रा के शिकार हो जाते हैं। ध्यान रखें, नींद के लिए जबरन प्रयास न करें। इससे अनिद्रा और अधिक प्रभावी होती है। निद्रा की चिंता ही अनिद्रा को बढ़ाती है। इसलिए नींद की ज्यादा चिंता करने की बजाय शारीरिक और मानसिक आराम पर ज्यादा ध्यान दें। चक्कर आने की शिकायत का संबंध भी चिंता और तनाव से है क्योंकि इन हानिकारक मनोवेगों से मस्तिष्क की नाडियाँ सिकड जाती हैं। परिणामतः रक्तसंचार प्रभावित होता है और हमें चक्कर आने शरू होते हैं। जिन लोगों की गर्दन के पीछे दर्द की शिकायत रहती है वे लोग इसके लिए किसी डॉक्टर के पास जाने से पहले आत्मावलोकन कर लें कि आप कई दिन से किसी चिंता के शिकार तो नहीं हैं। चिंता के कारण गर्दन के पिछले भाग की मासपेशियों में खिंचाव आ जाता है और गर्दन का दर्द शुरू हो जाता है। अगर कभी परीक्षण करना हो तो आप कभी भी, कहीं कुर्सी पर बैठ जाएँ अथवा आराम से जमीन पर भी बैठ जाएँ और आधे घंटे तक आँखें बंद करके कोई गंभीर चिंता करनी शुरू कर दें। आप पायेंगे कि आधे घंटा बाद आपकी गर्दन अकड गई है और पीछे के भाग में दर्द होना शुरू हो गया है। साथ ही साथ सिरदर्द की शिकायत भी शुरू हो गई है। 45 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोचिकित्सकों के अनुसार पिच्यासी फीसदी लोगों के सिरदर्द का कारण चिंता है। सिरदर्द को मिटाने के लिए कोई दवा लेने से पहले आप उसे मिटायें जो उस सिरदर्द का मूल कारण है। जैसे ही चिंता हटेगी, सिर हल्का हो जाएगा और दर्द गायब हो जाएगा। चिंता करने से नख से शिखा तक का भाग प्रभावित होता है। कब्ज रहना और भूख न लगना तो चिंता करने वालों की आम शिकायत रहती है। कई लोग मेरे पास आते रहते हैं। उनकी शिकायत रहती है कि उनकी आँखों में हर समय खिंचाव रहता है। कई तरह की दवाइयों का उपयोग कर लेने के बावजूद भी उनके मन में चिंता ही बनी रहती है। आँखें शरीर का सबसे कोमल अंग है और उन पर चिंता का सबसे पहले प्रभाव पड़ता है। चिंता के कारण आँखों की मासपेशियाँ कस जाती हैं और आँखों में दर्द होना शुरू हो जाता है। कुछ दिन पूर्व संबोधि-धाम में आयोजित एक स्वास्थ्य संगोष्ठी में किसी डॉक्टर ने जिक्र किया था कि भय और चिंता के कारण कई बार मनुष्य की आँखें खराब हो जाती हैं। उसे दिखना कम हो जाता है और बोलने की शक्ति भी प्रभावित हो जाती है। उन्होंने एक मरीज का हाल सुनाया कि वह आर्थिक दृष्टि से काफी डाँवाडोल हो चुका था। कई तरह के संकटों में फँस जाने के कारण उसे चिंता ने घेर लिया था। परिणामस्वरूप कुछ ही दिनों में उसकी आँखें तेजी से झपकने लगी और उसकी बोलने की शक्ति भी कमजोर होने लगी। चिंताग्रस्त व्यक्ति कई प्रकार की मानसिक उलझनों में फँसा रहता है। अपनी बीमारी का परिचय वह स्वयं ही औरों को देता है। कभी कहता है कि 'मुझे किसी काम में रूचि नहीं रही और मेरा मूड हर समय खराब रहता है। जैसा मैं पहले था, वैसा अब न रहा। पता नहीं, मेरे मन को क्या हो गया है ? वह हर बात में यही जिक्र करता है कि अब मैं जीने योग्य नहीं रहा और कभी भी मर सकता हूँ। ऐसा व्यक्ति बुज़दिल और चिड़चिड़े स्वभाव का तो होता ही है, साथ में वह अपने-आपको बहुत दुःखी अनुभव करता है। वह खुद तो परेशान रहता ही है, अपनी उपस्थिति से औरों को भी परेशान करता रहता है। अगर कोई आपको शिकायत करे कि मेरी याददाश्त कमजोर हो रही है तो समझ लो कि जरूर वह किसी चिंता का शिकार हो चुका है। आखिर कैसे बचें चिंता से अगर उपाय किये जाएँ तो इसका उत्तर बड़ा सरल है अन्यथा यह बड़ा पेचीदा प्रश्न है। चिंतामुक्ति के लिए कुछ उपायों पर अमल किया जा सकता है जो हमें धीरे-धीरे इस भंवर से बाहर ला सकते हैं। जिएँ वर्तमान में वर्तमान में जीना चिंता-मुक्ति के लिए बेहतरीन टॉनिक है। अतीत की स्मृतियाँ और भविष्य की कल्पनाएँ जहाँ हमारी चिंता और हमारे तनाव को बढ़ावा देती हैं वहीं वर्तमान का चिंतन हमें चिंता से छुटकारा दिला सकता है। जैसे ही व्यक्ति वर्तमानजीवी होता है, वह ज्यादा सोचने की बजाय कुछ करने में विश्वास रखता है। जो बीत गया है उसे वापस लौटाया नहीं जा सकता और जो होने वाला है, होकर ही रहता है। फिर व्यर्थ का तनाव क्यों? मेरे पास एक ऐसे व्यक्ति को लाया गया जो पहले काफी सम्पन्न था लेकिन संयोग से उसके किसी 46 For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्टनर ने उसे धोखा दे दिया और उसकी आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई। उसके बावजूद भी उसके जीवनयापन में कोई कमी नहीं थी फिर भी मैंने देखा कि दो वर्षों से वह निरन्तर कमजोर होता जा रहा था और उसका चेहरा बिल्कुल रोगी की तरह हो गया था। बातचीत में खबर लगी कि उस व्यक्ति के मन में एक ही मलाल था कि मैंने उस व्यक्ति पर जीवन भर अहसान किया किन्तु उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? बार-बार इसी तरह की बातें सोच-सोच कर और अपनी अतीत की बातों को याद कर वह व्यक्ति चिंताग्रस्त हो गया। मैंने समझाया कि बीता हुआ समय कभी लौटाया नहीं जा सकता। इसलिए व्यर्थ के विकल्पों में गोते खाने की बजाय जैसी वर्तमान में स्थिति है उसे स्वीकार करो और वर्तमान को सुधारने का प्रयास करो । दुनिया में जितनी भी ध्यान की विधियाँ हैं, उनका मुख्य चिंतन वर्तमान से ही जुड़ा हुआ है क्योंकि अतीत का दर्शन चिंता है, पर वर्तमान का दर्शन चिंतन है। चिंताग्रस्त व्यक्ति को चाहिये, वह अकेला कम से कम रहे। चिंतनशील व्यक्ति अगर अकेला रहेगा तो बद्ध बन जायेगा पर चिंताग्रस्त व्यक्ति के लिए एकाकीपन घातक है। अच्छा होगा निठल्ले बैठने की बजाय सदा कर्मयोग में लगे रहें। अकेलेपन में निरर्थक बैठने से चिंताओं का अम्बार लगता है, और ये प्रभावी होकर हम पर हावी होने लगती है। अगर किसी कारणवश चिंता के चक्रव्यूह में फंस गये हैं तो भीतर ही भीतर घुटने की बजाय अपने मन की बात अपने किसी मित्र को कह डालिये ताकि आपका मन हल्का हो जाएगा। नहीं तो ईश्वर को अपना सब कुछ मानकर किसी मंदिर में जाकर प्रतिमा के सामने अपना सब कुछ कह डालिये। अथवा किसी बगीचे में जाकर पेड़-पौधे को अपना मन का मीत मानकर सारी बात कह डालिये। पेड़ पौधों में एक खासियत होती है कि वे तुम्हारी सभी बातें प्रेम से पचा लेते हैं। परिणाम यह होगा कि तुम अपनी बात भी कह दोगे और तुम्हारी बात इधर-उधर भी न होगी। बीते कल की घटनाओं को ज्यादा याद मत कीजिये। और न ही भविष्य की अनहोनी आशंका की डरावनी छाया से डरिये । जीवन में हिम्मत और आत्मविश्वास हर पल जरूरी है। अगर समस्याओं ने आपको घेर लिया है तो धैर्य रखिये। समस्याओं के गट्ठड़ में से दो पतली लकड़ियों की समस्याओं को चुनिये और उन्हें तोड़कर अपनी समस्याओं के भार को कम कीजिये। ऐसा रोज कीजिये आप समस्या और चिंता से मुक्त हो जायेंगे। चिंता नदे कोई हल इस दुनिया में कोई व्यक्ति चिंता करके समस्या का समाधान नहीं निकाल पाया है। जीवन में जो होता है उसे प्रेम से स्वीकार करो। यही सोचो कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। प्रकृति का सिद्धांत है जो जीवन देता है वह जीने की व्यवस्था भी देता है। अगर हम प्रकृति के सान्निध्य और उसकी गोद में जीने की कोशिश करें तो जान लेंगे कि जन्म देने से पहले प्रकृति हमारे लिए माँ का आंचल दूध से भर देती है। जब प्रकृति हरेक की व्यवस्था कर रही है तो हम किस बात को लेकर चिंताग्रस्त हों ! जीवन में जो हुआ है वह केवल आपके साथ ही नहीं हुआ, किसी के साथ भी वैसा हो सकता है। जो होता है अच्छे के लिए होता है । इसलिए लाख आ जाएं तो 47 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुशी नहीं, लाख चले जाएं तो कोई रंज या गम नहीं। जीवन में घटित होने वाली आधी घटनाएं ऐसी होती हैं। जिनके लिए यह सोचना हितकारी है कि भगवान जो करता है, अच्छे के लिए करता है । अगर कुछेक घटनाओं के लिए हम यह सोच न बना पाएं तो यह सोचकर मन को सांत्वना दे सकते हैं कि जीवन में वही होता है जो होना होता है। जो हुआ, अच्छा हुआ स्वेट मार्डन दुनिया के महान चिंतक हुए हैं। जब वे बीस वर्ष के थे तो किसी लड़की के चक्कर में पड़ गए। दोनों का प्रेम दो-तीन वर्ष तक चलता रहा। स्वेट मार्डन उस लड़की को प्राणों से ज्यादा चाहने लगे, लेकिन एक दिन अचानक खबर मिली कि स्वेट मार्डन जिस लड़की से बेहद प्यार करते थे, उसने दूसरे से शादी कर ली। स्वेट मार्डन भीतर से टूट गये। उन्हें इतना धक्का लगा कि खाना-पीना छूट गया, नींद हराम हो गई, धंधा छूट गया। कहते हैं उन्होंने घर से निकलना भी बंद कर दिया। घर में पड़े रहते। सोचते 'ईश्वर ने मेरे ही साथ ऐसा क्यों किया । आखिर, जिसके लिये मैं कुछ भी करने को तैयार था उसने मुझे धोखा क्यों दिया।' दो साल तक वे इन्हीं चिंताओं से घिरे रहे । चेहरे पर दाढ़ी बढ़ गई, चेहरा सिकुड़ गया, शरीर कमजोर हो गया । स्वेट मार्डन घर के पिंजरे में ही कैद होकर रह गये । एक दिन उन्होंने सुबह के अखबार में पढ़ा कि एक युवक ने आत्महत्या कर ली। जब उन्होंने संपूर्ण विवरण पढ़ा तो पता लगा कि वह युवक उसी युवती का पति था जिसके प्रेम में वे पागल थे। समाचार था कि वह लड़की बहुत क्रोधी स्वभाव की थी, उसके गुस्से से तंग आकर उस युवक ने आत्महत्या कर ली थी। उसने मरने से पहले नोट लिखा कि, 'मुझे इतनी गुस्सैल पत्नी मिली है कि मैं सहन नहीं कर पा रहा हूं और आत्महत्या कर रहा हूं।' स्वेट मार्डन जो अब तक उदासी के समंदर में डूबे थे, एकदम किनारे आ लगे कि, 'ओह ! ईश्वर जो करता है अच्छे के लिये करता है।' अगर मैं उस लड़की से शादी कर लेता तो आज अखबार में मेरी आत्महत्या करने की खबर होती । शुक्रिया, या रब अच्छा किया आपने बचपन में एक कहानी सुनी होगी कि एक राजा का अंगूठा कट गया। उसने यह बात मंत्री को बताई । मंत्री ने कहा, ' उदास न हों राजन् जो होता है अच्छे के लिये होता है।' राजा यह बात सुनकर क्रोधित हो गया उसका तो अंगूठा कट गया है और मंत्री कह रहा है जो होता है अच्छे के लिये होता है। उसने मंत्री को कारागार में डलवा दिया। कई दिन बीते, राजा जंगल में शिकार खेलने गया । सैनिक इधर-उधर भटक गये वह अकेला चलता फिरता आदिवासियों की एक बस्ती में पहुंच गया। क्या जानें कि कौन राजा कौन प्रजा ! उन्होंने उसे पकड़ लिया क्योंकि उन्हें किसी न किसी आदमी की बलि देनी थी। उनके गुरु ने कहा था कि अपना कार्य सिद्ध करना चाहते हो तो किसी श्रेष्ठ पुरुष की बलि दो, तुम्हारा काम सिद्ध हो जाएगा। आदिवासी उस राजा को पकड़कर गुरु के सामने लाए और कहा, 'लीजिए इसकी बलि दीजिए।' राजा ने 48 For Personal & Private Use Only . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत समझाया पर वह भीड़ कहाँ मानने को तैयार थी, गुरु ने मंत्रोच्चार आरंभ किये और आदेश दिया कि बलि चढाई जाए। तभी यकायक उसकी नजर पड़ी कि राजा का अंगूठा नहीं है। गुरु ने कहा, 'इसे छोड़ दो क्योंकि इसका अंग भंग है और जिसका अंग-भंग हो उसकी बली देवी स्वीकार नहीं करती।' राजा को छोड़ दिया गया। वह गंभीर चित्त होकर महल में पहुंचा उसे लगा कि सचमुच, मंत्री ने जो कुछ कहा वह सही कहा अगर मेरा अगूंठा न कटा होता तो, आज मेरी बलि तय थी। राजा दरबार में पहुंचा और ससम्मान मंत्री को बुलवाया और सारी घटना बताते हुए कहा, 'तुमने जो कहा, सच कहा कि जीवन में जो होता है अच्छे के लिए होता है। मेरा अंगूठा कटा हुआ था अतः आदिवासियों ने मेरी बलि नहीं चढ़ायी, लेकिन यह तो बताओ कि तुम जो कारागार में पन्द्रह दिन रहे, यह तुम्हारे लिए अच्छा कैसे रहा।' मंत्री ने कहा, 'महाराज मैं आज भी कहता हूं जिंदगी में जो होता है, अच्छे के लिये होता है । मैं कारागार में था यह भी भगवान ने अच्छा किया। अगर कारागार में न होता तो मैं भी आपके साथ जाता और आपके साथ मैं भी पकड़ा जाता। राजन्, आपका अंगूठा कटा था इसलिए आप तो बच जाते, पर बलि का बकरा मैं बन जाता।' जीवन में जो मिले उसका स्वागत करो और जो खो जाए उसको भी प्रेम से स्वीकार करो । दुःख और सुख दोनों समान भाव से स्वीकारो। सुख को भोग रहे हो तो पीड़ाओं को भोगने में संकोच क्यों कर रहो हो? अगर अनुकूलता का तुम जीवन भर स्वागत करते रहे तो प्रतिकूलता के लिये क्यों चिंतित हो रहे हो। चिंता से बचने का पहला सूत्र है-जिंदगी में जो हो जाय उसे प्रेम से स्वीकार कर लें। किसी बात को लेकर मन में तनाव, चिंता, टेन्शन पालने के बजाय प्रकृति की गोद में जियो और सोचो कि जिंदगी में जो हुआ है अच्छा हुआ है। उस व्यवस्था को सहजता से स्वीकार करो। अगर ऐसे स्वीकार कर लोगे तो दुःख कभी पास न फटकेंगे। चिंता का दूसरा कारण यह है कि हम बीती बातों के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं । यह हुआ, ऐसा हुआ, ऐसा किया, अगर मैं ऐसा करता तो, अगर मैं वैसा करता तो, उस समय मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था। वह आदमी चला गया आप उसके बारे में अब सोच-विचार कर रहे हैं। टांग दें अतीत-भविष्य को खूटियों पर 'रात गई तो बात गई'- जो इस भाव में जीता है उसके पास भला तनाव कहाँ से आएगा? रात की बात को सुबह लाना और सुबह की बात को रात तक खींचकर ले जाना ही तो चिंता का बसेरा बसाना है। अगर आप जी सकें तो वर्तमान में जीने की कोशिश कीजिये। जो जैसा मिला है उसे जिया जाए। जैसे आप अपने घर में खंटियों पर कपड़े लटकाते हैं वैसे ही उन खूटियों पर अतीत की यादें लटका दें, भविष्य की कल्पनाओं को लटका दें और आप वर्तमान में जिएं। जो वर्तमान में जीता है जैसी व्यवस्था मिलती है उसे स्वीकार कर लेता है, वह चिंतामुक्त है। कोठरी का भी स्वागत करो और कोठी का भी स्वागत करो । वर्तमान में जीते हुए प्रकृति के सान्निध्य में रहने की कोशिश करें। प्रकृति जो कर दे वही ठीक है। चिंता करने से जीवन के संयोग नहीं बदलते। चिंताओं से समस्या का समाधान भी नहीं निकला करता। चिंता हमें केवल भारभूत करती है, दिमाग को खोखला कर देती है। अगर व्यक्ति समय रहते इससे निजात पाने का प्रयास तो शुरुआती दौर में ही इससे मुक्त हुआ जा सकता है। 49 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व को जुझारू बनाएं चिंता से बचने के लिए जीवन से जूझने का प्रयास करें। जो होगा, सो देखा जाएगा। क्यों व्यर्थ के तनाव और चिंता पालें, अपने जीवन में आने वाली चुनौतियों से व्यक्ति जूझने का प्रयास करे। अपने प्रयास पर अटल रहें, अन्यथा छोटी-छोटी बातों को लेकर आप तनाव पालते जाएंगे और जीवन में कभी कोई निर्णय नहीं कर पाएंगे। चिंतन करें, पर चिंता से बचें। अच्छी और श्रेष्ठ किताबें अवश्य पढ़ें। याद रखें, एक अच्छी पुस्तक हमारी सहचर होती है और वक्त-बेवक्त में हमें सही मार्गदर्शन देती है। अगर आप अच्छी किताबें पढ़ते हैं तो आपकी चिंता चिन्तन में परिणित हो सकती है। दुःख की दवा चिंता नहीं है। अगर आप चिंता से बचना चाहते हैं तो मुस्कुराना सीखें। हर समय मुंह लटकाये न बैठे रहें। जब मिलें जोश, उमंग, उत्साह से मिलें । सूर्योदय से पहले जगें और थोड़ा सा टहल लें ताकि आप चिन्ता से दूर हो सकें।सुबह की सैर मानसिक तरोताजगी के लिए काफी उपयोगी है। थोड़ा सा व्यायाम करें और संभव हो तो पन्द्रह मिनट तक ध्यान अवश्य करें। ध्यान आपके चिंतन को प्रखर करेगा और आपको चिन्तामुक्त करने का प्रयास करेगा। अपने आज्ञाचक्र पर यदि आप प्रतिदिन पन्द्रह मिनिट ध्यान करते हैं तो आप अनुभव करेंगे कि आप दिन भर की सौ तरह की चिंताओं से मुक्त हो गये हैं। ध्यान के बाद आप एक कागज पर दिन भर के वे कार्य लिखें जो आपको करने हैं । व्यवस्थित रूप से काम लिखें और एक-एक काम पूर्ण करना शुरू कर दें। सांझ तक सारे काम पूरे हो जाएंगे और आप चिंता से मुक्त रहेंगे। नज़र-नज़र का फेर चिंता से बचने के लिए सकारात्मक विचारों में जीने की कोशिश करें और नकारात्मकता का त्याग करें। जब भी किसी के प्रति गलत विचार आये, अशुभ सोच बने अपनी दृष्टि को सकारात्मक बनाएं ।माना कि एक गिलास में आधा पानी भरा हुआ है सकारात्मक दृष्टिवाला कहेगा कि गिलास आधी भरी हुई है और नकारात्मक दृष्टि वाला कहेगा कि गिलास आधी खाली है। तुम्हारे देखने के नज़रिये का यह फर्क है। आपको अपना विकास करने का पूरा अधिकार है लेकिन दूसरे के अधिकार का हनन करके नहीं। अपनी लकीर बड़ी करने के लिए दूसरे की लकीर मिटाएं नहीं। उस लकीर के नीचे बड़ी लकीर खींच दें। दूसरे की लकीर खुद-ब-खुद छोटी हो जायेगी। अपने विकास के स्वतंत्र द्वार खोलें बजाय कि दूसरे के विकास को देखकर ईर्ष्यालु हों। मस्त रहो मस्ती में चिन्ता से मुक्त होने का अंतिम सूत्र है : हर हाल में मस्त रहो। श्री चन्द्रप्रभ जी कहा करते हैं कि हर समय व्यस्त रहो और हर हाल में मस्त रहो। जो व्यस्त और मस्त रहता है वह जिंदगी में कभी चिन्ताग्रस्त नहीं हो सकता। कितनी भी आपदा या विपत्ति आये, लेकिन हमारे हाथ से मस्ती छूट न जाय । एक घटना याद आ रही है। कहते हैं, संत नानइन गांव के बाहर किसी पेड़ के नीचे बैठे रहते थे। पहनने के लिये फटे पुराने कपड़े, बिछाने के लिए फटा आसन और खाना खाने के लिये टूटी-फूटी मिट्टी की थाली - यही उनकी सम्पत्ति थी। लेकिन वे इतने मस्त, इतने प्रसन्नचित्त, इतने आनंदित थे कि जब देखो वे मुस्कुराते ही रहते। परमात्मा में लीन होते तो अपने 50 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों हाथ ऊपर करते और कहते, 'तू बड़ा दयालु है मेरी हर ज़रूरत का ध्यान रखता है।' सदा इसी बात को दोहराते रहते । कुछ सम्पन्न लोग जो प्रतिदिन उधर से गुजरा करते थे उसकी मस्ती को देखकर ईर्ष्याग्रस्त हो जाते। सोचते हमारे पास सारी सुविधाएं हैं पर मस्ती नहीं और इस फकीर के पास कुछ भी नहीं तब भी इतनी मस्ती में । आखिर एक सम्पन्न व्यक्ति कुछ दूरी पर बैठ गया और सोचने लगा, 'आखिर इस फकीर की मस्ती का राज क्या है ? मैं इस राज़ को ढूंढ कर ही रहूंगा।' वह बैठा रहा। उधर फकीर भी अपनी प्रार्थना कर रहा था। दोपहर के दो बज रहे थे, फकीर भूखा था। वह संम्पन्न व्यक्ति सोच रहा था, 'बंदा सुबह से भूखा है फिर भी कहे जा रहा है कि भगवान, मेरी हर जरूरत का ध्यान रखता है।' आश्चर्य, तभी एक राहगीर आया और उसने फकीर की थाली में रोटी डाल दी। फकीर तो आंखें बंद करके बैठा था । दो मिनिट बाद आंखें खोली, थाली में रोटी देखी और कहा, 'देखो, ईश्वर कितना ध्यान रखता है, भूख लगी तो भोजन की व्यस्था कर दी ।' भोजन के लिए ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए आंखें बंद की और अपनी वही बात फिर दोहरा दी। तभी एक कुत्ता आया और थाली में से रोटी ले भागा । अब उस संपन्न आदमी ने मन ही मन कहा अब पता लगेगा इसकी मस्ती का । जब आंख खोलेगा और देखेगा कि थाली में से रोटी गायब तो भगवान और कुत्ते को गालियां देगा। फकीर ने आंख खोली, रोटी के लिए हाथ बढ़ाया, थाली में नज़र डाली तो रोटी गायब । दूर देखा तो वह कुत्ता रोटी खा रहा था। अब अमीर आदमी ने सोचा कि यह फकीर खड़ा होगा और कुत्ते को डंडे से पीटेगा और सच में फकीर खड़ा हो गया । अमीर ने सोचा अब तो जरूर यह कुत्ते की पिटाई करेगा और इसका भगवान...... । लेकिन आश्चर्य जो फकीर अब तक बैठकर प्रार्थना कर रहा था, खड़े होकर दोनों हाथ ऊंचे किये और कहने लगा, 'अरे वाह खुदा । तू सचमुच बहुत दयालु है तू मेरी हर जरूरत का ध्यान रखता है, मेरी हर जरूरत पूरी करता है । तेरी परम कृपा है कि कभी-कभी मुझे उपवास करने का मौका भी दे देता है। तू तो परम दयालु है, मेरी साधना का भी ध्यान रखता है, मेरी आराधना का ध्यान रखता है, ऐसा करके तून मुझे उपवास का मौका दे दिया ।' अब आप ही बताएं भला ऐसे आदमी की मस्ती को कौन छीन सकता है। उसकी शांति और साधुता को कौन छीन सकता है। आप तनाव, चिन्ता, घुटन में से बाहर निकलना चाहते हैं तो हर समय व्यस्त और मस्त रहें और ध्यान रखें बूढ़े भी हो जायें तो काम से जी न चुरायें। छोटे-छोटे ही काम करें पर कर्मयोग अवश्य करें। साथ ही अपने भीतर की मस्ती को बरकरार रखें । अगर आप इतना करते हैं तो निश्चित ही चिन्तामुक्त जीवन जीने में समर्थ हो जाएंगे। प्रकृति की गोद में रहें जैसा हो रहा है, जो हो रहा है, जिस रूप में हो रहा है उसे स्वीकार करें। सुख, सुविधाओं में नहीं है। सुख भीतर की मस्ती में है, मन की शांति में है । चिता जलायें चिंता की वक्त-बेवक्त, वजह बेवजह दिमाग पर हावी चिंताएं हमें अंदर से खोखला करती हैं। अच्छा होगा हमेशा चिंताओं के निमित्त पालने के बजाय उन्हें भूलने की कोशिश की जाए। सकारात्मक सोच हमारी चिंताओं को चिन्तन में तब्दील कर सकती है। एक बार संबोधि-ध्यान शिविर में हमारा उद्बोधन था चिंता, चिंतन और चिता 51 For Personal & Private Use Only . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पर । मैंने हॉल में बैठे सभी लोगों से पूछा कि यहाँ बैठे लोगों में से कितने लोग ऐसे हैं, जिन्हें कोई-न-कोई चिंता हमेशा सताती रहती है। हॉल में बैठे लगभग सभी लोगों ने अपने हाथ उठाकर संकेत दिया कि सभी लोग चिंतित है। मैंने कहा कि यदि आप चिंतातुर रहेंगे तो मेरी बातों को न तो गहनता से समझ पाएंगे और न ही चिंताओं से मुक्त हो पाएंगे। मैंने कहा, मेरा उद्बोधन सुनने से पहले में आप सब लोगों की चिंताए आप लोगों से लेकर अपने पास रख लेता हूँ ताकि आप चिंता मुक्त होकर मेरी बातों को ग्रहण कर सकें। मैंने एक-एक काग़ज़ सभी श्रोताओं के पास भिजवा दिया और कहा कि आप केवल एक काम करें, इस कोरे काग़ज़ पर अपनी-अपनी चिंताएं लिखकर काग़ज़ मुझे सौंप दें और आप चिंता मुक्त हो जाएं। जब तक व्यक्ति चिंतामुक्त न होगा तब तक चिंतामुक्ति के उपाय समझ भी न पाएगा। सच्चाई तो यह है कि हमारी एक-एक चिंता हमारी ही चिता की एक-एक लकड़ी होती है और उस लकड़ी को हम स्वयं टुकड़ा-टुकड़ा कर इकठ्ठा करते हैं। जैसे कई लकड़ियाँ जलाओ और उसमें कुछ सूखी और गीली लकड़ियाँ हो तो सूखी लकड़ियाँ तो आराम से जल जाती है जबकि गीली लकडियाँ जल तो नहीं पाती पर धआँ ही उगलती है। हमारी चिंताओं की स्थिति भी ऐसी ही है कछ चिंताएँ तो सखी लकडियों की तरह होती हैं जो आज है और कल जलकर खत्म हो जाएंगी लेकिन कछ चिंताएँ गीली लकडियों की तरह होती हैं जो हमारे भीतर ही भीतर धुआँ उठाती है और हमें मानसिक संताप देती हैं। जो चिंताएँ गीली लकड़ियों की तरह होती हैं वे हमें परेशान ही करती हैं समाधान का सूत्र कभी नहीं बन पातीं। __जिस समस्या का कोई हल नज़र न आए और पुन: पुन: वही सोच होती रहे तो वही हमारे लिए चिंता का कारण बन जाती है और गीली लकड़ी की तरह हमें तिल-तिल कर जलाती है। सच्चाई तो यह है कि जीवन भर चिंताओं के साथ रहते-रहते हमें चिंताएं पालने का शौक-सा हो जाता है। पर सावधान रहें ! चिंताएँ रोग हैं, अच्छा होगा इससे बचने के लिए हम कुछ आत्मिक, आध्यात्मिक उपाय कर सकते हैं । अगर लगे कि चिंता हमें ज्यादा ही सता रही है तो अपने अंतरमन को अन्य किसी निमित्त से जोड़ने की कोशिश कीजिए। विधाता के विधान पर विश्वास करते हुए जो कुछ हो जाए उसे सहजता से स्वीकार कीजिए। चाहें तो किसी संत के प्रवचनों को सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त कर सकते हैं। चिंता के निमित्तों से अपने मन को हटाएं और किसी श्रेष्ठ कार्य में मन को नियोजित करके चिंता की छुट्टी कर दें। 52 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध पर कैसे काबू पाएँ सावधान! दो मिनट का क्रोध भी हमारे मधुर सम्बन्धों में जहर घोल सकता है। मनुष्य के जीवन में दुःख के दो कारण होते हैं। पहला कारण है: अभाव, आपदा अथवा संयोग और दूसरा कारण है: व्यक्ति स्वयं । दूसरे के व्यवहार और स्वभाव के कारण उसके जीवन में जो दुःख आते हैं उनको रोक पाना मनष्य के हाथ में कम है, लेकिन अपने ही व्यवहार और स्वभाव के कारण आने वाले दःखों पर मनुष्य विजय प्राप्त कर सकता है। अपने ही व्यवहार और स्वभाव के कारण मनुष्य दुःखों को पाता है जिसमें मुख्य कारण है मनुष्य के व्यवहार और स्वभाव में पलने वाला क्रोध। क्षणिक संवेग है क्रोध ___ क्रोध हमारे भीतर उठने वाला एक ऐसा संवेग है जो क्षणभर में जगता है और क्षणभर में शान्त हो जाता है। मनुष्य अपने होश-हवास खोकर कुछ समय के लिए एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है। जहाँ वह क्रोध के वशीभूत होकर अपनों और परायों दोनों को नुकसान पहुंचाता है। मैंने इसे क्षणिक संवेग इसलिए कहा क्योंकि कई बार एक पल के लिए व्यक्ति आवेश और आक्रोश में आकर कोई भी निर्णय या कार्य कर बैठता है, पर कुछ पल के बाद ही आत्मविवेक जगने पर उसके हाथ में पश्चात्ताप के अलावा कुछ भी नहीं बचता। एक बहिन मुझे बता रही थी, 'जब भी मुझे गुस्सा आता है मैं सीधा अपने बच्चों पर हाथ उठाती हूँ और ताबड़तोड़ उनकी पिटाई कर देती हूँ।' मैंने पूछा, 'फिर क्या करती हो?' वह कहने लगी, 'उसके बाद मुझे अफसोस होता है और मैं रोती हूँ। रोज ही ऐसा होता है कि बच्चों की पिटाई और मेरा रोना दोनों एक साथ चलते हैं, वास्तव में यह क्षणिक संवेग है। बच्चों को पीटना क्रोध का प्रकटीकरण है जबकि उसके बाद रोना अपनी गलती का अहसास है। व्यक्ति ऐसी गलतियाँ बार-बार इसलिए करता है क्योंकि उसका स्वयं पर अंकुश नहीं है। सच तो यह है कि क्रोध तूफान की तरह आता है और हमें चारों ओर से घेर लेता है। हम विवेकशून्य होकर गाली-गलौच या हाथा-पाई भी कर लेते हैं और इस तरह हम क्रोध के तूफान में घिर जाते हैं। 53 For Personal & Private Use Only | Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधी आदमी कीड़े, मकोड़े और बिच्छू तक को मार देता है, पर अपने ही भीतर पलने वाले क्रोध को क्यों नहीं मार पाता? मनुष्य अपने जीवन में मूलत: चार वृत्तियों में जीता है और वे हैं- काम, क्रोध, माया और लोभ। मेरे देखे इनमें से काम, माया और लोभ की वृत्तियाँ तो मनुष्य को आंशिक लाभ और सुख भी देती है लेकिन क्रोध एक ऐसी वृत्ति है जिसमें व्यक्ति खुद भी जलता है और दूसरों को भी जलाता है। हकीकत तो यह है कि क्रोधी व्यक्ति अपने भीतर और बाहर एक ऐसी आग लगाता है जिसमें वह औरों को जलाने की कोशिश करता है पर उसे बाद में पता चलता है कि इससे वह औरों को जला पाया या न जला पाया पर खुद तो पहले ही झुलस गया। क्रोध में जलना तो तूली की तरह है जिसे दूसरों को जलाने के लिए पहले स्वयं को जलना होता है। क्रोध एक : नुकसान अनेक मैं कई बार सोचा करता हूँ कि क्या धरती पर कोई ऐसा मनुष्य है जिसने अपनी जिन्दगी में कभी क्रोध न किया हो? ऐसे ब्रह्मचारी साधक तो मिल जाएंगे जिन्होंने कभी काम का सेवन नहीं किया हो पर 'क्रोध' तो 'काम' विजेताओं पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। सच्चाई तो यह है कि जब आप क्रोध के नियंत्रण में होते हैं तो स्वयं का नियंत्रण खो देते हैं । सावधान ! एक पल का क्रोध आपके पूरे भविष्य को बिगाड़ सकता है। जिन संबंधों को मधर बनाने में हमें दस वर्ष तक एक दसरे को सेटिस्फाइड करना पडता है वहीं हमारा दस मिनट का गस्सा उन संबंधों पर पानी फेर सकता है। सफलता के बढ़ते हुए कदमों में केले के छिलके का काम करता है हमारा गुस्सा। हमारा क्रोध हमें सफलता से हाथ धोने के लिए मजबूर कर देता है। 24 घंटे भोजन करके हम जो शक्ति अपने शरीर में पाते हैं, कुछ मिनट का गुस्सा उस शक्ति को क्षीण कर देता है। जो बच्चे बचपन में ज्यादा गुस्सा करते हैं, बड़े होने पर उनका दिमाग कमजोर हो जाता है। क्रोध में व्यक्ति दो तरह का हिंसक हो जाता है । कभी वह औरों को नुकसान पहुंचाता है तो कभी स्वयं को। औरों को नुकसान पहुँचाने के लिए वह गाली-गलौच करता है, हाथापाई करता है अथवा किसी शस्त्र से प्रहार भी कर देता है। लेकिन कई बार व्यक्ति इसका उलटा भी कर लेता है। क्रोध में आकर वह अपना ही सिर दीवार से टकरा देता है। भोजन कर रहा है तो थाली को उठाकर फेंक देता है । बचपन में मैंने देखा है कि हमारे मौहल्ले में एक ऐसा लड़का रहता था जिसे गुस्सा बहुत आता था। एक दिन उसके घर में किसी ने उसे टोक दिया। उस लड़के को गुस्सा आ गया, संयोग से उस दिन उसे परीक्षा देने जाना था किंतु गुस्से में भरकर उसने निर्णय ले लिया कि मैं परीक्षा देने नहीं जाऊँगा। घर के सारे लोग उसे समझा कर हार गये लेकिन वह परीक्षा देने नहीं गया और इस तरह आवेश में आकर लिये गये निर्णय ने उसका पूरा वर्ष बेकार कर दिया। इस तरह के निर्णय लेने के कुछ समय बाद व्यक्ति को भले ही लगता हो कि उसका वह निर्णय गलत था लेकिन वह कुछ कर पाये, उससे पहले ही उसका क्रोध अपना गलत प्रभाव दिखा ही देता है, और ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपना अहित कर बैठता क्रोध के तीन भेद व्यक्ति तीन तरह का क्रोध करता है। अल्पकालीन क्रोध, अस्थाई क्रोध और स्थाई क्रोध । अल्पकालीन 54 For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुस्सा कुछ मिनट या घंटे तक का होता है और उससे माहौल बिगड़ता है। किसी कारण से हड़बड़ी में व्यक्ति कुछ भी कह देता है और कुछ मिनट बाद अफसोस करता है। मैं मध्य प्रदेश के एक शहर में था। मैंने देखा कि एक व्यक्ति जो वहाँ के समाज का अध्यक्ष था, उसका पता ही नहीं लगता कि बात-बात में उसे कब क्रोध आ जाता है? इतना ही नहीं, वह गस्से में आकर माइक पर, मंच पर कुछ भी बोल देता था। पर वह था इतना निश्च्छल दिल का आदमी कि या तो दो मिनट बाद ही सामने वाले से माफी मांग लेता अथवा यह कहते हुए मधुर मुस्कान से बात खत्म कर देता कि मैंने कब गुस्सा किया। अल्पकालीन क्रोध करने वाले लोग किसी बात को ज्यादा लंबी नहीं खींचते । बस दो मिनट के लिए जैसे हवा में गुबार आया हो या पानी में बुलबुला उठा हो। ऐसा होता है उसका गुस्सा। ऐसे लोग कभी भावुक हो जाते हैं और कभी कठोर।। जिसे मैं अस्थायी क्रोध कहना चाहता हूँ उन लोगों की प्रकृति ऐसी होती है कि वे किसी भी बात को दो दिन तक ढोते रहते हैं। बात छोटी-सी होगी पर उसे खुद ही बढ़ाएँगे और दो दिन तक रूठे रहेंगे। फिर यह प्रतीक्षा करेंगे कि कोई उन्हें मनाएं या 'सॉरी' कहे तो वे वापस पहले जैसे हो जाएँ। ऐसे लोग पाँच-सात दिन तक तो औरों से 'सॉरी' कहलवाने का इंतजार करते हैं, पर उसके बाद खुद ही सीधे और शांत हो जाते हैं। तीसरी प्रकृति होती है स्थायी क्रोध की। ऐसे लोग मरते दम तक किसी भी बात को ढोते रहते हैं । जैसे किसी ने चार लोगों के बीच अपमानजनक कोई बात कह दी अथवा किसी की शादी में जाने पर सामने वाला व्यक्ति सबसे तो घुलमिल कर बात करे पर उनसे बात करना भूल जाए, यदि परिवार के किसी सदस्य द्वारा सहजता में ही कोई व्यंग्यात्मक बात कह दी जाए तो उस श्रेणी के क्रोध में जीने वाले लोग उनकी गांठ बाँध लेते हैं और धीरे-धीरे अपने व्यवहार के द्वारा उस गांठ को और भी अधिक मजबूत करते रहते हैं। धीरे-धीरे यह गांठ जो पहले तो एक तरफी होती है पर फिर दो तरफी हो कर कई परिवार और समाज में विभाजन करा देती है। जैसे गन्ने की गांठ में एक बूंद भी रस नहीं होता वैसे ही जो लोग मन में गाँठे बांध कर रखते हैं, उनका भी जीवन नीरस हो जाता है। न बांधे वैर की गांठ हम एक शहर में थे। किसी महानुभाव ने तपाराधना के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण समाज के भोज का आयोजन किया। जिस दिन भोज का आयोजन था उस दिन समाज के कुछ वरिष्ठ व्यक्ति हमारे पास आए और कहने लगे कि जिस व्यक्ति के द्वारा आज सम्पूर्ण भोज का आयोजन है, वे दो भाई हैं लेकिन उनका दूसरा भाई व उसका परिवार इस भोज में नहीं आएगा। उन लोगों ने हमसे निवेदन किया कि, साहब, आप चलें और उसे समझाएँ । शायद आपके कहने से वह मान जाए।' उन लोगों के साथ मैं उस महानुभाव के घर गया। उसने मुझे सम्मान-पूर्वक बैठाया। बात ही बात में मैंने कहा कि 'आज तो आप के परिवार की ओर से सम्पूर्ण समाज का भोज है।' उसने कहा, आप ऐसा न कहें 55 For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि वह मेरा नहीं बल्कि मेरे भाई के घर का है।' मैंने कहा, 'सो तो ठीक है लेकिन आप लोग तो आएंगे न!' वह तपाक से बोल पड़ा, 'किसी हालत में नहीं।' मैंने पूछा, 'क्यों ऐसी क्या बात है?' वह कहने लगा कि सोलह साल पहले भरे समाज में उसने मेरा अपमान किया था तब से मैंने उसके घर का पानी तक नहीं पीया है।' मैंने बड़ी सहजता से उस भाई से कहा – 'भाई, जरा सोलह साल पुराना कोई कलेण्डर लाना।' मेरी बात सनकर वह चौंका। उसने कहा, 'आप भी कैसी मजाक करते हैं? सोलह साल पुराना कलेण्डर घर में थोड़े ही रखा जाता है।' मैंने कहा - 'महीना बीतता है तो कलेण्डर का पन्ना पलटा जाता है और वर्ष बीतने पर कलेण्डर को ही पलट दिया जाता है। जब सोलह साल पुराना कलेण्डर घर में नहीं है तो सोलह साल पुरानी बातों को क्यों ढो रहे हो।' मेरी समझाने से उसके दिमाग में मेरी बात थोड़ी-सी उतरी। मैंने दूसरे भाई को भी बुलवाया और दोनों को एक दूसरे के हाथ से मिश्री का टुकड़ा खिलाकर पारस्परिक प्रेम स्थापित किया। यह तो संयोग था कि ऐसा हो गया अन्यथा क्रोध और आवेश में तो बँधी हुई वैर की गांठों को कुछ ही लोग ऐसे होते हैं तो जीते जी वापस खोल पाते हैं। जीवन में इस तरह की स्थिति खड़ा करता है हमारे भीतर पलने वाला क्रोध। बाहर मुस्कान तो घर में क्रोध क्यों? कुछ लोगों की कुछ विचित्र आदत होती है। वे बाजार में, ऑफिस में, दुकान में या दोस्तों के बीच सदा प्रसन्न और मुस्कुराते रहेंगे पर घर पहुँचते ही गंभीर और गुस्से से भरे हुए हो जाएँगे। वे छोटी-छोटी बातों पर घर में गुस्सा करेंगे और घर की शांति को भंग करेंगे। आप घर में बड़े हैं तो उसका अर्थ यह नहीं है कि हर समय आप हो-हल्ला करें या अपने बड़प्पन को जताने के लिए घर के वातावरण को कलुषित करें। आपकी बड़ाई इसमें है कि आप घर में अपने परिवार के सदस्यों को इतना प्रेम दें कि वे आपके जाने पर आपकी शीघ्र पुनर्वापसी की कामना करें। आप नहीं जानते कि आप बार-बार गुस्सा करके अपने खुशहाल घर को नरक बना देते हैं और परिवार का हर सदस्य भीतर ही भीतर आप से टूटा रहता है। फिर स्थिति यह होती है कि जब आप सामने होते हैं तो सब लोग आपसे दबे रहते हैं और आपके बाहर जाने पर आपकी मज़ाक उड़ाई जाती है। पत्नी कहती है, 'छोड़ो, अब उनकी बातों पर कौन ध्यान दे क्योंकि 'हो-हल्ला' करना तो उनकी आदत ही बन गई है।' मुझे याद है, एक व्यक्ति जो गुस्सा बहुत किया करता था। पत्नी भी कम न थी। एक दिन पत्नी ने रात ग्यारह बजे अपने पति को नींद में से उठाया और हाथ में एक दूध का गिलास देते हुए कहा, 'लो दूध पी लो।' पति ने कहा, 'आज क्या बात है, जीवन में कभी तूने रात को दूध नहीं पिलाया, आज अचानक प्रेम कैसे उमड आया।' पत्नी ने कहा, 'जी! छोडो प्रेम-रोम की बातें। अभी-अभी मैंने कलैण्डर देखा, आज नाग पंचमी है, तो रात को साँप कहाँ से लाऊँ दूध पिलाने । तो तुमको ही.....।' ___ मुझे याद है कि एक व्यक्ति हर समय घर में गुस्से में ही रहता था। एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा, 'मैं पड़ौस के शहर में जा रहा हूँ। दो दिन में वापस लौट आऊँगा।' क्या आप बताएँगे कि उसके ऐसा कहने पर 56 For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नी ने मन में क्या सोचा होगा? तब शायद उसने सोचा होगा कि दो दिन नहीं बल्कि दस दिन बाद भी आओ तो भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि तुम जितने बाहर रहते हो, घर में उतनी ही शान्ति रहती है। यदि कोई शान्त स्वभाव वाला व्यक्ति अपनी पत्नी से दो दिन बाद वापिस आने का कहेगा तो पत्नी यही कहेगी कि हो सके तो जल्दी लौट के आना क्योंकि तुम्हारे जाने से घर सूनासूना हो जाता है। आप अपने ही क्रोधपूर्ण व्यवहार से घर को नरक बनाते हैं और शान्तिपूर्ण व्यवहार से घर को स्वर्ग। तिरुवल्लुवर कहा करते थे कि जो लोग आत्मरक्षा और मन की शान्ति चाहते हैं वे अपने जीवन में क्रोध से जरूर बचें। क्रोध करें, मगर सात्विक __ हमारा क्रोध तीन तरह का होता है सात्त्विक, राजसिक और तामसिक । घर की मर्यादाओं को बनाए रखने के लिए अथवा औरों की भलाई के लिए किया जाने वाला क्रोध सात्त्विक क्रोध होता है । इसमें व्यक्ति औरों को सुधारना चाहता है पर किसी का नुकसान करके नहीं। व्यक्ति का दूसरा गुस्सा होता है राजसिक जो अहंकारमूलक क्रोध होता है। मैंने कहा और तुमने नहीं माना यानी आपके अहंकार की संतुष्टि नहीं हुई इसलिए आपको क्रोध आया है। कई बार देखा करता हूँ कि ऑफिस में बॉस ने अथवा किसी मैनेजर ने अपने अधीनस्थ कर्मचारी को कोई काम सौंपा। उस दिन उस कार्य की कोई खास जरूरत न थी और वह व्यक्ति उस कार्य को पूर्ण न कर पाया। सांझ को जब मैनेजर को खबर मिली तो उसे गुस्सा आ गया हालांकि उसे भी इस बात की खबर थी कि यह काम कोई खास जरूरी नहीं है। लेकिन वह गुस्सा केवल उस बात के लिए कर बैठा कि मैंने कहा और तुमने नजरअंदाज कर दिया। मेरे देखे घर के अभिभावकों को अधिकांश गुस्सा लगभग इसी कारण आता है। यह क्रोध होता है अपने अहंकार की संतुष्टि के लिए। तीसरा क्रोध होता है तामसिक यानी ऐसा गुस्सा जो व्यक्ति केवल दूसरों को नीचा दिखाने के लिए करता है। इसमें व्यक्ति दस लोगों के बीच सामनेवाले को खरी-खोटी सुनाता है और उसकी दो कमजोरियों को भी सब लोगों के सामने व्यक्त करता है। लाभ और हानि की दृष्टि से अगर हम गुस्से को देखते हैं तो उसकी हानियाँ ही ज्यादा नजर आती हैं। क्रोधी व्यक्ति हर ओर से नुकसान उठाता है स्वास्थ्य से भी और संबंधों से भी। तीव्र क्रोध से जहाँ शरीर में अल्सर जैसे रोग पैदा हो जाते हैं, वहीं मानसिक तनाव भी पैदा हो जाता है। उच्च रक्तचाप का तो मूल कारण हमारा क्रोध ही होता है। होंठों की मुस्कान जहाँ हमारे चेहरे के सौन्दर्य को बढ़ाती है, वहीं क्रोध की रेखा सौन्दर्य को मिट्टी में मिला देती है। क्रोध हमारे दिमाग को कमजोर करने के साथ-साथ शरीर को भी कमजोर करता है इसलिए जब हमें कोई दुबला-पतला कमजोर शरीर वाला व्यक्ति मिलता है तो हम तत्काल पूछ लेते हैं - 'क्या बात है ? गुस्सा बहुत करते हो क्या?' एक बच्चा भी जानता है कि गुस्सा आदमी के शरीर से रक्त को सोख लेता है। बुजुर्ग लोग तो यहाँ तक कहा करते थे कि गुस्से से भरी हुई महिला अगर अपने आंचल का दूध भी अपने बच्चे को पिलाती है तो वह ज़हर बन जाता है। 57 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्खता से शुरुआत, पश्चाताप पर पूर्ण ___गीता कहती है कि क्रोध मूर्खता को पैदा करता है। मूढ़ता से स्मृतिभ्रम होता है और स्मृतिभ्रम से बुद्धि का नाश होता है। जीवन भर याद रखें कि क्रोध की शुरूआत मूर्खता से होती है और उसका समापन पश्चाताप से। क्रोध में व्यक्ति अपना विवेक खो देता है। विवेक खोने के कारण व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और कई बार क्रोधित व्यक्ति ऐसे कार्य भी कर देता है जिनका परिणाम बड़ा गम्भीर होता है। आदमी को यह पता नहीं लगता कि वह किसको क्या कह रहा है ? गुस्से में भरा व्यक्ति अपनी ही संतान को सूअर की औलाद,' जैसी पता नहीं कितनी ही गालियाँ देता है । गुस्से में अपने आप को ही सूअर बना देता है। मुझे याद है: एक फिल्म हॉल में पति-पत्नी फिल्म देख रहे थे। अचानक पत्नी की गोद में सोया हुआ बच्चा रो पड़ा। वह मुश्किल से आठ-नौ महीने का होगा। उस व्यक्ति ने पत्नी से कहा, 'उसे दूध पिला दो, वह चुप हो जाएगा। दो मिनट बाद फिर भी बच्चा रोता रहा तो उसने कहा, 'मैंने कहा न, उसे दूध पिलाना शुरू कर दो सारी फिल्म का मज़ा किरकिरा हो रहा है।' पत्नी ने कहा- 'मैं बहुत कोशिश कर रही हूँ पर यह पी नहीं रहा है।' पति थोड़ा गुस्सैल प्रकृति का था। उसने कहा, 'एक थप्पड़ मारो यह क्या इसका बाप भी पीएगा।' इसीलिए गीता ने कहा कि क्रोध से स्मृतिभ्रम होता है और उससे बुद्धि का नाश होता है । क्रोध करना बुरा है, शायद क्रोध करने वाला हर व्यक्ति भी यही बात कहेगा। क्रोध पर विजय प्राप्त करने के कुछ सूत्रों को समझने से पूर्व यह जानना जरूरी है कि आदमी को गुस्सा आखिर क्यों आता है ? आम तौर पर गुस्सा करने वाले लोगों से पूछा जाए तो उनका एक ही जवाब होता है- 'साहब, कोई झूठ बोले या गलती करे तो गुस्सा आता है। मेरे देखे यह जवाब थोड़ा गलत ही है। व्यक्ति को अगर गलतियों पर गुस्सा आए तो केवल औरों की गलतियों पर ही क्यों? खुद की गलतियों पर क्यों नहीं। सच तो यह है कि दूसरे की छोटी-सी गलती को भी हम बर्दाश्त नहीं कर पाते और अपने अहंकार की संतुष्टि के लिए गुस्सा कर बैठते हैं । अगर गलती पर गुस्सा आए तो औरों की गलती पर ही क्यों ? खुद से गलती होने पर हम क्या करते हैं ? हम सड़क पर चले जा रहे थे। पाँव पर ठोकर लगी और अंगूठे से खून बहने लगा। क्या आप मुझको बताएंगे कि उस वक्त आप किस पर गुस्सा करेंगे? भोजन कर रहे थे कि थोड़ी सी असावधानी के कारण गाल या जीभ दांत के नीचे आ गई। उस स्थिति में आप किस पर गुस्सा करेंगे? उपेक्षा : क्रोध की जननी जब व्यक्ति की अपेक्षा उपेक्षित होती है तो उसे क्रोध आता है। अपेक्षा और क्रोध का गहरा रिश्ता है। पता ही नहीं लगता कि थोड़ा-सा उपेक्षित होते ही व्यक्ति कितना विकराल रूप ले लेगा? पहले हम सम्बन्ध बढ़ाते हैं और फिर संबंधों में अपेक्षा पालते हैं । जब-जब अपेक्षा उपेक्षित होती है तब-तब व्यक्ति को बुरा लगता है। फिर संबंधों में दरार पड़नी शुरू हो जाती है। आप अपने खास दोस्त से यह अपेक्षा रखते हैं कि जब उसका जन्मदिन हो तो आपको याद करे और साथ ही यह भी अपेक्षा रखते हैं कि आप का जन्मदिन हो तो भी वह आपको शुभ कामना का संदेश देने का ध्यान रखे।अगर उस दिन किसी कारणवश वह भूल गया और तीन दिन 58 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद फोन पर आपको शुभकामना दी तो आपको लगेगा कि उसकी जिंदगी में आपका कोई मूल्य नहीं है और आप उपालम्भ दे बैठेंगे। लोगों की अपेक्षाएँ अलग-अलग तरह की होती हैं और यह जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति की अपेक्षाएँ पूरी कर दी जाएँ। एक ही व्यक्ति को कई लोगों से अलग-अलग अपेक्षाएँ हो सकती हैं। आदमी चाहता है कि मेरे अनुसार परिवार जिए, समाज जिए। जिस ट्रस्ट में मैं ट्रस्टी हूँ वहाँ मेरा ही दबदबा चले। अगर चार दोस्तों के बीच बैठा हूँ तो मेरी ही बात सुनी जाए। पत्नी को जैसा कहूँ, हू-ब-हू वह वैसा ही करे- पता नहीं ऐसी कितनी ही तरह की अपेक्षाएं होती हैं। हर व्यक्ति का सोचने का तरीका अलग होता है और व्यक्ति अपनी उसी सोच और धारणा के अनुसार निर्णय लेता है। एक छात्र जिसके परिवार को उससे पूरी अपेक्षा थी कि वह इस वर्ष परीक्षा की मेरिट लिस्ट में जरूर आएगा। संयोग से उसे इसके लिए जरूरत से दस अंक कम मिले तो इसके लिए परिवार में उसे डांट मिली और कहा गया कि तुमने पूरी मेहनत नहीं की होगी। वहीं दूसरी ओर उनके पड़ौसी का बेटा चालीस प्रतिशत अंक लेकर आया तो भी वे लोग मिठाई बाँट रहे थे। दरअसल उन्हें उसके पास होने की उम्मीद भी नहीं थी। अपेक्षा-उपेक्षा का मनोविज्ञान अपेक्षा और उपेक्षा का भी अपना एक विज्ञान है। अगर आपने ध्यान दिया हो तो देखा होगा कि यदि कोई अपरिचित व्यक्ति आपकी उपेक्षा करे तो आपको गुस्सा नहीं आता पर अगर खास परिचित आदमी आपकी उपेक्षा करे तो आप तत्काल क्रोधित हो उठते हैं। हम लोग यह अपेक्षा पाल लेते हैं कि दिल्ली में हमारा रिश्तेदार है।हम तो जब भी दिल्ली जाएंगे, वह हमें पूरी दिल्ली जरूर घुमाएगा। संयोग से तुम उसके घर चले गए। घूमाना तो दर की बात, वह आपके पास परा बैठ भी नहीं पाया क्योंकि वह अपने ऑफिस के कार्यों में उलझा हआ था। उसके इस व्यवहार ने आपको दुःखी और क्रोधित कर दिया। उपेक्षित अपेक्षा हमेशा गुस्से का निमित्त बनती है। अच्छा होगा कि हम औरों से अपेक्षाएँ पालने की बजाय अपने आप से अपेक्षा पालें। ___अभी हम जयपुर में थे। एक महानुभाव अपनी पत्नी के साथ हमसे मिलने के लिए आए। बातचीत के दौरान उनसे भोजन करने के लिए आग्रह किया गया। उन्होंने कहा – 'साहब, मेरी पत्नी की बुआ का बेटा यहीं रहता है। हमें उनके यहाँ भी जाना है अगर उनके यहाँ खाना नहीं खाया तो उन्हें बरा लगेगा।' मैंने कहा, 'जैसी आपकी मर्जी।' सांझ को वापस आए तो कहने लगे, 'साहब, हम भोजन यहीं करेंगे।' मैंने कहा, 'क्या मतलब?' थोड़े झल्लाते हुए, कहने लगे, 'साहब पता नहीं, कैसे आदमी हैं ? खाने का तो उन्होंने पूछा ही नहीं, केवल चाय कॉफी की मनुहार करते रहे। मैंने देखा कि उनके मन में सामने वाले के प्रति थोड़ी सी खटास पैदा हो गई थी। मैंने बात को सँवारते हुए कहा, 'हो सकता है कि सामने वाले ने यह सोचा होगा कि गुरुजनों के यहाँ से आए हैं तो भोजन तो करके ही आए होंगे।' कई बार व्यक्ति औरों की उपेक्षा का शिकार होकर अपने आपको अशांत कर लेता है और तनावग्रस्त हो जाता है। अगर हम किसी के द्वारा दिखाई दी गई उपेक्षा को सही अर्थ में लें तो वह हमें गुस्सा नहीं दिलाएगी 59 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपितु हमारे स्वाभिमान को जाग्रत कर जीवन में कुछ कर गुजरने का मौका देगी। ईगो को कहें 'गो' व्यक्ति के अहंकार को जब चोट लगती है तो उसे गुस्सा आता है जब तक तुम्हारा अहंकार संतुष्ट होता रहेगा, तुम सामने वाले से खुश ही रहोगे किन्तु अहंकार को चोट लगते ही तुम गुस्सा कर बैठोगे। अहंकार क्रोध का पिता है। क्रोध का एक और भी कारण है और वह है 'आलोचना'। किसी ने अगर हमारे लिए विपरीत टिप्पणी कर दी तो हम तत्काल गुस्सा कर बैठेंगे। लोगों का तो काम है औरों पर अंगुलियाँ उठाना और दूसरों की बातें करना। जब भी दो-चार लोग आपस में बात करते हैं तो वे दूसरों के लिए हमेशा विपरीत टिप्पणी किया करते हैं। परिणामस्वरूप मामला सुलझने की बजाय और भी अधिक उलझ जाता है। अगर आठ लोग किसी बिंदु पर निर्णय करने के लिए एक जगह बैठे हैं और यदि वे पहले से ही सोच कर बैठे हैं कि हमें इस मामले को उलझाना है तो वे उसे कभी भी सुलझा नहीं सकेंगे। यदि वे पहले से ही उसे सुलझाने की सोचते हैं तो किसी भी बात को सुलझाने में दो मिनट लगते हैं। शांतिपूर्ण ढंग से समाधान करने पर समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। साथ ही क्रोध से भी नष्ट होने वाले संबंधों को भी सुरक्षित रखा जा सकता है। सॉरी कहें, सुखी रहें अगर किसी कारणवश कभी झगड़ा भी हो जाए तो वह केवल विचारों के पारस्परिक टकराव से ही होता है और फिर वह विकराल रूप लेकर आपके जीवन को प्रभावित भी कर सकता है। ऐसी स्थिति में दो में से अगर एक व्यक्ति अपने मन के आवेग को नियन्त्रित रखे है तो मामला जल्दी शांत हो जाता है। आप झगड़े को टालने की कोशिश करें और यदि कोई छोटी-सी बात हो तो 'सॉरी' कहकर सलटा लें। अगर हमारे झुकने से मामला शांत हो रहा हो तो झुकना बुरी बात नहीं है। अगर सामने वाला हो-हल्ला कर भी रहा है तो भी आप शांति से जवाब दें। छोटी-सी बात को झगड़े का रूप कभी न दें क्योंकि कोई भी झगड़ा चिंगारी के रूप में शुरू होता है और दावानल बनकर खत्म होता है। पता नहीं गुस्से में व्यक्ति कैसे-कैसे काम कर बैठता है ? आदमी गुस्से में आकर अपने बेटे को मार देता है। परिवार को तहस-नहस कर देता है। प्रेमी भी अपनी प्रेमिका पर तेजाब छिड़क देता है। और तो और मिट्टी का तेल डाल कर खुद के ही तुली लगा लेता है। गुस्से में आदमी कौनसा अनर्थ नहीं कर बैठता? गुस्से को आप कभी भी आदत न बनने दें। अगर हम रोज-ब-रोज गुस्सा करेंगे तो हमारा गुस्सा प्रभावहीन होता जाएगा और धीरे-धीरे हमारे मित्र भी कम होते जाएँगे। आप कभी किसी गुस्सैल व्यक्ति को अपने सामने देख कर भले ही कुछ बोलें या न बोलें पर पीछे से उसका सब उपहास ही उड़ाते हैं । क्रोधी से तो वैसे ही लोग कन्नी काट कर रखते हैं। जिसको बोलने का विवेक नहीं, उससे भला कौन माथा लड़ाये ? बैल के सींग में कौन जान बूझकर सिर मारे? छोटी-मोटी बातों को लेकर घर में महाभारत न मचायें। सबसे अपनी ओर से प्रेम से और मधुर वाणी से बोलें ताकि आपको जिंदगी में औरों से प्रेम मिल सके। जिस बात को आप गुस्से में भरकर कड़वे शब्दों में कह रहे हैं, दो पल ठहरें अपने हृदय को प्रेम से 60 For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरकर उसी बात को मधुर शब्दों में कहने की कोशिश करें। आपकी बात और अधिक प्रभावपूर्ण हो जाएगी। अगर सामने वाला व्यक्ति बहुत ज्यादा गुस्से में है तो आप विनम्रतापूर्वक शांत रहें । क्रोध के वातावरण में जितना मौन रखा जाए उतना ही लाभदायक है। पर ध्यान रखें कि आपका मौन इस तरह का भी न हो कि सामने वाला अपने आपको उपेक्षित समझे और उसका गुस्सा दुगुना हो जाए। जो क्रोध चिंगारी के रूप में पैदा होता है, उसे कभी भी दावानल न बनने दें। सहन करें, कड़वे बोल औरों के द्वारा गलती करने पर उन्हें प्रेम से समझाने की कोशिश करें। अगर आप ऑफिस पहुँचे और पहुँचते ही किसी बात पर अपने कर्मचारियों पर झल्लाने लगते हैं तो कर्मचारी यही सोचेंगे कि 'लगता है 'बॉस' आज बीवी से लड़कर आए हैं।' अत: वहाँ न चली तो यहाँ चला रहे हैं। घर का गुस्सा ऑफिस में न ले जाएँ और ऑफिस का गुस्सा घर पर न उतारें। कई बार आपने किसी गुस्सैल व्यक्ति के लिए यह कहते हुए सुना होगा, 'पता नहीं यार, सुबह -सुबह किससे माथा लड़ गया कि उसने पूरा दिन ही खराब कर दिया।' ___दूसरों की छोटी-छोटी गलती को नजरअंदाज करें। भगवान महावीर जिनकी हम पूजा करते हैं उनके कान में कीलें ठोंकी गईं तब भी वे शांति से उन्हें सहन करते रहे। किन्तु हम उनके अनुयायी होकर भी किसी के दो कड़वे शब्दों को क्यों नहीं सहन कर सकते हैं ? कहते हैं, जब शिशुपाल का जन्म हुआ तो आकाशवाणी हुई थी कि शिशुपाल का वध कृष्ण के हाथों होगा। शिशुपाल की माँ भगवान कृष्ण के पास पहुँची और उनसे वचन माँगा कि आप मेरे पुत्र का वध नहीं करेंगे। कृष्ण ने महानता दिखाई और कहा, 'मैं तुम्हें ऐसा वचन तो नहीं दे सकता, पर तुम्हारे पुत्र की निन्यानयवे गलतियों को माफ करने का वचन देता हूँ।' कृष्ण ने ऐसा ही किया। कृष्ण अगर किसी की निन्यानवे गलतियों को माफ कर सकते हैं तो हम किसी की नौ गलतियों को माफ करने की उदारता क्यों नहीं दिखा सकते? 'कैसे बचें क्रोध से' इसके सूत्र तलाशने से पूर्व मैं एक बड़ी प्यारी सी घटना का जिक्र करना चाहूँगा। घटना कुरान शरीफ़ की है । मोहम्मद साहब के नाती का नाम खलीफा हुसैन था। उस समय का जमाना गुलामों का था। मनुष्य खरीदे-बेचे जाते थे। गुलामों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। तिस पर खलीफा हुसैन तो मानो क्रोध के अवतार ही थे। अगर वे किसी गुलाम से खफा हो जाते तो सिवा मौत के वे अन्य कोई सजा ही न देते। एक दिन खलीफा हुसैन अपने महल में नमाज अदा कर रहे थे। तभी एक गुलाम अपने में गर्म पानी का भगोना लेकर उधर से निकला। अचानक उसे ठोकर लगी और बरतन हाथ से छूट गया और गरम पानी नीचे फैल गया।कुछ बूंदे नमाज पढ़ते हुए खलीफा हुसैन पर भी जा गिरी। वह चौंक गया और गुस्से से भर गया। चूंकि उस समय वह नमाज़ अदा कर रहा था अतः उठ नहीं सकता था। उधर गुलाम ने सोचा कि आज तो मौत का फरमान जारी होकर ही रहेगा। उसकी आँखों के सामने मौत नाचने लगी। तभी पास में रखी हुई पवित्र कुरान की पुस्तक उसने उठा ली। वह उसके पन्ने उलटने लगा और खुली पुस्तक हाथ में रख ली। वह सोचने लगा कि अब तो मरना ही है। मरने से पहले कुरान की कुछ आयतों का 61 For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ही क्यों न कर लूं। कुरान के पन्नों पर जहाँ उसकी नजर पड़ी, उसने पहली आयत पढ़ी, 'जन्नत उनके लिए है जो अपने क्रोध पर काबू रखते हैं । खलीफा के कानों में ये शब्द पड़े और वह सचेत हो गया। उसने स्वयं को देखा कि उसके अंदर गुलाम के प्रति क्रोध उमड़ रहा है। वह पीछे मुड़ा और बोला, 'हाँ, हाँ मेरा गुस्सा मेरे काबू में है।' गुलाम ने सोचा कि कुरान की आयत काम कर रही है। एक सच्चा मुसलमान हर बात का इन्कारतिरस्कार कर सकता है लेकिन कुरान के शब्द उसके लिए पत्थर की लकीर होते हैं। तभी गुलाम ने अगली आयत पढ़ी, 'जन्नत उनके लिए है जो गलती करने वालों को माफ कर देते हैं।' जब यह पवित्र वाक्य खलीफा हुसैन ने सुना तो वह फिर चौंका और सोचा कि वह आयत तो सिर्फ उसी के लिए कही गई है। उसने पुनः सिर ऊँचा किया और कहा, 'जा, मैंने तेरी गलतियों को माफ किया।' गुलाम तो खुश हो गया कि कुरान की दो आयतों ने कमाल कर दिया। तब उसने तीसरी आयत पढ़ी, 'खुदा उनसे प्यार करता है जो दयालु होते हैं।' अब तो खलीफा हुसैन की आत्मा काँप गई। वह स्वयं को रोक न पाया और वह खड़ा हुआ। वह गुलाम के पास जा पहुँचा, उसे गले लगाया और दीनारों की थैली देते हुए कहा, 'जा, मैंने तुम्हें गुलामी से मुक्त किया।' गुलाम चला गया, खलीफा अपने काम में व्यस्त हो गया लेकिन कुरान की ये तीन आयतें मनुष्य-जाति के लिए वरदान बन गईं। ___ मेरा खयाल है कि ये तीन सूत्र हमारे जीवन में उतर जाने चाहिए। तभी हम क्रोध को कैसे काबू कर सकते हैं यह सीख पायेंगे। ये शब्द किसी सुरीले संगीत की तरह हैं जो हमारे जीवन को सुखद बना सकते हैं। ये पवित्र शब्द हिमाचल की किसी चोटी को छूकर आई हुई किरण की ही तरह हैं जो जीवन को सतरंगा बना दे। ये आयतें हमारे अन्तर हृदय में उतर जानी चाहिये । सदा याद रखें- जन्नत यानी स्वर्ग उनके लिए है जो अपने गुस्से को काबू में रखते हैं, और जन्नत उनके लिए है जो गलती करने वालों को माफ कर दिया करते हैं, ईश्वर उन्हीं से प्रेम करता है जो दयालु और क्षमाशील होते हैं। हमारी सबसे मैत्री हो, सबसे निकटता हो। आप नहीं जानते कि जिन संबंधों को वर्षों तक तराश कर बनाया जाता है, वे दस मिनिट के क्रोध से समाप्त हो जाते हैं । क्रोध से शरीर का भी क्षय होता है। क्रोधी व्यक्ति कभी हृष्ट-पुष्ट नहीं हो सकता। क्रोध उसके पुद्गल-परमाणुओं को जला देता है। जो ऊर्जा ऊर्ध्वगमन कर हमें सकती थी. वह क्रोध में जलकर नष्ट हो जाती है। काम की तरह क्रोध से भी शक्ति का नाश होता मैंने देखा है कि लोग क्रोध करना भी अपनी इज्जत समझते हैं। उनका मानना है कि क्रोध करने से दूसरे लोग उनकी बात मान जायेंगे। वे इसमें भी अपने अहंकार को पोषित करते हैं । अरे, क्या क्रोध किसी को इज्जत दे पाया है ? उसमें तो अनादर का भाव ही भरा है। फिर हम क्रोध पर कैसे विजय पायें? इसके लिए मैं कुछ उपयोगी सुझाव देना चाहता हूँ। क्रोध-मुक्ति के टिप्स क्ति के लिए पहला 'कल पर टालो किसी की गलती या विपरीत टिप्पणी को।' आपको 62 For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुस्सा आ गया तो मैं कहूँगा कि आप अपने क्रोध को अवश्य प्रकट करें पर इसकी लपट कहीं आपको न जला बैठे, अत: आप अपने गुस्से को चौबीस घंटे के बाद व्यक्त करें। जब भी गुस्सा आए, तत्काल उस पर विवेक का अंकुश लगाएँ और उसे कल पर टाल दें। कम-से-कम आधा एक घंटे के लिए तो टाल ही दें। अन्यथा हो सकता है गलती किसी और ने की हो और आप सीमा से ज्यादा गुस्सा कर बैठें तो वह गलती का प्रायश्चित करे या न करें पर आपको गुस्से का प्रायश्चित करना पड़ सकता है। कल की बात है एक बहिन अपने दो बच्चों के साथ फेस्टिवल मेला देखने गयी। एक बच्चा है दस साल का, दूसरा बारह का। छोटे वाले बच्चे ने किसी बात को लेकर मेले में थोड़ी-सी जिद पकड़ ली होगी। मम्मी पहले ही किसी बात को लेकर दिमाग से भारी थी, उसने आवेश में आकर बच्चे को जोर से चाँटा मार दिया। वैसे बच्चा समझदार था, अत: उसने अपनी जिद छोड़ दी। रात को सोते समय मम्मी को लगा कि बच्चे की सामान्यसी गलती पर दस लोगों के बीच चाँटा मारकर उसने अच्छा नहीं किया और उसने अपने बच्चे से सॉरी कहा। गलती से ज्यादा गुस्सा करने पर सॉरी सामने वाले को नहीं आपको कहनी पड़ेगी।अत: तत्काल गुस्सा करने की बजाय अपनी गलती का अहसास स्वयं बच्चे को होने दें। क्रोध हमारी समझदारी को बाहर निकाल कर उस पर चिटकनी लगा देता है। जब आप चौबीस घंटे के बाद अपने गुस्से को व्यक्त करेंगे तो वह क्रोध भी होश और बोधपूर्वक होगा। फिर आप जब अपनी बात को व्यक्त भी करेंगे तो विपरीत वातावरण से बचेंगे। क्रोध करो मगर समझपूर्वक। स्वयं को अनुपस्थित समझें क्रोध से बचने के लिए दूसरे प्रयोग को भी अपनाया जा सकता है और वह है 'स्वयं को अनुपस्थित समझो।' जब भी विपरीत वातावरण पैदा हो, आप यह सोचें कि अगर मैं यहाँ नहीं होता तो उन सब बातों का जवाब कौन देता? आपका यह विवेक आपको क्रोध के वातावरण से बचा लेगा। जैसे आप मुझसे मिलकर अपने घर गए। खिड़की से आपने देखा कि आपकी पत्नी और उसका भाई बातचीत कर रहे हैं। आपने सुना कि आपकी पत्नी आपके बारे में ही कई तरह की उल्टी-सीधी बातें कर रही हैं। जैसे मेरे पति हाथखर्ची नहीं देते, मेरा ध्यान नहीं रखते, मेरे लिए उल्टी सीधी बातें करते हैं और भी पता नहीं बेसिरपैर की कितनी ही बातें वह कर रही है। स्वाभाविक है कि उस समय आपको गुस्सा आएगा और आप अपने साले को सारी सच्ची बात बताना चाहेंगे। यदि थोड़ा-सा आप सावधान रहें तो आप क्रोध की भट्टी में गिरने से बच सकते हैं। अगर आप यह सोचें कि यदि मैं आधा घंटा विलम्ब से आता तो उनकी बातों को कौन सुनता और कौन जवाब देता? प्रयोग करें टेलिग्राम की भाषा ___ क्रोध-मुक्ति के कई उपाय हैं और जिस समय जो उपाय याद बन पड़े, तत्काल उसे अपना लेना चाहिए क्योंकि इसमें किया गया विलम्ब काफी हानिकारक हो सकता है। क्रोध-मुक्ति के उपायों में एक और अच्छा सा उपाय यह है कि टेलिग्राम की भाषा में अपनी बात को व्यक्त करो। अगर आपको लगे कि वातावरण क्रोध का बन गया है और आपके बिना बोले मामला उलझ सकता है अथवा आपको बड़ा तेज गुस्सा आया हुआ है और 63 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप उसे व्यक्त करना ही चाहते हैं तो टेलिग्राम की भाषा में अर्थात् सीमित शब्दों में उसे व्यक्त करें। जैसे टेलिग्राम देते समय एक-एक शब्द को तोलकर लिखा जाता है वैसे ही क्रोध के वातावरण में कम शब्दों में बात कहकर चुप हो जाएं। इससे वातावरण कलुषित होने से बचेगा। अगर आप क्रोध के समय अपने विवेक को खोकर लगातार कुछ न कुछ बोले जा रहे हैं, तो हो सकता है कि ऐसे अवसर पर आप वह बात भी कह दें जो आपके भविष्य के लिए गलत परिणाम दे सकती है। याद करें परिणाम क्रोध-मुक्ति के लिए अगला उपाय है 'परिणाम को याद करो' क्योंकि पहले भी जब कलुषित वातावरण बना था तो आप चीखे-चिल्लाये थे और बात बहुत ज्यादा बिगड़ गई थी। और तो और, आप जिस पत्नी से आजीवन प्रेम निभाने की सोच रहे थे उससे आप तलाक लेने की सोचने लगे हैं। जिस प्रेमिका पर आप अपनी जान न्यौछावर कर रहे थे, उसी पर तेजाब फैंक बैठे। जिससे आप बात करने के लिए तरसते थे, आज उससे बात करने को तैयार नहीं है। जिसे घंटों निहारा करते थे आज वह फूटी आँख भी नहीं सुहाता है। हम रोज समाचारपत्रों में पढ़ते रहते हैं कि गुस्से में किस आदमी ने कितना बड़ा अनर्थ कर दिया? कभी पिता अपने पुत्र पर ही गोली चला देता है तो कभी पुत्र अपने पिता का कत्ल कर देता है। कभी कोई महिला खुद पर ही केरोसिन छिड़क कर आग लगा लेती है तो कभी कोई लड़की फाँसी पर लटक कर आत्महत्या कर लेती है। पता नहीं, ऐसी कितनी ही घटनाएँ रोज़ होती हैं। कभी औरों के घर में, कभी खुद के घर में। अगर व्यक्ति क्रोधजनित परिणामों को याद कर ले तो तनाव भरे माहौल में भी वह अपने आपको बचा सकता है। अगर आपको गुस्सा आया है तो आप सावधान हो जाइए। आप खड़े हैं तो तत्काल बैठ जाएं ताकि उसके बाद गुस्सा केवल जबान से ही व्यक्त होगा। बैठे हैं तो लेट जाएँ। अगर फिर भी लगता है कि तुम्हारा क्रोध शांत नहीं हो रहा है तो झट से फ्रिज खोल कर एक बोतल ठंडा पानी पी लें। आप अनुभव करेंगे कि ऐसा करके आप बड़ी हानि से बच गए हैं। गुस्सा करें, मगर प्यार से क्रोध-मुक्ति का एक और उपाय है : 'बोध पूर्वक बोलो और कार्य करो।' अगर आपको लगे कि बिना बोले काम नहीं चलेगा तो आप सावधानी से अपनी बात को व्यक्त करें। सामने वाला भले ही समझे कि आप गुस्सा कर रहे हैं पर आप भीतर से सचेत रहें। आपका गुस्सा किसी भी तरह से कोई नुकसान न कर बैठे। हम कई बार ट्रकों के पीछे लिखी हुई बड़ी अच्छी बातों को पढ़ा करते हैं। एक बात मैंने कई ट्रकों के पीछे पढ़ी है – 'देखो मगर प्यार से'। गुस्से के साथ भी उसी को जोड़ लो। गुस्सा भी करो तो प्यार से करो। जैसे ही अन्तर्मन में प्यार उभरेगा तो गुस्सा अपने आप गायब हो जाएगा। ___गुस्से से बचने के लिए एक और उपाय किया जा सकता है। किसी अन्य कार्य में लग जाएँ। लगे, गुस्से में बोलचाल तो बंद हो गई आप बाहर से नहीं बोल रहे हैं, मगर भीतर से उफान उभर रहा है तो तत्काल एक काम करें- किसी अन्य कार्य से स्वयं को जोड़ दें। थोड़ी देर के लिए किसी आस-पड़ोस के घर में चले जाएँ अथवा 64 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी अन्य स्थान या व्यक्ति के पास चले जायें। जहाँ आपकी मनः स्थिति बदल सकती हो। सावधान रहें जब आप गुस्से में हों तो भोजन न करें। इससे मनोवेगों में उत्तेजना आती है और वह भोजन हमारे लिए हानिकारक हो जाता है। थोड़ी देर विश्राम करें फिर शांत मन से भोजन करें। ध्यान रखें, गुस्सा करने के बाद अगर आप भोजन कर रहे हैं, तो भोजन को थोड़ा ज्यादा चबा-चबा कर खायें ताकि आपके क्रोध की ऊर्जा चबाने में खर्च हो जाए और आपका क्रोध शांत हो जाए। कई बार परिस्थिति के अनुसार व्यक्ति को निर्णय करना पड़ता है कि कितनी मात्रा में क्रोध किया जाये अथवा न किया जाए। कभी-कभी क्रोध प्रकट करना आवश्यक भी हो जाता है और कभी-कभी बड़ा हानिकारक, पर लम्बे अर्से तक क्रोध को दबाकर रखना भी हानिकारक है। क्योंकि ऐसी स्थिति में क्रोध हमारे मानसिक संतुलन को बिगाड़ देता है। क्रोध को जीतें क्षमा से क्षमा और सहनशीलता का विकास करें, ये काफी लाभदायक सूत्र है। किसी के क्रोध का सामना सहनशीलता से करना और मौका पड़ जाए तो शालीनतापूर्वक क्रोध करना हमारे व्यक्तित्व की महानता है । क्षमा तो एक ऐसा मंत्र है जिसे हजारों वर्षों से अपनाया गया है। बड़े-बड़े महापुरुषों ने इसी शस्त्र से आत्म-विजय के संग्राम में सफलता प्राप्त की है। बड़ी से बड़ी विपरीत स्थिति या घटना हो जाने के बावजूद जब व्यक्ति क्षमा-भाव से भरा होता है तो विपरीत वातावरण उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता। अंग्रेजी का एक बड़ा प्यारा-सा शब्द है 'सॉरी'-क्षमा कीजिए। मनुष्य जो दिन में पचास बार इस शब्द का प्रयोग करता है भला विपरीत वातावरण में इसका उपयोग क्यों नहीं करता है। क्षमा से बढ़कर कोई शस्त्र नहीं होता और शांति से बढ़कर कोई शक्ति नहीं होती। हम अपने जीवन में इन दोनों का विकास करें। अगर आप क्रोधी स्वभाव के हैं तो सप्ताह में क्रोध का एक व्रत अवश्य करें। जैसे हम कई देवीदेवताओं की आराधना के लिए, व्रत करने के लिए अलग-अलग वार का चयन करते हैं, ऐसे ही सप्ताह में एक दिन अपने मन की शांति के लिए एक व्रत करने का चयन करें और व्रत करें क्रोध-मुक्ति का। सुबह उठते ही नियम ले लें कि अब चौबीस घंटों के दौरान कैसा भी विपरीत वातावरण क्यों न बन जाए पर मैं किसी भी स्थिति में गुस्सा नहीं करूँगा। आप अनुभव करेंगे कि इससे आपके अन्तर्मन में एक विशेष प्रकार की शांति अनुभव हो रही है। जैसे चौबीस घंटे के लिए भोजन का त्याग करना उपवास कहलाता है इसी तरह चौबीस घंटे तक क्रोध का त्याग करना भी उपवास ही है। यह एक अच्छा उपवास है जिससे हम स्वयं को एवं पूरे परिवार को एक दिन के लिए शांति का सुकून प्रदान कर सकते हैं । संभव है कि जिस दिन आपके क्रोध न करने का नियम लिया हुआ है उसी दिन संयोगवश कोई विपरीत टिप्पणी सुनने को मिल जाए तो उसे नजर अंदाज करने की कोशिश करें। हो सकता है हमारी शांति को कोई चनौति मिले पर उसका सामना करने का परुषार्थ दिखाएँ। सहनशीलता से एक ओर जहाँ हमारे जीवन में गंभीरता आएगी वहीं हम आत्म संयमी बन सकेंगे। सहनशीलता औरों के क्रोध को 65 For Personal Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठण्डा भी तो कर देती है। जो लोग अपने जीवन में क्रोध से छुटकारा पाना चाहते हैं उन्हें प्रतिदिन मौन रखने का भी अभ्यास करना चाहिए। मौन जहाँ हमारी वाणी को विश्राम देता है वहीं विपरीत वातावरण में हमें तटस्थ रहने का अवसर प्रदान करता है। किसी भी व्यक्ति के लिए चार घंटे तक बोलना सरल होता है पर चार घंटा चुप रहना मुश्किल। विपरीत वातावरण में हमारा मौन हमारे लिए बचाव का काम कर सकता है। ऐसे अवसर पर किसी के चीखने-चिल्लाने पर भी हमारा मौन हमें आत्म विवेक का बोध देता रहता है। पेट्रोल नहीं : पानी बनें ये बिन्दु हुए स्वयं के क्रोध से बचने के लिए। कई बार दिक्कत यह खड़ी हो जाती है कि अगर दूसरा हम पर क्रोध कर रहा हो या हमारे साथ गलत व्यवहार कर रहा हो उस समय क्या किया जाय? मैं पहला संकेत देना चाहूँगा कि हर क्रोध का जवाब मुस्कान से दो। संभव है सामने वाला व्यक्ति आग बबुला बन कर आया है। अब यह आप पर निर्भर है कि आप किस रूप में हैं । उदाहरण के तौर पर हम समझ सकते हैं कि हमारे दो हाथों में दो पात्र हैं । एक पात्र में पानी है और एक में पेट्रोल। सामने वाला व्यक्ति दियासलाई जलाकर आपके सामने लाया है अगर आपने पानी का पात्र आगे बढ़ा दिया तो दियासलाई उसमें गिर कर बुझ जाएगी, पानी-पानी हो जायेगी और अगर भूल से तुमने पेट्रोल का पात्र आगे बढ़ा दिया तो वह दियासलाई भयंकर आग का रूप बन जाएगी। यह हम पर निर्भर करता है कि हम पानी हैं या पेट्रोल । डीजल हैं या दूध । क्रोध का ज़वाब दें मुस्कान से कोई हमारे प्रति गलत व्यवहार करे, हमारी उपेक्षा भी करे तो भी हम उसे मजाक में लेने की कोशिश करें। कहीं ऐसा न हो कि हमारे स्वभाव का स्वीच किसी दूसरे के हाथ में हो वह हमें जब चाहे तब शांत भी कर दे और क्रोधित भी कर दे। एक प्यारे संत हुए हैं- भीखण जी। कहते हैं एक बार वे कुछ भक्तों के बीच बैठ कर प्रवचन दे रहे थे। इसी दौरान एक युवक आया और संत के सिर पर ठोले मारने लगा। भक्तों को यह बर्दाश्त न हुआ। उन्होंने युवक को पकड़ लिया और उसकी पिटाई करने लगे। संत ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा, 'इसे मारो मत शायद यह मुझे अपना गुरु बनाने आया है।' लोगों ने कहा, 'गुरु बनाने का यह कौनसा तरीका है। चोटी खिंचवा कर तो चेले बनाए जाते हैं पर यह ठोला मार कर गुरु बनाने का कौनसा तरीका।' संत ने मुस्कराते हुए कहा, 'निश्चित ही यह व्यक्ति मुझे गुरु बनाने आया होगा। अरे कोई व्यक्ति बाजार में दो रुपए का घड़ा भी खरीदता है तो भी उसे चारों तरफ से ठोक बजा कर देखता है कि घड़े में कोई छेद या दरार तो नहीं है। जब घड़े को भी ठोक बजा कर खरीदा जाता है तो शायद यह मुझे ठोक बजा कर देखता हो कि मैं गुरु बनाने लायक हूँ कि नहीं।' इसे कहते हैं क्रोध का जवाब मुस्कान से। जहाँ तक संभव हो हर किसी व्यक्ति से प्रेम से बोलें, प्रेम से मिलें । आँख कभी लाल मत करो और जीभ 66 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कभी कड़वा मत बोलो। स्वभाव में और भाषा में विनम्रता हो । दुनिया में वे लोग ज्यादा सम्मान पाते हैं जो सरल भी होते हैं और सहज भी । हम जन्म लेते हैं तो जीभ हमें जन्म के साथ मिलती है पर दाँत पीछे आते हैं। पर यह प्रकृति का सत्य है कि जीभ अंत तक हमारे साथ रहती है और दाँत पहले ही टूट जाते हैं। जो नरम है वह सबको प्रिय होता है और जो कठोर, वह अपने परिवार का भी प्रिय नहीं हो सकता है। प्रेम चाबी है और क्रोध हथोड़ा। ताले को खोलने के लिए दोनों का ही प्रयोग किया जा सकता है पर याद रखें चाबी से ताला खुलता है और हथोड़े से ताला टूटता है। चाबी से खुला ताला बार-बार काम आता है पर हथोड़े से टूटा ताला अंतिम बार । प्रेम से काम बनते हैं और क्रोध से बिगड़ते हैं । गुस्से में भरकर एक व्यक्ति ने भीड़ में खडे एस. पी. के मुँह पर थूक दिया। पास खड़े इंस्पेक्टर ने इसे एस. पी. का भंयकर अपमान समझा। झट से रिवाल्वर निकाली और उसकी छाती पर तान दी। एस. पी. क्षणभर में सहज हुआ उसने मुस्कान ली और इंस्पेक्टर के हाथ से रिवाल्वर लेते हुए कहा, 'तुम्हारे जेब में रूमाल है क्या ?' इंस्पेक्टर से रूमाल लेकर एस. पी. ने अपने चेहरे पर लगा थूक पोंछा और मुस्कुराते हुए कहा, जो काम रूमाल से निपट सकता है उसके लिए रिवाल्वर क्यों चलायी जाये । क्रोध करने का अर्थ है, दूसरों की गलतियों का प्रतिशोध स्वयं से लेना । गलती किसी और ने की और गुस्सा आपने किया । संभव है सामने वाला तो तुम्हारे गुस्से को झेल कर बाहर चला गया पर तुम अपने ही गुस्से में झुलसते रह गए। क्रोध एक अग्नि है। जो इसे वश में कर लेता है वो इसे बुझाने में समर्थ हो जाता है, और जो इसे वश में नहीं कर पाता वह इसमें जलने के लिए मजबूर हो जाता है। हम अपने क्रोध को वश में करें। अन्यथा क दिन हम इसके वश में हो जाएँगे। जो महावत अपने हाथी पर अंकुश नहीं रख पाता वो सावधान रहे, वह हाथियों से कभी भी दबोचा जा सकता है। हर समय औरों को डांट-डपट की आदत छोड़ें। औरों की गलतियों को देखने की आदत बंद करें और अपने ही गिरेबाँ में झाँक कर देखने की कोशिश करें कि हम स्वयं कहाँ खड़े हैं। औरों और एक अंगुली उठाने वाला व्यक्ति क्या अपनी और मुड़ रही तीन अंगुलियों पर नजर डालेगा। कोई तीली थोड़े से संघर्ष से इसलिए जल जाती है क्योंकि उसके ऊपर सिर तो होता है पर दिमाग नहीं, पर मनुष्य जिसके पास सिर भी है और दिमाग भी, वह भला थोड़े से संघर्ष से दियासलाई की तरह क्यों जल उठता है । व्यक्ति दो-चार महिने में एक बार घर के अनुशासन को बरकरार रखने के लिए गुस्सा करता है तो वह वाजिब कहा जा सकता है, लेकिन रोज-ब-रोज अपने झूठे अहंकार के पोषण के लिए वह अपने बीबी-बच्चों पर गुस्सा करता है तो ऐसा करके एक आलीशान बंगले में रहने वाले अपने परिवार को नरक बना देता है। मरने के बाद जो स्वर्ग मिला करता है उसे हमने देखा नहीं है और जिस नरक से बचना चाहते हैं हमने उसे भी नहीं देखा है पर सच तो यह है कि हम अपने ही निर्मल स्वभाव से अपने घर को स्वर्ग बनाते हैं और अपने ही उग्र स्वभाव से घर को नरक । प्रेम, शांति, दया, क्षमा, करुणा ये जीवन के स्वर्ग हैं । क्रोध, कषाय, चिंता, तनाव, घुटन, अवसाद, अहंकार ये जीवन के नरक हैं। क्या हम बुद्धिमानी का उपयोग करेंगे और अपने दो कदम स्वर्ग की ओर बढ़ाने की कोशिश करेंगे। उस स्वर्ग की ओर जिसे हम मरने के बाद पाना चाहते हैं, पर उसे जीते-जी पाया जा सकता है अगर हम ऐसा करते हैं तो स्वर्गीय होने से पहले ही अपने जीवन में स्वर्ग ईजाद कर सकते हैं। 67 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अहंकार: कितना जिएँ, कितना त्यागें अहंकार के हथौड़े से ताला टूटता है, पर विनम्रता की चाबी से वही खुल जाया करता है। महाशक्तिशाली बाहुबली ने संत-जीवन अंगीकार कर लिया और वे जंगल में जाकर साधना में लीन हो गए। माह पर माह ही नहीं, अपितु वर्ष पर वर्ष बीत गए, लेकिन बाहुबली अपनी साधना में ही रत रहे। इतने लंबे समय तक वे ध्यान में डूबे रहे कि उनके शरीर पर लताएँ लिपट गईं, पक्षियों ने घोंसले बना लिये और सर्प भी उनके शरीर से गुजरने लगे। ऐसी कठोर तपस्या तो शायद किसी ने भी न की होगी, जितनी कठोर तपस्या अपने पाँवों पर खड़े होकर बाहुबली कर रहे थे। अनेक वर्ष बीत जाने पर बाहुबली की बहनों ने अपने पिता ऋषभदेव से पूछा - प्रभु! हमारा यह भाई इतने वर्षों से साधना कर रहा है पर क्या कारण है कि उन्हें परम ज्ञान, आत्म-ज्ञान उपलब्ध नहीं हो रहा है। मनोविकार की दीवार भगवान मुस्कुराए और कहने लगे, 'ब्राह्मी और सुंदरी! आत्म-ज्ञान पाने के लिये व्यक्ति को न तो पाँवों पर खड़ा होना पड़ता है और न ही लम्बे समय तक तपस्या से गुजरना पड़ता है। आत्म-ज्ञान पाने के लिये तो मन के परिणामों को विशुद्ध करना पड़ता है और जब तक किसी व्यक्ति के मन के परिणाम निर्मल नहीं हो जाते तब तक वह चाहे जितनी ध्यान-साधना करे, योग या तपस्या करे लेकिन मुक्ति और परमज्ञान उससे दूर ही रहा करते हैं।' ब्राह्मी और सुंदरी ने कहा, 'हम समझ नहीं पा रही हैं कि आखिर बाहुबली के अन्तरमन में ऐसे कौनसे विकार और विकृतियाँ हैं जिनके कारण वे महान तपस्या करके भी अपने जीवन में मुक्ति को उपलब्ध नहीं कर पा रहे हैं! ऋषभदेव ने कहा, 'बाहुबली ने जब संन्यास लिया तब उसके अन्तर्मन में यह विचार प्रकट हुआ कि पहले से ही मेरे छोटे भाइयों ने संन्यास ले लिया है और वे सारे संत भगवान के साथ हैं। अगर मैं भगवान के पास जाऊँगा तो संत मैं भी हूँ और मेरे छोटे भाई भी संत हैं लेकिन छोटे भाई पहले दीक्षित हो चुके हैं, अत: कहीं मुझे 68 For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें प्रणाम न करना पड़े। बड़ा भाई होकर मैं अपने छोटे भाइयों के सामने जाकर झुकू, यह कैसे हो सकता है? एक काम करता हूँ कि मैं स्वयं ही वन में जाकर आत्मसाधना करूँगा और परमज्ञान पाऊँगा, तत्पश्चात् ही अपने भाइयों के पास जाऊंगा ताकि वे मुझसे छोटे ही कहलाएँगे। ब्राह्मी-सुंदरी! याद रखो जब तक अन्तरमन में अहंकार का शूल चुभा हुआ और दबा हुआ है तब तक व्यक्ति अपने जीवन में मुक्ति का फूल खिलाने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकता। जाओ, तुम लोग अपने भाई के पास जाओ और उसे आत्म-बोध दो कि वह अपने अहंकार को गिराये ताकि अपने जीवन में साधना के परिणाम को पा सके।' उतरें, अहंकार के हाथी से अपने पिता से आदेश पाकर ब्राह्मी और सुंदरी बाहुबली के पास गईं। बाहुबली अपने ध्यान में लीन थे। उनकी सघन साधना देखकर ब्राह्मी-सुंदरी को लगा-'ओह, ऐसी साधना तो दुनिया में किसी ने भी न की होगी' तब दोनों बहनों ने मंद-मंद स्वर में गीत गुनगुनाना शुरू किया - 'वीरा म्हारा गज थकी ऊतरो, गज चढ्या केवळ नहीं होसी रे।' ___ हे भाई! तुम हाथी से नीचे उतरो, हाथी पर बैठकर किसी को परम-ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। जब बार-बार बाहुबली के कान में ये शब्द गूंजने लगे तो बाहुबली की चेतना जाग्रत हुई। उनका ध्यान भंग हुआ और वे सोचने लगे, 'आवाज तो मेरी बहनों की है। ये मुझसे यह क्या कह रही हैं कि हाथी से नीचे उतरो।अरे, मैं तो अपने पाँवों पर खड़ा हूँ, भला हाथी पर कहाँ बैठा हूँ।' बाहुबली अन्तर्मन में पुनः-पुन: चिंतन करने लगे और परिणामतः उनकी चेतना जागृत हुई। उन्होंने पाया कि उनकी बहनें सच कह रही हैं। मैं जब तक अहंकार के हाथी पर बैठा रहूँगा तब तक चाहे जीवन भर साधना करता रहूँ पर परमज्ञान प्राप्त नहीं कर पाउंगा। बाहुबली मन में विनय भाव लिये हुए अपने छोटे भाइयों को प्रणाम करने के लिये उद्यत हो गए और जैसे ही उन्होंने एक कदम आगे बढ़ाया कि उन्हें परमज्ञान और केवलज्ञान उपलब्ध हो गया है। जो कार्य बारह साल की साधना न कर पाई वह कार्य कुछ पलों की विनय भावना और नम्रता से हो गया। अहंकार के टूटने से हो गया। उन्होंने डग भरा और जीवन में भोर हो गई। मैं मानता हूँ कि यह घटना काफी पुरानी है, लेकिन यह न समझें कि अहंकार के कारण केवल बाहुबली की साधना ही अटकी थी बल्कि हमारे जीवन की साधना भी प्रभावित हो रही है, विकास अवरुद्ध हो रहा है, सम्बन्ध प्रभावित हो रहे हैं।...तो आप यह जान लें कि कहीं न कहीं कोई अहंकार की धारा, अहंकार का बंधन और अहंकार का भाव विद्यमान है। दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा होगा जिसके भीतर लेशमात्र भी अहंकार न हो। ऐसा व्यक्ति खोजने से भी न मिलेगा। जिसके भीतर कम या ज्यादा अहंकार की रेखाएँ, भावनाएँ अथवा घमंड की सोच न हो। अहंकार के ग्राफ में थोड़ा-बहुत फर्क होता है। किसी का अहंकार बहुत ऊँचे स्तर का और किसी का सामान्य स्तर का होता है। अहंकार जीवन में तभी प्रविष्ट हो जाता है जब कोई व्यक्ति अपने जीवन की सोच सम्भालता है। वैसे तो समझ आते ही जीवन में चार ग्रंथियाँ जुड़ जाती हैं - क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें भी 69 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान यानि अहंकार और क्रोध का परस्पर गहरा संबंध है। क्रोध और मान में चोली-दामन का रिश्ता है। जो गुस्सैल है, वह घमंडी भी जरूर होगा। यदि कोई घमंडी है तो आप यह मानकर चलें कि उसमें गुस्से की प्रवृत्ति अवश्य है । घमंड और गुस्सा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। संसार में अधिकांश अत्याचार अहंकारवश हुए हैं। अहंकार के शब्दकोश में दया, प्रेम, करुणा और आत्मीयता जैसे शब्द नहीं होते। घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, तनाव ये सब अहंकार की शाखाएं हैं। अहंकारी व्यक्ति के सम्बन्ध कमजोर होते हैं, परिवार के लोग उससे भय खा सकते हैं पर प्रेम नहीं कर सकते। उसके मुंह के सामने भले ही लोग प्रशंसा कर दे, पर पीठ पीछे तो उसकी मजाक ही उड़ाते हैं । सच्चाई तो यह है कि अहंकार में आदमी फूल सकता है, पर फैल नहीं सकता। अभिमानी के हाथ में, ज्ञान न करता धाम। फटी जेब में क्या कभी टिक सकते हैं दाम। अहंकार से उजड़े बगिया ___ मैं देखा करता हूँ कि अगर समाज में, धर्म में, परिवार में कहीं विघटन हो रहा है, किसी प्रकार का विभाजन हो रहा है, किसी प्रकार की मानसिक दूरियाँ बढ़ रही हैं, तो इसमें सबसे प्रमुख भूमिका अहंकार की ही होती है। जब समाज में कुछ लोगों के अहंकार टकराते हैं तो समाज टूटता है । जब कुछ संतों के अहंकार टकराया करते हैं तो धर्म टता है। परिवार के कछ लोगों के अहंकार टकराते हैं तो परिवार टटता है। जब व्यक्ति अपने भीतर हर पल अहंकार को लेकर चलता है तो उसकी स्थिति सूखे तालाब में दरार पड़ी मिट्टी जैसी हो जाती है। कुछ लोग अपने भीतर इतने घटिया स्तर के अहंकार पालते हैं कि हँसी आती है। कुछ लोग अपने आप को इतना बड़ा मान लेते हैं कि जैसे उनसे ज्यादा कोई समझदार है ही नहीं। वे समझते हैं उनसे अधिक खूबसूरत, सम्पन्न, बुद्धिमान और कोई नहीं है। हर आदमी स्वयं को औरों से श्रेष्ठ मान रहा है, महान मान रहा है । हरेक को यही लगता है कि दूसरे में क्या बुद्धि है क्योंकि वही सबसे अधिक बुद्धिमान है। अहम् हटाएं, अर्हम् जगाएं स्वयं को महान और बड़ा मानने की प्रवृत्ति और दूसरों को लघु या छोटा मानने की आदत ही अहंकार को पोषित करती है। परिवार का विघटन किसी अन्य कारण से नहीं बल्कि किन्हीं दो लोगों के अहंकार के टकराने के कारण होता है । फिर वह अहंकार सास-बहू का हो या बाप-बेटे का या भाई-भाई का हो। जब अहं जगता है तो अर्हम् सो जाता है। अहम् और अहम्, अहम् और सर्वम्, अहम् और शिवम् ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते। तुम्हारे भीतर एक ही रहेगा या तो अहम् रहेगा या शिवम्। अगर शिवम् को रखना है तो अहम् को हटाना पड़ेगा। अहम् अगर भीतर बैठा है तो शिवम् कभी साकार नहीं हो सकता। अहंकार हटेगा तो ही वह निराकार साकार बनेगा। अहंकार मानव एवं ईश्वर के बीच की मुख्य बाधा है। व्यक्ति साफ-साफ निर्णय करे वह अपने भीतर शिवत्व चाहता है या अहंकार। ____70 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमान नहीं, स्वाभिमान अपनाएं अहंकार के दो रूप हैं - अभिमान और स्वाभिमान । अहंकार के कुछ बिंदु ऐसे हैं जिन्हें त्यागा जाना चाहिए लेकिन कुछ बिंदु ऐसे भी हैं जिन्हें जीया जाना चाहिए। शायद जिन्हें त्यागा जाना चाहिए, उन्हें तो हम जी रहे हैं और जिन्हें जीना चाहिए उनका हम त्याग किये हुए हैं। अभिमान मनुष्य को अकड़ और घमंड देता है और स्वाभिमान मनुष्य को आत्म- गौरव देता है। हर व्यक्ति में स्वाभिमान और आत्मगौरव तो होना ही चाहिए लेकिन किसी में भी अभिमान, अकड़ और नकारात्मक जीवन का दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए। अभिमान, अकड़ और घमंड जीवन के लिये नकारात्मक दृष्टिकोण देते हैं । हम लोगों के भीतर प्रायः आत्मगौरव कम और आत्म- अभिमान अधिक होता है । स्वाभिमान कम और अहंकार तथा अभिमान ज्यादा होता है । आप जानते हैं कि रावण का अंत क्यों हुआ ? इतिहास में सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं कि जहाँ व्यक्ति के झूठे दंभ, अनर्गल घमंड और व्यर्थ के अहंकार ने उसके जीवन को नष्ट किया है, उसकी सत्ता और सम्पति को नष्ट किया है। रावण उतना कामुक या कामांध नहीं था । उसका दोष उसके भीतर रहने वाली अहंकार की वृत्ति थी । वह कामांध कम, घमंडी ज्यादा था। रावण को कुंभकर्ण ने भी समझाया था कि वह सीता को वापस कर । और तो और, अंतिम पलों में इन्द्रजीत ने भी समझाया था कि सीता को वापस कर दे क्योंकि एक नारी के पीछे सोने की लंका और राक्षसवंश का अंत होने जा रहा था। शायद रावण की आत्मा ने भी कहा होगा कि सीता राम को लौटा दे, लेकिन सीता को लौटाने में रावण का अहंकार आड़े आ रहा था । रावण कामुक कम, अहंकारी ज्यादा था। सीता का अपहरण भी उसने कामवश कम, अहंकारवश ही किया था। क्योंकि जब उसकी बहन ने बताया कि उसके नाक-कान काट दिये गए हैं तब रावण का अहंकार जगा कि मेरी बहन की यह हालत ! अब राम की पत्नी की भी यही हालत कर दूँगा और उसने सीता का अपहरण किया अपने अहंकार के पोषण के लिये । अपने अंतिम क्षणों में भी अगर रावण अपना अहंकार छोड़ देता तो शायद न तो उसका वध होता और न ही आज तक रावण का दहन किया जाता । T पत्थरों को तय हैं ठोकरें अहंकार व्यक्ति के विनाश का कारण है। कंस को भी शायद उसके अंतिम पलों में यह महसूस हो गया था कि कृष्ण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है । वह तो विष्णु का अवतार है और मेरा वध उसके हाथों निश्चित है। वर्ष भर तक निरन्तर रात में सोते, दिन में जागते, भोजन करते, राजसभा में बैठे हुए हर समय उसे अपनी मौत ही नजर आ रही थी। भले ही राजसभा में बैठकर उसने कृष्ण का अंत करने की योजनाएँ बनाईं पर मौत की काली परछाई तो कंस के सिर पर नाच रही थी। कंस का अहंकार ही उसके अंत का कारण बना। रावण हो या कंस, किसी का भी अहंकार टिका नहीं है। क्या होता है अहंकार का परिणाम, अगर देखना है' , इस युग में सद्दाम हुसैन सबसे जीवंत उदाहरण है। याद रखें, दुनिया ने उसी को पूजा है जिसके भीतर नम्रता और सदाशयता रही है। जो अहंकार के पत्थर बन गए, उन्होंने ठोकरें ही खाई हैं । जिनके भीतर अहंकार की ग्रंथि होती है उनके चारों ओर 'मैं' का जाल बुना रहता है। उन्हें लगता है कि वे 71 For Personal & Private Use Only . Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही दुनियाभर के कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। मैं सोचा करता हूँ कि ऐसे लोगों को उनका पूर्वजन्म तो आसानी से बताया जा सकता है जो हर समय 'मैं-मैं' करते रहते हैं। पिछले जन्म में वे जरूर बकरे रहे होंगे तभी तो मैं-मैं करने की आदत अपने साथ लेकर आये हैं। आप भी 'मैं' की वृत्ति को कम करें और हम' की वृत्ति को जीवित करें। मैंने ऐसा किया है और अब भी 'मैं' ऐसा ही कर रहा हूँ। मैं' कहने के बजाय अगर ऐसा कहें और करें कि 'हमने ऐसा किया है अथवा 'हम' ऐसा कर रहे हैं तो आप यह मानकर चलिए कि जहाँ पर 'हम' होता है, वहाँ सार्वभौमिकता होती है और जहाँ 'मैं' होता है वहाँ अहंकार की वृत्ति होती है। यह सब मैंने किया है कहने की बजाय विनम्र भाषा का प्रयोग करें- 'यह हमारा विनम्र प्रयास है' ऐसा कहना और सुनना दोनों ही अच्छा लगेगा। नरक काद्वार-अहंकार ___ स्वामी विवेकानंद एक बार अपने भक्तों के बीच बैठे हुए थे। वे लोग परस्पर बातचीत कर रहे थे। उनमें से एक युवक खड़ा हुआ और पूछने लगा- 'आप में से क्या कोई यह बता सकता है कि नरक कौन ले जाता है?' एक ने कहा, 'जुआ ले जाता है।' प्रश्नकर्ता ने कहा, 'मैं नहीं मानता।' दूसरे ने कहा, 'शायद, पराई स्त्री पर गलत नजर डालना नरक ले जाता है। उसने कहा, 'मैं नहीं मानता।' तीसरे ने कहा 'व्यसनों में जीना।' उसने फिर मानने से इन्कार कर दिया। चौथे ने कहा, 'मिलावट करना, खोटे धंधे करना'। इस तरह लोगों ने कई तरह की बातें बताई कि शायद ऐसा-ऐसा करने वाला आदमी नरक में जाता है लेकिन वह युवक हर बार यही कहता कि, 'मैं नहीं मानता।' विवेकानंद तो चर्चा में मशगूल थे। जब उनका ध्यान इस ओर गया तो उन्होंने पूछा, 'क्या बात है ? आखिर आपका प्रश्न क्या है ?' लोगों ने प्रश्न और उसके विभिन्न उत्तर उन्हें बताए और यह भी कहा कि वह युवक इन उत्तरों को स्वीकार नहीं कर रहा है। विवेकानंद ने कहा, 'तुम अगर जानना चाहो तो मैं बता सकता हूँ कि नरक में कौन ले जाता है । यह हमारा जो 'मैं' है, यही नरक में ले जाता है । 'मैं' का भाव अर्थात् अहंकार की वृत्ति ही हमें नरक की और धकेलती है।' __सावधान हो जाएँ कि कहीं हमारे भीतर अहंकार के बीज तो नहीं पनप रहे हैं। सावधान हो जाएँ कि कहीं हमारे भीतर अहंकार का शूल तो नहीं उग रहा है। सावधान हो जाएँ कि कहीं हमारे भीतर अकड़ या घमंड की ग्रंथि तो नहीं पल रही है। आपके भीतर पनपने वाली अहंकार की वृत्ति ही आपके स्वभाव को विकृत कर देगी। हटाएँ अहंकार की दीवार ___ अहंकार दो मनुष्यों के बीच मैत्री को दूर करने वाली सबसे बड़ी दीवार है। यह वह चट्टान है जो हमारे जीवन की राह को कठिन बनानी है और अगर यह चट्टान खंडित हो जाए तो जीवन में प्रेम का झरना फूट पड़ता है। किसी भी बात को तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाने में अहंकार की सबसे बड़ी भूमिका होती है। कोई कितना भी समझाए पर आदमी अहंकार को छोड़ नहीं पाता और इसके चलते अपने जीवन के मधुर संबंधों में खटास डाल देता है। अच्छे मित्रों को खो देता है। मन की शांति को भंग करता ही है साथ ही अहंकारी व्यक्ति के 72 For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथ में मानवीय मूल्य भी नहीं टिक पाते। वह अपनों के साथ तो जीना चाहता है परन्तु उन पर भी अपने अहंकार का आरोपण करने की कोशिश करता है और धीरे-धीरे वह स्वयं के जीवन का माधर्य ही खो बैठता है। ___ मेरे पास अभी कुछ दिन पहले एक महानुभाव आये। जिन्होंने स्वाभिमान के नाम पर कई थोथे अहंकार पाल रखे थे। कहने लगे, मेरे परिवार में सब लोग सम्पन्न हैं लेकिन मैं किसी का अहसान लेना नहीं गरज न करे तो मैं अपने भाइयों के घर नहीं जाता। मैं अपनी माँ से अलग हआ तो माँ ने एक मकान देना चाहा पर मैंने अपने स्वाभिमान को गिरने नहीं दिया और वह मकान नहीं लिया। उनकी पत्नी कहने लगी कि 'ये अपने स्वाभिमान के नाम पर किसी से भी मेलजोल नहीं बिठा पाते, इसी कारण सड़क पर आ गये हैं।' मैंने उन्हें समझाया कि स्वाभिमान के नाम पर ओढ़ रखे अहंकार के लिबास को उतार कर रखें और जीवन में सबसे घुलमिल कर विकास की मंजिल प्राप्त करें। मैंने देखा है, लोग अपनी साख को बढ़ाने के नाम पर खुद तो अहंकार में जीते हैं और दूसरों की विनम्रता को चमचागिरी समझते हैं। व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की भावना तो होनी चाहिये पर अति-आत्मविश्वास और मिथ्यामान अहंकार का रूप धारण कर लेते हैं। आदमी को चाहिये कि वह स्वाभिमान. सम्मान और अभिमान के बीच एक संतुलन बनाए । केवल अपनी इमेज बनाए रखने के नाम पर टिप-टॉप बने रहना और दोस्तों के बीच ऊँची-ऊँची बाते झाड़ते रहना किसी भी रूप में हमारे व्यक्तित्व का सद्गुण नहीं कहा जा सकता। ऐसे लोग अपना अमूल्य समय, शक्ति और दिमाग को व्यर्थ ही गवाँया करते हैं। अहंकार व्यक्ति के व्यक्तित्व को कंजूस भी करता है। चाहे किसी से प्रेम करना हो या किसी की प्रशंसा, कृतज्ञता-ज्ञापन करना हो या मैत्री-भाव आदमी इन सब मामलों में कंजूस बना रहता है। अगर कोई अहंकारी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को प्रभावी बनाना चाहता है तो इसके लिए जरूरी है कि वह अपने जीवन में मानवीयता, सहृदयता, जैसे गुणों को धारण करे। मैं तो जब भी किसी शख्स से मिलता हूँ तो सोचता हूँ कि किसी न किसी बात में वह मुझसे बढ़कर है और मैं वह सद्गुण उससे पाने का प्रयास करता हूँ। अच्छा होगा आदमी अपनी जिंदगी के घर से अहंकार को अटाले की तरह बाहर फैंक दे ताकि वह एक बेहतर इंसान बन सके। झुकता वही है, जिसमें जान है __ तुमने अपनी पत्नी से कहा कि आज ऐसा-ऐसा कर देना और अगर वह भूल गई तो तुम्हें गुस्सा आएगा क्योंकि तुमने कहा और उसने नहीं किया। इससे तुम्हारे अहंकार को चोट लगी और तुम उबल पड़े। व्यक्ति की अपेक्षा जब उपेक्षित होती है तब उसे गुस्सा आता है। व्यक्ति के अहंकार को चोट लगती है तो गुस्सा आता है। और तो और, जब उसका अहंकार असंतुलित होता है तब भी वह गुस्से से भर उठता है । याद रखें, ताला दो तरह से खुलता है - एक चोट से, दूसरा चाबी से। अहंकार और क्रोध हथौडे हैं जो टक्कर मारते हैं और प्रेम रूपी ताले को तोड़ डालते हैं। आप अपने अहंकार और क्रोध से एक बार तो किसी से काम करवा सकते हैं लेकिन अन्ततः वह आपसे टूट जाएगा। 73 For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा गुण है - प्रेम और विनम्रता - जिससे व्यक्ति जीवनभर अपने काम करवा सकता है। झुकता वही है जिसमें जान है। अरे, अकड़पन तो मुर्दे की पहचान है। जिनके जीवन से भीतर का सत्य निकल जाता है, वे लोग हमेशा अकड़े ही रहते हैं । याद रखें, अहंकार के हथौड़े से ताला टूटता है, वहीं प्रेम की चाबी से ताला खुलता है। जिसमें लघुता का भाव है, विनम्रता है, उसी में प्रभुता का बसेरा होता है। जिसमें अहंकार भरा है, वह चाहे जितनी पूजा, आराधना, तपस्या करता रहे परमात्मा उसके भीतर कभी साकार नहीं हो सकते । खाली घड़ा, पानी में चाहे जब तक पड़ा रहे, लेकिन वह तब तक नहीं भरता है जब तक वह झुकने को तैयार नहीं होता है । ज्ञान और अहंकार परस्पर दुश्मन हैं। जीवन में विनम्रता, सदाशयता लाएँ, तभी जीवन सुचारु ढंग से चल सकेगा। अपने जीवन की गाड़ी की धुरी में विनम्रता और सदाशयता का ग्रीस लगाएं ताकि गाड़ी बिना आवाज किये आराम से चल सके। जीवन की गाड़ी गति से चले इसलिये विनम्र बनें रहें अन्यथा खटर-खटर की आवाज आती रहेगी। जीभ नरम रहती है, कोमल होती है अत: जन्म से मिलती है और मृत्यु तक रहती है, पर दाँत कठोर होते हैं अत: जन्म के बाद मिलते हैं और मृत्यु से पहले टूट जाते हैं। विनम्रता के तीन लक्षण हैं- कड़वी बात का मधुर जवाब दें, क्रोध के वातावरण में चुप्पी साध लें और किसी गलती पर मन में क्षमा भाव को स्थान दें। शरीर में स्वास्थ्य रहे, मन में आनंद रहे, बुद्धि में सद्ज्ञान रहे और अहंकार में विनम्रता रहे। वे लोग ही महानता उपलब्ध कर पाते हैं जो विनम्र हैं। उन्हीं की पूजा होती है जो विनम्र होते हैं। आप जितने बड़े हैं उतने ही छोटे काम करने को तत्पर रहिए। आपको याद होगा कि जब पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया था तो श्री कृष्ण ने उनसे पूछा कि उन्हें क्या कार्य दिया जाएगा? पांडवों ने कहा, 'हम आपको क्या जवाबदारी सौंप सकते है ? आप जो भी करना चाहें, खुद ही मांग लीजिए।' कृष्ण मुस्कुराए और बोले, 'ठीक है, अगर मुझे ही कार्य का चयन करना है तो मैं चाहूँगा कि यज्ञ में आए हुए सभी ऋषि, ब्राह्मण, और अतिथियों के चरणप्रक्षालन मैं करूँ।' ज्ञानी वही जो स्वीकारे अज्ञान भगवान् वे नहीं जो स्वयं को भगवान् मानते हैं बल्कि वे ही भगवान् होते हैं जो औरों को भगवान् होने का सम्मान देते हैं। जो खुद को महान् मान लेते हैं उनसे अधिक हीन दुनिया में अन्य कोई नहीं होता। जिसने अपने जीवन के अज्ञान का बोध पा लिया है वही ज्ञानी होने का अधिकारी है। सुकरात के समय में यूनान में ज्ञान की देवी 'डेल्फी' प्रकट हुई, जो भविष्यवाणी किया करती थी। लोगों ने पूछा कि दुनिया का सबसे अधिक ज्ञानी व्यक्ति कौन है ? देवी ने कहा, 'आज की तारीख में दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञानी व्यक्ति तुम लोगों के शहर में ही है।' सबमें उत्सुकता जगी कि 'कौन?' 'सुकरात', देवी ने उत्तर दिया। शहर के लोग सुकरात के पास गये और उन्हें कहा, 'देवी ने घोषणा की है कि आप दुनिया के सबसे महान् ज्ञानी व्यक्ति हैं।' सुकरात ने कहा, 'लगता है, देवी से घोषणा करने में कुछ भूल-चूक हो गई है। अरे, मैं तो 74 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुनिया का सबसे बड़ा अज्ञानी हूँ।' लोग देवी के पास वापस आये और सुकरात ने जो कहा था वह बताते हुए पूछा कि, 'क्या सुकरात झूठ बोल रहे हैं ? वे तो कहते हैं कि मैं तो दुनिया का सबसे बड़ा अज्ञानी हूँ।' देवी ने कहा, 'भक्तों, दुनिया में जिसे अपने अज्ञान का बोध हो गया है, वही तो सबसे बड़ा ज्ञानी है । ' एक घटना और है- शाक्य वंश के सात राजकुमार भगवान् बुद्ध का प्रवचन सुनने पहुँचे। भगवान् की गूढ़, किन्तु सरल प्रवाहमयी वाणी सुनकर वे प्रभावित हुए और प्रवचन सुनते-सुनते वैराग्य से जुड़ गए। उन्होंने निश्चय किया कि वे भी भिक्षु बनेंगे। उन्होंने खड़े होकर निवेदन किया- 'भगवन्, हम भी आपके श्रीचरणों में दीक्षित, प्रव्रजित होना चाहते हैं। हम भिक्षु बनना चाहते हैं।' बुद्ध ने कहा, 'अगर तुम्हारे मन में प्रबल वैराग्य जगा है तो मैं तैयार हूँ ।' राजकुमारों ने सोचा कि अगर माता-पिता के पास आज्ञा लेने जाएँगे तो शायद वे तैयार न हों कि हम दीक्षा लें । अत: अच्छा तो यह होगा कि हम दीक्षित होकर ही अपने माता-पिता को सूचना भिजवा दें। उन राजकुमारों के साथ उनका सेवक भी आया था। उस सेवक ने ता-उम्र उनकी सेवा की थी, हर प्रकार से उनका ध्यान रखा था अतः उन्होंने सोचा कि इसने हमेशा हमारी सेवा ही की है इसलिये अपने वस्त्र - आभूषण आदि सभी इसको ही दे देते हैं। राजकुमारों ने ऐसा ही किया। सेवक तो बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि जिसे जीवन में कभी सोने की अंगूठी भी न मिली थी, उसे अचानक इतने सारे आभूषण और वस्त्र मिल गए थे। उसने सब सामान तुरंत-फुरंत इकट्ठे किये और दौड़ पड़ा अपने गृह नगर की ओर यह सोच कर कि कहीं राजकुमारों का मन न बदल जाए। राजकुमारों ने सेवक से कहा, 'तुम जाकर हमारे पिताजी महाराज को सूचना देना कि आपके सातों पुत्र राजकुमार संन्यासी हो गए हैं और उन्होंने आपसे क्षमा चाही है कि बिना आपकी अनुमति लिए उन्होंने संन्यास ले लिया है। सेवक ने चलते-चलते उनकी यह बात सुनी और वह तेजी से निकल गया। गहनों में नहीं बहना आभूषणों की पोटली लेकर भागते हुए दो-तीन मील पहुँचा होगा कि एक पेड़ के नीचे विश्राम हेतु बैठ गया। बैठते ही उसे विचार आया कि अगर मैं राजा को सातों राजकुमारों के संन्यास लेने की खबर सुनाऊँगा तो राजा शायद विश्वास न करे और मेरे पास वस्त्र - आभूषणों को देखकर सोचने लगे कि कहीं मैंने ही तो उन राजकुमारों की हत्या नहीं कर दी है और माल लेकर आ गया हूँ। वह बार-बार गहनों को देखता और खुश होता लेकिन तभी उसके मन से एक आवाज और उठी, 'हे सेवक! तू बार-बार उन गहनों को देखकर प्रसन्न हो रहा है जिनका राजकुमारों ने त्याग कर दिया है। जरूर ही उन लोगों को इससे भी बड़ी कोई चीज मिली है जिसके लिये उन्होंने इन गहनों का त्याग कर दिया है। अरे, अब मैं घर जाकर क्या करूँगा ? मैं भी उस रास्ते पर जाऊँगा जिस पर सातों राजकुमार गए हैं।' वह वापस बुद्ध के पास आ गया। अहम् मिटे, तो अर्हम् जगे सातों राजकुमार मुंडित हो चुके थे। भिक्षु बनने के लिये काषाय वस्त्र भी पहन चुके थे। भगवान के सामने वे करबद्ध खड़े थे प्रव्रज्या का मंत्र सुनने के लिए। तभी सेवक वहाँ पहुँचा और बोला, 'हे राजकुमारों, तुम्हारे दिव्य मार्ग को देखकर मेरा मन बदल गया है। मैं भी संन्यासी बनना चाहता हूँ।' उसने भी मुंडन करवा लिया और 75 For Personal & Private Use Only . Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काषाय वस्त्र धारण कर लिये। बुद्ध जैसे ही प्रव्रज्या-मंत्र सुनाने को उद्यत हुए तो राजकुमारों ने कहा, 'भगवन्, हम चाहते हैं कि आप हमें संन्यास दें, इससे पूर्व हमारे इस सेवक को संन्यास देवें।' बुद्ध ने कहा, 'तुमसे पूर्व इसे संन्यास देने का अर्थ है कि तुम लोग इसे पहले प्रणाम करोगे और यह तुम लोगों से बड़ा हो जाएगा। तुम सातों राजकुमारों को इसके सामने झुकना पड़ेगा।' राजकुमारों ने कहा, 'हम यही तो चाहते हैं। हम क्षत्रिय वंश के राजकुमार हैं और हम जानते हैं कि संत बनने के बाद भी हम अपने अहंकार को नहीं मिटा पाएँगे इसलिए आप इसे पहले संन्यास दें ताकि जिसने जीवनभर हमारी सेवा की है उसे पहले प्रव्रजित देखकर हम उसकी सेवा कर सकें और उसे प्रणाम कर सकें।' जिन लोगों के भीतर इतनी विनम्रता होती है वे वास्तव में संन्यास के हकदार होते हैं। जिनका अहंकार गिरा और विनम्रता जगी, उनके भीतर साधना और मुक्ति प्रकट हो जाती है। रज्जब रज ऊपर चढे. नरमाई ते जाण। रोड़ा ठोकर खात है, करड़ाई के जाण। हल्की और नरम धूल सदा आसमान की ओर उठती है, वहीं कड़क पत्थर जीवन भर पाँवों की ठोकर खाते रहते हैं। हम जब किसी के प्रणाम का जवाब आशीर्वाद की बजाय अभिवादन में देते हैं तो कुछ लोगों को अटपटा सा लगता है कि साधुओं को आशीर्वाद की बजाय प्रणाम करने की क्या जरूरत है ? लेकिन हमारी सोच है कि एक गृहस्थ किसी संत के चरणों में अपना सिर झुका सकता है तो क्या एक संत इतना भी विनम्र नहीं हो सकता कि गृहस्थ के लिये अपने दोनों हाथ जोड़ सके? अहंकार में भरकर दिये गये आशीर्वाद से अधिक प्रभावकारी है विनम्रता से किया गया अभिवादन। जीवन में विनम्रता, सरलता, कोमलता, सहजता और समरसता हो तभी जीवन में शांति उतरती है। शरीर में हो स्वास्थ्य, मन में हो आनन्द, बुद्धि में हो ज्ञान और अहंकार की वृत्ति में हो विनम्रता का प्रवेश । गुजरात में कहावत है - जे नमे ते सहुने गमे अर्थात् जो झुकता है वह सबका प्रिय होता है। घर में रहने वाले लोगों का आपस में अहंकार टकराता रहता है लेकिन घर की एकता को वही कायम रख सकता है जो झुकने को तैयार है। दो में जो पहले झुकेगा वही महान् होगा। अकडू कभी महान् नहीं हो सकते। बुढ़ापे में कमर झुके इससे पहले हम युवावस्था में ही अपने मन और अहंकार को झुकाने की कोशिश करें। अहंकार के रूप अनेक ___ अहंकार कई तरह का होता है। किसी को जाति और कुल का बड़ा अहंकार होता है। मैं उच्च कुल में पैदा हुआ, यह नीच कुल में पैदा हुआ, यह मेरे सामने कुर्सी पर कैसे बैठ गया, यह दूल्हा गांव में घोड़ी पर बैठकर कैसे निकल गया इत्यादि । व्यक्ति के भीतर जाति का मद होता है। अरे, किसकी जाति अजर-अमर रही है! आज तुम जिस जाति से नफरत करते हो, पिछले जन्म में तुम उसी जाति के रहे होंगे। वस्तुत: जाति से नहीं बल्कि बड़प्पन से व्यक्ति ऊंचा होता है। जो अकड़ा हुआ रहता है उसे हम ढूंठ कहते हैं और जो फलों, पत्तों से लदा रहता है उसे पेड़ कहते हैं। 76 For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अहंकार लोगों को बल का अथवा शक्ति का होता है। दुर्जन लोग अपनी शक्ति का उपयोग दूसरों को पीड़ित करने के लिये करते हैं लेकिन सज्जन अपनी शक्ति का उपयोग औरों की पीड़ाओं को मिटाने के लिये करते हैं। उन्हीं की शक्ति सार्थक होती है जो दूसरों की पीड़ा कम करते हैं। बड़े से बड़ा पहलवान भी एक दिन बूढ़ा होता है, उसका शरीर कमजोर हो जाता है, उसके घुटने दर्द करने लगते हैं और चेहरे पर झुर्रियाँ भी पड़ जाती हैं। हर शक्तिशाली व्यक्ति एक दिन शक्तिहीन हो जाता है। रावण को भी अपनी शक्ति का अहंकार था और हम सभी जानते हैं कि यही अहंकार उसके विनाश का कारण बना। राख का रंग एक कई लोग अपने सौन्दर्य का अहंकार भी रखते हैं। जो जरा भी सुंदर हुआ कि उसका रंग-ढंग ही बदल जाता है और उसे अपनी सुंदरता का घमंड हो जाता है। जरा बताएँ कि किसका सौंदर्य आजीवन रहा है ! बचपन जवानी की ओर आया है तो यह जवानी भी बुढ़ापे की ओर जाने वाली है। याद रखें कि बीती हुई जवानी कभी लौट कर नहीं आती और आया हुआ बुढ़ापा कभी लौटकर नहीं जाता। फिर कैसा अहंकार! गोरा रंग है तो अहंकार न हो और काला रंग है तो कोई हीनता न हो।श्मशान में जलने वाले हरेक इन्सान की राख का एक ही रंग होता है । गोरे की राख गोरी और काले की राख काली होती हो, ऐसी बात नहीं है। राख के स्तर पर सबका रंग एक हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति सुन्दर दिखने की कोशिश करता है लेकिन बाह्य सौंदर्य और रूप का कैसा अहंकार ! यह सुंदर शरीर एक दिन बुढ़ापे की ओर जाने वाला है, लम्बे काले बाल सफेद होने वाले हैं या झड़ने वाले हैं, दांत टूटने वाले हैं, दृष्टि कमजोर होने वाली है, झुर्रियाँ पड़ने वाली हैं फिर कैसा रूप और क्या सौंदर्य ? चालीस साल पहले जिन अभिनेत्रियों के लोग दीवाने थे, आज वे अपने घर में अकेली पड़ी हैं और उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं है। हरेक का रूप ढल रहा है। आखिर मिट्टी की काया मिट्टी में ही मिलती है। मिट्टी का आदमी किस बात का अहंकार करे! जब भी मेरे मन में अहंकार की छोटी-सी ग्रंथि भी जगती है तब मैं जमीन और आसमान को देखता हूँ। जमीन को देखकर मेरा मन कहता है - ललितप्रभ, तू किस बात का अहंकार कर रहा है ? एक दिन तुझे भी इस जमीन में समा जाना है, मिट्टी में मिल जाना है और आकाश को देखता हूँ तो मन कहता है - 'बंदे, किस बात का अहंकार, एक दिन तुझे भी ऊपर उठ जाना है।' एक दिन हम जा रहे थे सैर को, इधर श्मसान था, उधर कब्रिस्तान था। एक हड्डी ने पाँव से लिपटकर यूँ कहा, अरे देखकर चल, मैं कभी इंसान था। यह जीवन का अटल सत्य है। इसलिये अपने सौंदर्य का अहंकार न करें बल्कि उसे सुरक्षित रखने के लिये औरों को मधुरता दें और मधुरता ही ग्रहण करें। जो भी अहंकार ग्रस्त हो रहा है वह यह जान ले कि उसका सौंदर्य 77 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढलने वाला है और जिनके पास विनम्रता है, उनका सौंदर्य अक्षुण्ण है। खुद को नहीं, औरों को सराहें मनुष्य अपने में तप-त्याग-ज्ञान-ध्यान का अहंकार भी पालकर रखता है। वह सोचता है - 'मुझसे बड़ा तपस्वी, जानकार और ज्ञानी कौन? जब व्यक्ति को बुद्धि का अहंकार हो जाता है तब वह बुद्धिहीन हो जाता है। तुम भी तो लोगों के मध्य अपनी तारीफ करते रहते हो कि तुमने इतनी तपस्या की, यह शास्त्र पढ़ा, इतना दान दिया, बहुत सी बातों की तुम्हें जानकारी है। तुम अपनी तारीफ जिन लोगों के बीच करते हो, हो सकता है कि वे इसे सुनना पसंद ही न करें। ऐसा भी हो सकता है कि तुम्हारे चले जाने के बाद वे लोग कहें- 'क्या बेकार की अपनी डींगें हांक रहा था, हमारा वक्त और खराब कर गया।' स्मरण रहे, कभी खुद की प्रशंसा न करें। हाँ, दूसरों की तारीफ करने में कभी कमी न रखें। सम्मान सदा औरों को देने के लिए होता है, इसे पाने का प्रयास मत कीजिये। प्रायः लोगों को सत्ता का भी अहंकार आ जाता है कि वे अमुक पद पर पहुँच गए हैं। मंत्री, केबीनेट सचिव, अध्यक्ष या ऐसे ही किसी ऊँचे पद पर सत्तासीन हो गए हैं। कृपया उन दिनों को याद कीजिए जब आप सत्ता में नहीं थे। भविष्य भी देख लें कि भतपर्व भी बनना है, फिर किस सत्ता का अहंकार कर रहे हैं? देखा करता हूँ लोगों को कि कल तक तो बड़े सामान्य थे लेकिन जैसे ही सत्ता मिली, मंत्री बने, लाल बत्ती की कार मिली कि उनके तेवर ही बदल जाते हैं। फिर उन लोगों से जब भी मेरा मिलना होता है जो आज भूतपूर्व हो गए हैं तो उनके सारे मिजाज ठंडे पड़ जाते हैं, सत्ता की अकड़ गायब हो जाती है । सत्ता तो दो दिन की है, यह तो आनी-जानी है। सत्ता में तुम किसी भी पद पर पहुँच जाओ, लेकिन अहंकार न करो। जब सत्ता अहंकार देने लगती है तो हमारे विनाश का कारण बन जाती है । जब-जब सत्तासीन लोगों ने स्वयं को प्रजा से बड़ा मान लिया है तब-तब प्रजा ने उन्हें सबक जरूर सिखाया है। किसकी सत्ता कब तक रही है! देनहार कोई और है हमारे यहाँ गुप्तदान की महिमा है ताकि दान देकर लोग अहंकार न कर सकें। पर अब तो पट्ट पर नाम चाहिए इसलिए दान दिया जाता है। दान देकर भी नाम की जबर्दस्त आकांक्षा है। दान देते हैं पचास हजार का और सम्मान पाने की इच्छा है पांच लाख की। मैं उन्हें प्रणाम करूँगा जो देते तो हैं लेकिन वापस पाने की आकांक्षा नहीं रखते। उन्हें भी प्रणाम है जो देते तो हैं पर पत्थर पर नाम लिखाने की चाह नहीं करते। जो समर्पण तो करते हैं लेकिन माला पहनने की कोशिश नहीं करते। याद है न- 'देनहार कोई और है, जो देवत है दिन रैन। लोग भरम हम पर करे, तासें नीचे नैन।' बात उस समय की है जब गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को उनकी अमर कृति 'गीतांजलि' के लिये नोबेल पुरस्कार मिला था। इस खबर से पूरे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। देश-विदेश से उन्हें बधाई-संदेश आने लगे। छोटे-बड़े, नामी, गिरामी सभी लोग उन्हें बधाई देने के लिए उनके घर आने लगे। दूर-दूर से लोग आ रहे थे, लेकिन एक व्यक्ति जो उनका पड़ोसी ही था, बधाई देना तो दूर, यह सब देख कर बेचैन हो रहा था। उसे 78 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझ नहीं आ रहा था कि टैगोर ने ऐसा कौनसा तीर मार लिया कि लोग उमड़े चले आ रहे थे बधाई देने के लिये। लोग बधाई ही नहीं दे रहे हैं बल्कि पांव भी छू रहे हैं। वह पड़ोसी मन ही मन कुढ़ रहा था। रवीन्द्रनाथ को भी यह बात समझ नहीं आई कि उनका पड़ोसी उनसे मिलने क्यों नहीं आ रहा है ? वह नाराज है या कोई और बात है। एक दिन जब वे सुबह टहल रहे थे तो उस पड़ोसी के घर पहुँच गए और झुककर उस व्यक्ति के चरण छूते हुए बोले- 'आशीर्वाद चाहूँगा।' गुरुदेव के व्यवहार से वह व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया कि वह व्यक्ति जिससे मिलने और जिसके पाँव छूने बड़े-बड़े लोग आ रहे हैं, वह अपनी सफलता के लिए आशीर्वाद लेने के लिए पड़ोसी के घर आकर उसके पैर छूए। उसे आत्मग्लानि होने लगी। उसका गला भर आया, वह बोला- 'गुरुदेव, आप ही नोबेल पुरस्कार पाने के सर्वथा योग्य हैं । आप जैसे व्यवहार के धनी व्यक्ति को ही यह पुरस्कार मिलना चाहिए।' श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जो कुछ किया, उसे कहते हैं बड़प्पन। आदमी धन-दौलत या पद से बड़ा नहीं होता। वह बड़ा होता है व्यवहार से । जो धनवान, बलवान, गुणवान, ज्ञानवान होने के बाद भी अभिमान से दूर रहे वही सही अर्थों में बड़ा है। जो वक्त आने पर बड़प्पन दिखाये, वही बड़ा है। सच्चाई तो यह है हम उनसे प्रेम करते जो हमारी प्रशंसा करते हैं. उनसे नहीं जिनकी हम प्रशंसा करते हैं। प्रभ से प्रार्थना करता है वह हमारे जीवन से भले ही सब कुछ छीन ले पर हमारी विनम्रता को कभी भी न ले। क्योंकि यही वह ग्रीस है जो हमारी जीवन की गाड़ी को गति देता है। एक अहंकार और मनुष्य को होता है वह है 'ऐश्वर्य का अहंकार।' यह मेरी जमीन-जायदाद-कोठीबंगला-गाड़ी-फैक्ट्री-ऑफिस-दुकान आदि। अरे वाह, ऐसा खूबसूरत मकान जैसा मेरा है अन्य किसी का न होगा। यह जो अहंकार है वह तो सारी दुनिया को जीतने वाले सिकंदर का भी न रह सका। जब वह मर गया तो उसे दफनाने के लिये छ: फीट जमीन ही काम आई और ओढ़ने के लिये दो गज कफन का टुकड़ा। __सम्पन्नता के साथ सादगी और विनम्रता भी हो। आप छोड़ना ही चाहते हैं तो जरूर छोड़ें उस अहंकार को जो आपके भीतर है। रखना चाहते हैं तो अपने आत्मगौरव को रखें, स्वाभिमान को रखें, सकारात्मक सोच को रखें। आपने सफलता पाई है तो उसका प्रचार न करें, उसे जीना सीखें, उसे पचाना सीखें। जीवन में जैसे-जैसे ऊपर उठते जाएँ विनम्रता और सदाशयता को ग्रहण करते जाएँ। महान् वही है जो विनम्र है, जिसके मन में सबके लिए समानता की भावना है। आप सभी अहंकार का त्याग करें और जीवन की ऊंचाइयों का स्पर्श करें । स्वयं को बड़ा और दूसरों को तुच्छ न मानें। भाग्य के खेल में किसका पासा कब पलटता है खबर नहीं लगती। अपने जीवन में पल रहे अहंकार रूपी भस्सासुर को भस्म कीजिये। आप शिवत्व को साधने में सफल हो जाएंगे। इसी मंगल-भावना के साथ आप सभी की चेतना में विराजित परम पिता परमेश्वर को प्रणाम। ____79 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिशोध हटाएँ, प्रेम जगाएँ बड़े आदमी के क्रोध की बजाय छोटे आदमी की क्षमा अधिक महान होती है। RANA manp ब्रह्माण्ड के सभी प्राणियों में मनुष्य सर्वाधिक बुद्धिमान माना जाता है । यद्यपि मनुष्य मछली की तरह हर समय पानी में नहीं रह सकता, न ही बाघ की तरह उसके नाखून नुकीले होते हैं, न ही तितली की तरह हवा में उड़ान भर सकता है और न ही बंदर की तरह छलांगें लगा सकता है, फिर भी दुनिया भर के सभी प्राणियों से मनुष्य कुछ हटकर है। कुछ जीव शारीरिक बल में मनुष्य से श्रेष्ठ हो सकते हैं पर बुद्धिमत्ता में कोई भी प्राणी मनुष्य की बराबरी नहीं कर सकता है, लेकिन यह बुद्धिमान आदमी कभी-कभी बुद्धू भी बन जाता है और हम जानते हैं कि कभी-कभी बुद्धू भी वे ही बनते हैं जो जरूरत से ज्यादा बुद्धिमान होते हैं। मनुष्य की आदत है कि वह दूसरों को देखता है, उनकी चर्चा करता है। उसकी सोच रहती है कि वह औरों के बारे में जाने, उनके जीवन में हस्तक्षेप करे, उनको चारित्रवान देखे । वह दूसरों को जितना जानना चाहता है उतना ही उनकी बातें भी सुनना चाहता है। पर दिक्कत यह है कि दूसरों के बारे में जिज्ञासा और दिलचस्पी लेने वाला व्यक्ति स्वयं के प्रति उदासीन रहता है। वह अपने भीतर की आवाज सुनने के लिये तैयार क्यों नहीं है? दूसरों की थोड़ी-सी बुराई हमारी आँखों में खटका करती है लेकिन अपनी बुराइयाँ, अपनी गलतियाँ सदा नजरअंदाज हो जाती हैं। जिसे नजरअंदाज किया जाना चाहिए उसे व्यक्ति गहराई से देखता है और जिसे गहराई से देखना चाहिए उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। बनें वीतद्वेष ____ मनुष्य के जीवन में मैं दो प्रकार के रिश्ते देखता हूँ- दोस्ती का और दुश्मनी का। दोस्ती के रिश्ते को तो हम सभी जानते हैं कि हम अपने मित्रों, परिचितों, आत्मीयजनों को याद किया करते हैं लेकिन वास्तविकता तो यह है कि जितना संबंध दोस्तों से होता है उससे कहीं अधिक संबंध दुश्मनों से होता है। वह दोस्त को भले ही दिन में दो बार याद करे लेकिन अपने दुश्मन को सौ बार याद कर लेता है। इस तरह व्यक्ति के जीवन में दो भाव - दोस्ती 80 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I और दुश्मनी के पलते हैं। एक राग, दूसरा द्वेष। यह संभव नहीं है कि व्यक्ति स्वयं को राग के दायरे से अलग कर ले, मन में व्याप्त जो मोह-माया की भावना, रागात्मक संबंध है, उनको छिटका दे । हर व्यक्ति वीतराग हो सके, यह संभव नहीं है। अपने परिवार, माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री के प्रति जो रागात्मकता है उसे मन से विलग नहीं किया जा सकता। आज जो बात मैं आपसे कहना चाहता हूँ वह जीवन से राग को मिटाने या हटाने की नहीं है आप शायद राग को न छोड़ पायें, लेकिन वैर, द्वेष, दुश्मनी से तो बच ही सकते हैं । कोई अपने जीवन में वीतराग बन सके या न बन सके, लेकिन हर व्यक्ति को वीतद्वेष अवश्य बन जाना चाहिए। आप अपने मोह को भले ही कम न कर सकें पर दूसरों के प्रति अपने विरोध को तो कम कर ही सकते हैं | आपका जिनके साथ राग और प्रेम है, उनसे आप दूर नहीं हट सकते तो जिनके साथ आपकी दुश्मनी है उनसे तो बचने की कोशिश कर ही सकते हैं। व्यक्ति अपने पुराने आघातों को याद करता है - 'ओह! तो उसने मेरे साथ ऐसा किया था, उसने भरी सभा में मेरा पानी उतारा था, उसने मीटिंग में मेरी बात काटी थी, लोगों के बीच मेरे साथ दुर्व्यवहार किया था- ऐसी बातों के प्रति उसके मन में उथल-पुथल चलती रहती है, और एक स्थिति वह आती है जब वह मानसिक रूप से तनाव ग्रस्त हो जाता है। वह निर्णय नहीं कर पाता कि जिसने मेरा अहित किया है उसके साथ मैं कैसा व्यवहार करूँ । सबको सन्मति दे भगवान ! अगर आपको लगता है कि अमुक व्यक्ति आपका दुश्मन है, उसके प्रति आपके मन में वैर-विरोध की भावना है, कटुता है, तो उसके लिए आप छ: महीने का एक प्रयोग करें। उससे माफी माँगने या उसके घर जाने की जरूरत नहीं है, न ही उसके बारे किसी से चर्चा करें। रोज सुबह जब आप भगवान् की प्रार्थना करें, पूजापाठ करें या ध्यान-साधना में बैठें तब केवल एक मिनट अन्तर्मन में यह कामना करें कि, " हे ईश्वर तू उसका कल्याण कर, उसका मार्ग प्रशस्त कर, उसको सद्बुद्धि दे और जीवन की अच्छी राहें दिखा।" अगर आप छः महीने तक लगातार अपने किसी दुश्मन के लिये ऐसी प्रेमभरी प्रार्थना कर रहे हैं तो निश्चय ही छः माह बाद वह दुश्मन आपकी दहलीज पर होगा, यह तय है । हमारे विचार और हमारी मानसिकता ब्रह्माण्ड में फैलती है। आप यह न सोचें कि मेरी आवाज आप तक या आपके शहर तक ही सीमित है, मेरी आवाज ब्रह्माण्ड के अंतिम छोर तक जाती है। जैसे आवाज जा रही है वैसे ही मेरे विचार भी जा रहे हैं। आप प्रयोग करें, उसका परिणाम सकारात्मक ही होगा। जब तमाम मंत्र, बातें और शास्त्र निष्फल हो जाते हैं तब मनुष्य के लिए एक दवा होती है। 'सकारात्मक सोच' । जब तक व्यक्ति सकारात्मक सोच के साथ चल रहा है, उसकी हर असफलता एक दिन अवश्य ही सफलता में तब्दील हो जाएगी। = सकारात्मकता की सौरभ क्या है यह सकारात्मकता ? सकारात्मकता का मतलब यह नहीं कि किसी ने आपके साथ अच्छा किया तो आपने भी अच्छा कर दिया, आपको फूल दिए तो आपने भी फूल दे दिए, किसी ने आपकी बुराई की तो आपने 81 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी बुराई कर दी, किसी ने आपको काँटे चुभाए तो आपने भी काँटे चुभा दिए। प्रेम के बदले प्रेम और कटुता के बदले कटुता देना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मकता वह है जिसमें आपको जिसने कटुता दी है उसे भी प्रेम दें, गाली देने वाले को भी गीत दें, जिसने आपकी बुराई की है उसकी भी तारीफ करें। विपरीत स्थिति आने के बावजूद जब व्यक्ति अपनी सोच को पोजिटिव बनाये रखता है, वही है सकारात्मक सोच । प्रतिशोध, वैर-विरोध और कटुता नकारात्मक सोच के कारण होती है। ईंट का जवाब पत्थर से देने वाले लोग प्रतिशोध की भावना में जीते हैं और ईंट का जवाब फूल से देने वाले लोग मैत्री की भावना में जीते हैं; वे प्रेम, अनुराग और आत्मीयता में जीते हैं। अगर आप महसूस करें कि अमुक व्यक्ति आपके लिए गलत सोच रहा है, गलत टिप्पणी कर रहा है तो जैसे ही वह मिले, आप उसे प्रेम से प्रणाम करें, चार लोगों के बीच उसकी तारीफ करें, आपके घर आ जाए तो प्रेम से मधुर मुस्कानपूर्वक उसका स्वागत करें। हमें पता चले कि हमारे यहाँ जो व्यक्ति आया है वह हमारी निन्दा करता है, अपशब्द बोलता है, मन में कटुता रखता है तो हम उसका दुगने प्रेम से स्वागत करते हैं, ताकि हमारा व्यवहार उसकी सोच को सुधारने में सहायक बने। हम मध्यप्रदेश के एक नगर में गये थे। एक व्यक्ति अकारण हम पहुँचे उससे पहले ही विरोधी हो गया था। हम नगर में पहुँचे तो उसने अपनी ओर से विपरीत टिप्पणियाँ करने में कमी नहीं रखी। हमने अपने व्यवहार को उसके प्रति पोजिटिव बनाया। और न केवल विचार में अपितु व्यवहार में भी उसके प्रति मधुर भाव में जीने लगे। धीरे-धीरे हमारे माधुर्य ने उसके मन के कल्मष को साफ किया, परिणाम स्वरूप जब हम उस नगर से रवाना हुए तो न केवल वह व्यक्ति हमारा प्रशंसक बन गया अपितु अपने किये के लिए उसकी आँखों में प्रायश्चित के आँसू भी थे। अगर तुम अपने दुश्मन को दोस्त में न बदल सके तो मैं कहूँगा कि तुम अपने व्यवहार को सुधारो। खोल दीजिए गांठें जो पुरानी बातें, पुराने आघातों को याद करके प्रतिशोध की भावना रखता है, वह आत्मघाती है। वह दूसरों का नुकसान कर पाये या नहीं किन्तु अपना नुकसान जरूर करता है। बदला, वैर और प्रतिशोध की भावना व्यक्ति को तालाब की सूखी मिट्टी की तरह बना देती है। जब तालाब का पानी समाप्त हो जाता है तो मिट्टी सूख जाती है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं वैसे ही मनुष्य का मन भी खंड-खंड हो जाता है। बीस वर्ष पुरानी अनर्गल बातें आपके मन में डेरा जमाए रहती हैं। यह आपका मानसिक दिवालियापन और आत्मघाती मन है। बीस साल पुरानी गाँठों को भी आप खींच रहे हैं, उन्हें ढो रहे हैं। खींचने से गाँठे मजबूत होती जाती हैं और खुलने का नाम भी नहीं लेतीं। हम लोग एक शहर में थे। वहाँ एक व्यक्ति ने पन्द्रह दिन के उपवास किए। उपवास के उपलक्ष्य में उसने सम्पूर्ण समाज के लिए भोज का आयोजन किया। नगर में उस समाज के जितने भी लोग थे उन सबको उसने आमंत्रित किया। सुबह-सुबह समाज के चार-पांच वरिष्ठ लोग हमारे पास आये और कहने लगे'महाराजश्री, आज समाज के आठ-दस हजार लोग उस व्यक्ति द्वारा आयोजित भोज में आएंगे लेकिन उसका 82 For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकमात्र सगा भाई और उसका परिवार नहीं आएगा।' मैंने पूछा - 'क्यों?' वे कहने लगे- 'दोनों भाइयों में किसी बात को लेकर तनातनी हो गई थी जिसके कारण उनमें वैर-विरोध की भावना बढ़ती ही चली गई।' स्मरण रखें- 'अगर कटुता को समय रहते मिटा लिया जाता है तो वह मिट जाती है लेकिन उसे भविष्य के लिये छोड़ दिया जाए तो समय बीतने के साथ-साथ वैर-विरोध, कटुता और वैमनस्य बढ़ते ही जाते हैं। समाज के लोगों ने मुझसे निवेदन किया- 'आप चलें उस व्यक्ति के घर और उसे समझाएँ। मैं सहमत हो गया कि अच्छा चलता हूँ। उन लोगों के साथ मैं उन महानुभाव के घर पहुँचा । वह दरवाजे पर स्वागत के लिए आया और मुझे भीतर ले गया। मैं उसके कहने के पूर्व ही आँगन में बैठ गया। मेरे बैठते ही वह भी सामने बैठ गया। मैंने कहा- 'आज तो तुम्हारे लिये बहुत खुशी और सौभाग्य की बात है कि आज तुम्हारे घर में पूरे समाज का भोजन है। उसने कहा, 'नहीं महाराज, मेरे घर में नहीं है । वह मेरा भाई लगता था किन्तु अब नहीं है। उसके घर में भोजन है।' मैंने कहा-'अच्छा, तुम तो आओगे न? उसने कहा- 'किसी हालत में नहीं, मर जाऊँगा तब भी नहीं। अरे, हमारे बेटे-बेटियों की शादियाँ हो गईं। किन्तु मैं उसके घर नहीं गया और न वह मेरे घर आया। मैंने पूछा- 'बात क्या है?' वह कहने लगा- 'अब आपसे क्या छिपाना । बीस-बाईस साल पहले उसने समाज में मेरा अपमान कर दिया था, अपशब्द कह दिये थे। फिर बात बढ़ती चली गई और हमने एक-दूसरे के घर आना-जाना और खानापीना सब बंद कर दिया।' पन्ना पलटा, हम भी पलट लें 'सगे भाई !' मैंने चुटकी लेकर कहा- 'क्या बीस-बाईस साल पुराना कैलेण्डर है आपके घर में? जरा लाइए तो।' वह सकपकाया और कहने लगा-'महाराज, आप भी क्या बात करते हैं ? बीस साल पुराना कैलेण्डर घर में थोड़े ही होता है।' मैंने कहा- 'जब तुम दो साल पुराने कैलेण्डर को भी घर में नहीं रख सकते तो बीस साल पुरानी बात को अपने घर में या मन में क्यों रखे हुए हो? उसे निकालो, क्योंकि यह सब तुम्हारे दिमाग का कचरा है।' शायद नगरपालिका की कचरापेटी की सफाई रोज होती होगी लेकिन मनुष्य का दिमाग उस कचरापेटी से भी बदतर है क्योंकि उसने दिमाग में काम की बातें तो दो प्रतिशत किन्तु ऊल-जलूल इधर-उधर की बातों का संग्रह अट्ठानवें प्रतिशत कर रखा है। वैर-विरोध, वैमनस्य, प्रतिशोध की भावना वही व्यक्ति पालता है जिसने जीवन में क्षमा और प्रेम का आनन्द नहीं लिया है। जिसने अमृत का आनन्द नहीं लिया है वही समुद्र के खारे पानी को पीना चाहता है। तुम खारे पानी को पीने के आदी हो चुके हो और मीठे जल के स्वाद से वंचित हो। जलती हुई शाखा पर कोई भी पंछी अपना घोंसला नहीं बनाना चाहता है । गुस्सैल अथवा क्रोधी आदमी के पास उसका सगा भाई भी बैठना पसंद नहीं करता है। प्रतिशोध तो वह विष है जो मस्तिष्क की ग्रंथियों को कमजोर करता है और मन की शांति को भस्म कर देता है। अगर मनुष्य यह सोचता है कि वह वैर को वैर से, युद्ध को युद्ध से, हिंसा को हिंसा से काट देगा तो यह उसकी भूल है। वैर-विरोध और वैमनस्यता की स्याही से सना हुआ वस्त्र खून से नहीं बल्कि प्रेम आत्मीयता, क्षमा तथा मैत्री के साबुन से साफ किया जाता है। पुराने आघातों को याद करना मानसिक दिवालियापन है, बदला लेने की भावना क्रूरता है और प्रतिशोध की सोच आत्मघात है। 83 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही है सनातन संदेश 'न हि वैरेण वैराणि समन्तीध कदाचन। अवैरेण हि समन्ती-एस धम्मो सनंतनो॥वैर से वैर को मिटाया नहीं जाता और प्रतिशोध की आग कभी प्रतिशोध से बुझाई नहीं जाती। उसका केवल एक ही साधन है, प्रेम का साबुन और क्षमा का जल।आप जानते हैं कि महावीर के कान में कीलें क्यों ठोंकी गई थी ? ऋषभदेव ने कौनसा पाप किया था कि बारह महीने तक उन्हें भूखा रहना पड़ा? रावण ने सीता का अपहरण क्यों किया था जबकि उसके मन में सीता के प्रति कोई पाप न था? इसका कारण कुछ और था। महावीर के कानों में कीलें ठोकी गईं क्योंकि गुस्से में आकर उन्होंने पूर्व जन्म में किसी के कानों में पिघलता हुआ शीशा डलवाया था। तुम मरते हो तो कीमती चूड़ियाँ, हीरों के हार, सुन्दर बदन, सुन्दर मकान, सुन्दर कपड़े और सुन्दर दुकान यहीं रह जाती है लेकिन मरने के बाद जन्म-जन्मान्तर तक वैर-विरोध की गांठ चलती रहती है। इस गांठ को कमठ भी लेकर गया और मेघमाली के रूप में उसने पार्श्व पर उसका प्रयोग किया। रावण ने सीता का अपहरण किया क्योंकि उसकी बहिन शूर्पणखा ने उसके मन में राम के प्रति प्रतिशोध की भावना पैदा की थी। उसे ललकारते हुए कहा था- 'एक मनुष्य ने तुम्हारी बहिन की नाक काटी है, उसका अपमान किया है, क्या तुम उसके अपमान का बदला नहीं लोगे?' और इस तरह बहिन के प्रतिशोध का बदला लेने के लिए रावण ने राम की पत्नी सीता का अपहरण किया है। यह बात अलग है कि बात का प्रारम्भ छोटी-सी बात से होता है किन्तु आगे चलकर वही बात अहंकार का रूप धारण कर लेती है और फिर अहंकार 'काम' का रूप लेता है। शुरुआत में तो किसी वैर, प्रतिशोध की भावना ही होती है। जन्मनलेले वैर की गंदी मछली वैर तो मनुष्य के मन रूपी सरोवर में रहने वाली एक ऐसी गंदी मछली है जो सारे सरोवर को गंदा कर देती है। अगर हमारे मन में वैर, कपट, कलह और कटुता है प्रतिशोध की भावना है तो मैं कहूँगा कि हमने अपने मन के सरोवर में गंदी मछली को जन्म दे दिया है। जब तक यह गंदी मछली रहेगी तुम अपने जीवन में दुर्गंध से भरे रहोगे। वैर से वैर मिटता नहीं है। तुम अपने विरोधी को भी प्रेम दो, उसके प्रति भी दोस्ती के भाव रखो, तुम्हारी निंदा करने वाले व्यक्ति की भी तुम प्रशंसा करो तो तुम पाओगे कि एक दिन वह निंदक तुम्हारे पाँवो में गिर जाएगा। भगवान ने बहुत अच्छी बात कही है कि जो संत विग्रह और कलह में विश्वास रखते हैं, वे जिस समाज में जाते हैं वहाँ उसके टुकड़े कराने की ही कोशिश करते हैं। जो वाकई में संत होता है वह टूटे हुए दिलों को आपस में जोड़ता है और जो जुड़े हुए दिलों को तोड़ता है, उसे हम 'असंत' कहते हैं। भगवान ने कहा कि जो लोग विग्रह और कलह में विश्वास रखते हैं, वे पाप श्रमण होते हैं । व्यक्ति को उनसे बचना चाहिए। जो संत समाज में आपसी दूरियाँ बढ़ाने की कोशिश करते हैं, वैर-विरोध की भावना पनपाते हैं, अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए मानसिक दूरियाँ बढ़ाते हैं, वे संत नहीं होते। मैंने देखा है, चार-पांच वर्ष पहले जैन सम्प्रदाय में दो संत अलग हुए थे। वे अमुक-अमुक संत की परम्परा में चले गए। मैंने 84 For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखा, पिछले तीन वर्षों में उनके विरोध की भावना को। उफ् ! शायद झोंपड़पट्टी में रहने वाले लोग जिन्हें हम नासमझ कहते हैं और जिन्हें हम धर्म और बुद्धि के विवेक से हीन समझते हैं, वे भी आपस में एक दूसरे का ऐसा विरोध नहीं करते होंगे जैसा उन संतों ने एक-दूसरे का विरोध किया था। मेरे पास, कभी अमुक परम्परा के लोग आते और अपने संत की तारीफ करते, कभी दूसरी परम्परा के लोग आते और अपने संत की प्रशंसा करते। मैं उनसे कहता, 'अभी तुम्हारे संत, संत कहाँ हुए हैं ! जो लोग अपने समाज में, अपने पंथ में वैर-विरोध और कटुता की भावना का पोषण करते हैं, क्या वे लोग संत कहलाने के भी योग्य हैं ? संतों के मन में भी अगर संतों के प्रति वैर और विरोध है तो फिर मैं यह पूछना चाहूँगा कि प्रेम का बसेरा कहाँ होगा? प्रेम-सरोवर सूख न पाए मैंने एक राजस्थानी कहावत पढ़ी है- 'कुत्ता लडै दांतां तूं, मूरख लहै लातां सूं और संत लड़े बातां तूं।' सभी लड़ने में मशगूल हैं । धोबी धोबी से मिलता है तो राम-राम करता है, नाई-नाई से मिलता है तो राम-राम करता है, जो भी एक दूसरे से मिलते हैं तो नमस्कार-प्रणाम करते हैं, मगर दुर्भाग्य यह है कि अगर संत संत से मिलता है तो वह हाथ भी जोड़ने को तैयार नहीं होता। सोचें, वस्त्र बदलकर साधु तो हो गए हैं पर क्या मन से भी साधु हो पाए हैं ? जिसके मन में कठोरता, कटुता, कलह और संघर्ष की भावना रहती है उसके चित्त में कभी किसी के प्रति प्रेम नहीं होता। उसके प्रेम के सरोवर का पानी सूख जाता है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं । स्नेह की कमी से मेलजोल में कटौती होती है। वह स्वयं तो दुःखी रहता ही है किंतु अपनी उपस्थिति से आसपास के लोगों को भी दुःखी करता है। अपने क्रोध और अहंकार से स्वयं को तो दंडित करता ही है, दूसरों को भी दंडित करने की सोचता रहता है। इतिहास में खून की जो नदियाँ बहती रही हैं, उनका एकमात्र कारण प्रतिशोध और बदले की भावना रही है। चिरकाल तक मनुष्य के मन में प्रतिशोध की भावना लहराती है। आइये, हम जीवन का बोध जगाएँ, प्रतिशोध को हटाएँ और प्रेम की गंगा-यमुना को अपने हृदय में बहाएँ। वैर बिन, ये चार दिन एक बार हम अपने मन को टटोलें, किसी धार्मिक ग्रन्थ की तरह ईमानदारी से अपने मन को पढ़ें। अपनी विचारस्थिति को पढ़ें कि कहीं उसके भीतर कोई वैर तो नहीं है। चार दिन की छोटी-सी जिंदगी में दो दिन तो बीत गए और शेष दो दिन भी बीत जाएँगे - फिर किस बात का वैर-विरोध! ___ चार दिन की जिंदगी में, इतना न मचल के चल। दुनिया है चल-चलाव का रास्ता, जरा सँभल के चल॥ छोटी-सी जिंदगी में कैसा वैर-विरोध ! मेरे प्रभु, छोटी-छोटी बातों की गांठें न बाँधे । जैसे गन्ने की गांठ में एक बूंद भी रस नहीं होता वैसे ही जिस आदमी के मन में गांठें बन जाती हैं, उसका जीवन भी नीरस हो जाता है। इतिहास की एक घटना है- काशी में ब्रह्मदत्त नाम के एक नरेश हुए। उनके पड़ोसी राज्य कोशल' के राजा थे दीर्धेती। एक दफा कोशलनरेश और काशीनरेश के मध्य युद्ध हुआ। कोशलनरेश अपनी रानी को लेकर 85 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलायन कर गए, क्योंकि उन्हें पता लग चुका था कि उनकी पराजय तय है। जंगल में वे दोनों कुटिया बनाकर रहने लगे। उस समय रानी गर्भवती थी। कुटिया में ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया। दीर्धेती ने उस बच्चे का नाम दीर्घायु रखा। दीर्धेती के मन में संशय था कि ब्रह्मदत्त, कभी भी, यहाँ पर हमला कर सकता है । यह सोचकर उसने दीर्घायु को विद्याध्ययन के लिये दूर भेज दिया। उधर ब्रह्मदत्त के सैनिकों ने दीर्धेती और उसकी पत्नी की हत्या कर दी। दीर्घायु ने जब यह समाचार सुना तो उसने संकल्प किया कि वह अपने माता-पिता की हत्या का बदला जरूर लेगा। प्रतिशोध की आग से भरे हुए दीर्घायु ने काशीनरेश के यहाँ घुड़साल में नौकरी पा ली। वहाँ नौकरी करते हुए वह अपनी निपुणता से राजा का चहेता बन गया है। राजा ने उसे घुड़साल की नौकरी से हटाकर अपने निजी सहायक के रूप में नियुक्त कर लिया। मन में प्रतिशोध की भावना होने के बावजूद वह उसी के यहाँ काम कर रहा था। दिन, महीने, साल बीत गए। एक दिन राजा ब्रह्मदत्त दीर्घायु को साथ लेकर शिकार खेलने गया है। वह नहीं जानता था कि यह शत्रु का पुत्र है लेकिन दीर्घायु तो अपने पिता के हत्यारे को जानता था। दोनों घनघोर जंगल में पहुँच गये। राजा थक चुका था, अत: एक पेड़ की छाँव में दीर्घायु की गोद में सिर रखकर विश्राम करने लगा। थोड़ी देर में उसे नींद आ गई। बदले से बढ़कर क्षमा दीर्घायु बार-बार राजा के चेहरे को देखता और सोचता- 'आज मौका है। यही वह व्यक्ति है जिसने मेरे पिता से युद्ध करके उन्हें पराजित किया था। यही है वह जिसने मेरे माता-पिता की हत्या करवाई। आज मुझे मौका मिला है, मैं अपने माता-पिता की हत्या का बदला लूँगा' - ऐसा सोचते हुए उसने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाली। वह ब्रह्मदत्त पर वार करने ही वाला था कि उसे पिता के वचन याद आए- 'बेटा, प्रतिशोध की भावना से भी महान् क्षमा होती है । महान् वे नहीं हैं जो प्रतिशोध की भावना को बलवती बनाए रखते हैं । महान् वे हैं जो अपने हृदय में क्षमा का सागर समेटे रखते हैं । दीर्घायु ने पिता के वचनों पर विचार किया। उधर सोया हुआ ब्रह्मदत्त स्वप्न देखता है कि उसका अंगरक्षक उसकी हत्या करने के लिये कटार हाथ में ले चुका है। वह घबराकर जाग जाता है और दीर्घायु के हाथ में तलवार देखता है। वह पूछता है- 'तुम कौन हो?' दीर्घायु कहता है- 'तुम्हारे दुश्मन दीर्धेती का पुत्र हूँ। मेरे मन में विकल्प आया था कि मैं अपने पिता के हत्यारे की हत्या करके बदला ले लूँ, लेकिन मुझे अपने पिता का कहा गया वह वचन याद आ गया कि प्रतिशोध से बढ़कर तो क्षमा होती है। यही विचारकर मैंने तुम पर तलवार नहीं चलाई। अपने शत्रु के हाथ में तलवार देखकर ब्रह्मदत्त काँप गया और क्षमा माँगने लगा। उसने कहा- 'मुझे क्षमा कर दो। मैं चाहता हूँ कि हम अपने वैर विरोध की भावना को यही समाप्त कर दें और परस्पर मैत्री के भाव स्थापित करें। तब ब्रह्मदत्त ने अपनी पत्री का विवाह दीर्घाय के साथ कर दिया और दहेज में कोशल का राज्य वापस दे दिया। याद रखने की बात है कि प्रतिशोध और वैर से महान् क्षमा होती है और वैभव से ज्यादा महान् त्याग 86 For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। यह जीवन का अटल सत्य है जो सनातन है । यह कृष्ण, महावीर, बुद्ध, मोहम्मद, जीसस के समय जितना सत्य था आज भी उतना ही सत्य है हम सबके लिये। जीवन में से प्रतिशोध का नाला हटाएँ और प्रेम की गंगा-यमुना बहाएँ। एक बार व्यक्ति प्रेम में जीकर देखे तो उसे पता लगेगा कि प्रेम में जीने का क्या आनन्द और मजा है I प्रेम प्रभावी तो कौन हावी ! औरों के वचनों से मन को प्रभावित न करें, औरों की टिप्पणी से मन को कुंठित न करें, अपने मन को विचलित न करें । बुद्ध किसी गाँव से जा रहे थे। गाँव के लोगों ने उनकी बहुत निंदा की, अपशब्द कहे। गाँव वाले जितना बुरा बोल सकते थे, बोले । जब वे चुप हो गए तो बुद्ध ने कहा- 'क्या अब मैं अगले गाँव चला जाऊँ ?' लोग दंग रह गये कि हमने इन्हें इतना भला-बुरा कहा और ये जरा भी प्रभावित नहीं हुए बल्कि मधुर मुस्कान से पूछ रहे हैं कि क्या मैं अगले गाँव चला जाऊँ ? लोगों ने पूछा, 'हमारी गालियों का क्या हुआ ?' बुद्ध ने कहा 'मैं जब पिछले गाँव में था तो लोग मेरे पास मिठाइयाँ लेकर आए थे। उन्होंने मुझे मिठाइयाँ देने की बहुत कोशिश की और तरह-तरह के प्रयास भी किये लेकिन मैंने किसी की मिठाई स्वीकार नहीं की। आप मुझे बताएँ कि वे मिठाइयाँ फिर किसके पास रहीं ? लोगों ने कहा- 'यह तो बच्चा भी बता देगा कि मिठाइयाँ उन्हीं के पास रहीं।' बुद्ध ने कहा- 'तुम्हारी बात तुम्हें मुबारक! पीछे के गाँव वालों ने मिठाइयाँ दी, मैंने वे नहीं लीं अतः वे उन्हीं के पास रहीं, वैसे ही आप लोगों ने मुझे गालियाँ दीं और मैंने नहीं लीं तो आप लोगों की चीज आप ही के पास रह गई । ' जिनके मन में प्रेम और शांति का निर्झर बहा करता है वे ही लोग अप्रियता, कलह, कटुता और विरोध का वातावरण बनने पर भी उसे प्रेम और क्षमा में ढ़ाल लिया करते हैं। महात्मा गांधी पानी के जहाज पर यात्रा कर रहे थे। उस यात्रा में एक अंग्रेज यात्री भी था जो गांधी जी से नाराज था। उसने अपशब्दों से भरा एक पत्र गांधीजी को लिखा और सोचा कि जब मैं उसे गांधी को दूँगा तो वे नाराज होंगे, झल्लाएँगे, क्रोध करेंगे। और भी क्या - क्या करेंगे, यह देखूँगा। गांधीजी के पास पत्र पहुँचा। सरसरी निगाह से उन्होंने पत्र देखा, पढ़ा, उसमें लगी आलपिन निकाली, उसे जेब में रखा और कागज पानी में फेंक दिया। गांधीजी के सहायक ने जब यह देखा तो उससे पूछे बिना न रहा गया कि उन्होंने पिन तो निकाल ली और पत्र क्यों फेंक दिया ? गांधी जी ने कहा- 'उसमें पिन ही एक काम की चीज थी जो मैंने रख ली। बाकी सब बेकार की बातें थी, सो मैंने फेंक दी।' काम की बात हो तो उसे स्वीकार लो और बेकार की बातों को फेंक दें । जहाँ मौज, वहाँ ओज प्रसन्न रहो, हर हाल में खुश रहो। प्रसन्नता आपके सौन्दर्य को द्विगुणित करती है। आप प्रेम में, वात्सल्य में जीकर तो देखें । जितने आप जवानी में सुन्दर हैं उससे भी अधिक बुढ़ापे में सुन्दर दिखाई देंगे। क्या आपने गांधीजी का जवानी और बुढ़ापे का चित्र देखा है ? तीस वर्ष की आयु में वे जैसे दिखते थे, सत्तर वर्ष की आयु में उससे कहीं अधिक सुन्दर दिखने लगे थे। जैसे-जैसे व्यक्ति के विचार सुन्दर होते जाते हैं उसका भीतरी सौन्दर्य 87 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेहरे पर प्रकट होने लगता है। महावीर तो निर्वस्त्र रहते थे- हवा, धूप, पानी में भी । फिर भी उनका सौन्दर्य अप्रतिम था। आपने महर्षि अरविंद का वृद्धावस्था का चित्र देखा है ? उनके चेहरे का ओज, तेज और सौन्दर्य कितना अधिक आकर्षक था ? बुढ़ापे में उसी का चेहरा बदसूरत होता है जिसके विचार सुन्दर नहीं होते। जिसकी विचारदशा सुन्दर होती है, वह जैसे-जैसे बूढ़ा होता है, उसके चेहरे पर सौन्दर्य छलछलाने लगता है। किसी के कल्याण के लिये अपनी ओर से जो कुछ भी हो सके, कर दो। अगर नहीं कर सको तो सहज रहो, अपने मन को हमेशा निर्मल रखो। मैंने सुना है - अमेरिका में एक भिखारी था। जब वह मर गया तो पुलिस उसके शव को अन्त्येष्टि के लिये उठाने आई। वह सड़क के किनारे ही रहता था, अतः उसका सामान भी वहीं पड़ा था। पुलिस ने वहाँ दो थैले देखे । उनमें फटे-पुराने कपड़े थे और थी बैंक की एक पासबुक और एक चैकबुक । पासबुक में देखा तो पाया कि उसके नाम से बैंक में साढ़े तीन लाख डॉलर जमा थे और चेक बुक को टटोला तो उसमें एक ब्लैंक चेक पर साइन किए गए थे। चेकबुक पर एक नोट लिखा हुआ था कि मैंने भीख माँग-माँगकर ये पैसे जमा किए हैं, इनका उपयोग मेरे मरने के बाद, मुझ जैसे ही मांगने वाले लोगों के कल्याण लिए किया जाए। जब मैंने इस घटना के बारे में जाना तो मेरे दिल ने कहा किसी को भी हो न सका उसके कद का अंदाज, आसमां था, पर सर झुका के जीवन भर बैठा रहा । आप इतने महान् भले ही न बन सकें पर इतनी विराटता जरूर दिखा सकते हैं कि अपने मन की कटुता, कलह, संघर्ष की भावना को कम करें। अगर आपके पाँव में काँटा चुभ जाए और आप चलते रहें तो वह आपको तकलीफ देता रहेगा लेकिन उस कांटे को निकाल दिया जाए तो आपको अवश्य ही राहत मिलेगी। इसी तरह आपके मन में जो काँटे चुभे हुए हैं, उन काँटों को बाहर निकाल दें तो आपको बहुत राहत मिलेगी। जिस दिन आपने उन काँटों को निकाल दिया तो मान लीजिए उस दिन संवत्सरी हो गई, क्षमापना हो गई, पर्युषण हो गए, आप वीतद्वेष हो गए। वीतराग होना हमारे हाथ में हो या न हो पर वीतद्वेष होना तो हमारे हाथ में ही है । प्रतिशोध को कैसे मिटाएँ ? प्रतिशोध मिटाने का पहला उपाय है : अपने भीतर सहनशीलता का विकास करें। याद है न, जीसस क्राइस्ट को सूली पर लटकाने में उनके ही दो शिष्यों की प्रमुख भूमिका रही। क्रॉस पर लटकाते समय उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उन्होनें उन्हीं दो शिष्यों को अपने सामने बुलाने के लिये कहा। दोनों शिष्यों को जीसस के सामने लाया गया। वे दोनों थर-थर काँप रहे थे कि पता नहीं जीसस हमें क्या दुराशीष देंगे लेकिन जीसस ने एक पात्र में दूध और जल मंगवाया और उन दोनों शिष्यों को एक चौकी पर बिठाकर उस जल से उनके पाँवों का प्रक्षालन किया ताकि उनके स्वयं के मन में भी उन दोनों के प्रति किसी भी प्रकार की दुर्भावना न रह जाए। उनके अंदर इतनी सहनशीलता थी कि उन्होंने वह पात्र उठाया, दोनों गुरुद्रोही शिष्यों के पाँव धोये और उन्हें अपने बालों से पोंछा। फिर कहा-' 'हे प्रभु, तू इन्हें माफ करना क्योंकि ये नहीं जानते हैं कि ये क्या कर रहें हैं ?' जिसके भीतर इतनी सहनशीलता होती है वह प्रतिशोध और वैर का जवाब प्रेम से देता है, काँटो का जवाब फूलों से देता है - For Perso88 Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम अपने जीवन में उस सहनशीलता का विकास करें कि अगर कोई हमारे प्रति अन्याय करे तो भी हम अपने अन्तर्मन में न्याय की भावना ही रखें। दुश्मन के प्रति भी दोस्ती का भाव रखना ही सहनशीलता का विकास है। प्रतिशोध मिटाने का दूसरा तरीका है -क्षमा का विकास। जब भी विपरीत स्थितियाँ और वातावरण निर्मित हो तब उनके प्रति अपने अन्तर्मन में क्षमा और प्रेम को जन्म दें। महावीर के कान में कीलें ठोकी गईं तो उन्होंने क्षमा को धारण किया। आपके कान में कड़वे शब्द पड़ें तो आप भी क्षमाशील बनें। एक संत के जीवन में अगर कषाय जगता है तो वह उसे साँप बनाता है और अगर साँप के जीवन में क्षमा जगती है तो वह उसे देव बना देती है । यही क्षमा, अहिंसा और प्रेम जीवन जीने की कला है । क्षमा-प्रेम का स्वाद अनुपम वैर-विरोध और प्रतिशोध उसी को अच्छे लगते हैं जिसने अभी तक प्रेम और क्षमा का स्वाद नहीं चखा है। दुनिया में दो कठिन कार्य हैं- किसी से क्षमा मांगना या किसी को क्षमा करना । परन्तु ये दोनों ही कार्य आपको अनेक कठिनाईयों से मुक्ति दिलाते हैं। शुरू-शुरू में माफी मांगना हमें जहर पीने के समान लगता है परन्तु परिणाम में अमृत जाता है। क्षमा मांगना यदि प्रायश्चित का सुंदर व अच्छा रूप है तो क्षमा करना बड़प्पन का प्रतीक। इसमें आप न केवल मन की उलझन से मुक्त होंगे अपितु अपनी शक्ति और शांति में बढ़ोतरी करने में भी सफल हो जाएंगे । जब कोई व्यक्ति आपके प्रति गलती या अपराध कर देता है तो आपके मन में जलन या प्रतिशोध की भावना पैदा होती है। परिणामस्वरूप आप उचित - अनुचित का निर्णय नहीं कर पाते हैं। याद रखें क्रोध का तूफान आपके दिमाग के दीपक की लौ को बुझा देता है। किसी से माफी मांगकर या किसी को माफ कर आप उसके प्रति कोई उपकार नहीं करते। अपितु स्वयं पर ही उपकार करते हैं क्योंकि आप बदले की भावना और वैर विरोध जैसे नकारात्मक भावों से मुक्त होकर शांत और प्रसन्न होते हैं। त्याग तभी जब त्यागा अहम् प्रतिशोध को हटाने का तीसरा उपाय है- अहंकार का समापन । अगर आपके भीतर 'मैं' का भाव है, तो कृपया उसे निकाल दें वैसे ही जैसे आप पांव में गड़े हुए कांटे को निकालते हैं। आप सभी बुद्धत्व की राह के राही हैं और इस मार्ग पर चलने की पहली सीढ़ी ही अहंकार का त्याग है। आपने सब कुछ त्याग दिया पर अहंकार को न त्याग सके तो आपके सभी त्याग व्यर्थ हैं । अगर व्यक्ति शांति चाहता है तो सबका सम्मान करे, हिंसा का बहिष्कार करे, दूसरों के कार्यों में सहयोग दे, बंधुत्व के भाव का स्वयं में संचार करे और समय-असमय दूसरों के काम आए। For Person89. Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाबहार प्रसन्न रहने की कला ईश्वर हमें वह सब कुछ नहीं दे सकता जो हमें पसन्द हो । इसलिए जो ईश्वर दे उसी में राजी रहना सीखिए । परिवर्तन प्रकृति का खूबसूरत अवदान है। जो कल था वह आज नहीं है और जो आज है वह आने वाले कल में स्थायी नहीं रहेगा। प्रकृति की यह व्यवस्था है कि ब्रह्माण्ड में जो आज है वह कल नहीं रहता और जो कल था वह आज नहीं है। परिवर्तन प्रकृति का अखण्ड नियम है। गर्मी का मौसम हो या सर्दी का, सावन की ऋतु या पतझड़ की, सभी जानते हैं कि इनमें से कोई नहीं टिकते। गर्मी भी चली जाती है और सर्दी भी, सावन भी बीत जाता है और पतझड़ भी । परिवर्तन प्रकृति का धर्म है। कल तक हम जहाँ हरे पत्ते देख रहे थे, वे पीले पड़कर आज हवा में उड़ रहे हैं । | जो परिवर्तन पेड़-पौधों, ऋतुओं, फूलों के साथ होता है वैसी ही व्यवस्था हमारे जीवन के साथ भी है जैसे हम इन फूल-पत्ती, ऋतु और मौसम के परिवर्तन को स्वीकार करते हैं वैसे ही जीवन में होने वाले परिवर्तनों भी हमें सहजता से स्वीकार कर लेना चाहिए। परिवर्तन अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं । गुमान नहीं, ग़म भी हैं अगर सूर्योदय होता है तो सूर्यास्त भी होता है । कभी मनुष्य ऊपर उठता है तो कभी नीचे गिरता है इसे प्रकृति की व्यवस्था कह दें या भाग्य की उठापटक पर ऐसा होता है। हर किसी के जीवन में होता है । फिर ऊपर उठने में कैसा गुमान और नीचे गिरने में किस बात का ग़म । ग़म और गुमान व्यक्ति स्वयं उत्पन्न करता है । उठापटक तो जीवन की व्यवस्था है। जो कल तक गुमान कर रहा था, वह आज ग़म में डूबा है और जिस पर कल तक ग़म का साया था वह आज इतरा रहा है। सुख और दुःख तो हमारी सुविधाओं से आते हैं। ये तो उसी को प्रभावित करते हैं जो इनके निमित्तों से जुड़ा रहता है । जो सदाबहार शांत रहकर अपने मन की प्रसन्नता और आनन्द में जीता है वह सुख आने पर गुमान नहीं करता और दुःख आने पर ग़म नहीं करता । सुख और दुःख For Persor 90 Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति को सुविधाओं और दुविधाओं के आधार पर बाहर से मिलते हैं लेकिन शांति, प्रसन्नता और आनन्द व्यक्ति के भीतर से फूटते हैं । बाहर हैं पल की खुशियां जो बाहर से मिलते हैं उनमें परिवर्तन होता रहता है लेकिन जो भीतर से आता है वह स्थायी होता है । आप देखें कि बाहर निमित्त व्यक्ति की भावदशा को कैसे प्रभावित करते हैं ? एक व्यक्ति ने पांच रुपये का लॉटरी का टिकिट खरीदा। संयोग की बात, अगले दिन अखबार में देखा कि लॉटरी का पुरस्कार घोषित हो गया है और प्रथम पुरस्कार के टिकट का नंबर उसी के टिकट का है। वह बहुत खुश हो गया। उसके मन में प्रसन्नता समा नहीं रही थी। रविवार का दिन था। उसने अपने पड़ोसियों को, मित्रों को, रिश्तेदारों को सूचना दी कि शाम के समय सांध्य भोज का आयोजन कर रहा हूँ क्योंकि मेरे नाम पाँच लाख की लॉटरी खुल गई है। शाम के समय उसने भोजन का प्रबंध किया, सभी आमंत्रितों को भोजन कराया और खुद बहुत ही खुश हो रहा था कि उसकी लॉटरी लग गई है। सभी उसके भाग्य की तारीफ कर रहे थे। वह भी जीवन में इतना खुश पहले कभी नहीं हुआ था। सभी लोग भोजन करके चले गए। वह व्यक्ति घर में आकर पलंग पर लेट गया। उसे नींद भी न आई। वह ऊंचे-ऊंचे सपने देखने लगा। पांच लाख मिलेंगे तो सामान्य ही सही, एक कार जरूर खरीदूँगा, पचास हजार लगाकर घर भी सुधरवा लूंगा, अपना बुढ़ापा ठीक ढंग से गुजार सकूँ इसके लिए एकडेढ़ लाख की एफ.डी. भी करवा दूँगा। पाँच-पाँच हजार अपने नाती-पोतों को भी दे दूँगा । वह रात भर ख्वाब देखता रहा कि यह करूँगा, वह करूँगा। सुबह उठा तो उसने अखबार देखा । कल जहाँ विज्ञापन था, आज उसी पृष्ठ पर एक और विज्ञापन था । भूल सुधार का । उसमें छपा था- कल जो लॉटरी का विज्ञापन था उसमें अंतिम अंक तीन के बजाय सात पढ़ा जाए। कल भी अखबार आया था और आज भी, कल भी विज्ञापन था आज भी, रुपये न कल हाथ में थे और न आज हाथ में है । उसके बावजूद कल का दिन खुशियों में डूबा था और आज का दिन ग़म में । तभी तो मैंने कहा कि व्यक्ति सुख और दुःख भीतर से नहीं बल्कि बाहर के निमित्तों से पाता है। निमित्त बदलते रहते हैं । जो निमित्तों के प्रभाव में आकर जीवन जीते हैं उनके दिन कभी सुख भरे और रातें पीड़ा भरी, कभी दोपहर खुशी की और सांझ दुःख की हो जाती है । किसी को भी बिजली के बल्ब की तरह नहीं होना चाहिए जिसे जलाना और बुझाना दूसरे के हाथ में होता है। क्या हमारे जीवन की शांति, सुख, प्रसन्नता और आनंद किसी बल्ब की तरह तो नहीं है जा दूसरों में संचालित हो रहा है ? किसी ने हमारी तारीफ की, हमारे मन के अनुकूल बात कही और हम प्रसन्न हो गए। और किसी ने हमारे प्रतिकूल बात कही तो हम अप्रसन्न हो गए। ऐसी खुशियों, ऐसी शति सुख और आनंद हमारे अपने नहीं बल्कि किराए के हैं, उधार लिए हुए हैं। ऐसी प्रसन्नता की कोई उम्र नहीं होती । चित में खुश रहें और पट में भी जिंदगी में सदाबहार प्रसन्न और आनंदचित्त रहने के लिए तो कार की जरूरत होता है, न ही सत्ता 91 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पत्ति की, न ही आलीशान मकान, दुकान, फैक्ट्री और ऑफिस की जरूरत होती है। ये सब सुविधाएँ दे सकते हैं, शांति नहीं। शांति और जीवन की खुशियाँ कहीं और छिपी हुई हैं। जब हम जानना चाहते हैं कि सदाबहार प्रसन्न कैसे रहें तो एक बात निश्चित समझ लें कि प्रसन्नता औरों से नहीं बल्कि अपने चित्त की चेतना से ही उपार्जित की जाती है। आज तो आदमी की जेब में ऐसा सिक्का है जिसके एक ओर खशी और दसरी ओर नाखशी और नाउम्मीदी खदी हई है। व्यक्ति जब सिक्का निकालकर उसे देखता है तो उसे खशी नजर आती है और वह खश होता है और कभी वह जब सिक्के का दसरा भाग देखता है तो उसे नाखशी और नाउम्मीदी नजर आती हैं। वह दुःखी हो जाता है। अपनी जेब में ऐसा सदाबहार सिक्का रखो जिसके दोनों ओर खुशी ही खुदी हो। जब चित को देखो तो भी खशी और पट को देखो तब भी खशी। यह सिक्का सभी को जरूर रखना चाहिए। जब भी इसे देखो, तुम्हें शांति और खुशी ही मिलती रहे। प्रसन्नता और सुख का सम्बन्ध व्यक्ति के अन्तर्मन से है। आदमी खुशियों के लिये आयोजन करता है, अपने बच्चे का बर्थ-डे मनाता है। अपने यहाँ भोज का आयोजन करता है, सौ-दो सौ लोग आते हैं, पंडाल बँधता है, विविध प्रकार के पकवान बनते हैं। दो घंटे की खुशियाँ नजर आती हैं, लोग खाना खाकर चले जाते हैं और फिर वही सन्नाटा पसर आता है। खुशियों के समारोह अन्ततः सन्नाटा देकर ही जाते हैं। शांति चाहिए तो अशांति से बचिए __ अगर आप वाकई में प्रसन्नता और शांति पाना चाहते हैं तो मन को बदलें, मन की दिशा और परिणामों को बदलें। जीवन में जो मिले उसे प्रेम से स्वीकार करें। एक व्यक्ति मिठाई की दुकान पर गया और पूछा'तुम्हारे यहाँ सबसे अच्छी मिठाई कौनसी है ? हलवाई ने अपने यहाँ की हर मिठाई को एक दूसरे से अच्छा बताया। उस व्यक्ति ने कहा - 'मैं तो यह जानना चाहता हूँ कि कौनसी मिठाई सबसे अच्छी है ?' महाशय, मेरी दुकान की हर मिठाई सबसे अच्छी है' - हलवाई ने कहा। जिंदगी भी एक दुकान की तरह है जिसकी हर चीज अच्छी है। जो भी जैसा मिल रहा है उसमें कैसा गिला, कैसी शिकायत ! तुम दुःखी हो, क्योंकि तुम जो चाहते हो, पसंद करते हो वह तुम्हें नहीं मिल पा रहा है। प्रसन्न रहने की कला तो इसमें है कि जो तुम्हें मिल रहा है उसी को पसंद करना शुरू कर दो। ईश्वर हमें वह सब नहीं देता, जो हम चाहते हैं । जो ईश्वर ने दिया है, हम उसे पंसद करना शुरू कर दें। हम सदा खुश रहेंगे। सुख और दुःख दोनों का सम्मान करो। अगर आप अपने मन को इस दिशा में मोड़ने या बदलने में सफल हो जाते हैं तो प्रसन्नता अपने आप आएगी। प्रसन्नता उधार या किराए से नहीं मिलती। लोग हमारे पास आते हैं और कहते हैं - 'कोई ऐसा मंत्र बताइए कि जिससे मन को प्रसन्नता और शांति मिले।' मैं कहता हूँ- दुनिया में कोई भी ऐसा मंत्र नहीं है जिसको जपने से शांति पाई जा सके। शांति पाने का एक ही मार्ग है कि आप अशांति के निमित्तों से बचने की कोशिश करें। आपने अपने चारों ओर अशांति के इतने निमित्त खड़े कर लिए हैं कि उनके बीच शांति दफन हो गई है। चेहरे की मुस्कान भी कृत्रिम हो गई है जिसके कारण बाहर से तो व्यक्ति सुखी नजर आता है लेकिन अन्तर्मन में वह दुःखी ही है। 92 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्नता तो वह चंदन है जिसे तुम भी प्रतिदिन अपने शीष पर धारण करो और यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे द्वार आए तो उसका भी उसी चंदन से तिलक करो। प्रसन्नता तो परफ्यूम की तरह है जिसे रोज सुबह ही अपने ऊपर छिड़क लिया जाना चाहिए। प्रसन्नता तो सुन्दर साड़ी की तरह है जिसे पहनकर मन खुश हो जाए। प्रकृति ने सभी को चेहरे दिए हैं किसी को काले तो किसी को गोरे। सभी को लगभग एक जैसे ही चेहरे दिये हैं - वही नाक, होंठ, कान, आँख, जिह्वा - लगभग एक से ही दिये हैं। लेकिन उन पर भाव हम ही दिया करते हैं। जैसी व्यक्ति की मनोदशा, भावदशा और सोच होती है वह उस व्यक्ति के चेहरे पर उभर जाती है। जीवन की सर्वोपरि शक्ति है व्यक्ति के अन्तर्मन में पलने वाली शांति और प्रसन्नता। जीवन की सबसे बड़ी सम्पत्ति प्रसन्नता ही है। सर्दी की सुहानी धूप-सी खुशी हम सोचें कि प्रसन्नता हमें क्या देती है ? कभी आप एक घंटे तक उदास रहकर देखें कि आपका चित्त कितना मलिन होता जा रहा है? आपके मस्तिष्क की कोशिकाएँ सुप्त होती जा रही हैं । बड़े से बड़ा ज्ञानी भी तब कुछ करने में असमर्थ हो जाता है जब उसके मन में नाउम्मीदी प्रवेश कर जाती है। समर्थ और शक्तिशाली भी शक्तिहीन और श्रीहीन हो जाता है। निराशा से घिरने पर याद करें कि वे दो भोजन, एक जो आपने उदासी के क्षणों में किया था और दूसरा जो आपने प्रसन्नता के पलों में किया था, उनके स्वाद में कितना अंतर था! आपकी पत्नी ने स्वादिष्ट भोजन तैयार किया था लेकिन आप चिंताग्रस्त थे, आप पर काम का दबाव और तनाव था अतः वह भोजन आपको फीका और बेकार लग रहा था। दूसरी बार आपकी खोई हुई वस्तु मिल गई थी तो आप बहुत खुश थे और भोजन करने में भी आपको स्वाद आ रहा था। भोजन न तो स्वादिष्ट होता है और न ही बेस्वाद। आपकी मनोदशाओं पर ही भोजन का स्वाद निर्भर है। प्रसन्नता तो शीत में सुहानी धूप जैसी है और गर्मी में शीतल छाया, शीतल बयार जैसी है। स्मरण रहे, जीवन में आने वाले निमित्त कभी एक जैसे नहीं रहते और न ही खशियाँ एक जैसी रहती हैं। जीवन में मिले सुख और साधन भी एक जैसे नहीं रहते हैं। सूरज उगता है तो अस्त भी होता है, फूल खिलते हैं तो मुरझाते भी हैं। जब जवानी भी बढापे में तब्दील होती है तो जीवन की खशियाँ कब तक रह सकती हैं? जीवन में आने वाले बदलाव को जो स्वीकार कर लेता है वही अपने जीवन को प्रसन्नता और शांति से जीने में सफल हो पाता है। जब तक आप पद पर थे तो जीवन में खुशियाँ थीं और आज भूतपूर्व हो गए हैं तब भी जीवन में खुशियाँ रखो। पद से प्रसन्नता को मत जोड़ो। किसी भी पद से भूतपूर्व होने पर भी आप प्रसन्न और शांत हैं तो अभूतपूर्व बने रहेंगे और यदि दुख और ग़म में डूब गये हैं तो भूत बनने से आपको कोई रोक न पाएगा। याद रखें, हर वर्तमान को भूतपूर्व होना है। यही है जीवन का सच मुझे याद है - एक सम्राट को अभिलाषा थी कि वह जीवन के परम सत्य को जाने । इस हेतु उसने बड़ेबड़े पंडितों, ऋषियों, मुनियों व ज्ञानियों को बुलाया। वे लोग आते और अलग-अलग शास्त्रों की बातें बताकर 93 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चले जाते कि अमुक शास्त्र में यह कहा है, फलां पुस्तक में यह लिखा है। लेकिन किसी की बात से भी सम्राट् संतुष्ट हुआ वे ज्ञानीजन जीवन के सत्य का प्रतिबोध राजा को न दे पाए। इस तरह वर्षों बीत गए । एक दिन एक अस्सी वर्षीय वृद्ध संत आया और बोला- 'सम्राट्, मैं तुम्हें जीवन का परम सत्य देने आया हूँ, वही सत्य जो मेरे गुरु ने मुझे दिया था । ' - यह कहते हुए उसने अपनी भुजा पर बँधा हुआ ताबीज खोला और राजा को दे दिया। राजा संत को देखने लगा। संत बोला- 'राजन्, जब मेरे गुरु का देह-विलय हुआ था तब उन्होंने मुझे यह ताबीज यह कहकर दिया कि इस ताबीज को तुम कभी मत खोलना, पर जिस दिन तुम्हें यह लगे कि जीवन में संकट का अंतिम दिन आ गया है और तुम इसका सामना करने में विफल हो गए हो तो उस दिन इस ताबीज को खोल लेना और यही तुम्हारे जीवन का परम सत्य होगा। सम्राट्, आज तक मेरे जीवन में ऐसा मौका नहीं आया कि मैं इसे खोलूँ । अब मैं बूढ़ा हो चुका हूँ। पता नहीं कब चला जाऊँ इसलिये यह ताबीज मैं तुम्हें दे रहा हूँ। पर तुम भी याद रखना कि इस ताबीज को तुम भी तब ही खोलना जब तुम्हें लगे कि तुम्हारे जीवन में संकट का अंतिम पल आ गया है।' यह कहकर वह संत चला गया । - इधर सम्राट् की रोज इच्छा होती थी कि ताबीज खोलकर देख ले लेकिन संत के वचन उसे ऐसा करने से रोक रहे थे। चार-पांच वर्ष बीत गए। वह ताबीज सम्राट् की भुजा पर बँधा रहा। एक बार पड़ोसी राजा ने सम्राट् के राज्य पर हमला कर दिया। युद्ध हुआ और सम्राट् हार गया। वह घोड़े पर बैठा और महल के पिछले दरवाजे से भाग छूटा। जब शत्रुसेना को पता चला कि सम्राट् भाग गया है तो वे लोग भी जंगलों में उसे पकड़ने के लिये पीछे दौड़ पड़े। आगे सम्राट् का घोड़ा और पीछे शत्रुसैनिकों के घोड़े । सम्राट् को लगा कि अब शत्रु के सैनिक उसे पकड़ ही लेंगे। उसने और अधिक तेजी से घोड़ा दौड़ा दिया। सामने नदी आ गई। सम्राट् को तैरना नहीं आता था । वह घोड़े से उतरा और छुपने की जगह खोजने लगा लेकिन आसपास ऐसा कुछ नहीं था जहाँ सम्राट् छिप सके । पीछे से घोड़ों के टापों की आवाज आ रही थी । सम्राट् ने सोचा, 'यह मेरे जीवन के संकट का आखिरी पल है । फकीर ने कहा था - ऐसे पल में ताबीज को खोल लेना। उसने ताबीज तोड़ा, ढक्कन खोला तो देखा कि उसमें एक कागज था। सम्राट् ने कागज खोला तो देखा उस पर लिखा था - 'यह भी बीत जाएगा। यही जीवन का सत्य है । ' तभी उसने देखा कि घोड़ों के टापों की आवाज बन्द हो चुकी है। सैनिक मार्ग भटककर दूसरी दिशा में चले गए। राजा बार-बार उस कागज को पढ़ने लगा, यह भी बीत जाएगा। हाँ, यही जीवन का सच है - राजा सोचने लगा। कुछ घंटे पहले मैं नगर का सम्राट् था, लेकिन वह बीत गया। कुछ देर पहले मैं शत्रुसैनिकों द्वारा पकड़ा जा सकता था लेकिन वे मार्ग भटक गए - यह भी बीत गया। आज मैं जंगल में अकेला पड़ा हूँ। मेरे पास शक्ति और सम्पत्ति नहीं है। अरे, जब वे दिन भी बीत गए तो ये दिन भी बीत जाएंगे। सम्राट् ने बार-बार उस मंत्र को पढ़ा और अपने मनोबल को मजबूत करते हुए आसपास के गाँवो में जाकर अपने सैन्यबल को इकट्ठा करने की कोशिश की और धीरे-धीरे विशाल सैन्यबल का निर्माण कर अपने ही नगर पर हमला कर दिया। भयंकर युद्ध लड़ा गया। शत्रु के सैनिक और राजा मारे गए। सम्राट् ने अपने ही नगर, राजमहल और राजगद्दी पर फिर कब्जा किया। सम्राट् का पुनः राज्याभिषेक होने वाला था। नगर के श्रेष्ठि, मंत्री, सेनापति, राज पुरोहित सभी 94 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा के सामने खड़े थे । राजपुरोहित ने मंत्र पढ़ना शुरू किया। राजा के सिर पर जैसे ही मुकुट रखा गया। राजा को कुछ याद आया और चेहरे पर उदासी छा गई। मंत्रियों और सेनापतियों ने पूछा - 'महाराज, यह क्या ? आज तो हमारे लिए खुशियों का दिन है और आप इतने उदास ?' राजा ने अपनी जेब से फकीर का दिया हुआ कागज निकाला - 'यह भी बीत जाएगा।' एक दिन मैं सम्राट् था लेकिन पराजित होकर जंगल में अकेला पड़ा था, लेकिन आज फिर सम्राट् बन गया तो क्या हुआ 'यह भी बीत जाएगा।' जो व्यक्ति अपने जीवन में आने वाली हर चीज के लिए यह सोचता है कि 'यह भी बीत जाएगा' वही शांत रहता है । कल अगर तुम करोड़पति थे तो गुमान मत करो क्योंकि 'यह भी बीत जाएगा और आज 'रोड़पति' हो गए हो तो ग़मगीन मत होओ, क्योंकि यह भी बीत जाएगा। जो व्यक्ति अपने जीवन की प्रत्येक गतिविधि से अप्रभावित रहता है और जानता है कि यह सब बीत जाने वाला है, वही स्थायी शांति को उपलब्ध होता है और हमेशा प्रसन्न और आनंदित रहता है। बाहर से जो मिलते हैं वह सुख होते हैं और जो भीतर से मिलता है वह जीवन की शांति और प्रसन्नता होती है । नींद की गोली, न बनाएं इसे हमजोली हमारी बेलगाम इच्छाएं और तृष्णाएं न तो हमें सुख से खाने देती हैं, न सुख से बैठने देती हैं और न ही चैन से सोने देती हैं। न तो हमारा नींद पर नियंत्रण है न ही जागरण पर। पहले आदमी दिन भर परिश्रम करता था । शाम को चैन की रोटी खाता था, रात को आराम की नींद लेता था। आज आदमी की हालत बड़ी जबरदस्त बिगड़ रही है। रात को ए. सी. रूम में सोता है, डनलप के गद्दों पर और सारी रात करवटें बदलता रहता है, फिर भी नींद नहीं आती है। अमेरिका को विकसित देश कहते हैं। वहाँ के लोगों को चैन की नींद नहीं । रात को साठ फीसदी लोग वहाँ नींद गोलियाँ खा रहे हैं। आखिर यह कैसी जिंदगी है जिसमें रात को सोने के लिए गोली खानी पड़ रही है और सुबह जागरण के लिए अलार्म घड़ी की जरूरत पड़ रही है। दुनिया में सबसे सुखी इंसान कौन है, अगर मुझे पूछो तो कहूंगा वह इंसान सर्वथा सुखी है जिसे सोने के लिए नींद की गोली नहीं खानी पड़ती और जगने के लिए अलार्म की जरूरत नहीं पड़ती। वह सुखी है जो फर्ज निभाता है पर किसी का कर्जदार नहीं है। जो प्रतिकूल परिस्थितियों में मुस्कुराता है। दूसरों का हित करने के लिए अपने स्वार्थ का त्याग करता है, भला उससे ज्यादा सुखी कौन होगा ? वह व्यक्ति सुखी होगा जो मेहनत पर भरोसा रखता है । अपने कार्य स्वयं करें। देखता हूँ सम्पन्न घरों में लोगों को पानी पिलाने के लिए भी नौकर हैं, खाना बनाने के लिए नौकर हैं, झाड़ू पोंछे के लिए अलग नौकर हैं, बाप बूढ़े हो गये तो उनकी सेवा के लिए नौकर, छोटे बच्चों को माँ बाप को प्यार कहाँ मिलता है ! उनको पालने के लिए भी नौकर । सम्पन्न घरों में लोगों ने स्वयं को व्यस्त जताने के नाम पर हर काम के लिए नौकर रख रखे हैं। मुझे तो डर लगता है कल कहीं ऐसे दिन न आ जाये जब तुम बहुत ज्यादा व्यस्त हो जाओ तो पत्नी से प्यार करने के लिए भी नौकर रखना पड़े । 95 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुशी : एक मुकम्मल दवा में प्रसन्नता के परिणाम क्या हो सकते हैं ? पहला देखें - 'स्वास्थ्यपरक परिणाम ।' प्रसन्नता हमारे तनाव को काटती है, चिंता को भेदती है, हमें सहज करती है। प्रसन्नता तो प्रेशर कुकर में लगी सीटी की तरह है। जब कुकर वाष्प का दबाव बढ़ जाता है तो प्रेशर रिलीज करने के लिये सीटी बज जाती है। अगर सीटी में या ढक्कन में कुछ खराबी आ जाए तो अत्यधिक दबाव के कारण कुकर ही फट जाता है। मनुष्य के मन में भरी चिंता और अवसाद कुकर में भरे हुए प्रेशर की तरह ही हैं। अगर आप प्रसन्नता की एक सीटी बजा देंगे, तो आप महसूस करेंगे कि भीतर का तनाव कम हो रहा है। धीरे-धीरे तनाव के ढक्कन को खोल दो और प्रसन्नता को भरते रहो । अगर आप प्रसन्न रहते हैं तो आपका तनाव मिटता है । अगर आप रुग्ण हैं, आपके शरीर में कोई विकलांगता है तो स्वयं को हीन न समझें। मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला हूँ जिसका कंधे से नीचे का पूरा शरीर निष्क्रिय है, अंगूठे तक । उसे चाहे सूई चुभाओ या काट दो, उसे कुछ पता नहीं चलता है। मैं उसके पास पंद्रह मिनट तक रहा और मैंने अपने जीवन में उससे अधिक प्रसन्न रहने वाला आज तक किसी अन्य को नहीं पाया । हर पल हँसता, मुस्कुराता चेहरा । मैंने पाया कि वह अपने शरीर की विकलांगता पर विजय पाने में सफल हो गया है। जो व्यक्ति अपने जीवन में अपने शरीर पर आने वाले विपरीत धर्म और बीमारियों में भी अपनी प्रसन्नता को बनाये रखता है वही अपने रोग को परास्त करने में सफल हो जाता है । आप भले ही गंभीर से गंभीर बीमारी से ग्रस्त हों लेकिन पचास प्रतिशत ही सही, प्रसन्नता की दवा आपके काम जरूर करेगी। अगर आप निराशा से घिर गये और आपकी उम्मीद का फूल कुम्हला गया है तो निश्चय ही आप रोग पर विजय प्राप्त करने में असफल रहेंगे । एक खुशी, नफे हज़ार प्रसन्नता का दूसरा प्रभाव व्यक्ति की मानसिकता पर पड़ता है। प्रसन्न हृदय में सदा सकारात्मक विचार आते हैं और अप्रसन्न मन में नकारात्मक। अगर आप क्रोध करते हैं तो आपके चेहरे की छत्तीस नाड़ियाँ प्रभावित होती हैं और आपका चेहरा तमतमा उठता है जबकि एक पल की मुस्कान आपकी बत्तीस कोशिकाओं को जीवन प्रदान करती है । जब जहाँ, जिससे मिलो, मुस्कुराते हुए मिलो, यही तो एक बात है जो हमेशा हमारे हाथ में रहती -मुस्कुराना। जो हमेशा प्रसन्न रहता है उसकी सोच भी सकारात्मक रहती है। प्रसन्नता का तीसरा परिणाम परिवार को मिलता है। जिस परिवार के लोग हमेशा प्रसन्न रहते हैं वहाँ स्वर्ग बसता है । जिस परिवार में लोग खिन्न मन से रहते हैं वहाँ कभी शांति नहीं होती। हम मकान को गलीचे, अल्मारी, फर्नीचर से सजा सकते हैं लेकिन वह घर स्वर्ग तभी बनता है जब घर के सभी लोग प्रसन्न रहें । प्रसन्नता का चौथा प्रभाव है कि व्यक्ति के सम्बन्ध सभी के साथ मधुर रहते हैं। हो सकता है. कोई आपसे खुशी-खुशी मिलने आया हो लेकिन आप भीतर से नाखुश थे अतः आपने उसकी खुशी का कोई जवाब 96 For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं दिया। उस समय सामने वाला व्यक्ति यही समझेगा कि आप उसे देखकर नाखुश हुए हैं। हमारी प्रसन्नता से हमारे सम्बन्धों में मधुरता आती है। अपने घर-परिवार में प्रसन्नता का ऐसा पेड़ लगाएँ जिसकी छाया पड़ौसी तक जाए ताकि हमारी प्रसन्नता का विस्तार पड़ौसी और समाज तक भी हो। बुझाएँ चिंता की चिंगारी चिंता हमारी प्रसन्नता में सबसे अधिक बाधक है। यह काम ऐसा क्यों हुआ, ऐसा कैसे हो गया, मेरे साथ ऐसा कैसे हो सकता है, मैं तो उल्टे-सीधे काम करता ही नहीं फिर मुझे ऐसा परिणाम कैसे मिला, व्यक्ति के मन की यही उधेड़बुन चिंता है। जब भी मन में इस प्रकार के विकल्प जगें, उन्हें सहज छोड़ दें। जो होना था सो हो गया. हम अपने मन की शांति को क्यों भंग करें? चिंता तो चिता से भी ज्यादा खतरनाक होती है। चिता तो मरने बाद जलाती है लेकिन चिंता से व्यक्ति जीते जी जलता रहता है। चिंता भी ऐसी कि उसका कोई हल नहीं है। समय ही उसका सबसे बड़ा हल है। पुत्र है, अगर वह लायक निकल गया तो ठीक और यदि नालायक निकला तो कैसी चिंता? समय पर छोड़ दें। तुम्हारी चिंता का उस पर कोई असर नहीं होने वाला। जीवन में जब जो होना होता है, वह होता है अत: व्यक्ति व्यर्थ की चिंताएँ न पालें। जो चिंता से मुक्त रहता है और होनी को होनी मानकर स्वीकार कर लेता है, वही सदाबहार प्रसन्न रह सकता है। दूसरे फले, इसलिए न जलें हमारी प्रसन्नता का दूसरा बाधक तत्त्व ईर्ष्या है। मैं कई दफा लोगों के घरों में देखा करता हूँ कि बहुओं के चेहरे लटके हुए हैं और सास भी अलग उदास है। दो सुखी दिल को दुखी करती है एक ईर्ष्या। जब भी दूसरे के विकास को देखकर अन्तर्मन में थोड़ी सी भी ईर्ष्या जगती है तो यह ईर्ष्या जीवन की प्रसन्नता को छीन लेती है। दो सुखी जेठानी-देवरानी ईर्ष्या के कारण दुखी हो जाती है। दूसरा भले ही हमसे ईर्ष्या करे पर हम किसी से भी ईर्ष्या न करें। आप ईर्ष्या करके दो नुकसान उठाते हैं - एक तो आप अपना विकास नहीं कर पाते, सामने वाले के विकास को भी अवरुद्ध करने का प्रयास करते हैं। दूसरा यह कि ईर्ष्या के कारण आप हमेशा अवसाद, तनाव और घुटन से ग्रस्त हो जाते हैं। ईर्ष्या के चक्कर में पड़कर दूसरों का पानी उतारने का प्रयास रहता है। उसमें उसका कुछ अहित हो या न हो, तुम्हारा पानी जरूर उतर जाता है। ईर्ष्या मत करो। तुम्हें जो मिला है, तुम्हारे भाग्य का मिला है, जो दूसरे के भाग्य में है, वह उसे मिला है। फिर ईर्ष्याग्रस्त क्यों होते हो? हम दुःखी इसलिये नहीं हैं कि ईश्वर ने हमारे लिए कुछ कमी रखी है, हम दुःखी हैं उन्हें देखकर जो सुखी हैं। औरों का सुख हमारे दुःख का कारण बन रहा है अन्तर्हृदय में जगी हुई ईर्ष्या की भावना से व्यक्ति भीतर ही भीतर जलता है और नष्ट हो जाता है। क्रोध छीने बोध हमारी प्रसन्नता को छीनने वाला एक अन्य तत्त्व है - हमारा गुस्सा। दस मिनट का गुस्सा आपकी 97 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक शांति और प्रसन्नता को छीन लेता है । गुस्से में आकर आप गलत निर्णय ले लेते हैं । गुस्सैल व्यक्ति हर समय तनाव में अकडा हआ और गंभीर दिखाई देता है। उसके चेहरे पर हँसी और मस्कान कम ही आती है। गुस्सा करना बहुत महँगा है। उससे तुम अशांत तो होते ही हो अपने को दुःखी भी करते हो और जीवन में जानबूझकर संकटों को आमंत्रण देते हो। अपने घर में प्रेम और शांति का माहौल रखो। घर में एक व्यक्ति गुस्सा कर रहा है तो दूसरा प्रसन्न रहे, शांति और धीरज रखे। यह तो ऊपर वाले को धन्यवाद है कि वह जब भी जोड़ी मिलाता है तो एक न एक को शांत बनाता है। अगर पत्नी गुस्सैल है तो पति शांत होता है और पति गुस्सैल है तो पत्नी शांत स्वभाव की होती है। कल्पना करें उस घर की जहाँ दोनों ही गुस्सैल होते हैं । क्या उस घर में कभी स्वर्ग की कल्पना भी की जा सकती है ? क्या उनके घर में कभी शांति की बात सोची भी जा सकती है ? मुझे याद है, एक कॉलोनी में एक दंपत्ति आकर रहने लगे। दो-चार दिन तक रहे। कॉलोनी वाले सोचते, गजब का घर है जहाँ से प्राय: हँसी की आवाजें ही आती हैं। दोनों बड़े प्रेम से रहते हैं। घरों में सास-बहू, पिता-पुत्र, पति-पत्नी के बीच कुछ न कुछ बोलचाल तो होती है तो आवाजें भी आती हैं, रोने की, चिल्लाने की। पर इस घर से ऐसी आवाज नहीं आई। एक दिन, सांझ का समय था। कॉलोनी के लोग खड़े थे। संयोग से वह व्यक्ति उधर से निकला। लोगों ने उसे रोका और पूछा, 'क्या बात है भाई, तुम्हारा घर तो अद्भुत है। हमने जब भी सुना तुम्हारे घर से हँसने की आवाज ही आती है। तुम्हारे घर से कभी चीखने-चिल्लाने और रोने की आवाज क्यों नहीं आती?' उस व्यक्ति ने बताया- 'बात यह है कि मेरी पत्नी बड़ी गुस्सैल है। गुस्से में जो भी चीज इसके हाथ पड़ती है वह मुझ पर फेंक मारती है।''तो इसमें हँसने की क्या बात है?' - लोगों ने पूछा। 'अरे, यही तो राज की बात है कि जब उसका निशाना ठीक लगता है तो वह हँसती है और जब उसका निशाना चूक जाता है तो मैं हँसता हूँ'- उसने बताया। सामने वाला गुस्सा करे तो उसे सहन करने की आदत डालो, दूसरा गलती करे तो उसे नजर-अन्दाज करो। खुद से गलती हो जाए तो उसे सहज में स्वीकार करो। जीवन से चाहे जो चला जाए पर एक चीज न जाए और वह है, अपने अन्तर्मन की प्रसन्नता। क्रोध व आवेश के क्षणों में आपा खोना मनुष्य का स्वभाव है। पर इससे ऊपर है ज्ञात-अज्ञात में हुई गलतियों के लिए क्षमा मांगना या सामने वाले को क्षमा करना। यह आपके व्यक्तित्व को तो ऊपर उठाती है आपको आत्मिक शांति का अहसास भी कराती है। पानी है प्रसन्नता तो... जीवन में सदाबहार प्रसन्न रहने का पहला सूत्र है - सुबह नींद खुलते ही एक मिनट तबीयत से मस्कराइए । हँसने - खिलखिलाने की जरूरत नहीं है पर अंग-अंग से मस्कराइए। यह वह टॉनिक है जिसे आप सुबह-सुबह लेंगे तो दिन भर प्रसन्न रहेंगे। यह एक मिनट की मुस्कान आपको भरपूर प्रसन्नता देगी। दूसरा सूत्र है – 'जीवन को सहजता से जिएं'। जो हो जाए, वह ठीक है - ऐसा होना था सो हो गया, कोई बात नहीं। अगर व्यापार-व्यवसाय में घाटा भी हो जाए तो यह सोच लें कि जाना था सो चला गया। मेरे इस 98 For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र को जीवन भर याद रखना कि जो तुम्हारा है वह कभी जा नहीं सकता और जो चला गया वह तुम्हारा था ही नहीं। फिर असहजता कैसी ! जो जैसा जिस रूप में मिला है, उसे सहज रूप से स्वीकार करें। जीवन सहजता, प्रसन्नता का ही रूप है। प्रसन्नता का अमोघ अस्त्र है - 'प्रतिक्रियाओं से बचना।' छोटी-मोटी घटनाओं को हँसी में टाले दें। गुरजिएफ ने अपने संस्मरणों में लिखा है - 'मेरे पिता मृत्युशैय्या पर थे तब उन्होंने मुझसे कहा, 'अभी तू बहुत छोटा है, मेरी बात नहीं समझ पाएगा लेकिन अमल में लाएगा तो समझने की जरूरत नहीं पड़ेगी।' फिर उन्होंने कहा कि कभी कोई ऐसी बात जिससे तुझे लगे कि इससे सामने वाले को या तुझे खुद दुःख होगा तो चौबीस घंटे ठहर जाना और फिर उस बात को कह देना।' चौबीस घंटे तो क्या अगर आप चौबीस मिनट भी ठहर गए तो भी काफी है। प्रतिकूल वातावरण बने तो यही सोचो कि अगर तुम उस वक्त वहाँ नहीं होते तो उन बातों का जवाब कौन देता? जैसे ही आप प्रतिक्रिया से बचते हैं, जीवन में दुःखों से भी बच जाते हैं। प्रसन्न रहने का अन्य उपाय है अपने सभी कार्यों को प्रसन्नता से करें, तन्मयता से करें। किसी भी काम को बोझ न मानें । जब आप काम को बोझ मानते हैं तो वह दुगुना बोझ महसूस होता है और प्रसन्नता के साथ करते हैं तो काम हल्का हो जाता है। स्वीकार करें, प्रकृति का सान्निध्य जीवन में प्रकृति के सानिध्य में रहने की आदत डालें। हमने किसी एक ही व्यक्ति, वस्तु या स्थान से खुशियाँ जोड़ रखी थीं, संयोग से वह हमसे दूर हो गया अथवा टूट गया। ऐसी स्थिति में हम अपना पूरा जीवन उसी की व्यथा में खोते रहेंगे? प्रकृति ने जीवन की खुशियों को पाने के लिए हमारे इर्द-गिर्द हजारों उपाय किए हैं । प्रकृति अगर रंग बदलती है, मौसम बदलती है, तो इसके पीछे हमें खुशियाँ देना ही है ताकि हम एक ही रंग व मौसम को देखते हुए बोर न हो जाएँ। प्रकृति ने पानी में शीतलता दी है, फूलों में कोमलता और सुवास दी है, हरियाली में सुन्दरता दी है, तो इन सबके पीछे हमारे जीवन को विविधता और खुशियाँ देना ही रहा है। खास बात यह नहीं है कि हम क्या देख रहे हैं अपितु किस तरह से देख रहे हैं यह खास बात है । जितनी सहजता से प्रकृतिप्रदत सुविधाओं में हम जिएँगे वे हमारे लिए उतनी ही खुशियाँ दे सकेंगी। प्रकृति ने पहाड़, नदी, झरने, वृक्ष, हरियाली, चाँद-सितारे और सूरज सब कुछ हमारे जीवन के लिए ही तो दिए हैं। इनमें से कुछ भी हमसे नहीं छीना जाता है। फिर भी पता नहीं, क्यों हम छोटी-छोटी बातों को लेकर दुःखी हो जाते हैं । अशांत मन के राजा को जो सुख महलों में कभी नसीब नहीं होता शांत मन वाले व्यक्ति को वह सुख झोंपड़े में भी मिल जाया करता है। प्रकृति ने जीवन में खुशियों के इतने निमित्त भर दिये हैं कि यदि हम एक ढूढेंगे तो हमें हजार मिलेंगे। हमारे इर्द-गिर्द खुशियों से भरे हुए निमित्त हैं । जरूरत है उनको उनके सही नजरिये से देखने की। खुशियों के रूप अनेक मुझे याद है, मैं किसी गाँव में किसी कच्ची बस्ती से गुजर रहा था। किसी झोंपड़ीनुमा कच्चे मकान में 99 For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई राजस्थानी लोकगीत चल रहा था। घर के बाहर एक आठ-दस साल की बच्ची जिसके सामान्य से कपड़े पहने हुए थे, उस लोकगीत पर बड़ी तन्मयता से थिरक रही थी। मैंने देखा कि उस बच्ची के चेहरे पर संतोष और खुशी के भाव उमड़ रहे थे। सच! सहज प्रसन्नता के साथ उसका वह नृत्य मेरे मन को सुकून दे रहा था। काफी वर्ष पहले की बात है, मैं बैंगलोर में मुख्य मार्ग से गुजर रहा था। मैंने देखा कि चौराहे पर लाल बत्ती जल रही थी इसलिए काफी गाड़ियाँ रुकी हुई थीं। गाड़ियों में बैठे लोगों के चेहरे पर अपने व्यवसाय-धंधे तथा और भी कई बातों की परेशानियाँ साफ झलक रही थीं। इतने में ही मेरे कानों में 'भूभू.......... पी पी' की आवाज आई। मैंने देखा कि उन वाहनों में एक व्यक्ति साइकिल लिए खड़ा था। साइकिल पर डण्डे पर लगी छोटी-सी सीट पर एक बच्चा बैठा था। आस-पास खड़ी गाड़ियों को देख कर वह बच्चा हाथ से स्टीरिंग को घूमाने का अभिनय कर रहा था और मुँह से गाड़ी को चलाने की आवाज निकाल रहा था। न केवल मुझे अपितु मेरे साथ चल रहे अन्य लोगों को भी उस बच्चे की इस हरकत को देख कर हँसी आ गई। मुझे लगा कि हमारे इर्द गिर्द कितनी खुशियों के माहौल होते हैं। ___अभी जयपुर से राजेन्द्र जी ओसवाल मेरे पास आए थे। सुलझे हुए विचार के सेवाभावी व्यक्ति हैं । वे कहने लगे कि उन्होंने गायों की चिकित्सा का शिविर लगाया था। एक गाय का बच्चा ऐसा लाया गया जिसकी दो टांगें टूटी हुई थीं। शिविर में उसका उपचार हुआ। जब वह बछड़ा शिविर में लाया गया तो पीड़ा से इतना कराह रहा था कि एक सैकेंड भी सुख से बैठ ही नहीं पा रहा था। लेकिन सात दिन उपचार के बाद वह अपने पाँवों से चलने लगा। वे बंधु मुझे कहने लगे कि मेरे घर बेटे के जन्म होने पर भी मुझे इतनी खुशी नहीं हुई होगी जितनी उस बछड़े को चलते हुए देख कर हुई। सेवा में सुख का सुकून रतलाम के एक महानुभाव हैं, शांतिलाल जी चौरड़िया। वे जीवदया प्रेमी हैं; एक बार हमारे साथ जोधपुर से नागौर की ओर पैदल चल रहे थे। सुबह के कोई सात बजे होंगे। उन महानुभाव के तीन दिन का उपवास था और साढे आठ-नौ बजे उसकी पूर्णता करनी थी। यकायक हमने देखा कि सड़क के किनारे एक गाय घायल पड़ी थी और उसके पाँव की हड्डियाँ टूट गयी थीं। उसके शरीर से खून बह रहा था। लगभग अर्द्ध मूर्छित जैसी थी वह । हमने आस-पास की ढाणी में रहने वाले लोगों से उसके उपचार के लिए कहा तो किसी ने कोई खास ध्यान नहीं दिया। हमें लगा कि यह अधमरी गाय पूरी ही मर जायेगी। अगर इसकी चिकित्सा न की गई तो कौए व गीध इसको नोच देंगे। हमारे साथ चल रहे चौरड़िया जी ने हमारे मनोभावों को समझा और कहा, 'मैं इसको पास के शहर ले जाता हूँ ताकि पशु-चिकित्सालय में इसका इलाज करवाया जा सके। काफी देर तक कोशिश करने के बाद एक व्यक्ति ने टाटा सूमो जैसी ही गाड़ी रोकी। गाड़ी में ड्राइवर के अलावा कोई न था। वह मुसलमान था पर गाय की ऐसी दशा देखकर वह झट से तैयार हो गया। वे लोग गाय को लेकर शहर में पहुँचे। पशु चिकित्सालय में डॉक्टरों ने तत्काल प्रभाव से चिकित्सा की। गाय को होश भी आ गया था। रतलाम के वे महानुभाव गाय को लेकर कई 100 For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौशालाओं में गए लेकिन कोई भी उस घायल गाय को रखने को तैयार नहीं हुआ । आखिर में उन्होंने किसी व्यक्ति को इस गाय की व्यवस्था का जिम्मा सौंपा और वह स्वस्थ न हो जाये तब तक पालन-पोषण की जवाबदारी दी। वे उसे आवश्यक रुपये देकर आ गए। शाम को वापस हमारे पास पहुँचे। चूँकि सूर्यास्त के बाद वे कुछ खाते पीते नहीं हैं अतः उस दिन भी उनके उपवास ही हुआ। पर उनके चेहरे पर गाय के उपचार कराने की खुशी ऐसे झलक रही थी कि मानो उन्होंने बहुत बड़ी उपलब्धि पा ली हो। हम उस शहर में पहुँचे। जहाँ गाय का उपचार हो रहा था हम वहाँ गए। उस गाय को अपने पाँवों पर धीरे-धीरे चलते हुए देखकर हमें हृदय में इतनी प्रसन्नता और खुशी मिली जिसकी कोई हद नहीं थी । आज की इस प्रतिस्पर्धा और तनाव भरी जिंदगी में जो और जैसा भी हमें मिला है, उसमें खुशियों को ढूँढना निहायत जरूरी हो गया है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो आप यह मान कर चलें कि अनेक सुख-सुविधाएँ होने के बावजूद हम असंतुष्ट और दुःखी रहेंगे। अगर जीवन के इर्द-गिर्द घटने वाली घटनाओं में हम खुशी को ढूंढेंगे तो जीवन का पल-प्रतिपल खुशहाल होगा। स्वर्ग और नरक और कुछ नहीं है बल्कि हमारी मन की स्थिति से जुड़े हुए हैं। हमारा मन चाहे तो स्वर्ग को नरक बना सकता है और मन चाहे तो नरक को स्वर्ग । जीवन के हर तनावपूर्ण वातावरण में भी अन्तर्मन में सहज मुस्कान बनाए रखना प्रसन्नता के दो फूल खिलाने की तरह है । जीवन में कई बार निःस्वार्थ कार्य करके भी व्यक्ति खुशियों को प्राप्त करता है । जैसे आपके बच्चे का जन्मदिन है, बजाय इसके कि आप अपने दोस्तों और परिचितों को इकट्ठा करके किसी होटल में जाकर पाँच हजार रुपये पानी करें, यदि किसी अनाथालय, सार्वजनिक अस्पताल अथवा ऐसे ही किसी स्थान पर इन रुपयों को खर्च करें तो आप चिरस्थायी खुशियाँ पा सकते हैं । मैं अपनी ओर से आपको नेक सलाह देना चाहूँगा कि यदि आपने पिछले वर्ष अपनी संतान के जन्मदिन पर घूमने-फिरने, खान-पान में दो हजार खर्च किये हैं तो इस वर्ष आप इन सब कार्यों में खर्च करने की बजाय अपने बच्चे को साथ लेकर किसी अनाथालय, कोढीखाना अथवा ऐसे ही किसी स्थान पर जाएँ और अपने बच्चे के हाथों से उन सबको भोजन करवाएँ। किसी झोंपड़पट्टी में जाकर आप जरूरतमंद बच्चों को कपड़े दें। उन्हें पढ़ने और लिखने के साधन दें और कुछ नहीं तो कम से कम किसी अस्पताल में ही चले जाएँ आप और किसी ऐसे रोगी की तलाश कर लें जिसको दवा की आवश्यकता हो पर आर्थिक अभाव में वह उसकी व्यवस्था न कर पा रहा हो। आप उसको अपने बेटे के हाथ से दवा दिलवाएँ। किसी गरीब व्यक्ति का अगर कोई ऑपरेशन होने वाला है और उसके पास आवश्यक व्यवस्था नहीं है तो आप अपने पुत्र के जन्मदिन पर वास्तविक खुशियाँ पा सकते हैं उसका ऑपरेशन अपनी ओर से करवा करके । आपकी दवा के बदले उस रोगी के द्वारा दी गई दुआएँ आपके पुत्र के जीवन-विकास में ईश्वर की कृपा बनकर संबल प्रदान करेगी। आप इतना भी न कर सकें तो बाजार से पाँच किलो मौसंबी ले जाएँ और सरकारी अस्पताल में जाकर अपने या अपनी पत्नी के हाथ से मौसंबी का जूस निकलवाएँ और ऐसे रोगी को अपने पुत्र के हाथों पिलवाएँ जो उसकी व्यवस्था न कर पा रहा हो। आप उन पलों में अनुभव करेंगे कि उस रोगी के जूस पीते समय आपके मन 101 For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कितनी शांति मिली है ! अगर कर सकते हैं तो हजारों तरह के उपाय हैं जिनसे मानवता का कल्याण भी होता है और हमारा जीवन भी खुशियों से सराबोर हो जाता है। आप यह भी देख लें कि आपके गाँव या शहर में कोई विकलांग तो नहीं है। आप छोटा सा उपक्रम करें। आप उसके कृत्रिम पाँव लगवा दें। केवल हजार-दो हजार का ही खर्चा होगा. लेकिन अब तक जो आदमी स्वयं को घसीट कर चल रहा था, वह आपके इस सहयोग से पाँव पर खड़ा हो जाएगा। कल्पना करें उसे चलता हुआ देखकर तो आप कितने खुश होंगे। अभी हमने अपने जयपुर प्रवास के दौरान करीब सौ से अधिक विकलांग लोगों के कृत्रिम पाँव बनवाए थे। पता नहीं, प्रवास के दौरान कितने ही बड़े खर्च और समारोह हुए , पर जितनी खुशी हमें इस कार्य में मिली उतनी खुशी वहाँ आयोजित दशहरा मैदान की ऐतिहासिक प्रवचन-माला में भी न मिली होगी। __ प्रसन्न रहने का अंतिम मंत्र है - हर हाल में मस्त रहें। परिस्थिति कैसी भी हो अपनी मस्ती में कमी न आने दें। हर हाल में मस्त रहने से आपके जीवन में सदाबहार प्रसन्नता का अवतरण हो जाएगा। 102 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की मर्यादाएँ और हम EPROMCHANNOUNGARONDONESIAwes MARATI मर्यादा जीवन का बंधन नहीं, निर्मल और व्यवस्थित रूप से जीवन जीने की शैली है। mewwausamaesame R par TIRANGammunisma एक युवक के मन में जीवनपरक आन्तरिक समस्या उठी। उस समस्या का समाधान पाने के लिए वह कई जगह गया, लेकिन कोई भी समाधान उसे संतुष्ट नहीं कर पाया। उसके मन में यह प्रश्न था कि वह विवाह कर गृहस्थी बसाये या साधु बनकर संन्यास के मार्ग को जीवन में चरितार्थ करे। जिसके पास भी जाता, वह अपना ही मार्ग श्रेष्ठ बताता। संतजन कहते, 'संन्यासी बन जाओ, शादी करली तो बहुत दुख पाओगे।' और गृहस्थ कहते विवाह कर लो, गृहस्थी बसा लो, संन्यासी बन गये तो बड़े पछताओगे।' साधुता या शादी? एक दिन वह किसी फकीर के पास पहुँचा और उनसे कहा - मैं अभी यह समझ नहीं पाया हूँ कि मैं क्या निर्णय करूँ? छब्बीस वर्ष की आयु हो गई है फिर भी अनिर्णय की स्थिति में हूँ कि विवाह करके घर बसाऊँ या संन्यास लेकर साधु का जीवन जीऊँ।' फकीर ने कहा, 'बैठो थोड़ी देर में जवाब मिल जाएगा।' थोड़ी देर बाद फकीर ने अपनी पत्नी से कहा - 'मैं बाहर जा रहा हूँ। दो-तीन घंटे बाद घूमकर आ जाऊँगा।' फकीर ने युवक को अपने साथ लिया और वे जंगल में जाकर एक पहाड़ी की तलहटी पर खड़े हुए। उन्होंने पहाड़ी के शिखर की ओर मुँह करके आवाज लगाई - 'ओ साधु बाबा, ओ साधु बाबा, नीचे आओ।' ___ युवक ने देखा, फकीर की आवाज सुनकर पहाड़ी के शिखर पर गुफा में रहने वाला एक वृद्ध साधु बाहर आया और धीरे-धीरे लकड़ी के सहारे चलते हुए लगभग पन्द्रह मिनट में वह नीचे तलहटी में पहुंचा। उसने आकर पूछा - 'बोलो भैया, मुझे क्यों याद किया?' फकीर ने कहा - 'बस, यों ही आपके दर्शन की इच्छा थी तो आपको नीचे बुला लिया।' बूढ़े साधु बाबा ने आशीर्वाद देते हुए वापस पहाड़ी की चढ़ाई शुरू कर दी। पन्द्रह मिनट तक चलने के बाद वे अपनी गुफा में पहुंचे ही थे कि फिर आवाज आई - 'ओ साधु बाबा, ओ साधु ForPers.103-rivate use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबा, जरा नीचे आओ।' साधु बाबा फिर अपनी गुफा से बाहर निकले और लकड़ी के सहारे जैसे-तैसे नीचे पहुँचे। उन्होंने आकर पूछा - 'बोलो भैया, फिर कैसे याद किया?' फकीर ने कहा- 'कुछ नहीं बाबा, बस फिर आपके दर्शन की इच्छा हो गई।' बूढा साधु दो मिनट बात करने के बाद ऊपर चला गया और जैसे ही गुफा में बैठा कि फिर नीचे से आवाज आई - 'ओ साध बाबा. ओ साध बाबा. जरा नीचे आओ।' बढा साध जिस | जरा नीचे आओ।' बूढा साधु जिसकी कमर झुका हुइ थी, चेहरे पर झरियाँ छा चकी थीं. घटनों में दर्द भी रहा होगा. तब भी लकडी का सहारा लेकर एक बार फिर धीरे-धीरे नीचे आया। नीचे आकर पूछा - 'बोलो भैया, फिर कैसे याद किया?' फकीर ने कहा - 'कुछ भी नहीं, फिर आपके दर्शन की इच्छा हो गई थी।' बूढ़ा साधु दुआएं देकर वापस ऊपर चला गया। फकीर अपने घर लौट आया। पीछे-पीछे युवक भी फकीर के साथ आ गया। मर्यादा ही धर्म दोपहर का समय था। चिलचिलाती धूप पड़ रही थी। घर पहुँचकर फकीर ने अपनी पत्नी को आवाज दी, 'अरे सुनो, जरा लालटेन जलाकर लाओ, मुझे कुछ कविताएँ लिखनी हैं।' पत्नी भीतर गई, लालटेन जलाकर लाई और बाहर चौकी पर रख दी। फकीर ने कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं। शाम होने आ गई। युवक से न रहा गया। वह पूछने लगा - 'फकीर साहब, मेरे प्रश्न का क्या हुआ?' फकीर ने कहा - 'मैंने तो जवाब दे दिया न् !' युवक ने कहा - 'मैं कुछ समझा नहीं, आपने तो कुछ भी जवाब नहीं दिया।' फकीर ने कहा - 'मैंने तुम्हें जवाब दे दिया है । तुम्हारा प्रश्न था कि तुम साधु बनो या शादी करो और तुम्हें इसका जवाब मिल गया है।' युवक ने कहा - 'मैं आपकी बात नहीं समझ पाया, कृपया स्पष्ट करें।' फकीर ने कहा - 'युवक, तम साध बनना चाहते हो तो जरूर बनो, लेकिन उस साध की तरह जिसे मैंने तीन बार नीचे बुलाया, तब भी उसके चेहरे पर किसी प्रकार की शिकन या क्रोध की तरंग नहीं थी। उस वृद्ध साधु के मन में कोई विक्षोभ नहीं था। बार-बार नीचे आकर, ऊपर जाकर भी उसके अन्तर्मन में शांति और मेरे प्रति कितना प्रेम था! हाँ, अगर तुम शादी करना चाहते हो तो ऐसी पत्नी लेकर आना जिसे दोपहर में दो बजे कहो कि लालटेन जलाकर लाओ तो वह यह न पूछे कि सूरज की रोशनी में लालटेन का क्या करोगे? साधु बनना हो तो उस साधु की तरह बनो जहाँ मन में प्रश्न न उठे कि बार-बार नीचे आने-जाने की तकलीफ क्यों दी जा रही है! यदि शादी करो तो पत्नी के मन में दिन में भी लालटेन मांगने के बाद प्रश्न न उठे कि लालटेन क्यों मांगी जा रही जीवन जीने की स्पष्टत: दो व्यवस्थाएँ हैं और दोनों ही बेहतरीन हैं बशर्ते उन्हें बेहतरीन तरीके से जिया जाए, मर्यादित रूप में जिया जाए। जीवन जीने का पहला मार्ग गृहस्थ और दूसरा संन्यास है। साधुत्व और संसार ये दोनों जीवन जीने के दो मार्ग हैं। एक ओर संसार की और दूसरी ओर संन्यास की धारा है। मैं दोनों की तुलना नहीं करूँगा क्योंकि दोनों ही अपने आप में अच्छी हैं। हम एक को हीन और दूसरे को श्रेष्ठ नहीं कह सकते । संसार में भी व्यक्ति नियम, मर्यादा और विवेक के साथ जीता है तो संसार भी श्रेष्ठ और संन्यास को अगर 104 For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर्यादित, अविवेकपूर्वक जिया जाए तो संन्यास भी त्याज्य है। सफेद कपड़े या काली पैंट, सफेद साड़ी या लाल साड़ी, उपाश्रय या घर महत्वपूर्ण नहीं हैं, महत्वपूर्ण यह है कि कौन किस तरीके से जी रहा है ? कुछ गृहस्थ अपने जीवन को इतना निर्मल और पवित्र रूप से जीते हैं कि वे संत जीवन से भी श्रेष्ठतर जीवन जी जाते हैं । कुछ गृहस्थ संत से भी ज्यादा पवित्र जीवन जी लिया करते हैं और कुछ साधु ऐसे होते हैं जो गृहस्थ से भी निकृष्ट जीवन जीते हैं। आप गृहस्थी बसाकर घर में रहते हैं या संन्यास लेकर जंगल में चले गए है, पत्नी के साथ रहते हैं या पत्नी से विरक्त हो गए हैं, यह खास बात नहीं है । खात बात यह है कि आप अपना जीवन कितनी मर्यादा और संयम से जी रहे हैं । मर्यादा : बंधन नहीं, शैली है मर्यादा जीवन का बंधन नहीं है अपितु निर्मल और व्यवस्थित रूप से जीवन जीने की शैली है। मर्यादा चाहे गृहस्थ की हो या संत की, चपरासी की हो या अधिकारी की, नेता की या प्रजा की, हर व्यक्ति तभी शोभा पाता है जब वह अपनी मर्यादाओं में जीता है। वह शोभाहीन हो जाता है जो अपने जीवन की मर्यादाओं को त्याग देता है। हमारा अतीत हमारे जीवन का आदर्श रहा है। भारत के इतिहास में ऐसे गौरवमय पुरुष हुए हैं जिनका नाम लेने से हृदय गर्व से भर जाता है और मस्तक ऊँचा उठ जाता है। हमारा अतीत गौरवशाली रहा पर देखें कि वर्तमान कैसा है ? अतीत की गौरवमय गाथाओं को गाने के साथ उचित रहेगा कि हम अपना वर्तमान भी गौरवमय बनाने की कोशिश करें। प्राचीन समय में लोग मर्यादित जीवन जीने की कोशिश करते थे, लेकिन आज के समय में मैं देख रहा हूँ कि मर्यादाओं का हनन हो रहा है और उनका मखौल उड़ाया जाता है। हम खान-पान, रहन-सहन, बोलचाल और आर्थिक संसाधनों में जिस तरह से मर्यादाओं को तिलांजलि देते जा रहे हैं उससे लगता है कि हमारा जो अतीत गर्व के काबिल था, वर्तमान कहीं थूकने के लायक न रह जाए। आज को देखते हुए अतीत का गौरव स्वप्न प्रतीत होता है । हमारे कलुषित वर्तमान ने अतीत के गौरव को धूमिल कर दिया है। ढोंग नहीं, ढंग से जिएं मनुष्य के जीवन में हर कार्य की सीमा निर्धारित की जाए। महावीर की पूजा बहुत सरलता से की जा सकती है लेकिन उनके आदर्श और संदेशों को ईमानदारी से जीवन में जीना कठिन हैं। राम की पूजा करना सरल है लेकिन राम की मर्यादाओं को जीवन में जीना बहुत मुश्किल है। कृष्ण की पूजा तो कर सकते हैं लेकिन उनके कर्मयोग को जीना दुष्कर है। बुद्ध की पूजा तो सहजता से कर सकते हैं लेकिन उनकी करुणा को जीवन में जीना सहज नहीं है । हम महावीर को मानते हैं, पर महावीर की नहीं मानते। व्यक्ति अपनी व्यवहारकुशलता, चापलूसी और चालबाजी से जीवन को ढोंग से जीना तो सीख लेता है, पर ढंग से जीना नहीं सीख पाता। मर्यादा जीवन को ढोंग से जीना नहीं, अपितु ढंग से जीना है। मर्यादा जीवन को सलीके से, व्यवस्थित ढंग से जीने की शैली है । अमर्यादित जीवन से जीवन विद्रूप हो जाता है। समुद्र अगर अपनी मर्यादा लाँघेगा तो पृथ्वी का विनाश ही होगा और सीता अपनी मर्यादा में लक्ष्मणरेखा का उल्लंघन करेगी तो उसका अपहरण ही होगा । 105 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब-जब हम अपनी मर्यादाओं से बाहर गए हैं, जो अकरणीय था वह किया। जीवन का जो संयम था उसका अतिक्रमण किया तो संध्याकाल में इस अतिक्रमण की आलोचना लेते हैं - प्रतिक्रमण करते हैं। का अर्थ है वापस लौटना और अतिक्रमण है सीमा से बाहर चले जाना। जीवन जीने के लिए हमारी सामाजिक, धार्मिक व्यवस्थाएँ और मर्यादाएँ थीं लेकिन हमने उनका उल्लंघन किया और उल्लंघन से जब हम वापस लौटते हैं तो इस वापसी का नाम प्रतिक्रमण है। __ हमारा जीवन अगर निरंकुश, अमर्यादित, असंयमी और अविवेक से परिपूर्ण है तो हम दूसरे को कैसे जीत सकते हैं ? जो स्वयं को ही न जीत सका वह दूसरे को क्या जीतेगा? जिसने अपनी इन्द्रियों को, तृष्णाओं को, लालसाओं को नहीं जीता वह भला दूसरों को क्या जीतेगा? आप चुनाव में बेशक जीत जाएँ, युद्ध में भी भले ही विजय प्राप्त कर लें लेकिन स्वयं पर विजय पाना बेहद मुश्किल है। विजेता वह नहीं जिसने चुनाव जीत लिया, विजेता वह है जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया। हजारों योद्धाओं को परास्त कर जीतना भी कोई जीतना है अगर आप अपनी तृष्णाओं, वासनाओं, कामनाओं पर अंकुश लगाकर आत्म-विजेता न बन सकें । आत्मविजय ही सर्वोपरि विजय है। सीमाएँ सभी की मर्यादाएँ सन्त और गृहस्थ दोनों के लिए हैं। आप लोगों से क्षमा माँगते हुए मैं कहना चाहूँगा कि संत तो थोड़ी-बहुत मर्यादा पालन भी करते हैं लेकिन गृहस्थ जिस तरह से मर्यादाओं को यह कहकर तिलांजलि देता जा रहा है कि हम तो गृहस्थ हैं, हमारी कैसी सीमा, हम कुछ भी कर सकते हैं, सबको शर्मसार कर देता है। जितनी मर्यादाएँ साधु की हैं उतनी ही मर्यादाएँ श्रावक और गृहस्थी की भी हैं । जो साधु मर्यादित जीवन नहीं जीता, क्या आप उसे साधु कहेंगे? मैं पूछना चाहूँगा कि जो गृहस्थ मर्यादा में नहीं जीता, क्या उसे गृहस्थ या सुश्रावक कहा जाए? पर मैं देखा करता हूँ कि व्यक्ति की बुरी आदत है औरों पर अंगुली उठाना, दूसरों पर तोहमत लगाना। दूसरा अगर जरा-सी भी मर्यादा भंग करता है तो व्यक्ति उस पर टिप्पणी करता है लेकिन स्वयं के अमर्यादित आचरण को नजरअंदाज कर देता है। पड़ौसी की बेटी जरा भी मर्यादा का उल्लंघन करे तो हम उसे चर्चा में ले आते हैं और हमारी बेटी कहाँ आ-जा रही है इसकी खबर ही नहीं रख पाते। औरों के ऊपर टिप्पणी करने की आदत, दूसरों की नुक्ताचीनी करने की आदत, औरों की ग़लतियाँ निकालने की आदत में हमें पता नहीं चलता कि हम अपनी ही कमियों पर टिप्पणी कर रहे हैं। जब हम दूसरों पर एक अंगुली उठाते हैं तो तीन अंगुलियाँ हमारी ओर ही मुड़ी होती हैं। हाँ, अगर हम उसकी अच्छाइयों की ओर अंगुली उठाते हैं तब यही प्रकट होता है कि जितना वह अच्छा है उससे 75 प्रतिशत हम भी अच्छे हैं क्योंकि तब भी तीन अंगुलियाँ हमारी ओर रहती हैं। दूसरों पर टिप्पणी करना, अंगुली उठाना और उनकी ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगाना बहुत सरल होता है लेकिन स्वयं ईमानदारी से जीना बहुत मुश्किल होता है । तुम एक अधिकारी हो और कोई तुम्हें रिश्वत में मोटी रकम देना चाहता है, उस समय अगर तुम अपने मन पर संयम रखने में समर्थ हो सके तो तुम्हारे जीवन में साधुता है। __106 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप जंगल में अकेले चले जा रहे हैं और एक अकेली सुंदर युवती भी वहीं से जा रही है, ऐसे में अगर आप अपने मन और आँखों को संयम में रख सकें तो पक्का जानिए कि आप साधु हैं। आप दुकान पर बैठे हैं कि एक ग्रामीण-सा, भोलाभाला-सा व्यक्ति आपकी दुकान पर आया। उसने सामान खरीदा और सौ की जगह पाँच सौ का नोट आपको दे दिया, ऐसे में आपके अंदर लोभ की वृत्ति न जगे और आप यह सोचें कि यह गलत है। मैं बेईमानी का धन घर में नहीं ले जाऊँगा। आपने उसे चार सौ रुपए वापस लौटा दिये, यह आपकी साधुता है। जब तुम्हें सड़क पर पांच का नोट मिलता है तो तुम सबको दिखाकर पूछते हो कि यह नोट किसका है? तुम्हारी साधुता तो इसमें है कि जब तुम्हें पाँच सौ का भी नोट मिले तब भी तुम सबसे पूछो कि यह किसका नोट है ? हम ईमानदार तभी तक हैं जब तक बेईमानी का मौका न मिले । बेइमानी का मौका मिलते ही ईमानदारी गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाती है। और तो और ऐसी पत्नी भी खोजना मुश्किल है जिसने कभीन-कभी अपने पति के जेब में से चुपके से रुपये गायब न किये हों। करोड़पति की पत्नी भी क्यों न हो पर उसने कभी-न-कभी पति की जेब जरूर साफ की होगी।आप बताएं आप में से कौन व्यक्ति ऐसा है जिसने बचपन में अपने पिता की जेब या मम्मी के पर्स में चुपके से पैसे निकालकर टाफी न खायी, आइसक्रीम न खायी हो। शायद मैंने भी कभी-न-कभी बचपन में ऐसा किया ही होगा। जिन्होंने बड़ी चोरियाँ की वे उद्योगपति कहलाने लगे। जिन्होंने छोटी-मोटी चोरियां की वे छोटे व्यापारी बन गये और जिन्हें बेईमानी का मौका भी न मिला वे सब मजबूरी में ईमानदार बन गये और अपनी पीठ थप-थपाने लगे। हमारी ईमानदारी की हालत बड़ी दयनीय है। हमारी मर्यादाएं और मूल्य गिरते जा रहे हैं, न हम भ्रष्टाचार के भूत से डरते हैं और न ही चरित्रहीनता की चुडैल से। मेरी बात आपके मन का मनोरंजन कर देगी पर मैंने देखा, एक शहर में दीवार पर पोस्टर लगे थे, कांग्रेस को वोट दो, भाजपा को वोट दो, बसपा को वोट दो, इन्हीं चुनावी पोस्टरों के नीचे एक फिल्मी पोस्टर लगा था जिस पर लिखा था, हम सब चोर हैं। रूप-रंग से नहीं, अंग-अंग से बोले साधुता - साधुता का अर्थ केवल संन्यास में ही नहीं है। साधुता केवल वेश में नहीं अटकती हैं, साधुता स्थान से भी नहीं जुड़ती है, साधुता जीवन के अंग-अंग से बोले । जहाँ-जहाँ लोभ की वृत्ति जगे, काम-वासना की वृत्ति जगे, अहंकार का निमित्त मिले और क्रोध के विकारों का निमित्त मिले, वहाँ-वहाँ व्यक्ति अपने मन पर संयम रखता है तो गृहस्थ होकर भी साधु है। पति-पत्नी साथ जी रहे हैं तो भी उनके मन में संयम के प्रति श्रद्धा हो । फिसलने का मौका मिले तब भी तुम अडिग खड़े हो तो तुम साधु बनने के लायक हो । दांत टूटने के बाद अगर चने न खाने का नियम ले लिया तो कोई खास बात नहीं हुई। हाँ, दांत रहते हुए यदि किसी चीज के त्याग का नियम ले लिया तो वह त्याग कहलाता है। जब सामने निमित्त उपलब्ध हों, व्यवस्थाएँ मौजूद हों, इसके बावजूद यदि कोई अपना जीवन संयम और विवेकपूर्वक जीने का प्रयास करता है तो वह साधु है। पुराने जमाने में तो लोग गृहस्थ में भी पवित्रता और संयम को बरकरार रखते थे और आज तो शायद साधु भी उतनी निर्मलता से नहीं जी पाते होंगे। 107 For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने विजय और विजया के जीवनप्रसंग के बारे शायद सुना हो । एक कन्या किसी संत गुरु के पास खड़ी है और उनके वचनों से प्रभावित होकर नियम लेती है कि वह शुक्ल पक्ष की एकम से पूर्णिमा तक आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेगी। वहीं, कहीं दूसरी जगह एक युवक अन्य संत गुरु के सान्निध्य में संकल्प लेता है कि वह कृष्ण पक्ष की एकम से अमावस्या तक आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। विधाता का विधान, प्रकृति का संयोग कि दोनों का परस्पर विवाह हो गया। इधर पत्नी का व्रत कि वह शुक्ल पक्ष में शीलव्रत का पालन करेगी उधर पति का नियम कि वह कृष्ण पक्ष में नियम का पालन करेगा। जब दोनों को नियमों का पता चला तब पत्नी ने पति से कहा कि वह दूसरा विवाह कर ले। पति ने भी पत्नी को सलाह दी कि वह दूसरी शादी कर ले। लेकिन आज हम उन्हें नमन करते हैं क्योंकि दोनों साथ-साथ रहे पर, दोनों ने मिलकर आजीवन अपने नियम की रक्षा की और वे शील-शिरोमणि हो गए। निभाओ लिया नियम, दिया वचन लिया हुआ नियम और दिया हुआ वचन मरकर भी निभाने की कोशिश करो। मैं कहना चाहता हूँ कि आप सोचें और देखें कि आपके जीवन की क्या मर्यादा है ? आप देखें कि आप अपने जीवन में इन-इन बातों के प्रति ईमानदार हैं क्योंकि जिस शहर में आप जिस पद पर हैं वहाँ आपको कोई रिश्वत देने नहीं आ रहा है। आप इसलिए ईमानदार हैं कि कोई व्यक्ति आपको गलत धन देने के लिये तैयार नहीं है। बेईमानी का मौका मिले फिर भी आप जीवन में अपनी ईमानदारी को बरकरार रख सकें तभी पता चल सकेगा कि वाकई आप ईमानदार हैं। याद रखें, आप रिश्वत लेकर पत्नी के हाथों में हीरे की चूड़ियाँ पहना सकते हैं। आपके हाथों में इस जुल्म के कारण कभी हथकड़ियाँ आ गयी तो क्या करोगे। आज के युग में हरिश्चन्द्र की कथा वांचने की जरूरत नहीं है, जरूरत तो हरिश्चन्द्र के आदर्श को जीने की है। जीवन की मर्यादा लाओ, जीवन का बांध बनाओ, जीवन की सीमाएं बनाओ कि आप कहाँ, किस तरह उसे जीएंगे। जीवन को अनासक्तिपूर्वक जीने की व्यवस्था बनाई जाए। व्यक्ति संसार में रहे, संसार की धारा में रहे, संसार के साथ रहे लेकिन संसार के साथ बहे नहीं। उसके मन में संयम और मर्यादा के प्रति श्रद्धा हो। उसे विवेक रहे कि वह संसार में रहकर भी संसार की धारा में अनासक्त जीवन जीएगा। रात को देखे जाने वाले स्वप्न आँख खुलते ही टूट जाते हैं । दिन के स्वप्न भी तब टूट जाते हैं जब आँख बंद हो जाती है। सपनों के संसार में कैसी तृष्णा, वासना, विलासिता और कामना ! खंडों में भी अखंडता भारतीय परम्परा में जीवन जीने की व्यवस्था दी गई है। केवल अर्थोपार्जन की व्यवस्था नहीं, केवल कामसेवन की व्यवस्था नहीं, केवल दुनियादारी की व्यवस्था नहीं है बल्कि पूरे जीवन की व्यवस्था की गई है। जीवन का एक भाग शिक्षा-दीक्षा के लिए, दूसरा भाग धनोपार्जन, परिवार के पालन-पोषण और बच्चों की परवरिश के लिए, जीवन का तीसरे भाग घर में रहते हुए भी अनासक्त जीवन जीने के लिए और चौथा भाग मुक्ति और संन्यास के लिए है । इतिहास गवाह है कि जिन सम्राटों ने बुढ़ापे की दहलीज पर आकर अपनी इच्छा से 108 For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजसिंहासन का त्याग करके वनवास ग्रहण किया, उन्होंने अपने बुढ़ापे को सुखी किया और जिन्होंने सत्ता की लिप्सा के चलते राजसिंहासन का त्याग नहीं किया वे अपनी ही संतानों के द्वारा या तो मारे गए या उन्होंने नानाविध यंत्रणाएँ भोगी। जो बुढ़ापे की दहलीज पर पहुँचकर भी अपनी मुक्ति को साधने का प्रयास नहीं करता वह फिर कब मुक्ति का प्रयास करेगा? कहते हैं- राजा दशरथ आईने के सामने खड़े अपना चेहरा निहार रहे थे। उन्होंने देखा कि उनके सिर का एक बाल सफेद हो गया है। एक सफेद बाल को देखकर दशरथ की आत्मा आंदोलित हो गई। वे रनिवास में पहुँचे और बोले, 'आज के बाद संसार में मेरी कोई अनुरक्ति और आसक्ति नहीं रहेगी।' रानियाँ चौंक गई और बोली 'आज यह क्या हो गया? आपके मन में अचानक वैराग्य कैसे जग गया?' दशरथ ने कहा- 'देखो मेरे सिर का एक बाल सफेद हो गया है। अब जीवन को मुक्ति की ओर ले जाने की वेला आ गई है।' ___ दशरथ ने सिर में एक सफेद बाल देखा और वैराग्य जग गया। जरा आईने में आप अपना चेहरा देखें। कइयों के सारे बाल सफेद हो गए हैं, फिर भी वही आसक्ति और अनुरक्ति बनी हुई है। व्यक्ति स्वयं को पकड़े, स्वयं में उतरे, स्वयं में जीए। बाहर की आसक्ति और अनुरक्ति के बजाय व्यक्ति स्वयं में उतरकर जीए। यह सारा संसार, यह सारी दुनिया बनी-बनायी बंधन की माया है। व्यक्ति ने स्वयं बंधन बाँधे हैं और स्वयं ही आसक्त हो रहा है। कोई किसी को बाँधता नहीं है, हम ही जानबूझकर बँधे और जुड़े हैं। रिजर्वेशन कुछ पल का आपको किसी गंतव्य स्थान पर जाना है और आपने रिजर्वेशन करा रखा है। नियत समय पर आप स्टेशन पहुँचे, ट्रेन में सवार हुए पर डिब्बे में आपने देखा कि आपकी रिजर्व सीट पर कोई दूसरा बैठा हुआ है। आप उससे कहते हैं, 'उठो भाई, यह मेरी सीट है।' वह भोला-भाला आदमी दूसरी जगह पर बैठ जाता है। आप अपने गंतव्य पर पहुँचकर उतरने लगते हैं कि तभी पीछे से आवाज आती है, 'रुको!' आप पीछे मुड़कर देखते हैं कि यह वही व्यक्ति है जिसे आपने सीट से उठाया था। आप पूछते हैं - 'क्यों?' वह कहता है, 'अपनी सीट तो लेते जाओ, तुम कह रहे थे ना, कि यह सीट मेरी है।' याद रखें जिंदगी में की गई सारी व्यवस्थाएँ रिजर्वेशन की तरह हैं, किसी का आठ घंटे का रिजर्वेशन और किसी का चौबीस घंटे का। कुछ महीने और कुछ वर्षों के रिजर्वेशन पर हम चल रहे हैं। मालूम है, जिस ट्रेन में बैठे हो वह छोड़नी है, जिस डिब्बे में बैठे हो उसमें से उतरना है और जिस सीट पर बैठे हो उसके मोह का त्याग करना है, फिर आसक्ति कैसी? चलती चक्की देख कर दिया कबीर रोय। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ॥ संसार की चक्की में हर कोई पिसता जा रहा है। आप जानते हैं कि चक्की में भी कुछ गेहूं के दाने बिना पीसे रह जाते हैं। आखिर क्यों? क्योंकि वे कील के आसपास रह जाते हैं। इसी तरह जिसने संयम, मर्यादा, विवेक की कील का सहारा पकड़ा है, वे संसार की चक्की में पिसकर भी अखंड रहते हैं बाकी तो गये चक्की में __109 For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और आटा बन गए पिसकर। आइए, अब हम देखते हैं हमारे जीवन की क्या मर्यादा है, जिन्हें हम सरलता से जी सकते हैं । एक तो वह होता है जो दिन भर राम-राम जपता है और दूसरा वह है जो राम की मर्यादाओं को जीता है। जब तुम राम से पूछोगे कि इन दोनों में से कौन उन्हें प्रिय है तो निःसंदेह वे मर्यादाओं को जीने वाले का ही नाम लेंगे। महावीर की पूजा करने वाला महावीर को कितना पाएगा पता नहीं, लेकिन उनके आदर्श और नैतिक नियमों को जीने वाला महावीर के पास ही रहता है। जानें कम, जिएं ज्यादा मर्यादाओं से जुड़ी जीवन की बातें प्रायः हर व्यक्ति जानता है। वह जानता है कि क्या अपनाया जाना चाहिए और क्या छोड़ा जाना चाहिए, लेकिन प्रमाद या आदतवश हम अपने संयम और विवेक को नजरअंदाज करते रहते हैं। सभी जानते हैं कि दूसरे को नहीं सताना चाहिए। रिश्वत नहीं लेना चाहिए और गलत दृष्टि नहीं डालनी चाहिए। बुरे काम करने वाले भी जानते हैं कि ये काम नहीं करने चाहिए, फिर भी वह जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करता है। इसलिए मैं निवेदन कर रहा हूँ कि जानबूझकर अनजान बनने की बजाय ज्ञात सत्य को जीवन में जीने का प्रयास करना चाहिए। हमें इस बात की खुशी नहीं है कि यहाँ इतने हजार आदमी सत्संग सुन रहे हैं । सत्संग को सुनकर लोगों का जीवन बदल रहा है, जीवनशैली बदल रही है। व्यक्ति किसी भी गलत काम को करने से पहले एक बार सोच रहा है। ___ व्यक्ति एक बार भीतर का स्नान करे, गंगा को उतारने जैसा अपने भीतर भागीरथी प्रयास करे ताकि वह अपने अन्तर्मन को भी निर्मल व पवित्र कर सके। अंदर उतरें, करें रूपांतरण हजारों हजार संतों को सनने का क्या लाभ अगर जीवन में रूपांतरण घटित न हो! मझे याद है. एक बढे बुजुर्ग रोज किसी संत के सत्संग में जाया करते थे, भले ही वहाँ जाकर वे झपकियाँ ही लेते हों, पर सत्संग में जाते रोज थे। उनकी इच्छा थी कि उनका बेटा भी उनके साथ सत्संग में चला करे। वे रोज अपने बेटे से आग्रह करते और कहते 'बेटे, एक बार तो चलो, वहाँ देखो तो हजारों लोग आते हैं । एक दिन तो प्रवचन सुनने चलो।' पिता के बहत आग्रह करने पर अन्तत: एक दिन बेटा चला ही आया। वहाँ उसने संत की वाणी सुनी। दया, करुणा, प्रेम पर संत उद्बोधन दे रहे थे। वे समझा रहे थे कि कोई घर के दरवाजे पर आ जाए तो उसे भूखा मत लौटाओ, भोजन दे दो, कुछ खाने को दे दो। इस तरह वे दया-दान की बातें बता रहे थे। उस युवक ने सब सुना। अगले दिन की बात है। बेटा दुकान पर बैठा था और दादाजी सत्संग सुनने चले गए थे। जब वे सत्संग से दुकान की ओर लौटे तो देखा कि बेटा दुकान में बैठा है और बाहर जवार की बोरी खुली रखी है जिसको गाय बड़े मजे से खा रही थी। इतने में पिताजी पहुँचे और चिल्लाने लगे, 'अरे बुद्ध, तू देखता नहीं है, बाहर गाय धान खा रही है और तू आराम से बैठा है। उसने कहा - 'पिताजी, कल ही तो संतप्रवर ने कहा था कि घर पर कोई भूखा, दीन-दु:खी आ जाए तो उसे भोजन देना चाहिए। ठीक है, दस रुपये का धान खा भी लेगी 110 For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो क्या फर्क पड़ेगा? पिताजी ने कहा - 'अरे बेटा, एक दिन प्रवचन सुनने गया उसमें यह हालत ! अरे, तू इसी तरह करता रहा तो हमारा दिवाला ही निकल जाएगा।ये संतों की बातें सुनने के लिये होती हैं, जीने के लिये नहीं। अगर तेरी तरह मैं भी संतों की बातों को जीवन में लागू करना शुरू कर देता तो अभी तक कहाँ पहुँच जाता! व्यक्ति मनोविनोद के लिये सुनना पसंद करता है। वह अपने मन के रूपान्तरण के लिये सुनना कहाँ पसंद करता है ! मैं जो जीवन की मर्यादाओं की बातें कह रहा हूँ वे मनोविनोद के लिये न हों, मन के रूपान्तरण के लिए हों, जीवन को बदलने के लिए हों। करें वरण, निर्मल आचरण ___मर्यादा के सम्बन्ध में जो पहली बात कह रहा हूँ वह है – 'आचरण की मर्यादा।' व्यक्ति का आचरण निर्मल होना चाहिए। अपना आचरण ऐसा रखो कि तुम्हें तो गर्व हो ही तुम्हारी आने वाली पीढ़ी भी गर्वोन्नत हो सके। अपने द्वारा ऐसा आचरण कभी न करो कि तुम्हें भी मुँह छुपाना पड़े और तुम्हारी संतानों को भी औरों के सामने शर्मिन्दा होना पड़े। ऐसा काम कभी न करो जिसे करते वक्त तुम्हारी अन्तरात्मा तुम्हें कहे कि यह काम मत करो। आचरण की मर्यादा हो कि इस सीमा से उस सीमा तक जीवन जीएंगे। प्रभावना नैतिक आचरण की आचरण की मर्यादा में पहली है - 'रहन-सहन की मर्यादा।' जरा देख लें कि पहनावा कहीं ज्यादा भड़काऊ तो नहीं हो रहा है। कहीं पहनावा ऐसा तो नहीं है कि आपका पहनावा ही आपके प्रति गलत नजरिया बना रहा हो। फैशन के नाम पर आजकल पहनावा इतना बिगड़ गया है कि पूछिये मत। हम पाश्चात्य जगत से केवल उनका पहनावा सीख रहे हैं। लेकिन उनके ईमान और सत्य को नहीं सीख रहे हैं । जो सीख रहे हैं उससे देश गर्त में जा रहा है। छोटे नगर और शहर छोड़ भी दिये जाएँ तो महानगरों का पहनावा इतना विकृत हो गया है कि वहाँ के लोग वस्त्रों के नाम पर टुकड़े लपेटे हुए नजर आते हैं। ऊपर के कपड़े नीचे आ रहे हैं और नीचे के कपड़े ऊपर चढ़ते जा रहे हैं। आपके अपने शौक हो सकते हैं, इच्छाएँ और भावनाएँ भी हो सकती हैं लेकिन हर परिवार और समाज की भी अपनी मर्यादाएं होती हैं। अपने शौक, फैशन और इच्छाओं के पीछे घर की मर्यादाओं को नहीं तोड़ा जाना चाहिए। अगर आप तीव्र गति से कार चला रहे हैं और सामने से कोई गुजर रहा है। तभी कार के ब्रेक फेल हो जाएँ तो गंभीर दुर्घटना हो सकती है। आपके अमर्यादित ढंग से कार चलाने के कारण किसी की जान भी जा सकती है। इसी तरह अमर्यादित आचरण के साथ अगर आप अपने जीवन को जी रहे हैं तो जानबूझकर अपने को बिगाड़ रहे हैं, मटियामेट कर रहे हैं। हमारे यहाँ एक शब्द आता है प्रभावना' - क्या अर्थ है इसका? रुपये-पैसे, नारियल, लड्डू या अन्य कोई भी वस्त बांट देना प्रभावना नहीं है। वास्तविक प्रभावना वह है जहाँ व्यक्ति हमारे अच्छे चाल-चलन, आचार-विचार और व्यवहार से प्रभावित हो जाए। दूसरा व्यक्ति तुम्हारे निर्मल आचरण को देखकर खुद भी निर्मल आचरण से जीने का संकल्प करे - यह है प्रभावना - नैतिक आचरण की प्रभावना। कहकर करवाने की 111 For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजाय स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करें कि दूसरे भी स्वप्रेरणा से बेहतर आचरण करने लगें। भाषा में सुई हो, मगर धागे वाली दूसरी मर्यादा है भाषा की।अगर आप ठीक ढंग से, सलीके से अपनी बात नहीं कह सकते हैं तो कृपया चुप रहिए। एक व्यक्ति चार वर्ष की उम्र से ही बोलना सीख जाता है लेकिन वही चालीस साल तक बोलकर भी चुप रहना नहीं सीख पाता। चार घंटे लगातार बोलना सरल होता है पर चालीस मिनिट मौन रहना बहुत कठिन लगता है। बोलना अगर चाँदी है तो चुप रहना सोना है। हमारे यहाँ पांच समितियों का जिक्र आता है जिसमें एक है भाषा समिति। अपनी वाणी का विवेकपूर्वक उपयोग करना भी धर्म है। अगर आप अविवेक से गाली-गलौज के साथ भाषा का प्रयोग करते हैं, भले ही आप सामायिक-पूजा ही क्यों न करते हों, पर यह अधर्म है। हाँ, अगर आप विवेकपूर्वक, सलीके से भाषा का उच्चारण कर रहे हैं, वाणी का प्रयोग कर रहे हैं तो यह भी धर्म है। वाणी में सूई भले ही रखें पर उसमें धागा डालकर रखो ताकि सुई केवल छेद ही न करे, वह आपसे दूसरे को जोड़कर भी रखे। कब, कहाँ बोलना, कितना बोलना इसका भी आपको विवेक हो। ___ महाभारत का युद्ध न तो दुःशासन, न दुर्योधन, न भीष्म, न धृतराष्ट्र और न ही युधिष्ठिर के कारण लड़ा गया बल्कि भाषा समिति का उपयोग न करने के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। द्रौपदी ने दुर्योधन से कहा था कि अंधे के बच्चे अंधे ही होते हैं तो इतनी सी बात ने दुर्योधन के मन को बिगाड़ दिया और उसका परिणाम द्रौपदी के चीरहरण में बदल गया। अपनी भाषा पर अंकुश रखें। ज्यादा बोलने से न बोलना ही अच्छा होता है। ज्यादा बोलने वाला कभी फँस भी सकता है, लेकिन कम बोलने वाला कई उलझनों से बचा रहता है। ज्यादा बोलने वाले को 'सॉरी' भी कहना पड़ता है लेकिन कम बोलने वाले को ऐसी स्थिति में ही नहीं आना पड़ता। जब जरूरत हो तब अपनी वाणी का उपयोग करें अन्यथा मौन रहना सर्वाधिक लाभकारी है। किसी से बात करें तो मजाक उड़ाते हुए नहीं करें बल्कि सलीके के साथ, सभ्यता, विवेक और शिष्टता के साथ। हमारी भाषा शिष्ट, इष्ट और मिष्ट हो। भाषा पवित्र और निर्मल हो। व्यंग्यात्मकता से दूर रहने वाली हमारी भाषा सरल और सहज हो। कटाक्ष नहीं, मिठास हो __ अक्सर ऐसा होता है कि हम अनायास किसी अवसर पर बिना सोचे-समझे कुछ बोल देते हैं, जिस पर बाद में हमें आत्म-ग्लानि होती है और पछताने के सिवा कुछ नहीं रह जाता। हमारी यह कोशिश रहनी चाहिये कि हमारे संवाद ऐसे हों जो दूसरों को चोट न पहुँचाएं। कटाक्ष की बजाय संयम की भाषा का प्रयोग करें। अगर विपरीत वातावरण में थोड़ा-सा मौन रहने का अभ्यास रखें, तो आपके हित में होगा।मौन रहना दुष्कर तो है, पर यह एक तरह की दैवीय अनुभूति देता है। खान-पान की मर्यादा तीसरी मर्यादा है। कब कितना खाना, आप इसका भी विवेक रखें। जितनी भूख 112 For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो उससे कम खाएँ लेकिन यह भी देखें कि क्या खा रहे हैं ? विवेक रखें कि कितनी सीमा तक खाना है ? एक, दो, तीन, चार या और अधिक कितनी बार? या दिन भर ही मुँह चल रहा है। नियम से खायें - सुबह हल्का नाश्ता लें, दोपहर में खाना खाएँ फिर एक बार और हल्का-फुल्का नाश्ता कर सकते हैं और अंत में शाम को खाना लें। मेरे खयाल से इतना पर्याप्त है। अगर आप दिन में चार ही बार खाने की मर्यादा रखेंगे तो सड़क पर चलते हुए समोसे की गंध आपको ललचायेगी नहीं। माना कि मिठाई मुफ्त की है लेकिन पेट तो आपका अपना है। कैदी हैं या नेता? इन्द्रियों का उपयोग करो, लेकिन संयमपूर्वक। यह देख लो कि तुम इन्द्रियों के अनुसार चलते हो या इन्द्रियाँ तुम्हारे अनुसार चल रही हैं। मुझे याद है - एक व्यक्ति के आस-पास पांच पुलिसवाले चल रहे थे। किसी बच्चे ने यह दृश्य देखकर अपने पिता से पूछा, 'पिताजी, यह आदमी जो पुलिस वालों के साथ जा रहा है, यह कौन है ?' पिता ने कहा - 'यह नेता है।''तो नेता वह होता है जिसके साथ पांच पुलिस वाले होते हैं,' बच्चे ने कहा, 'ठीक है,' बच्चा समझ गया। थोड़ी देर बाद बच्चे ने देखा कि एक अन्य आदमी के साथ भी पांच पुलिस वाले चल रहे थे। बच्चे ने पिता से पूछा, 'क्या यह भी नेता है?' पिता ने कहा, 'नहीं, यह नेता नहीं है, यह तो चोर है चोर ।'समझ गया जिनके साथ पांच पलिस वाले होते हैं वे चोर होते हैं बच्चे ने कहा, 'पर मैं यह बात नहीं समझ सका कि पहले वाला नेता और यह दसरा चोर कैसे हआ?' तब पिता ने कहा, 'यही तो जीवन है। पहले वाले की सेवा में उसके अधीन पांच पुलिस वाले चल रहे थे और यह दूसरा वाला पुलिस के अधीन चल रहा था।' आप देख लें कि ईश्वर ने आपको भी पांच पुलिस वाले दिये हैं । कान, नाक, आँख, जीभ और स्पर्श का सुख ये पांच पुलिस वाले हैं। अगर आप इनके अधीन चल रहे हैं तो आप इनके गुलाम हैं और ये पांच आपके अधीन हैं तो आप नेता हो जाएंगे। अब आप पर निर्भर है कि आप क्या होना चाहते हैं, कैदी या नेता? जीभ का संयम न रखने के कारण मछली कांटे में फंसती है । आँख का संयम न रख पाने के कारण पतंगा दीपक में जल कर मरता है। शरीर पर संयम न रख पाने के कारण हाथी गड्ढे में जाकर गिरता है। नाक का संयम न रख पाने के कारण भंवरा फूल में बंद होने को मजबूर होता है और कान का संयम न रख पाने के कारण हिरण जाल में फँस जाया करता है। ये एक-एक प्राणी एक-एक इन्द्रिय के असंयम से फँसते हैं लेकिन जो मनुष्य पांचों ही इन्द्रियों में उलझा हुआ है, उसका क्या हाल होगा? __ प्रत्येक मानव को चाहिये कि वह अपनी इन्द्रियों पर मर्यादा का अंकुश अवश्य रखे। हम खाएं, पीएं, उठे बैठें, चले फिरें कुछ भी करें पर संयम की मर्यादा का साथ रहना श्रेष्ठ है। खाओ पिओ छको मत, बोलो चालो बको मत, देखो भालो तको मत और चालो फिरो थको मत। ___ संयम की मर्यादा बंधन नहीं अपितु निर्मल और व्यवस्थित जीने की शैली है। निरंकुश जीवन व्यर्थ है। मर्यादा चाहे राम के युग में हो या आज, इसे जो भी जिये मर्यादा पुरुषोत्तम वही है। 113 For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसे बनाएं अपना मित्र स्वार्थी मित्र हमारे साये की तरह होते हैं, जो सुख की धूप में साथ चलते हैं, परन्तु संकट के अंधेरे में साथ छोड़ देते हैं। जीवन में तीन चीजें व्यक्ति को नसीब से मिला करती हैं। अच्छी पत्नी, अच्छी संतान और अच्छा मित्र। हकीकत तो यह है कि पत्नी और संतान से भी ज्यादा अच्छे नसीब होने पर अच्छा मित्र मिलता है। पत्नी अच्छी या बुरी मिली है तो इसमें सारा श्रेय या सारा दोष हमारा नहीं है। पत्नी का चयन परिवार के द्वारा किया गया था। उसके चयन में शायद उतनी बड़ी भूमिका तुम्हारी नहीं थी, जितनी कि तुम्हारे माता-पिता की थी। संतान प्रकृति की देन है । वह अच्छी निकलेगी या बुरी इसमें भी हमारा शत-प्रतिशत हाथ नहीं होता है, लेकिन मित्रों का चयन व्यक्ति स्वयं करता है। इसलिए अपने विवेक, अपनी प्रज्ञा, बुद्धि और सजगता का उपयोग करता है। पत्नी और संतान के चयन में किसी और की भूमिका रह सकती है लेकिन मित्रों का चयन तो हमने स्वयं किया है और मित्र वैसे ही होते हैं जैसे हमारा व्यक्तित्व होता है, जैसे हमारे विचार होते हैं, हमारी सोच होती है। मित्र तो ढाई अक्षर का वह रत्न है, जिसकी महिमा में दुनियाभर के शब्द भी कम पड़ेंगे। जैसे मित्र, वैसा चरित्र हम अगर किसी की खामियाँ या खूबियाँ, उसका व्यक्तित्व या उसकी निजी जिंदगी को जांचना और परखना चाहते हैं तो न उसके परिवार से पूछे, न ही पड़ौसियों से केवल इतना-सा पता लगा लें कि उसके मित्र कैसे हैं ! जैसे व्यक्ति के मित्र होते हैं, परिचित होते हैं, जिन लोगों के साथ उसकी संगति होती है, मानकर चलें कि वह व्यक्ति लगभग वैसा ही होता है। पति या पत्नी के चयन में रखी गई सावधानी यदि जीवन को 60 प्रतिशत दुःखों से बचा सकती है तो मित्रों के चयन में उससे भी अधिक सावधानी रखकर जीवन के अस्सी प्रतिशत गलत कार्यों से स्वयं को बचाया जा सकता है। लडकी की शादी करते समय हम ध्यान रखते हैं कि वर में कौन-कौनसी योग्यताएँ हों और जब बहु को लेकर आना है तो पता करते हैं कि लड़की का स्वभाव कैसा है। जितनी सावधानी पति और पत्नी के चयन में रखी जानी चाहिए, मित्रों के चयन में उससे अधिक सावधानी रखें। 114 For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौम्य स्वभाव की पत्नी न मिली तो वह तुम्हारे जीवन को दुःख से भर देगी, लेकिन गलत स्वभाव का मित्र मिल गया तो वह तुम्हारी सात पीढ़ियों को दुःखी कर देगा। गुस्सैल या गलत स्वभाव वाला पति मिल गया तो वह तुम्हारे जीवन को दुःखी करेगा लेकिन गलत आदत वाला मित्र मिल गया तो पूरे परिवार को ही दुःखी और पीड़ित कर देगा। व्यक्ति जैसा स्वयं होता है वैसा ही अपने मित्रों का चयन करता है। अथवा इसे यों भी समझ सकते हैं कि व्यक्ति के जैसे मित्र होते हैं वैसा ही वह स्वयं बन जाता है। व्यक्ति का जैसा नज़रिया और स्तर होता है, मित्र वैसा ही होता है। क्षणिक परिचय मित्रता नहीं व्यक्ति की जैसी सोच, मानसिकता, चयन-दृष्टि होती है वह वैसे ही मित्र बनाता है। आदमी को पता नहीं है कि वह किस तरह के दोस्त चाहता है, उसमें कौनसी खासियत होनी चाहिए। बस, कहीं मिले थे, बचपन में स्कूल में पढ़ते थे, या ट्रेन में सफर करते हुए मिले थे या फिल्म देखने जा रहे थे तब मिले थे, या सत्संग में जाते हए मिल गए धीरे-धीरे परिचय बढा, हमने अपना विजिटिंग कार्ड उसे दिया, उसने अपना विजिटिंग कार्ड हमें दिया। मेल-मिलाप बढ़ा। इस तरह के मेल-मिलाप से मित्रता बढ़नी शुरू हो गई। न हम जांच-पड़ताल कर पाए कि सामने वाला व्यक्ति कैसा है और न ही वह जाँच-परख पाया कि हम कैसे हैं ? ___मैत्री-भाव सबके साथ रखा जाना चाहिए। जीवन में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना सबके साथ रखनी चाहिए। मैत्री-भाव का जितना विस्तार हो, अच्छी बात है लेकिन निजी मित्रता बहुत सजगता और सावधानी के साथ हो क्योंकि हमारा मित्र हमारा प्रतिरूप हमारा सहचर होता है। वह जीवन के साथ जुड़ा रहता है। व्यक्ति सर्वाधिक मित्रों से प्रभावित होता है, माँ और पत्नी की बात कभी टाल भी सकता है, पर मित्र की बात नहीं टाल पाता। इसलिए भूलकर भी कोई ऐसा व्यक्ति हमारा प्रतिरूप न बन जाए, हमारा निकटवर्ती न बन जाए जो किन्हीं गलत मार्गों पर चल रहा हो या गलत आदतों का शिकार हो। अपनी संतान को इस बात का विवेक अवश्य दें कि वह जीवन में सबके साथ मैत्रीभाव, प्रेम और दया रखे, लेकिन जिसे वह अपना मित्र, सखा, सहचर या जीवन का अंग कह सके उसके लिए ऐसे व्यक्ति का चयन करना है, जिससे तुम भी गौरवान्वित हो, तुम्हारे जीवन का भी विकास हो और तुम्हारे जीवन में अच्छे संस्कारों की शुरुआत भी हो। मित्र में दाग़, तुरंत दें त्याग आपका कोई ऐसा परम मित्र होगा जो बचपन से ही आपके साथ रहा है, आप लोग स्कूल एक साथ गए हैं, कॉलेज में भी एक साथ पढ़े हैं, एक ही साइकिल या स्कूटर पर बैठकर आए गए हैं, लेकिन जिस दिन आपको खबर लगे कि आपका घनिष्ठतम मित्र भी किसी गलत सोहबत में पड़कर, गलत आदतों और गलत संस्कारों की गिरफ्त में आ गया है तो उन गलत बातों को नजरअंदाज न करें। अपने मित्र को समझाने की कोशिश करें, उसे सही रास्ते पर चलने की फरियाद करें। तब भी अगर आप महसूस करें कि आपका मित्र गलत आदतों का त्याग करने के लिए तैयार नहीं है तो आपके हित में है कि आप अपने उस घनिष्ठ मित्र का भी त्याग कर दें। उसकी कुटेव को नज़रअंदाज़ न करते हुए आप उसे ही छोड़ दें। मित्र वह नहीं जो हाँ में हाँ मिलाये। सच्चा मित्र वही है 115 For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो हित में हाँ मिलाये। अगर आपके जीवन में गलत आदत है तो खोजिए कि ऐसा किस कारण है, व्यक्ति जन्म से न तो सभ्य होता ड। अगर व्यक्ति सभ्य है तो जरूर ही उसके आसपास के लोग जिनके बीच वह जी रहा है वे भी सभ्य हैं । व्यक्ति के जीवन में असभ्यता और फूहड़पन है तो जान लें कि वह असभ्य और फूहड़ लोगों के बीच जीया है। अगर आपकी आदत सिगरेट पीने की, गुटखा चबाने की, शराब पीने की है या और कोई बुरी आदत हो तो उस पहले दिन को याद करें कि यह आदत आपमें कहाँ से और कैसे आई। ये गलत आदतें, गलत संस्कार या दुर्व्यसन हमारी जिंदगी में कहाँ से आए। तब आपको पता चलेगा कि कहीं न कहीं किसी गलत व्यक्ति का साथ रहा होगा और आपको पता ही न चला और कुछ ही दिनों में उसने एक गलत संस्कार आपकी जिंदगी में छोड़ दिया। काम पड़ने पर जब आप सजग हुए तो आपने उस आदमी को तो छोड़ दिया लेकिन वह छूटा हुआ आदमी गलत संस्कार आपके जीवन में छोड़ गया। इसलिए सदैव सजग और सावधान रहें कि आप किन लोगों के बीच हैं और आपका पुत्र किन लोगों के बीच है। मित्र घर के बाहर भले जब आप यह ध्यान रखते हैं कि आपका बच्चा स्कूल में क्या पढ़ाई कर रहा है, कितने अंक ला रहा है, तब इस बात के लिए भी सजग रहें कि वह किन्हें अपना मित्र बना रहा है। अगर आपके पुत्र के दोस्त आपके घर पर आ रहे हैं तो इस बात की सावधानी रखें कि वे कौन हैं। अपने पुत्र को बताते रहें कि मित्र स्कूल के होते हैं, बाजार के होते हैं, व्यापार के होते हैं, लेकिन उनके पाँव घर तक नहीं पहुँचने चाहिए। अगर आपका पुत्र जवान हो चुका है, उसके मित्र घर पर आ रहे हैं और घर के सदस्यों से निकटता बना रहे हैं तो आपके घर में कोई अनहोनी हो सकती है। पुत्र के दोस्त बाहर तक रहें तो ज्यादा अच्छा है, जिस दिन पुत्र के दोस्त घर तक पहुँच गए, जान लें कि अब आपकी बहु-बेटी सुरक्षित नहीं रहेगी। मित्र बनाएं लेकिन एक सीमा तक। दोस्तों की भीड़ इकट्ठी न करें। कुछ लोगों की आदत होती है अपने परिचयों को बढ़ाने की। मेरे यह भी परिचित, वह भी परिचित हैं, थोड़ी सी बात चलाओ तो तुरंत कहेंगे हाँ, हाँ वह तो मेरा परिचित है, खास दोस्त है। न तो राह चलते आदमी का विजिटिंग कार्ड लो और न ही हर किसी को अपना विजिटिंग कार्ड दो। ज्यादा परिचयों को बढ़ाना अच्छी बात नहीं है। अगर आपके ढेर सारे मित्र हैं तो मानकर चलें कि आपका एक भी मित्र नहीं है। बुरे वक्त में सारे मित्र यही सोचेंगे कि अगर हम काम नहीं आए तो क्या और भी मित्र तो हैं । जैसे जिंदगी में पति या पत्नी एक होती हैं, संतानें दो-चार होती हैं, माता-पिता एक होते हैं वैसे ही जीवन में मित्र भी दो-चार से ज्यादा नहीं होने चाहिए। मैत्री-भाव सबके साथ रखो, प्रेम की भावना भी सबसे रखो, लेकिन जिन्हें अपना मित्र मानते हैं, उनके प्रति बहुत सजग रहें । हम कहते हैं 'मित्ती मे सव्व भूएसु' यह प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव की सोच है, लेकिन निजी मित्र सावधानी से बनाएँ। व्यक्ति के जीवन में संगत का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति को जैसी सोहबत और निकटता मिलती है, वह धीरे-धीरे वैसा ही होता जाता है। अगर आप चरित्रवान लोगों के बीच जीते हैं तो आप चरित्रशील होंगे। अगर 116 For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप सेवाभावी लोगों के बीच रहते हैं तो आपके भीतर सेवा की भावना पैदा होगी। अगर आप सुसंस्कारित लोगों के बीच रह रहे हैं तो आपके भीतर सुसंस्कार आएंगे। अगर आप दूध की दुकान पर खड़े होकर शराब पिओगे तो लोग समझेंगे दूध पी रहे हो और शराब की दुकान पर खड़े होकर दूध भी पिओगे तो लोग यही समझेंगे कि शराब पी रहे हो। जिन लोगों के बीच, जिनके साथ तुम जी रहे हो। तुम वैसे ही बनोगे, लोगों का दृष्टिकोण भी तुम्हारे प्रति वैसा ही बनता जाएगा। संकट : मित्रता की कसौटी तुलसीदास जी ने कहा था 'धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपतकाल परखिए चारी।' हरेक व्यक्ति को लगता है कि उसमें बहुत धैर्य है, वह धर्मात्मा भी है, उसकी पत्नी सन्नारी है और मित्र का सहयोग भी अच्छा है, लेकिन इन चारों की परख किसी विपत्ति, आपदा या संकट के समय ही होती है। विपरीत वातावरण में भी जब तुम अपने धीरज को बरकरार रख सको, तभी तुम धैर्यवान कहला सकोगे। यूं तो हर कोई धार्मिक है लेकिन जब भी मन को प्रलोभन, वासना का निमित्त, स्वार्थ की पूर्ति का साधन मिलता है तो वह विचलित हो जाता है। इन विपरीत वेलाओं में भी जो अपने धर्म को स्थिर रखने में सफल होता है वही वास्तविक धार्मिक है। यूं तो हर व्यक्ति को अपनी पत्नी अच्छी लगती है लेकिन जब जीवन में राम की तरह चौदह वर्ष वनवास जाने का मौका आ जाए, उस समय अगर वह तुम्हारे साथ जिए तो समझना अच्छी पत्नी है। जब तुम सुखी थे तो अनेक मित्र तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराया करते थे और आज जब विपत्ति की वेला आ गई है और तुम अपने दोस्त को मोबाइल भी कर रहे हो पर वह तुम्हारा नंबर देखकर स्विच बंद कर रहा है। वह जानता है कि तुम उसे फोन क्यों कर रहे हो! मुख मीठा सज्जन घणा मिल जा मित्र अनेक, काम पड्यां कायम रहे सो लाखन में एक। कभी जीवन में ऐसा वक्त आ जाए कि तुम्हारा कोई भी न बचा तो ऐसे में जो तुम्हारे काम आ जाए वही वास्तविक मित्र है । मित्र हो पानी में मछली की तरह कि मछली पानी के बिना रह भी न पाये। सरोवर में पंछी की तरह मित्र न हों, कि थोड़ी देर साथ रहे और उड़ जाए। मित्रता तो मोमबत्ती और धागे की तरह हो- जैसे धागा जलता है तो मित्रता निभाने के लिए, मोमबत्ती का मोम भी पिघलता है। मित्र तो ढ़ाल की तरह होना चाहिये जो भले ही पीठ पर रहे पर संकट की वेला में हमारी रक्षा के लिए आगे हो जाये। सज्जन ऐसा कीजिए, ढाल सरीखा होय। . दुख में तो आगे रहे, सुख में पाछो होय ॥ भला मित्र तो एक ही भला __ मैं प्रायः देखा करता हूं कि व्यक्ति अपने मित्रों का दायरा बढ़ाता है क्योंकि वह सोचता है कि महफिल सजाएंगे, होटलों में जाएंगे, मस्ती लूटेंगे, घूमेंगे फिरेंगे। खाओ-पिओ-मौज उड़ाओ की मित्रता व्यक्ति की 117 For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिंदगी में चलती रहती है। अगर आपका कोई मित्र नहीं है तो फिक्र न करें। गलत आदतों वाले व्यक्ति को मित्र बनाने की बजाय, तुम बिना मित्र के रहो तो ज्यादा अच्छा है। हर किसी को मित्र बनाने की प्रवृत्ति घातक हो सकती है। मूर्ख, स्वार्थी और चापलूस को कभी भी मित्र न बनाएं। मुझे याद है - एक राजा और एक बंदर में मित्रता हो गई। बंदर रोज राजमहल में आता तो राजा की उससे निकटता हो गई। राजा ने सोचा आदमी तो धोखा भी दे सकता है लेकिन बंदर मुझे कभी धोखा नहीं देगा । यहाँ तक कि राजा ने अपनी निजी सुरक्षा भी बंदर को सौंप दी। एक दिन राजा बगीचे में घूमने गया। शीतल मंद हवा चल रही थी, राजा एक पेड़ के नीचे बैठा था कि उसे नींद आ गई। बंदर भी राजा के पास ही बैठा रखवाली कर रहा था। तभी एक मक्खी आई । कभी वह राजा के सिर पर बैठे, कभी नाक पर, कभी छाती पर और कभी राजा की गर्दन पर । बंदर ने बार-बार मक्खी को हटाने की कोशिश की, लेकिन जितनी बार वह हटाता, मक्खी उड़ती और फिर आकर कहीं न कहीं बैठ जाती । बन्दर को गुस्सा आ गया कि यह मक्खी बार-बार मेरे मित्र को तंग कर रही है। उसने राजा की तलवार उठाई यह सोचकर कि मक्खी को जान से ही मार देता हूँ। मक्खी राजा की नाक पर बैठी थी कि बंदर ने तलवार चला दी, मक्खी तो उड़ गई पर राजा की नाक कट गई। नादान और मूर्ख की दोस्ती से अच्छा है कि बिना मित्र के रह जाएँ। सिंहन के वन में वसिये, जल में घुसिये, कर में बिछुलीजे। कानखजुरे को कान में डारि के, सांपन के मुख अंगुरी दीजे ॥ __ भूत पिशाचन में रहिये अरु जहर हलाहल घोल के पीजे। जो जग चाहै जिओ रघुनन्दन, मुरख मित्र कदे नहीं कीजे॥ सांप, बिच्छू और कानखजुरे उतने खतरनाक नहीं होते और शायद हलाहल ज़हर भी उतना नुकसानदेह नहीं होता है जैसा मूर्ख मित्र । तुम तो रहोगे उसके प्रति विश्वस्त और वह तुम्हें नुकसान पहुँचाता ही रहेगा। मूर्ख मित्र की बजाय बुद्धिमान दुश्मन कहीं ज्यादा अच्छा होता है। इसीलिए तो कहते हैं- सांड के अगाड़ी से, गधे की पिछाड़ी से पर मूर्ख मित्र से चारों ओर से बचना चाहिए। बचें, स्वार्थी मित्रों से जितने नुकसानदेह मूर्ख मित्र होते हैं उतने ही नुकसानदेह स्वार्थी और चापलूस मित्र होते हैं। अगर आप बच सकते हैं तो ज़िंदगी में उन शत्रुओं से नहीं, उन मित्रों से बचिए जो चापलूस होते हैं। सामने आपकी तारीफ़ करते हैं, पर भीतर-घात करते रहते हैं। स्वार्थी मित्र हमारे साये की तरह होते हैं, जो सुख की धूप में साथ चलते हैं, परन्तु संकट के अंधेरे में साथ छोड़ देते हैं। ____ मुझे याद है दो मित्र, झील के किनारे घूम रहे थे, तभी एक मित्र ने देखा कि झील पर एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था डूबते हुए को बचाने वाले को पाँच सौ रुपये का ईनाम ! उसने अपने मित्र से कहा कि मैं पानी में उतरता हूँ, तुम्हें तैरना आता ही है । मैं कहूँगा बचाओ-बचाओ, तुम मुझे बाहर निकाल लाना पाँच सौ रुपये का ईनाम आधा-आधा बांट लेगें। वो व्यक्ति पानी में उतरा, गहरे पानी में चला गया और चिल्लाया, बचाओ-बचाओ! 118 For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किनारे पर खड़ा मित्र सुन रहा है, पर बचाने के लिए नहीं आ रहा, तो डूबते हुए मित्र ने कहा, मेरी आवाज़ सुन रहे हो फिर बचाने के लिए क्यों नहीं आते ? उसने कहा, मित्र तूने बोर्ड का एक तरफ का ही भाग पढ़ा है इसमें दूसरी तरफ लिखा है कि मरे की लाश निकालने वाले को एक हजार रुपये का ईनाम ! बचो ! अगर बच सकते हो तो ऐसे स्वार्थी मित्रों से बचो । मनुष्य मैत्री भाव का विस्तार करे और वक्त आने पर दुश्मनों के भी काम आने का प्रयास करें। घटना दूसरे विश्व युद्ध की है। है तो चार पंक्ति की घटना, पर है बड़ी प्रभावी ! कहते हैं - द्वितीय विश्व युद्ध में एक जापानी सैनिक कंधे पर गोली लगने के कारण मैदान में घायल होकर गिर पड़ा। वह दर्द के मारे कराह रहा था तभी एक भारतीय सैनिक जो युद्ध के मैदान में खड़ा था, उसके मन में करुणा जगी, उसने सोचा, अंतिम क्षणों में कौन-सी शत्रुता । वह कप में चाय लेकर उसके पास गया, अपनी गोद में उसका सिर पर रखा और यह कहते हुए चाय पिलाने लगा कि तुमने भारतीय सैनिक की मोर्चे पर वीरता देखी है, अब उसकी दयालुता भी देखो। वह उसे चाय पिलाने के लिए जैसे ही झुका कि जापानी सैनिक ने अपने पास छिपाकर रखे हुए चाकू को उसकी छाती में घोंप दिया। भारतीय सैनिक भी घायल हो गया और दोनों ही सैनिक उपचार के लिए एक ही अस्पताल में भर्ती किए गए। तीसरे दिन भारतीय सैनिक को होश आया, उसने देखा कि उसके पास ही तीसरे पलंग पर वही जापानी सैनिक लेटा हुआ है। वह जब उसके पास पीने केलिए चाय की प्याली आई तो उसे लेकर उस जापानी सैनिक के पास गया और कहा, 'लो भैया! चाय पी लो। मैं उस दिन तो यह इच्छा पूरी नहीं कर पाया।' भारतीय सैनिक के इस व्यवहार को देखकर वह जापानी सैनिक भाव-विह्वल हो गया। उसकी आँखें भर आईं और कहा आज मुझे पता चला कि आखिर बुद्ध का जन्म भारत में ही क्यों हुआ ? मित्र हो अपने से बेहतर मित्र बनाना आसान होता है, लेकिन उन्हें निभाना बहुत मुश्किल होता है। अच्छा दोस्त बनाना आपकी सोच पर निर्भर है। किसी को दोस्त बनाने में, उससे निकटता बढ़ाने में सालों-साल लग सकते हैं, लेकिन दोनों मध्य का विपरीत वातावरण उस दोस्ती को दस मिनट में अलग कर सकता है। मित्र और संबंध बनाना सरल हो सकता है, लेकिन उन्हें दीर्घ अवधि तक यथावत बनाए रखना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए मैं कहता हूं कि अपनी दृष्टि उदार रखो, केवल मित्र को ही मित्र न मानो, सभी से मैत्री रखो। पता नहीं जीवन में कब किससे क्या काम पड़ जाए। दुश्मन भी अगर है तो मन में उसके प्रति भी प्रेम भाव रखें। कभी दुश्मन को मिटाने की न सोचें, सोचते हैं तो दुश्मनी मिटाने की सोचें। उसके साथ भी मैत्री व्यवहार बढ़ाने की ही सोचें क्योंकि पता नहीं, कब वह आपके जीवन में किस रूप में काम आ जाए। तुम अपने दुश्मन को भी महावीर और मैक्यावली के सिद्धांत में यही तो फ़र्क़ था कि महावीर कहते थे दोस्त मानो और मैक्यावली कहते थे तुम अपने दोस्त के साथ भी दुश्मन की तरह सावधानी रखो। इसलिए मित्र ऐसे बनाएं जो आपसे बेहतर हों। बचपन में हमारे पिता हमसे कहते थे कि अपने से बड़े-बूढ़े लोगों को अपना मित्र बनाओ ताकि तुम्हारे संस्कार परिष्कृत हो सकें और उनके जीवन के अनुभवों का लाभ भी तुम्हें मिल सके। जीवन में आप मित्र बनाना चाहते हैं तो अपने से बेहतर लोगों को ही मित्र बनाएं। अगर आप किशोरावस्था 119 For Personal & Private Use Only -- . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के हैं, युवावस्था के हैं तो किसी से अधिक मित्रता न बढ़ाएँ। अगर मित्रता बढ़ भी गई है और आपकी जानकारी में उसकी गलती आ गई है तो तत्काल उससे दरी बना लें। दसरे अपने मित्रों को ज्यादा घर में आवागमन न दें। अगर ज्यादा मित्र घर में आ रहे हैं तो ध्यान रखें घर में आप अकेले नहीं आपकी पत्नी भी है। आप पति-पत्नी ही नहीं आपकी बेटी भी है, केवल बेटी ही नहीं परिवार के अन्य सदस्य भी हैं । इसलिए जब तक आप पूरी तरह संतुष्ट न हो जाएँ दोस्तों को घर में प्रवेश न दें। यह दुनिया तो ऐसी हो गई है कि अपने खून के साथ भी पूरा भरोसा नहीं रख सकती तो दोस्तों के प्रति भरोसा कैसे रखा जा सकता है। घर, घर वालों के लिए ही अपने घर का पता या फोन नंबर हर किसी को न दें। दुकान का काम दुकान तक रहे, मित्रों का काम समाज व संस्था तक रहे। घर में तो परिवार के लोग ही आएं-जाएं तो ही अधिक अच्छा है। आप अपने पुत्र को निःसंकोच कह सकते हैं कि तुम्हारे मित्रों का रात बारह-एक बजे तक आना-जाना न तो तुम्हारे हित में है और न ही हमारे हित में है। उसे यह भी सलाह दें कि देर रात तक भटकते रहना भी उसके हित में नहीं है। आज तो पुत्र आपके अंकश में है. उसे समझा सकते हैं। और एक बात और ! अगर ऐसे ही नज़रअंदाज करते रहे तो बडे होकर वह आपकी कोई बात नहीं सुनने वाला है। एक बात और ! अगर आप सुंदर हैं, सम्पन्न हैं तो हर कोई आपसे दोस्ती बनाना चाहेगा। इन दोनों में दोस्ती के लिए प्रमुख बात होती है- मन में छिपी हुई वासना और सम्पन्न की मित्रता में स्वार्थवृत्ति प्रमुख रहते हैं। जैसे फूल पर मधुमक्खी भिनभिनाती है, मैंने देखा है कि लोग सुंदर और सम्पन्न के आसपास भिनभिनाते हैं। इसलिए सावधान रहें उनका दृष्टिकोण अलग हो सकता है, उनकी मानसिकता अलग हो सकती है। अगर लड़की है तो किसी लड़के को अपना मित्र बना सकती है, और युवक हैं तो किसी युवती को अपना मित्र बना सकते हैं, पर सतर्क जरूर रहें कि कहीं आप उलझ न जाएं और कहीं वह आपको उलझा न लें। अपनी लड़की को अगर अपने शहर से बाहर पढ़ने भेज रहे हैं तो उसे समझा दें कि मित्रता में सावधानी रखे और अपने विवेक के अंकुश का प्रयोग करती रहे। कुछ दिन पहले की बात है कि एक माँ अपनी पुत्री के साथ हमारे पास आई। माँ ने बताया कि पुत्री दिल्ली पढ़ने जा रही है। यूं तो वह हमारे प्रवचन सुनती रहती थी फिर भी माँ की अपेक्षा थी कि हम उससे कुछ कहें । मैंने कहा बेटा, तुम्हारे माँ-बाप मन में बहुत बड़े अरमान पालकर न जाने कितनी अच्छी सोच बनाकर, अपना धन खर्च करके तुम्हें दूर रखने की रिस्क उठाकर, तुम्हें अकेले दिल्ली भेज रहे हैं, जीवन में सावधान रहना किसी एक के दिल को रखने के लिए ज़िंदगी में दो दिलों को मत दुखाना।' सखा हो कृष्ण-सुदामा जैसे आप कॉलेज में पढ़ते हैं, युवक-युवतियों को दोस्त बनाएं पर अपनी सीमाएं जरूर रखें। दोस्ती के बीच अगर आप सीमाएं नहीं रखते तो यह अमर्यादित मित्रता मित्र और आपके अपने घर, दोनों के लिए विनाश का कारण बन सकती है। ढेर सारे मित्रों को एकत्र करने का कोई औचित्य नहीं है, अगर वे आपके विकास में 120 For Personal & Private Use Only | Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक न बन सकें। आपको पता है कि अर्जुन और श्रीकृष्ण में अच्छी मित्रता थी। यद्यपि गुरु-शिष्य का भाव था, भगवान-भक्त का भाव था। इसके अतिरिक्त तीसरा भाव था- सखा-भाव, मित्रता का भाव। जिसके कारण कृष्ण जैसे महापुरुष भी अपने सखा-भाव को रखने के लिए अर्जुन का रथ हांकने के लिए सारथी बन जाते हैं। मित्रता का आदर्श है कृष्ण और अर्जुन का परस्पर व्यवहार। एक नुस्खा आजमाइए कि कल तक जो आपका मित्र था, जिसे आज भी आप अपना मित्र मानते हैं, और संयोग की बात कि वह कलेक्टर, एस.पी या इसी तरह के किस उच्च पद पर पदस्थ हो गया है। आप उससे मिलने जाइएगा, आपको एक ही दिन में पता लग जाएगा कि वह कैसा आदमी है और उसके साथ कैसी मित्रता थी।आपकी मित्रता का सारा अहंकार, सारा भाव दो मिनट में खंडित हो जाएगा जब आप उसके पास जाएंगे। मित्र तो कृष्ण जैसे ही हो सकते हैं कि सुदामा जैसा गरीब ब्राह्मण सखा जब उनके द्वार पर आता है, तो कृष्ण मित्रता के भाव को रखने के लिए कच्चा सतू भी खा लेते हैं और जब सुदामा वापस अपने घर पहुंचता है तो आश्चर्यचकित रह जाता है कि टूटे-फूटे खपरैल की झोंपड़ी की जगह आलीशान महल खड़ा है। ऐसी मैत्री धन्य होती है जहाँ एक ओर दुनिया का महासंपन्न अधिपति है, दूसरी ओर ऐसा व्यक्ति है जिसके पास खाने को दाना नहीं, पहनने को कपड़े नहीं।सुदामा जब कृष्ण के द्वार पर जाता है, तो कृष्ण यह नहीं कहते कि मैंने तुम्हें पहचाना ही नहीं। उसका परिचय नहीं पूछते, न ही कहते हैं कि कभी मिले तो थे, पर याद नहीं आ रहा है, बल्कि उसके पांवों का प्रक्षालन करते हैं, मित्र का स्वागत करते हैं, उसकी गरीबी दर करते हैं। सच्चा मित्र वही होता है जो मित्र को भी अपने बराबरी का बनाने का प्रयास करे। जिनके चरण सदा महालक्ष्मी के करतल में रहते हैं वे प्रभु कृष्ण रूप में ग्वालों के संग मैत्री-भाव में कांटों पर चलते हुए नज़र आते हैं। श्री कृष्ण तो मैत्री-भाव के प्रतीक हैं। यहाँ तो सब काम निकालने के चक्कर में लगे हुए हैं। जब तक मेरा काम आपसे निकल रहा है मैं आपका मित्र हूँ और आपका काम मुझसे निकल रहा है आप मेरे मित्र हैं। स्वार्थ भरी दुनिया में सब एक-दूजे से काम निकालने में लगे हुए हैं, मतलब सिद्ध करने में जुटे हुए हैं । कौन अपना और कौन पराया ! जिंदगी का सच तो यह है कि अपने भी कभी अपने नहीं होते। यहाँ कौन किसके, सब रिश्ते स्वार्थ के। न कोई कामना, सिर्फ प्रेम-भावना भगवान महावीर से जब पूछा गया कि व्यक्ति किसे अपना मित्र बनाए, किसके साथ अपनी दोस्ती का हाथ बढ़ाए तो महावीर ने कहा था -- सत्त्वेसु मैत्री - तुम उनके साथ मित्रता करो, जिनके जीवन में सत्व हो, यथार्थ हो, जिनकी जिंदगी दोहरी न हो, जो अच्छे संस्कारों से युक्त हों, जिनके जीवन में धर्म और अध्यात्म के लिए जगह हो। जो नेक दिल हों, बुरी आदतों से बचे हों, बुरे काम से डरते हों, अच्छे कामों में विश्वास करते हों। मित्र मौज-मस्ती के लिए न करें। हमारी मित्रता न तो स्वार्थ से जुड़े, न कामना से, न वासना से, न तृष्णा से। मित्रता केवल प्रेमभावना से जुड़े। मित्र वही जो एक-दूसरे के बुरे वक्त में काम आ सके। ध्यान रखें कि मित्र का दृष्टिकोण आपके प्रति कैसा है । बचपन में जब मैं संस्कृत का अध्ययन कर रहा था तब मैंने पंचतंत्र की कहानियाँ पढ़ी थीं। उन कहानियों में मित्रता से संबंधित कहानियाँ भी थी। बंदर और 121 For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगरमच्छ की कहानी आप सभी जानते हैं, जिसमें बंदर रोज मगरमच्छ को जामुन खिलाता और उसकी पत्नी के लिए भी दे देता। रोज मीठे-मीठे जामुन खाकर मगरमच्छ की पत्नी जिद कर बैठी कि जिसके दिए जामुन इतने मीठे हैं, वह खुद कितना मीठा होगा, इसलिए वह उसे ही खाना चाहती है। पत्नी की बात और पति न माने ! पहले तो समझाने की कोशिश की लेकिन अन्तत: उसकी बात माननी ही पड़ी और तट पर आकर बंदर से कहा, 'तुम्हारी भाभी ने तुम्हें भोजन पर बुलाया है, वह तुमसे मिलना चाहती है।' ___ बंदर ने इंकार कर दिया कि वह पानी में कैसे जाएगा। उसे तो तैरना भी नहीं आता। तब मगरमच्छ ने समझाया कि वह उसे अपनी पीठ पर बिठाकर ले जाएगा। बंदर राजी हो गया। मगरमच्छ ने जब आधी नदी पार कर ली तो यह सोचकर कि अब यह बंदर कहाँ जाएगा, पानी में तैर तो नहीं सकता, पेड़ भी बहुत दूर छूट चुका। उसने राज खोल दिया तुम रोज मीठे-मीठे जामुन खाते हो तो तुम्हारा दिल भी बहुत मीठा होगा। सो मेरी पत्नी तुम्हारा दिल खाना चाहती है।' बंदर ने सुना तो दंग रह गया। सोचा कि बुरे फंसे, अब क्या करूँ लेकिन बंदर था द्धिमान। उसने संकट को भांपकर कहा 'अरे, यह बात तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताई कि भाभी ने दिल मंगाया है, मैं अपना दिल तो उसी जामुन के पेड़ पर छोड़ आया हूँ। वहीं कह देते तो अपना दिल पेड़ से उतारकर दे देता।' मूर्ख मगरमच्छ को पछतावा हुआ और वह उसे वापस तट पर ले गया। तट पर पहुँचकर बंदर ने छलांग लगाई और चढ़ गया पेड़ पर । मगरमच्छ इंतजार ही करता रह गया पर बंदर वापस न आया। मगरमच्छ के बुलाने पर उसने कहा 'तुम दगाबाज निकले। जिसने ताउम्र तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को मीठे फल खिलाये तुम उसी को खाने को तैयार हो गए?' जीवन में मगरमच्छ जैसे दोस्त बनाने की बजाय बिना दोस्त के रह जाना श्रेयस्कर है। सो गंगोदक होय प्राय: स्कूल या कॉलेज से मित्रता की शुरुआत होती है। हम जिन लोगों के बीच रहते हैं, अपना अधिकांश समय व्यतीत करते हैं, उनसे हमारा परिचय होता है, संबंध प्रगाढ़ होते हैं, मित्रता बढ़ती है और हमको लगता है कि ये सब हमारे मित्र हैं, क्या वे वाकई हमारे मित्र हैं, हम अपना विवेक जगाएँ और देखें कि क्या वाकई वे सभी हमारी मित्रता के लायक हैं ? अगर किसी में कोई कुटेव है तो आप तुरंत स्वयं को अलग कर लें, नहीं तो वे आदतें आपको भी लग जाएँगी। अगर आपको सिगरेट पीने की आदत पड़ चुकी है तो झाँके अपने अतीत में । आपको दिखाई देगा कि आप विद्यालय या महाविद्यालय में पढ़ते थे, चार मित्र मिलकर एक सिगरेट लाते थे और किसी पेड़ की ओट में जाकर सिगरेट जलाते और एक ही सिगरेट को बारी-बारी से चारों पीते थे। पहले छिप-छिपकर, फिर फिल्म हॉल में गए तब, फिर इधर-उधर हुए तब, फिर बाथरूम में पीने लगे और धीरे-धीरे सबके सामने पीने लगे। इस तरह पड़ी जीवन में एक बुरी आदत और आपने उन्हीं लोगों को अपना मित्र मान लिया, जिन लोगों ने आपके जीवन में बुरी आदत लगाई। अगर आप गुटखा खाते हैं तो सोचें कि इसकी शुरुआत कहाँ से हुई। जरूर आपकी किसी ऐसे व्यक्ति से जान पहचान थी जो इसे खाने का आदी था। आप उसके निकट आए धीरे-धीरे उसके बरे संस्कार आप में आ गए। अच्छे आदमी के पास रहकर अच्छाइयाँ तो सीख नहीं पाते। हाँ, बुरे आदमी की संगति से बुराइयाँ जरूर सीख 122 For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाते हैं। अगर नाला गंगा में मिलता है तो गंगाजल कहलाता है लेकिन गंगा का पानी नाले में डाल दें तो वह भी अपवित्र हो जाता है । कबीरा गंदी कोटची पानी पिवे न कोय, जाय मिले जब गंग में, सो गंगोदक होय । किले के चारों ओर खुदी खंदक का पानी कोई नहीं पीता, लेकिन वही पानी जब गंगा में मिल जाता है तो गंगोदक बन जाता है और लोग चरणामृत मानकर उसे ग्रहण भी कर लेते हैं । आप अपने इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों को तोल लें कि वे किस स्तर के हैं ? आपके जीवन में मित्रों की क्वान्टिटी कम हो तो कोई बात नहीं, लेकिन जितने भी मित्र हों, अच्छी क्वालिटी के हों। अच्छे लोगों के साथ, महान लोगों के साथ जिओ, क्योंकि जिनके साथ हम रहेंगे, वैसे ही बन जाएंगे। आदमी तो क्या तोता भी जिनके बीच रहता है, वैसा ही बनता चला जाता है। 1 जैसा साथ, वैसी बात किसी व्यक्ति के पास दो तोते थे। उसने एक तोता दिया डाकू शैतान को, दूसरा दिया एक संत को, भगवान के भक्त को । तोते दोनों एक जैसे। दो माह बाद जब वह व्यक्ति उस संत के यहाँ पहुँचा तो तोते ने कहा 'राम-राम, घर पर आया मेहमान, 'राम-राम' उस व्यक्ति ने सोचा 'अहा ! तोता कितना अच्छा है। मेहमान का स्वागत करता है 'राम' का नाम भी लेता है। 'वह आगे चला और पहुँचा डाकू सरदार के यहाँ जहाँ उसने दूसरा तोता दिया था। दूर से आते हुए व्यक्ति को देखकर तोता चिल्लाया, 'अरे आओ, मारो-मारो, काटो- काटो, लूटो-लूटो' । उस व्यक्ति ने सोचा - ये दोनों तोते एक माँ के बेटे, दोनों भाई लेकिन दोनों में कितना अंतर ! एक कहता हैआओ स्वागतम्, राम-राम । दूसरा कहता है- मारो-काटो-लूटो । उसे समझते देर न लगी कि तोता तो तोता है जिसके पास रहा, जैसी संगति में रहा वैसा ही उस पर असर हुआ। अगर डाकू साधु की संगति पाता है तो वह डाकू नहीं रहता बल्कि महान संत और 'रामायण' का रचयिता बन जाता है । व्यक्ति जैसी सोहबत पाता है वैसा ही बनता जाता है । आप अपना आकलन कर लें कि आप किन लोगों के साथ रह रहे हैं, किस तरह के लोगों के बीच रह रहे हैं । उल्लंघन न हो सीमाओं का मित्र दो अक्षर का ऐसा रत्न है जिसकी संज्ञा हर किसी को नहीं दी जा सकती। केवल मौज-मस्ती के लिए न तो किसी को निकट आने देना चाहिए और न ही किसी के निकट जाना चाहिए। मित्रता का अर्थ प्रेम या रोमांस नहीं होता। स्वार्थी मित्रों से जितना दूर रहा जाए उतना ही अच्छा। कोई महिला अगर किसी पुरुष को अपना मित्र बना रही है तो उसे इस बात का जरूर ध्यान रखना चाहिए कि कहीं वो किसी ऐसे पुरुष को मित्र न बना बैठे जो उसके महिला होने का फायदा उठाने की सोच रखता हो । स्त्री और पुरुष की मित्रता आज के परिवेश में अनुचित नहीं कहीं जा सकती और कहीं-कहीं तो यह आवश्यक भी है, पर इस मित्रता में मर्यादा तो होनी ही चाहिए। 123 For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका व्यवहार अपने पुरुष या स्त्री मित्र के प्रति इतना खुला हुआ भी नहीं होना चाहिए कि हमारे मित्रतापूर्ण सम्बन्धों पर लोग अंगुलियाँ उठाने लग जाएँ । कई दफा होता यह कि जब हम अपनी सीमाएँ मित्रता के नाम पर खो बैठते हैं तो कई पति-पत्नी एक-दूजे के लिए शक के दायरे में आ जाते हैं। ऐसे लोगों को सदा इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि जब उनके इन सम्बन्धों का कभी खुलासा हो जाता है तो उनकी स्थिति धोबी के गधे की तरह ही होती है । मैं अपनी ओर से केवल इतना निवेदन करना चाहूँगी कि जिस तरह पति-पत्नी का एक-दूजे पर विश्वास रखना जरूरी है उसी तरह विश्वास पर खरा उतरना भी जरूरी है। हर पति-पत्नी को चाहिए कि वह औरों मित्रता स्थापित करने में अपनी सीमाओं का पूरा ख्याल रखें, क्योंकि दाम्पत्य जीवन प्रेम, लगाव, सम्मान और विश्वास पर ही टिका रहता है । निर्मल हृदय, निर्मल आचरण अच्छे, नेक मित्र बनाएँ। ऐसे मित्र बनाएँ जिनके साथ रहना गौरवपूर्ण हो, जीवन संस्कारित और नेक बन सके, बदी से बच सकें और प्रगति के सोपान चढ़ सकें। जीवन में भले ही एक मित्र हो, लेकिन वह ऐसा हो जो आपकी छाया हो, प्रतिरूप हो । आप सबसे सब कुछ छिपा सकते हैं, लेकिन अपने मित्र से जिंदगी की कोई बात नहीं छिपा सकते । इसलिए ऐसा मित्र बनाएँ जिसका हृदय निर्मल हो, मन विराट, दृष्टि पवित्र, मानसिकता श्रेष्ठ और आचरण निर्मल हो । जीवन में आप अगर ऐसे किसी व्यक्ति को, महिला या पुरुष को मित्र बनाते हैं तो यह आपके लिए और उसके दोनों के लिए कल्याणकारी है। शेष तो ब्रह्माण्ड के सभी प्राणियों के लिए मैत्रीभाव, प्रेम और प्रमोद भाव रखें । रवीन्द्रनाथ टैगौर ने कहा है - यदि तोरे डाक सुने कोई न आचे तोए एकला चलो रे - अगर तुम्हारे साथ कोई अच्छा व्यक्ति नहीं है तो चिंता न करो, बुरे लोगों के साथ जीने के बजाय अकेले चलो। तुम अपने मित्र स्वयं बनो । यह एकाकीपन भी तुम्हारे लिए कल्याणकारी होगा । 124 For Personal & Private Use Only . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E N GLISARSHARMessarma बुढापे को ऐसे कीजिए सार्थक बुढ़ापे को भुनभुनाते हुए जीने की बजाय गुनगुनाते हुए जियें। मनुष्य का जीवन सूर्य की तरह गतिमान है। सूर्योदय के पूर्व भोर की प्यारी-सी सुबह को माँ के गर्भ में हमारा आगमन समझें । सूर्योदय हमारा जन्म है, दोपहर जवानी है और सांझ हमारा बुढ़ापा है। रात तो जीवन की कहानी के समापन का प्रतीक है। जीवन-मृत्यु दोनों सत्य यह जीवन का परम सत्य है कि जिसका जन्म है उसकी मृत्यु है, यौवन है तो बुढ़ापा है। जिसकी मृत्यु है उसके जन्म की संभावना है। जन्म, जरा, रोग और मृत्यु की धारा में मनुष्य-जाति तो क्या, ब्रह्माण्ड के हर प्राणी के साथ करोड़ों वर्षों से यही सब होता रहा है। सुखदायी होती है जवानी और सही ढंग से जीना न आए तो बड़ी पीड़ादायी होती है बुढ़ापे की कहानी। जवानी तो बहुत सुख से बीत जाती है, लेकिन जवानी का सुख बुढ़ापे में कायम न रह सके तो बुढ़ापा कष्टदायी हो जाता है। जवानी तो सभी जी लेते हैं, पर जो जवानी में बुढ़ापे की सही व्यवस्था कर लेते हैं, उनका बुढ़ापा स्वर्णमयी हो जाता है। बुढ़ापा न तो जीवन के समापन की शुरुआत है और न ही जीवन का कोई इतिवृत्त है और न ही जीवन का अभिशाप है। बुढ़ापा तो जीवन का सुनहरा अध्याय है। जिसे जीवन जीना आया, जिसने जीवन के उसूल जाने और जीवन की मौलिकता को समझने का प्रयास किया, उसके लिए बुढ़ापा अनुभवों से भरा हुआ जीवन होता है जिसमें जाने हए सत्य को जीने का प्रयास करता है। हर किसी दीर्घजीवी व्यक्ति के लिए बढापा आना तय न समझें कि हमें ही बुढ़ापा आया है या आने वाला है। महावीर को भी बुढ़ापा आया था, राम और कृष्ण भी बूढ़े हुए थे। दुनिया में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो लम्बे अर्से तक जीया हो और बुढ़ापा न आया हो। भले ही व्यक्ति जन्म, जरा (बुढ़ापा), मृत्यु के निवारण के लिए प्रार्थना करता है पर ये सब स्वाभाविक सहज प्रक्रिया हैं। 125 For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवानी में तो व्यक्ति दूसरों के लिए जीता है, लेकिन बुढ़ापे में व्यक्ति अपने जीवन के कल्याण और मुक्ति की व्यवस्था के लिए अपने क़दम बढ़ाता है । इतिहास ग़वाह है कि प्राचीन युग के राजा-महाराजा बुढ़ापे में वानप्रस्थ और संन्यास के मार्ग को अंगीकार कर लेते थे, ताकि मृत्यु के आने से पूर्व अपनी मुक्ति का प्रबंध कर सकें । जो बुढ़ापे को ठीक से जीने का प्रबंध नहीं कर पाते हैं, उन्हें बुढ़ापा मृत्यु देता है और जो बुढ़ापे को स्वीकार कर मुक्ति के साधनों के लिए प्रयास करते हैं उनके लिए बुढ़ापा मुक्ति का साधन बन जाता है। बुढ़ापे से बचने के लिए और जवानी को बचाने के लिए लोग दवाएँ ले रहे हैं पर बुढ़ापा सब पर आना तय है, इसमें कोई रियायत नहीं है। केवल तुम्हारे बाल ही सफेद नहीं हो रहे हैं अतीत में भी मनुष्य के सिर के बाल सफेद होते रहे हैं। यह न समझो कि केवल तुम्हारे ही कंधे कमजोर हो रहे हैं, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ रही हैं, दृष्टि कमज़ोर हो रही है, कानों से ऊंचा सुनाई देने लगा है, दाँत गिर रहे हैं - यह हर किसी के साथ होता है । इसके लिए हताश होने की जरूरत नहीं है। बुढ़ापे में भी बसंत है बुढ़ापा जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह समस्या नहीं, नैसर्गिक व्यवस्था है। यह सार नहीं जीवन का हिस्सा है। यहाँ आकर व्यक्ति स्वयं के लिए चिंतन करता है, अन्तर्मन की शांति को जीने का प्रयास करता है। जीवन भर जो परिश्रम किया है बुढ़ापे में उससे शांति, विश्राम और आनंद से जीने की कामना रखता है। हम देखते हैं कि प्रायः लोग बुढ़ापे से बचना चाहते हैं। व्यक्ति लम्बी उम्र तो चाहता है, पर बुढ़ापा नहीं। लेकिन बुढ़ापा आना तो तय है और जब चेहरे पर कोई झुरीं दिखाई देती है, तो वह सोचता है - चलो कुछ योगासन कर लूं ताकि बुढ़ापे से बच सकूँ। जैसे ही बुढ़ापा झलकना शुरू होता है, व्यक्ति कुछ पौष्टिक पदार्थ खाने की सोचने लगता है ताकि बुढ़ापे को थोड़ा टाला जा सके। सफेद होते हुए बालों को रंगकर काले करने की कोशिश करता है कि बुढ़ापे को झलकने से रोक सके। बाल काले करके बुढ़ापे को ढका जा सकता है, पर उससे बचा नहीं जा सकता है हम बुढ़ापे को रोकने की कोशिश करते हैं। मेरी नज़र में जीवन का बसंत जवानी नहीं, बुढ़ापा है। जिसने जीवन को सही ढंग से जीने की कला जान ली है उसके लिए बुढ़ापा फूल बनकर आता है। उसके लिए बुढ़ापा जीवन की शांति बन जाता है और अहोभाव, आनन्द और पुण्यभाव का रूप लेकर आता है। बचपन ज्ञानार्जन के लिए है, जवानी धनार्जन और बुढ़ापा पुण्यार्जन के लिए है। सुख भोगने के लिए जवानी है तो शांति और आनंद को जीने के लिए बढापा है। भारतीय संस्कति में जीवन जीने के चार चरण हैं। ब्रह्मचर्य, गहस्थ वानप्रस्थ और संन्यास। पहला चरण शिक्षा-संस्कार के लिए, दूसरा चरण संसार-सुख के लिए, तीसरा पुण्यधर्म के लिए और चौथा शांति-मुक्ति के लिए है। धन्य है वह घर-द्वार जिस घर में वृद्ध होते हैं, जहाँ वृद्ध माँ-बाप का आशीर्वाद होता है, जहाँ बड़े-बुजुर्गों का साया होता है वह घर स्वर्ग होता है, जिस घर में वृद्धों का साया उठ जाता है वहाँ की शांति भी धीरे-धीरे कम होती जाती है। भाग्यशाली होते हैं वे जिन्हें बुजुर्गों का सान्निध्य, सामीप्य और प्रेम मिला करता है। सौ किताबों का ज्ञान एक तरफ और एक वृद्ध का अनुभव एक तरफ। जहाँ सौ पुस्तकों का ज्ञान असफल हो जाता है वहाँ एक वृद्ध की दी गई सही सलाह, उसका अनुभव कारगर हो जाता है। वे घर धन्य होते हैं जहाँ सुबह उठकर घर के सभी लोग 126 For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने बूढ़े माँ-बाप को प्रणाम करते हैं, उनका सम्मान करते हैं । वे लोग कृतपुण्य होते हैं जो रात में सोने से पहले माता-पिता, दादा-दादी के पाँव दबाते हैं, उनकी सेवा और सत्कार का पुण्य प्राप्त करते हैं। घर के वृद्ध का दुनिया से चले जाने के बाद उनके नाम से प्याऊ खोलने की बजाय अच्छा होगा, उनके जीते जी उन्हें पानी पिलाया जाए। उनके नाम से धर्मशाला बनाने की बजाय उनके जीते जी उन्हें घर के सबसे अच्छे कक्ष में रखें। ___ मैंने देखा है कि एक परिवार जो हर तरह से सम्पन्न था उसमें दादी माँ को कार के गैरेज में रखा हुआ था। मैंने परिवार वालों से पूछा ऐसा क्यों? ' कहने लगे दादी माँ को यहाँ पर सुविधा रहती है। कृपया अपने वृद्ध मातापिता को अपने घर के सबसे सुन्दर कक्ष में रखें।अगर वे रुग्ण हैं तो हो सकता है वे बिस्तर गंदा करते हों, उल्टी भी हो जाती होगी तब भी उन्हें सुविधायुक्त कमरे में रखें। उनके मरने के बाद समाज के किसी भवन में सुंदर कमरा बनवाने की बजाय जीते जी उन्हें सुन्दर कमरे में रखें। उनकी आरामयुक्त ज़िंदगी की व्यवस्था कीजिए। उनके मरने के बाद उनके चित्र पर फूल चढ़ाने और अगरबत्ती जलाने से अच्छा है उनके साथ इतने मधुर शब्दों में बोलें कि हमारी वाणी ही उनकी सेवा बन जाए। जब हम बच्चे थे तो उन्होंने हमारी प्रसन्नता से देखभाल की थी पर आज जब वे बूढ़े हो गए तो उनकी सार-सम्हाल भारी मन से कर रहे हैं । जिस घर में बूढ़े माँ-बाप और दादा-दादी के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाता हो, मैं समझता हूँ कि उन लोगों का बुढ़ापा सफल हो जाता है, उन लोगों का बुढ़ापा सार्थक होता है और वे शांति और आनंद से भरे रहते हैं। __ वे घर धन्य होते हैं जहाँ बूढ़े माँ-बाप के मान-सम्मान और गौरव का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। उन घरों का दर्जा मध्यम है, जहाँ माँ-बाप को उनके भाग्य-भरोसे छोड़ दिया जाता है। वे घर अधम होते हैं जहाँ जीते जी माँ-बाप का अपमान किया जाता है। शायद नरक उससे बढ़कर नहीं होता जहाँ संतान अपने माँ-बाप पर हाथ उठाने से बाज नहीं आती।अच्छा होता ऐसी संतानें धरती पर जन्म न लेतीं। अगर जीवन है, जीवन की व्यवस्था है तो बुढ़ापा भी आना तय है, लेकिन जो बुढ़ापे में पहुंचकर भी अपने मन को बूढ़ा नहीं होने देता वह नब्बे वर्ष का होकर भी जवान हुआ करता है। बुढ़ापा उसे सताता है जो मन से बूढ़ा हो जाता है। बुढ़ापे का प्रभाव पहले शरीर पर नहीं, मन पर आता है और उसका असर तन पर दिखाई देता है। जिसके मन में शिथिलता आई, जिसके मन में नपुंसकता का प्रवेश हो गया वह जवानी में ही बूढ़ा हो जाता है। अन्यथा समय के अनुसार बुढ़ापा तो आएगा ही फिर चाहे आप बाल काले करें या नई बत्तीसी लगवाएँ। बुढ़ापा तो जीवन का हिस्सा है। जैसे बचपन था, जैसे जवानी थी. वैसे ही बढापा भी है। बुढ़ापे को दीजिए सार्थकता बुढ़ापे को व्यर्थ न समझें। प्रायः लोग कहते हैं, 'अजी छोड़िये अब कितने साल की जिंदगी बची है' भारतीय लोगों का मन, उनका सोच-विचार बहुत जल्दी बूढ़ा हो जाता है। साठ के पार आदमी सोचने लगता है - अब मुझे क्या करना है, अब मैं क्या कर सकता हूँ। अब जो ज़िंदगी बची है वह एक्स्ट्रा प्रोफिट की है, जैसेतैसे जी लेंगे। अब क्या माथा लगाना, अब तो बूढ़े हो गए हैं। बुढ़ापा जीवन की हताशा नहीं, जीवन का उत्साह 127 For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होना चाहिए । जब व्यक्ति के मन में हताशा आ जाती है तब वह पचास वर्ष की आयु में ही बूढ़ा हो जाता है और जिसके मन में उत्साह रहता है वह अस्सी वर्ष का होकर भी जवान होता है। याद रखिए बुढ़ापा पहले मन में आता है फिर तन में । बुढ़ापा जीवन को सार्थकता प्रदान करने का चरण है । आप जानते हैं हमने संन्यास लिया बचपन में और हमारे पिता ने लिया पचपन में। पचपन बचपन का पुनरागमन होता है। जो बचपन से ही अपनी बुद्धि का सार्थक प्रयोग करना शुरू कर देता है उसका पचपन सार्थक हो जाता है। जिस उम्र में लोग परिवार के राग में उलझे रहते हैं, जिस उम्र में लोगों का घर से तीन दिन के लिए निकलना मुश्किल होता है उस उम्र में अगर व्यक्ति जीवन भर के लिए घर-परिवार, पति, पत्नी, दुकान, धन-वैभव, मकान के मोह का परित्याग करके साधना के मार्ग पर कदम बढ़ा दे तो क्या यह कम तारीफ़ की बात है। सचमुच जिसने बुढ़ापे को सही दिशा देने की विद्या पा ली उसी बुढ़ापा सार्थक हो जाता है । कल तुम्हें, आज उन्हें ज़रूरत जो स्थितियाँ बचपन में होती हैं वही स्थितियां लगभग बुढ़ापे में भी होती हैं। आप देखें - जब आप बच्चे थे तो अपने आप खड़े नहीं हो पाते थे । मम्मी-पापा ने आपको अंगुली दी और खड़ा होना तथा चलना सिखाया। आज तुम्हारी माँ पिचयासी साल की हो गई है, वह खड़ी नहीं हो पा रही, चल नहीं पा रही है । तब तुम्हारी अंगुली कहाँ चली गई है ? बचपन में तुम बिस्तर गीला कर देते थे, गंदा कर देते थे । सोचो कभी ऐसा भी हुआ होगा कि तुम छोटे रहे होगे तब तुम्हारी माँ खाना खा रही थी कि तुमने शौच कर दी थी। तुम्हारी माँ ने खाना बीच में ही छोड़कर तुम्हारे शरीर की शुद्धि की, हाथ धोए और पुनः खाना खाने बैठ गई । यही उदारता क्या तुम अपनी माँ के बुढ़ापे में एक बार भी दिखा पाओगे ? बचपन में तुम अपने हाथ से खाना नहीं खा पाते थे, बुढ़ापे में उन्हें भी बहुत दिक्कत होती है। बचपन में तुम्हें अकेले रहना अच्छा नहीं लगता था, बूढ़ों की मजबूरी है कि वे अकेले रहने को विवश हो जाते हैं। फ़र्क़ केवल इतना है कि जब तुम बच्चे थे तो माँ-बाप ने तुम्हे बड़े प्रेम से पाला था और आज जब वे बूढ़े हो गए हैं तो तुम्हारे भीतर उन्हें पालने के लिए उतना प्रेम नहीं है। जब तुम बच्चे थे तो उन्होंने खुशियों से पाला था लेकिन उनके बुढ़ापे को सुखमय, आनंदमय करने के लिए तुम्हारे अन्तर्मन में कोई खुशियाँ नहीं कि तुम अपने माँ-बाप या दादा-दादी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करो। मैंने देखा है जो अपना बुढ़ापा नहीं साध पाते उनका बुढ़ापा कितना त्रासदी से भरा होता है । भगवान, जितना रोग से बचाए उतना उस बुढ़ापे से भी बचाए जिसमें व्यक्ति मोहासक्त तो रहता है पर जीवन का ज्ञान नहीं हो पाता। आचार्य शंकर काशी में थे, वे भगवान विश्वनाथ के दर्शन कर गंगा के तट पर आए। वहाँ उन्होंने दो बूढ़े व्यक्तियों को देखा। उनमें से एक व्याकरण के सूत्रों को याद कर रहा था और दूसरा बूढ़ा अपने पोते-पोतियों के मायाजाल में उलझा हुआ था। तब आचार्य शंकर ने कहा- अरे, तेरे अंग गल गए हैं, दाँत टूट गए हैं, चेहरा झुक गया है, चेहरे पर झुर्रियाँ छा गई हैं, कमर झुक गई है। आँख से देख नहीं सकते, कान से सुन नहीं पाते, लेकिन इसके बाद भी संसार की मोह-माया और जिजीविषा तुम्हारे भीतर अभी भी जवान है। अब तो आत्म-चिंतन, 128 For Personal & Private Use Only . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर का चिंतन करना शुरू कर दो। अब तो कम से कम अपने जीवन के लिए कोई बोध, कोई होश, कोई जागरूकता की बात उठानी शुरू कर दो। अपने हाथ से तुमने स्वर्गीय दादा-दादी को जलाया था, पर होश नहीं आया । और तो और बीस साल के बेटे का भी अपने हाथों से दाह संस्कार किया था तब भी तुम्हारे अन्तर्मन की आसक्ति में कोई कटौती नहीं हुई। हाँ, हम अपने बुढ़ापे को सार्थक कर सकते हैं, इसे नई दिशा दे सकते हैं, इसे बजाय जीवन-मुक्ति का पर्याय बना सकते हैं। रफ़्ता - रफ़्ता रिस रही ज़िंदगी . व्यक्ति जब पचास वर्ष का हो जाए तो वृद्धावस्था की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। यह न सोचें कि बुढ़ापा मुझे नहीं मेरे पड़ौसी को आया है। तब तो मुश्किल हो जाएगी क्योंकि एक दिन बुढ़ापा आपको अपने चंगुल में फँसा ही लेगा । जीवन तो शिवलिंग पर लटका हुआ पानी का वह घड़ा है जिसमें नीचे की ओर छेद है और बूँद-बूँद कर पानी रिस रहा है। कौन-सी बूँद अंतिम बन जाएगी इसकी तो हमें खबर भी नहीं हो पाएगी। हमारी ज़िंदगी धीरे-धीरे रिस रही है। सभी रफ्ता रफ्ता मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं। हम बुढ़ापे को इस तरह जिएँ कि वह जीवन का पड़ाव बनें, मृत्यु का नहीं । मैं उन लोगों को सतर्क करना चाहता हूँ जो आज बुढ़ापे की दहलीज़ पर हैं, लेकिन आने वाला कल बुढ़ापे का है । सावधान हो जाएँ वे लोग जो कल तक तो जवान थे पर आज बुढ़ापे में जीने को मज़बूर हैं । जिन्हें जीवन जीने की कला आई, जिन्हें जीवन जीने का मार्ग मिला उनके लिए जीवन धन्य हो गया। यह आप पर निर्भर है कि आप अपने जीवन को गुनगुनाते हुए जियें या भुनभुनाते हुए जिएँ । बुढ़ापा है तो अच्छे गीत गाओ, अच्छी कविताएँ गाओ, अच्छे चित्र बनाओ, प्रकृति के अच्छे नज़ारे देखो, अच्छे बोल बोलो, अच्छे संवाद करो और अच्छी ज़िंदगी जीने की कोशिश करो। यह हम पर निर्भर है कि हम जीवन को कौन-सी दिशा और मार्ग दे रहे हैं अगर जवानी सुख भोगने के लिए है तो बुढ़ापा दुःख भोगने के लिए नहीं है। बुढ़ापा पीड़ाओं को भोगने या शैय्या पर पड़े रहने के लिए नहीं है और न ही बेकार की बकवास करने के लिए है । 1 बुढ़ापा तो शांति से जीने के लिए है। जवानी में व्यक्ति शांति नहीं पा सकता क्योंकि जवानी में उधेड़बुन रहती है, मैं कहूँगा कि जवानी को अगर सुख से जीओ, तो बुढ़ापे को शांति से जीओ। हम ऐसा क्या करें कि हमारा बुढ़ापा सार्थक हो जाए। हमारा बुढ़ापा हमारे लिए उपयोगी बन जाए। मृत्यु से पहले हमारी मुक्ति का मार्ग खुल जाए। बुढ़ापे के लिए तीन संकेत आपको देता हूँ जिससे हम अपने बुढ़ापे को सही तरीके से जी सकें, स्वस्थ और प्रसन्न मन से जी सकें। बुढ़ापा हो – स्वस्थ, कार्यरत और सुरक्षित । लीजिए उचित आहार और व्यायाम बुढ़ापे में पहली सावधानी रखी जानी चाहिए उचित आहार की। संयमित व संतुलित आहार लें। ज़वानी में तो आप सब कुछ हज़म कर लेते थे, तीखा - खट्टा-मीठा-चरपरा सब पच जाता था, लेकिन बुढ़ापे में आप ऐसा नहीं कर पाएँगे क्योंकि पाचन-तंत्र कमजोर हो जाता है । आहार-विहार, खान-पान का संयम बुढ़ापे में लाभकारी रहता है । समारोह में विभिन्न व्यंजनों को देखकर ललचाएँ नहीं। ये आपके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव 129 For Personal & Private Use Only . Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डालते हैं। महीने में एक बार किसी चिकित्सक से अपने शरीर की जांच जरूर कराएँ । कहीं ब्लड शुगर तो नहीं बढ़ गई है, रक्तचाप में बार-बार परिवर्तन तो नहीं हो रहा है, कोई रोग आपके शरीर में जगह तो नहीं बना रहा है ? चिकित्सकीय परीक्षण से सारी संभावनाओं का पता चल जाता है और आप स्वयं पर नियंत्रण रखने में सफल हो सकते हैं । आहार-संयम का पूरा-पूरा ध्यान रखें । बुढ़ापे में दूसरी बात जो करनी चाहिए वह है उचित व्यायाम। यह न सोचें कि बूढ़े हो गए हैं तो व्यायाम और योगासन कैसे कर सकते हैं। ढेर सारे व्यायाम कर सकें या न कर सकें पर संधिस्थलों के व्यायाम चाहे जितनी उम्र हो जाए, अवश्य करना चाहिए। स्वास्थ्य एवं हड्डियों की मज़बूती के लिए, शरीर की जकड़न को दूर करने के लिए, गठिया जैसे रोगों से बचने के लिए, घुटनों के दर्द और पीड़ाओं से मुक्ति पाने के लिए, पीठ दर्द से बचने के लिए हर व्यक्ति को कम से कम अपने संधि-स्थलों का व्यायाम जरूर कर लेना चाहिए। पन्द्रह मिनट भी अगर आप संधि-स्थलों के व्यायाम कर लेंगे तो बहुत से रोगों से मुक्त हो सकेंगे। सुखी और स्वस्थ बुढ़ापे के लिए पन्द्रह मिनट प्रातः भ्रमण अवश्य करें। अगर आधा घंटा टहल सकें तो बहुत ही अच्छा, अन्यथा पन्द्रह मिनट अवश्य घूमें। शरीर की हड्डियाँ मशीन की तरह है । अगर उपयोग किया तो काम की रहेंगी, नहीं तो धीरे-धीरे इसमें जंग लग जाएगा और जकड़ जाएंगी। शरीर का यह स्वभाव है कि जब तक इससे काम लो यह काम का रहता है और जैसे ही काम लेना बंद किया कि नाकाम हो जाता है। मैंने अनुभव किया है कि भोर की किरणें आपके शरीर पर पड़ती है तो वे अमृत का काम करती हैं। सुबह की हवा सौ दवा के बराबर है । इसलिए जितना आपसे संभव हो उतना व्यायाम अवश्य करें। स्वास्थ्य-रक्षा के लिए प्राणायाम को भी जोड़ लें। योग और प्राणायाम में हमारे स्वास्थ्य की आत्मा छिपी है। स्वास्थ्य पर रखिए सतर्क निग़ाहें तीसरा बिंदु है - आरोग्य के प्रति हर बूढ़ा व्यक्ति सतर्क रहे। शरीर में होने वाले किसी रोग को नज़रअंदाज़ करने की बजाय तत्काल उसका समाधान करने की कोशिश करें। यह न सोचें कि अब क्या करना है, बूढ़े हो गए हैं, कौन डॉक्टर को दिखाए, कौन दवा का खर्चा करे, जैसे-तैसे ठीक जाएँगे। जीवन भर दुकान, मकान, कोठी पर खर्च करते रहे लेकिन आप अपने स्वास्थ्य की अवहेलना न करें। किसी भी प्रकार के रोग के लक्षण नजर आए तो उसके प्रति सावधानी रखें। उसका तुरंत इलाज कराएं ताकि रोग भयावह रूप धारण न कर सके। आप जो दवाएँ ले रहे हैं उनको निर्देश के अनुसार जारी रखें। कभी शरीर में थकान, टूटन, जकड़न या कमजोरी महसूस हो रही हो तो दूध के साथ हल्दी ले लिया करें। इससे हड्डियां मजबूत होती हैं । कभी आपके पेट में तकलीफ हो जाए या शरीर में कहीं हल्का-फुल्का दर्द उठ जाए तो घरेलू उपचार भी किए जा सकते हैं । आपकी रसोई भी छोटा-सा दवाखाना है। इसमें रखी हुई हल्दी, मैथीदाना, अजवाइन का भी यदा-कदा सेवन करते रहें । ये हैं तो बहुत छोटी चीजें, पर हैं बहुत लाभकारी। ये आपके शरीर पर दवा का काम करते हैं। हम अगर अपने शरीर के प्रति सतर्क रहते हैं तो स्वस्थ व निरोगी जीवन जी सकते हैं । 130 For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचें दख़लंदाजी से अपना दैनिक कार्यक्रम बनाएँ । घर में अधिक दखलअंदाज़ी न करें । जो जैसा कर रहा है उसे करने दें। घर में रहते हुए अधिक दखलंदाजी करेंगे तो दो नुकसान होंगे, एक तो परिवार के लोग आपसे टूटेंगे, आपकी बात नहीं सुनेंगे, दूसरा आप मानसिक रूप से अशांत रहेंगे। आपने अनुभव किया होगा कि जब आप घर की बहुओं को लेकर नुक्ताचीनी करते हैं या छोटी-छोटी बातों पर हस्तक्षेप करते हैं, तो परिवार वाले आपकी उपेक्षा करने लगते हैं। हां, अगर कोई बहुत बड़ी घटना हो जाए तो कम-से-कम शब्दों में हिदायत दें। अरे, आपका बेटा तीस साल का हो गया है, उसे उसकी समझ से भी कार्य करने दो। अगर आप बार-बार बोलेंगे तो परिवार के लोग मानसिक रूप से आपसे किनारा कर लेंगे। बहुएँ सोचेंगी ससुर जी दिन भर घर में बैठे रहते हैं, हम अपना मनचाहा कुछ भी नहीं कर सकते। तब आपका घर में रहना भारभूत बन सकता है। इसलिए व्यर्थ की झंझटबाजी मोल न लें, यह आपके मन को अशांत करेगी। आपकी संतान आपका कहना माने तो श्रेष्ठ और न माने तो चिंतित न हों क्योंकि अब कहने से भी मुक्ति मिली। सोचो क्या आपको अपने बच्चों के लिए ही सारी सिरपच्ची करनी है। मैंने अनुभव किया है कि पुत्र अगर किसी प्रकार के घाटे में चला जाए तो पुत्र तो निश्चिंत रहता है और पिता फिक्रमंद हो जाते हैं । ऐसे पिता हमारे पास आते हैं और कहते हैं गुरुवर, बेटे ने पच्चीस-पचास लाख का घाटा दे दिया है, कोई उपाय, कोई मंत्र बताएँ। मैं कहता हूं जिसने घाटा लगाया उसे कोई चिंता नहीं है, आप क्यों दुबले हुए जा रहे हैं ? अब भी अगर डूबने और खोने की सोचते रहोगे तो हर घड़ी अपने मन को पीड़ित और अशांत करते रहोगे। किस बात की चिंता करें? व्यर्थ की चिंताएँ न पालें। जवानी में चिंताओं का बोझ सहन किया जा सकता है, लेकिन बुढ़ापे में चिंताओं का बोझ व्यर्थ ही शरीर को तोड़ देता है। तुम्हारी चिंताएँ अगर कोई समाधान नहीं दे पा रही हैं तो व्यर्थ की चिंता करने की बजाए उसे समय पर छोड़ दें। ___मेरी तो यही सोच है कि अगर समाधान नहीं निकल पा रहा है, तो उसकी चिंता करने से अच्छा है उसे समय पर छोड़ दें। समय अपने आप उस कार्य को पूर्ण कर देगा। अब बेटा बिगडैल निकल गया, तुमने खूब समझाया पर वह अपनी बुरी आदतों को नहीं छोड़ पा रहा तो तुम उसके पीछे मत पड़ो। तुम अपनी सोचो। उसे तुम्हारी चिंता नहीं है, फिर तुम क्यों उसकी चिंता में नाहक कष्ट उठा रहे हो। मैंने तो यही पाया है कि बहू-बेटों को अपने माँ-बाप की उतनी चिंता नहीं होती, जितनी माँ-बाप को अपने बहू-बेटों की रहती है। वे ऐसी चिंताएँ लादे रहते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता लेकिन इस कारण अपना बुढ़ापा ज़रूर बिगाड़ लेते हैं। अधिक आशा से उपजे निराशा बुढ़ापे में अपने भाग्य का रोना न रोएँ। जो प्रकृति से मिल रहा है उसे प्रेम से स्वीकार करें। बच्चों से अधिक आशाएँ न रखें। लोग प्राय: कहते हैं कि बेटा तो बुढ़ापे का सहारा है, पर मैं कहता हूँ ज्यादा आशा न पालें। जीवनभर अगर आशाएँ रखी हैं तो बुढ़ापे में निराश होना पड़ सकता है। अगर आशा ही न रखोगे तो निराश भी नहीं होना पड़ेगा। देखते तो हो कि पड़ौसी का बेटा अपने पिता की सेवा नहीं कर रहा, तुम भी अपने पिता की 131 For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा नहीं कर रहे तो अपने बेटे से यह आशा क्यों कर रहे हो। ये आशाएँ जब टूटती हैं तो बुढ़ापे में सिवाय दुःख के कुछ हासिल नहीं होता। तुम निःस्वार्थ भाव से बेटों के लिए जितना कर सको, कर दो, पर वापसी की अपेक्षा न रखो। अनावश्यक हठ भी न करें। घर में रहकर यह न कहें कि जो आपने कह दिया वह क्यों नहीं हुआ। कई बार बूढ़े लोग घर में रहकर झगड़ पड़ते हैं या दुःखी हो जाते हैं कि मैंने कहा था और घर में लोगों ने ऐसा किया या ऐसा क्यों नहीं किया । वाक्युद्ध शुरू हो जाता है और घर में अशांति छा जाती है। घर के लोगों को अगर तुम्हारी सलाह की ज़रूरत है, तो वे ज़रूर पूछेंगे और अगर तुम बिन माँगे दिन भर अपनी सलाह देते रहोगे तो उस सलाह की कोई क़ीमत न होगी । घर के लोग अगर आपके लिए कुछ काम करें तो उन्हें साधुवाद दो, कहो - मेरा बेटा बहुत अच्छा है, मेरा बहुत ध्यान रखता है। भले ही न रखता हो - पर शायद तुम्हारे इस प्रकार कहने से ही ध्यान रखना शुरू कर दे। एक बात और ध्यान रखें कि घर में कभी व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग न करें। कई बार बूढ़े लोग व्यंग्य में ऐसी बातें कह जाते हैं जो घर के लोगों को चुभने लगती है । आक्रोश में ग़लत कठोर शब्दों में कहने की बजाय उसी बात को सरल शब्दों में कहने से वह बात अधिक प्रभावी होती है। आप अशक्त हो चुके हैं, आपसे काम नहीं बन रहा है तो व्यंग्यपूर्वक बोलने की बजाय मधुरता से बोलें और अपना कार्य करवा लें । सीखें सत्तर पार भी एक बात और, सीखने की कोई उम्र नहीं होती है। शरीर से भले ही बूढ़े हो जाएं, पर मन को कभी अशक्त न मानें। सत्तर वर्ष के हो गए हो तब भी अच्छी किताबों को पढ़ें, उनका स्वाध्याय करें, कुछ अच्छी बातें सीखने की कोशिश करें। भारतीय लोग स्वयं को बहुत जल्दी बूढ़ा मानने लगते हैं, क्योंकि वे अपने दिमाग़ का उपयोग बंद कर देते हैं । उन्हें तो लगता है हम बूढ़े हो गए हैं अब क्या करें। मुझे याद है - एक जहाज में बूढ़ा जापानी यात्रा कर रहा था। आयु होगी लगभग अस्सी वर्ष की। वह जहाज में बैठा एक पुस्तक खोलकर कुछ पढ़ रहा था। एक अन्य महानुभाव जो उसी जहाज में यात्रा कर रहे थे, उन्होंने उससे पूछा- अरे, भाई क्या कर रहे हो ? उसने कहा- चीनी भाषा सीख रहा हूँ। वे सज्जन बोले- अस्सी साल के हो गए लगते हैं। बूढ़े हो गए, मरने को चले हो । अब चीनी भाषा सीखकर क्या करोगे ? जापानी ने पूछा, क्या तुम भारतीय हो ? उसने कहा- हाँ हूँ तो मैं भारतीय, पर तुमने कैसे पहचाना ? जापानी व्यक्ति ने कहा- मैं पहचान गया। भारतीय आदमी जीवन में यही देखता है कि अब तो मरने को चले, अब क्या करना है। हम मरने नहीं चले हैं, हम तो जीने चले हैं। मरेंगे तो एक दिन जब मृत्यु आएगी, लेकिन सोच-सोचकर रोज क्यों मरें ? जीवन में बुढ़ापे को विषाद मानने के बजाय इसे भी प्रभु का प्रसाद मानें। विषाद मानने पर जहाँ आप निष्क्रिय और स्वयं के लिए भारभूत बन जाएंगे, वहीं प्रमाद त्यागने पर आप नब्बे वर्ष के होने पर भी गतिशील रहेंगे। महान दार्शनिक सुकरात सत्तर वर्ष की आयु में भी साहित्य का सर्जन करते थे । उन्होंने कई पुस्तकें बुढ़ापे में ही लिखी थी । कीरो ने अस्सी वर्ष की उम्र में भी ग्रीक भाषा सीखी थी। पिकासो नब्बे वर्ष के हुए तब तक चित्र बनाते रहे थे । यह हुई बुढ़ापे की ज़िंदादिली । 132 For Personal & Private Use Only . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज़िंदगी में अपने मन को कमज़ोर करने की बजाय कुछ-न-कुछ सीखते रहें। हर उम्र में व्यक्ति सीख सकता है। संबोधि-धाम में जयश्री देवी मनस चिकित्सा केन्द्र चलता है। उस चिकित्सालय के प्रभारी चिकित्सक ने अपने पैंसठ वर्ष की आयु में पढ़ाई शुरू की और निरंतर पांच वर्ष तक अध्ययन करने के पश्चात आज वे वहाँ का चिकित्सालय संभाल रहे हैं। इसके पूर्व वे भूजल विभाग में उच्च अधिकारी थे। वहाँ से सेवानिवृत्त होने के बाद वे हमारे पास आए और बोले कि वे अपना जीवन कुछ अच्छे कार्य के लिए समर्पित करना चाहते हैं। हमने चिकित्सालय में कार्य करने का सुझाव दिया। प्रारंभ में तो वे सहयोगी के रूप में कार्य करते थे लेकिन मन में उत्सुकता जगी और पढ़ाई प्रारंभ की। वे महाशय डॉ. जे.एल. बोहरा हैं। संबोधि-धाम में 'बैच-फ्लॉवर' रैमेडीज से चिकित्सा की जाती है जो जर्मनी से संबंधित है। उन्होंने जर्मन से अध्ययन शुरू किया, परीक्षाएँ दी और ज़िंदगी के बहत्तरवें वर्ष में वे डॉक्टर बने, है न प्रशंसा की बात ! आदमी बनना चाहे और न बन सके ! जो बनना चाहता है वह बुढ़ापे में भी बन सकता है और जिसे बिगड़ना हो वह जवानी में भी बिगड़ सकता है। इसलिए स्वयं को कभी कमज़ोर महसूस न करें। अपने दिमाग़ को उज्ज्वल, निर्मल और पवित्र रखें। जो है उसे प्रेम से स्वीकार करें। मुझे याद है महात्मा गांधी एक बार श्रीलंका गए थे, कस्तूरबा भी साथ ही थी। वहाँ उन्हें किसी समारोह की अध्यक्षता करनी थी। वहाँ उनका स्वागत-सत्कार हुआ। संयोजक महोदय खड़े हुए और बोले यह हमारा सौभाग्य है कि आज हमारे यहाँ भारत के एक महापुरुष महात्मा गांधी पधारे हैं, उनके साथ उनकी माँ कस्तूरबा भी आई है। गुजराती में माँ को 'बा' कहते हैं, सो उसने समझा कि ये गांधी जी की माँ होंगी। सभा में बैठे हुए लोग चौंक गए कि संयोजक महोदय यह क्या बोल गए? क्या उन्हें नहीं मालूम कि कस्तूरबा उनकी पत्नी है, माँ नहीं। किसी ने जाकर उन्हें बताया 'बा' माँ नहीं, गांधीजी की पत्नी है। वह खड़ा हुआ और माफ़ी मांगने लगा कि उससे भूल हो गई। संयोजक चुप हो, इससे पहले ही गांधी जी खड़े हो गए और कहने लगे, 'इस व्यक्ति ने मेरी सोच को सुधारा है, मैं तो बुढ़ापे की ओर ही जा रहा हूँ। अगर इस व्यक्ति से मेरी पत्नी के लिए माँ का संबोधन निकला है तो आज मैं इस मंच से घोषणा करता हूँ कि आज के बाद कस्तूरबा मेरे लिए मातृवत् ही रहेगी।' पंचरत्न की पोटली जीवन में जिस व्यक्ति की उन्नत सोच होती है, वह हर आने वाले मोड़ को सही तरीके से स्वीकार कर लेता है। मैं सभी वृद्धों से कहना चाहता हूँ कि शरीर भले ही बूढ़ा हो जाए, लेकिन अपनी बुद्धि, अपने विचार, अपने मन को कभी बूढ़ा न होने दें। हम अपने बुढ़ापे को कैसे सार्थक करें? इसके लिए आपको पांच सूत्र देना चाहूँगा। 1. मोहासक्ति से ऊपर उठने की कोशिश करें। अगर आप अपने बुढ़ापे को सुखमय और सार्थकता से जीना चाहते हैं, तो आपके मन में घर-परिवार और विशेषकर धन के प्रति जो मोह-वृत्ति है उससे बाहर आएँ । ज्यादा कंजूसी अच्छी बात नहीं है। बुढ़ापे में भी यह सोच रहे हैं कि अपने बच्चों के लिए संग्रह कर लूँ तो छोड़ें इस बात को। बच्चों के पंख लग गए हैं, वे उड़ रहे हैं, अपनी व्यवस्था खुद कर रहे हैं, आप क्यों कंजूसी कर रहे हैं। व्यर्थ 133 For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मोहासक्ति और व्यर्थ की लोभ की प्रवृत्ति त्याग दें। व्यवस्थित जिएँ, ताकि बुढ़ापा आप पर प्रभाव न डाल सके। एक प्यारी घटना बताता हूँ। हम नाकोड़ा में थे, जोधपुर से एक वृद्ध दम्पति दर्शनार्थ वहाँ आए हुए थे। वे हमसे भी मिले। थोड़ी कंजूस प्रकृति के थे। मैंने कहा, भोजन कर लीजिए। पत्नी कहने लगी, तीर्थ में आए हैं तो धर्म की रोटी नहीं खाएँगे, टोकन से ही खाएँगे। मैंने कहा जैसी आपकी मर्जी, आप लोग खाना खाकर आ जाएँ। उनका विचार था कि भोजनशाला में जाएँगे तो दो थाली के पैसे लग जाएंगे। एक थाली यहीं मंगा लेता हूँ। दोनों एक ही थाली में खा लेंगे। मैंने कहा - ठीक है, यहीं व्यवस्था करा देता हूँ। मैंने एक व्यक्ति को भेजा और खाना मंगवा दिया और कहा कि पास में जो कमरा है उसमें बैठकर भोजन कर लीजिए। पति खाना खा रहा था और पत्नी यूं ही बैठी थी। मैंने कहा सर्दी का मौसम है, खाना ठंडा हो जाएगा। आप साथ में ही खा लीजिए। कहने लगी-नहीं, ये खा लें फिर मैं खा लूंगी। मैंने तीन बार कहा, पर नहीं मानीं । कहने लगी-बात कुछ और है। मैंने पूछा, क्या मतलब? बताया-ये खाकर खड़े होंगे तो मैं खाऊंगी, क्योंकि हम दोनों के बीच हमारी बत्तीसी एक ही है। ऐसी कंजूसी भी किस काम का? दूसरा रत्न-स्वयं को स्वस्थ महसूस करें और सक्रिय रहें । आप दीर्घजीवी के साथ स्वस्थ जीवी हों। आप जब तक सक्रिय रहेंगे, बुढ़ापा आपसे दूर रहेगा। अगर जवानी में भी निष्क्रिय हो गये तो गये काम से। बुढ़ापा रोकने के लिए - सदा गतिशील रहें। जहाँ तक संभव हो अपने कार्यों के लिए औरों पर आश्रित होने की बजाय अपने कार्यों को स्वयं सम्पादित करने का प्रयास करें। इससे आप स्वावलम्बी भी रहेंगे और सक्रिय भी।शरीर का जितना उपयोग करें यह उतना ही चार्ज होता जाएगा। घर के छोटे-मोटे कार्यों में हिस्सा बंटाते रहें। इससे आप थोड़े व्यस्त रहेंगे और ज़िंदगी में खालीपन नहीं लगेगा।आप सदैव चैतन्य शक्ति से भरपूर रहें। शारीरिक शक्ति के कमजोर पड़ने पर भी प्राणशक्ति को कभी भी कमज़ोर न हो दें। बुढ़ापे में आर्थिक, शारीरिक और पारिवारिक समस्याएं बढ़ सकती हैं, पर आप अपने मनोबल से इनसे पार लग सकते हैं। तीसरा रत्न-घर में निर्लिप्त भाव से रहें। निर्लिप्तता शांति और मुक्ति देती है। ध्यान रखें, अपनी संतानों में जब धन का बंटवारा करें तो एक हिस्सा अपने और पत्नी के लिए अवश्य रखें, साथ ही यह भी व्यवस्था दें कि आपकी मृत्यु के बाद आपके हिस्से का धन पुनः संतानों में बंटने की बजाय उस धन का मानवता के कल्याण के लिए खर्च हो ताकि आप मानवता के कर्ज से उबर सकें। नहीं तो परिवार के लोगों की जीते जी भी तुम्हारे धन पर ही नज़र होगी और मरने पर भी। अगर आपके संतान नहीं है तो धन-सम्पति में आसक्त होने की बजाय निष्पृहभाव से उसका सामाजिक हितों में उपयोग करें। चौथा रत्न - प्रतिदिन सुबह-शाम भगवान की भक्ति अवश्य करें। अनावश्यक इधर-उधर की बातें करने की बजाय प्रभु की प्रार्थना या आराधना कर लें। बुढ़ापे में भगवान की भक्ति मन की शांति का आधार बनेगी। पाँचवां रत्न - प्रतिदिन आधा घंटा अच्छी पुस्तक अवश्य पढ़ें ताकि मति संमति रहे, आपके मन की गति सद्गतिमय रहे। - 134 For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये पाँच बातें बुजुर्गों के बुढ़ापे की सार्थकता के लिए पांच रत्न की पोटली के समान हैं। टिप्स स्वस्थ बुढ़ापे के स्वस्थ बुढ़ापे के लिए ज़रूरी है कि हम श्वास सही तरीके से लें। प्रायः बुढ़ापे में थोड़ा-सा भी रुग्ण होने पर व्यक्ति की श्वास असंतुलित हो जाती है। स्वस्थ व्यक्ति एक मिनट में औसतन 16श्वास लेता है यानि प्रतिदिन चौबीस घंटे में 23040 श्वास ली जाती है। श्वास वह है जो हमारे प्राण की आधार तो है ही, साथ ही हम सर्वाधिक अपने शरीर में इसी का उपयोग करते हैं। जीवन को खेल समझें। जीवन हंसता-खिलता एक खिलौना है। इस खिलौने को उतना ही चलना है जितनी इसमें चाबी भरी गई है। प्रायः लोग जवानी को उमंग से जी लेते हैं पर बुढ़ापे में निराश हताश हो जाते हैं। बुढ़ापा उनके लिए भारभूत हो जाता है। शांतिपूर्ण बुढ़ापे के लिए मुक्त रहें। मौत प्रत्येक व्यक्ति को जिंदगी में एक बार ही मारती है और समय से पहले मारना मौत के हाथ में नहीं होता। पर अन्तर मन में पलने वाला मृत्यु का भय हमें बार-बार मारता है, समय से पहले मारता है। अच्छा होगा आप तनाव और चिंता से भी बचकर रहें। चिंता बुढ़ापे का दोष है इसका त्याग करें। हर दिन की शरुआत प्रसन्नता से करें। परिस्थितियों के बदलने के बावजद अपने मन की स्थिति न बदलें। घरेल व्यवस्थाओं में ज्यादा हस्तक्षेप न करें। अगर आप निर्लिप्त भाव से घर में रहेंगे तो सौ तरह के मानसिक क्लेशों से बचे रहेंगे। बुढ़ापे को विषाद की बजाय प्रसाद मानकर इसका शांति और मुक्ति के लिए उपयोग करें। बुढ़ापा यानी संत-जीवन-मुक्ति का जीवन, शांति का जीवन । बस, इतना याद रखिए और बुढ़ापे को सार्थक कीजिए। बुढ़ापे की धन्यता के लिए कुछ बातें निवेदन की हैं, इन्हें ध्यान में रखिए और आनंदित बुढ़ापे के स्वामी बनिये। 135 For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार को प्रभावी बनाने के गुर चेहरे का रंग देना कुदरत का काम है, पर जीवन को सही ढंग देना आपका। हर व्यक्ति के पास अपने व्यवहार का आईना होता है। उस आईने में व्यक्ति अपने स्वभाव, व्यक्तित्व, चरित्र और शालीनता का परिचय प्राप्त करता है । हमारा व्यवहार ही हमारे व्यक्तित्व की पहचान है। यही चरित्र का प्रतीक, कुलीनता का परिचायक और निजी स्वभाव का प्रत्यक्ष स्वरूप दिखलाता है। दुनिया में कई लोगों का व्यवहार इतना शालीन और मधुर होता है कि उनके पास बैठने और उनके साथ जीने से स्वयं का भी विकास और निर्माण होता है। दूसरी ओर कई लोगों का व्यवहार इतने निम्न स्तर का होता है कि उनके साथ जीने से हमारा व्यवहार भी निकृष्ट और कपटपूर्ण हो जाता है। हम जीवन की ऊँचाइयों को छूने से वंचित रह जाते हैं । व्यवहार एक आईना व्यक्ति अपने व्यवहार के आईने में अपने अंतरंग और बाह्य दोनों जीवन को प्रकट कर देता है । महान लोग शत्रु के साथ भी ऐसा मधुर व्यवहार करते हैं कि वे शालीनता और महानता के प्रतिमान बन जाते हैं और निम्न स्तरीय लोग अपने मित्र के साथ भी क्रूर और अनपेक्षित व्यवहार करते हैं । जब तक व्यक्ति की सोच, विचार और व्यवहार में एकरूपता स्थापित नहीं होती, तब तक उसका व्यवहार बाहरी तौर पर खुशमिज़ाज और भीतरी रूप से धूर्त हो सकता है, लेकिन उसके जीवन का श्रेष्ठ चरित्र नहीं हो सकता । व्यवहार व्यक्ति के विचार से, विचार मानसिक सोच से और मानसिक सोच आत्मिक चेतना से बनती है । जैसी व्यक्ति की सोच होती है, वैसी विचारधारा बनती है, जैसी विचारधारा होती है वैसी बुद्धि बनती है और विचार से ही आचार और व्यवहार बनते हैं । अपनी पहचान आप पहले चरण में आपकी वाणी की शालीनता, शब्दों का चयन और जीने का तौर-तरीक़ा सामने वाले व्यक्ति प्रभावित करता है। आप किसी के पास बैठे हैं, बातचीत कर रहे हैं, तो इसमें ख़ास यह है कि आप कैसे बैठे 136 For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, कितना बोल रहे हैं। किसी व्यक्ति का वाणी-व्यवहार, जीवन का व्यवहार, उठने-बैठने का सलीका यह दर्शाता है कि कौन ऊँचे कुल का है और कौन निम्न कुल का है। किसी की कुलीनता न तो पहनावे से, न ही उसके मकान, गाड़ी, कोठी, जमीन-जायदाद से प्रदर्शित होती है, वह तो उसके व्यवहार की शालीनता से प्रकट होती है। किसी भी व्यक्ति के व्यवहार को देखकर, उसके जीने के तौर-तरीक़े , जीवन की व्यवस्था और वाणीव्यवहार को देखकर हम पहचान सकते हैं कि वह कौन है और कैसा है। एक अंधा व्यक्ति सड़क के किनारे बैठा है कि तभी एक व्यक्ति वहाँ से निकलता है और कहता है 'सुन ओ अंधे, तुमने इधर से किसी को जाते हुए महसूस किया?' उसने कहा, 'नहीं, मैंने तो महसूस नहीं किया। सेनापति तुम जाओ।' तभी उसके पीछे दूसरा व्यक्ति आया और पूछता है 'सूरदास, तुमने इधर से किसी को जाते हुए पाया?' अंधे व्यक्ति ने कहा 'हाँ, तुमसे पहले सेनापति आया था और महामंत्री तुम उसके बाद जा रहे हो।' तभी तीसरा व्यक्ति आया और उसने भी पूछा, 'हे प्रज्ञाचक्षु, हे महात्मन्, क्या आपने यहाँ से किसी को जाते महसूस किया है ?' उसने कहा हाँ, पहले सेनापति गया, फिर मंत्री गया और अब तुम राजन् उनके पीछे जाओ।' व्यक्ति की वाणी सुनकर अंधा भी समझ लेता है कि व्यक्ति किस श्रेणी का है। इंसान अपने व्यवहार को सुधारकर ज़िंदगी को बेहतर बना सकता है। हम ही जीवन-शिल्पी आप काले हैं या गोरे, इससे क्या फ़र्क पड़ता है। गोरा और काला होना आपके हाथ में नहीं है, लेकिन अच्छा व्यवहार आपके हाथ में है। ऊँचा कुल नसीब से मिलता है, लेकिन सद्व्यवहार आपको कुलीन बना सकता है। वैसे भी मैं नसीब की बातें नहीं करता क्योंकि उसे बनाना, सुधारना या बिगाड़ना हमारे हाथ में नहीं है पर जो खुद के हाथ में है वह जीवन हम ही सुधार या बिगाड़ सकते हैं। शरीर का रंग-रूप तो सदा एक जैसा रह भी सकता है, लेकिन मैं उस जीवन की बात करता हूँ जिसे हम रंग-रूप देते हैं, दे सकते हैं। जीवन के व्यवहार को बदलना और उसे बेहतर बनाना हर किसी के हाथ में है। आप सम्पन्न घर में पैदा हुए या विपन्न घर में यह नसीब की बात है। आपके पिता सद्व्यवहार करते हैं या दुर्व्यवहार, यह भी नसीब की बात है, लेकिन आप औरों के साथ कैसे पेश आते हैं, आपकी सोच और विचार कैसे हैं, आपका व्यवहार कैसा है यह नसीब की नहीं, आपकी अपनी देन है। इसलिए मैं आपसे आपके नसीब को नहीं व्यवहार को सुधारने की बात कहता हूँ। नसीब भी तब सुधर जाता है जब आप खुद सुधर जाते हैं । मेरे पास एक महानुभाव आये और कहने लगे, 'अगर आपका दिमाग़ मुझे मिल जाता तो मैं एक बेहतर इन्सान बन जाता।' मैंने कहा, 'इस बात को छोड़ो, तुम एक बेहतर इंसान बन जाओ मेरा दिमाग़ तुम्हें अपने आप मिल जाएगा।' मेरा दिमाग़ देना तो मेरे हाथ में नहीं है लेकिन अगर आप बेहतर इंसान बन गए तो स्वयं का दिमाग़ विकसित करने में स्वयं समर्थ हो जाओगे। बाहर-भीतर बनें अभेद हम देखें कि हमारा व्यवहार कैसा है। एक बार आत्मावलोकन कर लें कि हमारा व्यवहार, हमारा विचार, 137 For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी सोच, हमारा अंतरंग जीवन इनमें कहीं भेद-रेखा तो नहीं है ? एक बार देख लें कि हमारी हँसी के भीतर कोई कुटिलता तो नहीं है। हमारी मुस्कान में कहीं कृत्रिमता तो नहीं है। हम जो दूसरों से गले मिलने की योजना बना रहे हैं इसमें कोई धूर्तता तो नहीं है। हमारी मित्रता में कोई शठता की सोच तो नहीं है। एक बार जरूर अपने में झाँक लें क्योंकि आदमी बाहर से अपने आपको जितना अच्छा दिखाता है, जरूरी है कि वह भीतर से उससे दोगुना अच्छा हो। दुनिया का एक मशहूर टॉवर है ‘कैलगेरी', उसकी ऊँचाई एक सौ नब्बे मीटर और वजन है दस हजार आठ सौ टन। वह टॉवर पृथ्वी सतह पर जितना ऊँचा है उसका चालीस प्रतिशत बाहर और साठ प्रतिशत जमीन के अंदर है। बाहर के हिस्से में चार हजार टन लोहा और ज़मीन के भीतरी हिस्से में छह हजार टन से अधिक लोहा लगा है। किसी भी टॉवर की मज़बूती के लिए ज़रूरी है कि वह जितना बाहर दिखता है उससे अधिक भीतर हो और आदमी के श्रेष्ठ व्यवहार के लिए ज़रूरी है कि जितना उसका अच्छा व्यवहार बाहर हो उतना ही अच्छा मन भीतर भी हो। न बनें काग़ज के फूल ___ खोखली जड़ों को लेकर अगर कोई पेड़ अपने आपको शोभायुक्त समझता है तो यह शोभा शीघ्र ही समाप्त हो जाने वाली है। व्यक्ति जैसा अपने आपको बाहर से दिखाता है उसका निजी और अंतरंग जीवन साठ प्रतिशत अच्छा हो। आपने देखा होगा कि पानी से भरे ड्रम में अगर हम बर्फ की शिला डालते हैं तो उसका नब्बे प्रतिशत भाग पानी के भीतर रहता है और दस प्रतिशत बाहर। वहीं हवा से भरा गुब्बारा पानी में छोड़ा जाए तो उसका दस प्रतिशत भाग पानी को छूता है और नब्बे प्रतिशत बाहर रहता है। व्यक्ति को अपना व्यवहार बर्फ की शिला की तरह रखना चाहिए। जितना श्रेष्ठ स्वयं को व्यवहार में दिखाए उससे ज्यादा श्रेष्ठ भीतर से होना चाहिए। यही है जीवन का रहस्य। जो लोग अपने जीवन को बेहतर तरीके से जीना सीख लेते हैं, बाहर और भीतर से जीवन को एकरूप बनाते हुए जीवन की महानताओं को आत्मसात् कर लेते हैं वे बर्फ की तरह होते हैं । वे दस प्रतिशत तो बाहर की तरफ दिखाते हैं और नब्बे प्रतिशत भीतर से अच्छे होते हैं, लेकिन कुछ लोग कृत्रिम जिंदगी जीया करते हैं – प्लास्टिक और कागज के फूलों की तरह । जो दिखने में तो अति सुंदर लगते हैं, लेकिन सुगंध नदारद रहती है। ऐसे लोग बाहर से अपने आपको नब्बे प्रतिशत अच्छा दिखाते हैं पर भीतर दस प्रतिशत भी अच्छे नहीं होते। झूठी मुस्कान, कृत्रिम हँसी, किसी सेल्समेन की तरह। जैसे सेल्समेन को प्रशिक्षित किया जाता है कि कैसे ग्राहकों के आने पर उन्हें मधुर व्यवहार करते हुए समझाया / पटाया जाए कि वे शोरूम से खाली हाथ वापस न जा सकें। ऐसे ही लोग कृत्रिमता ओढ़े रहते हैं । सेल्समेन का उद्देश्य किसी की सेवा नहीं है, बिज़नेस है। न जियें, दोहरी जिंदगी जीवन में कभी दोहरी ज़िंदगी न जियें, बाहर कुछ और भीतर कुछ। आरोपित मुखौटे को उतारें। बाहर मुस्कान और भीतर कुटिलता के भेद को समाप्त करें। अन्यथा आप उस आभूषण की तरह हो जायेंगे जिस पर झोल तो सोने का चढ़ा है, पर भीतर वह पीतल का है। ऐसे दो मुंहे इंसान कहेंगे कुछ, और करेंगे कुछ। ये काफी खतरनाक लोग होते हैं। एक बार हम कोलकाता में सांपों के संग्रहालय में थे, वहाँ अनेक प्रजातियों के साँप 138 For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखने को मिले । संग्रहालय के निदेशक हमारे साथ चल रहे थे। मैंने पूछा शास्त्रों में दो मुँहे साँप का उल्लेख आता है, अपने संग्रहालय में क्यों नहीं है। कहने लगे जब से दो मुँहे इंसान पैदा होने शुरू हो गए हैं तब से दो मुँहे साँप पैदा होने बंद हो गए हैं। शायद ! दो मुँहे साँप से भी ज्यादा ख़तरनाक दो मुँहे इंसान होते हैं । सौंपिए सूरज को अपना अंधेरा आप अपने व्यवहार को बेहतर बनाएँ और इसके लिए ज़रूरी है कि आप अपने विचारों को बेहतर बनाएँ । विचार और व्यवहार का संतुलन होना चाहिए। जब भी किसी से मिलें हीनता का भाव न रखें, न ही हीन भावना के विचार व्यक्त करें। मैंने लोगों को कहते पाया है 'ठीक है यार, जी रहे हैं, ठीक है, भैय्या वक्त काट रहे हैं, क्या करें जैसे-तैसे रोटी का जुगाड़ हो रहा है, अरे भैय्या क्या बताएँ किस्मत ही खराब है, अरे कैसी क़िस्मत फूटी जो इस औरत से मेरी शादी हुई'। पता नहीं, व्यक्ति कैसी-कैसी विपरीत टिप्पणी अपनी क़िस्मत और अपने बारे में करता रहता है। याद रखिए, सूरज की किरणें केवल आपकी परछाइयाँ बनाने के लिए नहीं हैं, सूरज की किरणें आपके जीवन को प्रकाशित करने के लिए हैं। जो सूर्य की किरणों से केवल अपनी छाया और परछाई देखता रह जाता है उसके लिए सूरज व्यर्थ है और जो सूरज की किरणों का उपयोग जीवन के प्रकाश के लिए करता है। उसके लिए ही सूरज सार्थक है। रोशन कीजिए सूरज की किरणों से अपने जीवन को । व्यवहार में न तो अकड़ दिखाएँ और न ही हीनता । जब तक व्यक्ति मन का निर्धन होता है, तब तक अपने धन की शेखी बघारता रहता है और जब तक अज्ञानी होता है तब तक अपने आपको ज्ञानी मानता है, जिसे अपने अज्ञान का बोध हो जाए वही वास्तव में ज्ञानी हो जाता है। याद रखें, जिसे अपने जीवन में अपार सम्पन्नता पाने के बाद भी सम्पन्नता का अहंकार नहीं होता, वही महान है। अहंकार किसका और कैसा ! आकाश को देखो तो तुम्हें प्रेरणा मिलेगी कि एक दिन तुम्हें ऊपर उठना है, कैसा अहंकार ! और ज़मीन को देखो तो तुम्हें प्रेरणा मिलेगी कि एक दिन तुम्हें ज़मीन में समा जाना है, फिर कैसा अहंकार ! जब भी किसी से मिलो, सहजता, सरलता और सहृदयता से मिलो। बड़ा वह नहीं जो सम्पन्न है या बड़ी-बड़ी बातें करता है, बड़ा वह होता है जो जीवन में, व्यवहार में बड़प्पन दिखाता है। औरों से ऐसे मिलो कि हमारा किसी से मिलना यादगार बन जाए। हमारे व्यवहार में इतनी विनम्रता और शालीनता तो होनी ही चाहिए कि दूसरों के द्वारा खुद को मान दिये जाने पर हम भी उसके मान का सम्मान कर सकें। सम्मान देकर सम्मान लें याद रखें, जीवन में मान पाने के लिए नहीं, देने के लिए होता है। इसे औरों को देकर खुश होइये। जीवन में सम्मान पाने की कोशिश न करें। जो व्यक्ति सम्मान पाने की ख्वाहिश रखता है, वही अपमानित होता है। जिसके भीतर सम्मान पाने की आकांक्षा नहीं है वह कभी अपमानित नहीं हो सकता। आप कितने भी महान क्यों न हों, लेकिन छोटे-से-छोटे व्यक्ति का भी मान करना सीखें। अगर आप किसी मीटिंग में बैठे हैं और एक अदना - सा व्यक्ति जो न तो सम्पन्न है, न किसी संस्था या संगठन का अध्यक्ष या मंत्री है, लेकिन वह विलम्ब से पहुँचा है तो आपका कर्त्तव्य है कि आप खड़े होकर उसका सम्मान करें। ऐसा करके आप स्वयं सम्मानित होंगे। जो भी 139 For Personal & Private Use Only . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके द्वार पर आए उसे सम्मान दें, फिर चाहे वह आपका शत्रु ही क्यों न हो। फ्रांस के सम्राट हेनरी अपने सभासदों के साथ राजमार्ग से जा रहे थे। उन्होंने देखा एक भिखारी सड़क पर खड़ा है। राजा को देखकर वह सड़क पर खड़ा हो गया। राजा के निकट आने पर उसने अपनी टोपी उतारी और राजा को प्रणाम किया। सम्राट ने जब यह देखा तो वे अधिकारियों के साथ पांच सैकण्ड के लिए वहीं खड़े हो गए और उन्होंने भी अपनी टोपी उतारी और भिखारी को प्रणाम किया। अधिकारियों में फुसफुसाहट हुई कि यह क्या, हमारे सम्राट भिखारी को भी प्रणाम करते हैं ? सम्राट ने सुना तो कहा 'मैं यह उदाहरण नहीं छोड़ना चाहता कि हेनरी भिखारी से निम्न स्तर का है कि भिखारी उसे प्रणाम करे, उसका सम्मान करे तो क्या हेनरी किसी भिखारी को सम्मान देना नहीं जानता?' इसलिए याद रखें कि भले ही आप सत्तासीन हों, सम्पन्न हों, ऊँचे पद पर हों लेकिन सबसे पहले मनुष्य हैं और मनुष्य होने के नाते एक-दूजे को सम्मान अवश्य दें। किसी दूसरे का किया गया सम्मान स्वयं अपना ही सम्मान है। बोलें प्यार की बोली मनुष्य होने के नाते आपका कर्त्तव्य है कि आप औरों के साथ सभ्यता से पेश आएँ, फिर वह आपकी पत्नी या संतान ही क्यों न हो। आपकी पत्नी आपकी अर्धांगिनी है, सम्मानपूर्वक आप उसे अपने घर लाए हैं उसे भी 'तुम' न कहें, शालीनतापूर्वक व्यवहार करें। हो सके तो अपने बच्चों को भी 'आप' कहिए। अगर आप घर में 'आप' की भाषा बोलते हैं तो घर में सभी 'आप' और सम्मान की भाषा बोलेंगे और आप घर में 'तू-तू, मैं-मैं' की भाषा बोलते हैं तो घर का हर सदस्य बातचीत में तू-तू, मैं-मैं' का ही प्रयोग करेगा। ___ हमारी एक साधिका बहिन है, अंजु जी गर्ग। उनकी भाषा की शिष्टता गजब की है। हर किसी को प्रभावित करता है उनका वाणी व्यवहार । इस युग में जहाँ पति-पत्नी भी एक दूजे को तुम कहते हैं । लोग अपने बड़े भाईबहिन को भी तुम कहते हैं, वहाँ वे अपनी सन्तानों को भी आप कहती हैं । कोई अपने से छोटा भी क्यों न हो, पर उसके साथ भी व्यवहार तो सम्मानपूर्वक ही होना चाहिए। हमें इतना महान होना चाहिए कि नौकर के साथ भी हम सम्मानपूर्ण भाषा का प्रयोग करें। अरे नौकरी करना तो उसकी मजबूरी है वरना वह भी तुम्हारा मालिक बन सकता था। मुझे याद है-मुम्बई में एक भिखारी सड़क के किनारे बैठा था। तभी उधर से एक सम्पन्न व्यक्ति निकला। भिखारी ने कहा, 'माई-बाप कुछ दीजिए।' उस व्यक्ति ने झल्लाकर कहा, 'हुंह, बैठ जाते हैं भीख मांगने, भीखमंगे कहीं के' थोड़ी गालियाँ भी दी और कहा 'मेरी दुकान पर आकर बैठ, कुछ काम कर, तीस रुपये रोज के दे दूंगा।' भिखारी बोला, 'साहब आप तीस रुपये की बात करते हैं। आप मेरी दुकान पर मेरे साथ बैठ जाओ मैं आपको साठ रुपये रोज के दूंगा।' अब सम्पन्न व्यक्ति का चेहरा देखने लायक था। मैंने देखा एक व्यक्ति की विचित्र आदत थी। कोई व्यक्ति अगर उनसे मिलने घर आता तो वे उसे भोजन का आग्रह करते और वह जब भोजन करते हुए दो कौर भी नहीं खा पाता तो कहते – 'अच्छा हुआ आपने खाने की हाँ कर ली मैं अभी ये खाना कुत्तों को ही डाल रहा था।' तुम भोजन कराकर भी अपनी ओछी वाणी के चलते उसे 140 For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राख कर देते हो। सभी को सम्मान देना सीखो। भिखारी को देने के लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो कम-सेकम प्रेम भरे दो बोल तो बोल सकते हो। प्रेम के मीठे दो बोल तुम्हारी दो रोटियों से भी ज्यादा मूल्यवान होंगे। आप किसी को मान नहीं दे सकते तो कम-से-कम अपमान की भाषा तो मत दीजिए। याद रखें, एक दिन अपमानित उसी को होना होता है जो दूसरों को अपमानित करता है । सफल लोग अपने व्यवहार को खुशनुमा और आकर्षक बनाने का प्रयास करते हैं। मैं कहना चाहता हूँ, यही प्रार्थना भी करता हूँ कि भले ही ईश्वर हमारे प्रवचन की चमक को कमजोर कर दे, लेकिन हमारी शालीनता को कभी हमसे न छीने। ऐसा न हो कि कोई सम्पन्न आए तो उसके सम्मान में गलीचे बिछा दें और गरीब या मध्यम वर्गीय आए तो बैठने के लिए भी न कहें। कम-से-कम संतों के द्वार तो सभी के लिए समान रूप से खुले रहने चाहिए। अगर मंदिरों और संतों के द्वार पर भी संपन्न और निर्धन की भेदरेखा बनी रहेगी तो आम लोग धर्म से दूर होते जाएंगे। मैं संतों से निवेदन करता हूँ कि वे मानवता का सम्मान करें केवल पैसे वालों के पिछलग्गू न बनें। पैसे वाला प्रसन्न होगा तो तुम पर थोड़ा पैसा खर्च कर देगा, पर अगर गरीब को भी प्रसन्न रखोगे तो वह श्रद्धा से भरा हुआ अपना सब कुछ तुम पर कुर्बान करने को तैयार हो जाएगा। कोई द्वार तो ऐसा हो जहाँ निर्धन को भी पूरा सम्मान मिले। सम्पन्न तो जहाँ जाएगा सम्मानित हो जाएगा, लेकिन हमारे व्यवहार की शालीनता ऐसी हो कि हमारे द्वार पर अगर कोई गरीब, विधवा, विकलांग, दुःखी, पीड़ित व्यक्ति आ जाए तो निराश होकर न जाए। खाली नहीं, खुला रखें दिमाग व्यक्ति अपने उठने-बैठने, चलने-फिरने, बोलचाल, व्यवहार में शालीनता का ध्यान रखता है तो यही उसकी कुलीनता है। अच्छा जीवन इन्सान के अच्छे नज़रिये से, अच्छे तौर-तरीके और अच्छे व्यवहार से बनता है। केवल सुन्दर पहनावा, सुन्दर जूते, आकर्षक शृंगार मात्र दो घंटे के लिए आपकी सुन्दरता को बढ़ा सकते हैं, लेकिन अच्छा व्यवहार सदा सुंदर बनाए रखता है। गोरा रंग तीन दिन और अधिक धन तीस दिन अच्छा लगता है । उसके बाद व्यक्ति न तो रंग के साथ जीता है, न धन के साथ, वह तो व्यवहार के साथ जीता है। गोरा पति या पत्नी थोड़े समय ही अच्छे लगते हैं, धन भी कुछ देर तक साथ निभा देता है, लेकिन अंततः तो स्वभाव और अच्छा व्यवहार ही साथ रहने योग्य रहता है। काली पत्नी चलेगी बशर्ते उसका स्वभाव और व्यवहार अच्छा हो। वह गोरा पति या पत्नी किस काम के जो झगड़ालू, कषायग्रस्त, वैर-विरोध की गाँठ बांधे रहें और सदा गुस्से से भरे रहें । वे तो उस चूने की तरह हैं जो दिखने में सुंदर-सफेद हैं, पर एक चम्मच मुँह में डालो तो अक्ल ठिकाने पर आ जाती है । जीवन में रंग-रूप और धन की इतनी कीमत नहीं है जितनी कि नेक व्यवहार, श्रेष्ठ आचार और निर्मल विचारों की है । चरित्र और व्यवहार में मेलजोल बनाएँ। जीवन में खाली नहीं, खुले दिमाग़ के रहें । हर किसी की बात को खुले दिमाग़ से सुनो फिर चाहे उसे स्वीकारो या न स्वीकारो, पर सुनने के लिए दिमाग़ खुला तो रखो । अच्छाई मेरी तो बुराई भी व्यक्ति अपने व्यवहार से अपनी शख़्सियत को प्रभावी बना सकता है। बेहतर जीवन और प्रभावी शख़्सियत 141 For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्माण के लिए आवश्यक है कि आप अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करें। जो आपकी जवाबदारियाँ हैं उनसे मुँह मोड़ने की बजाय उन्हें पूरा करने की कोशिश करें। अपने घर 'हर अच्छे कार्य का श्रेय अगर आप लेना चाहते हैं तो जब कुछ बुरा घट जाए तो उसकी जिम्मेदारी भी आप ही लेना। अच्छे कार्य का श्रेय तो सभी लेना चाहते हैं, लेकिन बुरा काम दूसरे के नाम मढ़ देते हैं। ऐसा कभी न करें। उस बुरे या गलत काम की जिम्मेदारी आप स्वीकार करें, दूसरों पर न डालें। ध्यान रखें, घर में कभी किसी पर इल्ज़ाम लगाने की कोशिश न करें। अपने आप को बचाने के लिए सास-बहू पर, देवरानी जेठानी पर, जेठानी ननद पर, ननद भाभी पर दोष लगाती हैं । आप ऐसा कभी न करें। दूसरें पर दोष लगाने की बजाय अपनी सोच को बेहतर बनाते हुए अपनी जिम्मेदारी खुद समझें । अगर ग़लती हो गई है तो जिम्मेदारी उठाएँ । माता-पिता को दोष न दें। भगवान को भी दोष न दें कि उसने किस माँ-बाप के घर में पैदा कर दिया। अपने ग्रह और नक्षत्रों को भी दोष न दें किसी ग़लत काम के लिए। देखता हूँ, अगर किसी व्यक्ति को अपने धंधे में नुकसान हो जाए तो सीधा ज्योतिषी के पास जाता है, और ज्योतिषी जन्मपत्री देखकर कह देता है, तुम्हारे शनि की महादशा थी इसलिए नुकसान लगा, फिर आदमी अपने नुकसान का सारा दोष शनि के मत्थे मंडता है। परिणामतः वह उस नुकसान से कभी उबर नहीं पाता । अच्छा होता, वह किसी शनि की दशा को दोष देने की बजाय अपनी कार्यशैली के दोषों को मिटाता तो शीघ्र ही वह घाटे से उबर जाता। अपने काम की जिम्मेदारी खुद लें। अगर ग़लत काम आपके द्वारा हुआ है तो किसी शनि की महादशा को दोष देने की बजाय अपनी सोच और कार्यशैली के दोष को पहचानें। जो अपनी जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करता वह जीवन के हौंसले से पस्त हो जाता है । मुझे याद है - घर में अलमारी का काँच फूट गया। सास ने बहू से पूछा 'बेटा, यह काँच किसकी गलती से फूटा ।' बहू ने कहा 'मम्मी ! यह काँच तो आपके बेटे की गलती से फूटा।' सास ने कहा 'बेटे की गलती से ? बताओ तो क्या हुआ, वह काँच से क्या कर रहा था।'' मैं गुस्से में थी', बहू ने कहा 'मैंने आपके बेटे को मारने के लिए बेलन फेंका, आपका बेटा नीचे झुक गया तो बेलन काँच पर जा लगा। ग़लती सरासर आपके बेटे की ही है । ' अपनी ग़लती को व्यक्ति स्वीकार नहीं कर रहा है। उसकी जवाबदारी और ज़िम्मेदारी दूसरे पर डाल रहा है। जीवन में अपने द्वारा होने वाली ग़लती को स्वीकार करने की आदत डालें | हज़ार तरह के बहाने बनाकर और जैसे-तैसे अपनी ग़लती को ढँकने की कोशिश न करें। ग़लती किसी से भी हो सकती है। ग़लती न करे वो भगवान है, पर जो ग़लती कर सुधर जाए वो नेक इंसान ही कहलाएगा। सबके सुख में मेरा सुख व्यवहार को प्रभावी बनाने के लिए दूसरा क़दम है -- दूसरों के प्रति हितकारी सोच। हमेशा अपने लिए ही न सोचें। यह हमारे विचार और व्यवहार को दोष है कि हम अपने बीवी-बच्चे और परिवार की तो सोचते हैं लेकिन दूसरों के बारे में नहीं सोचते । एक परिवार में बाज़ार से ब्रेड मंगवाई गई। उस पैकेट को जब खोला तो 142 For Personal & Private Use Only . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें दुर्गंध आ रही थी। उसने अपनी बीवी-बच्चों को हिदायत दी कि ब्रेड न खायें। साथ ही कहा कि बाहर जो भिखारी बैठा है उसे ले जाकर दे दो। क्या आपके भीतर जरा भी इन्सानियत है ? सुबह की दाल, गर्मी के कारण खट्टी हो गई। आप कहते हैं कि फेंकना मत, कोई भिखारी जा रहा हो तो उसे दे देना। सावधान ! कहीं पुण्य के नाम पर हम पाप तो नहीं कमा रहे हैं। जो चीज तुम खुद नहीं खा सकते, अपने बच्चे को नहीं खिला सकते वह किसी निर्धन के बच्चे को खिलाकर उसे बीमार करने की कोशिश कर रहे हो। अगर तुम देना ही चाहते हो तो वही दो जिसका तुम खुद उपयोग कर सको। बची हुई रोटी देने तक की सोच न रखें। जब आटा भिगोओ तब तुम उसमें दो मुट्ठी आटा ज्यादा भिगोना और उसकी रोटी किसी ग़रीब भिखारी को दे देना, तुम्हारे तो आटे के डिब्बे भरे हैं, अत: दो मुट्ठी आटा निकालने पर फ़र्क नहीं पड़ेगा, पर उस ग़रीब के तो दो रोटी में काफ़ी फ़र्क पड़ जाएगा। अमेरिका में एक बालक आइसक्रीम की दुकान पर गया और आइसक्रीम की कीमत पूछी तो वेटर ने बताया पिचहतर सेंट । बालक ने अपनी जेब में हाथ डाला तो पाया उसके पास पिचहतर सेंट ही है। उसने कहा 'क्या और छोटा कप या कॉन नहीं है ?' वेटर ने कहा हाँ है, पैंसठ सेंट का'। बालक ने पैंसठ सेंट वाली आइसक्रीम के कप का ऑर्डर दिया। बच्चे ने आइसक्रीम खाई और चला गया। वेटर जब खाली कप और प्लेट उठाने आया तो देखा कि प्लेट में दस सेंट रखे हुए हैं। आप अपने कल्याण और सुख की सोचने के साथ दूसरों के हित का भी ध्यान रखें। हमारे सभी शास्त्र, वेद, उपनिषद और आगम यही तो पाठ दे रहे हैं कि हम केवल अपने सुख की कामना तक सीमित न रहें, बल्कि अपने जीवन में सर्वे भवन्तु सुखिनः' की कामना लेकर चलें। हम अपने मानवीय दृष्टिकोण को उदात्त करें। यह अच्छा है कि आप समाज के मंच पर खड़े होकर पाँच लाख का दान करते हैं पर हमारे नौकर की पत्नी अगर बीमार हो जाए और वो हमसे बीस हजार रुपये पत्नी के इलाज के लिए उधार मांग ले तो हमें देने में क्यों हिचकिचाहट होती है ! न लौटेंगे शब्दों के तीर व्यवहार को प्रभावी बनाने के लिए तीसरी बात है कि शब्दों का चयन सावधानी से करें। हर बात सोचने की तो होती है पर हर बात कहने की नहीं होती। बुद्धिमान सोचकर बोलता है और बुद्ध बोलकर सोचता है। इससे अधिक फ़र्क नहीं है बुद्धिमान और बुद्ध में । इसलिए बोलने में अपने शब्दों का चयन सावधानीपूर्वक करें। सतर्कतापूर्वक करें । जीभ तो आपकी अपनी है और इस पर नियंत्रण भी आपको ही रखना पड़ेगा। हमारी एक जीभ की रक्षा बत्तीस पहरेदार करते हैं लेकिन जीभ का अगर ग़लत उपयोग कर लिया तो बत्तीस पहरेदार (दाँत) भी संकट में पड़ जाएँगे। यह अकेली बत्तीसी को तुड़वा सकती है। इसलिए ग़लत टिप्पणी न करें और न ही व्यंग्य में अपनी बात को पेश करें। किसी को आप खाने में चार मिठाई भले ही न खिला सकें लेकिन आपके चार मीठे बोल खाने को जायकेदार बना देंगे। वाणी का बेहतर उपयोग करना सीखें, क्योंकि मुँह से निकले हुए शब्द कभी लौटाये नहीं जा सकते हैं। मुझे याद है कि एक किसान ने अपने पड़ौसी की खूब निन्दा की, अनर्गल बातें उसके बारे में बोली। बोलने के बाद उसे लगा कि उसने कुछ ज्यादा ही कह दिया, गलत कर दिया। वह पादरी के 143 For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास गया और बोला ' मैंने अपने पड़ौसी की निन्दा में बहुत उल्टी-सीधी बातें कर दी हैं, अब उन बातों को कैसे वापस लूँ ?' पादरी ने वहाँ बिखरे हुए पक्षियों के पंख इकट्ठा करके दिये और कहा शहर के चौराहे पर डालकर आ जाओ। जब वापस आ गया तो पादरी ने कहा, 'अब जाओ और इन पंखों को वापस इकट्ठा करके ले आओ।' किसान गया, लेकिन चौराहे पर एक भी पंख नहीं मिला। सब हवा में तितर-बितर हो चुके थे। किसान खाली हाथ पादरी के पास लौट आया। पादरी ने कहा, 'यही जीवन का विज्ञान है कि जैसे पंखों को इकट्ठा करना मुश्किल है वैसे ही बोली हुई वाणी को लौटाना हमारे हाथ में नहीं है। जैसे कमान से निकला हुआ तीर वापस नहीं लौटता वैसे ही मुंह से निकले हुए शब्द कभी वापस नहीं लौटाये जा सकते ।' सत्य बोलें, पर मधुर बोलें। ऐसे सत्य को भी कम बोलने का प्रयास करें जो दूसरे की भावना को ठेस पहुँचाए । कभी दूसरों की कमज़ोरी का मज़ाक न उड़ायें। व्यंग्य भरी भाषा से बचें। आप नहीं जानते आपका छोटा-सा व्यंग्य सामने वाले के लिए बाण का काम कर सकता है और वह जीवन भर के लिए आपसे गाँठ बाँध सकता है। हर सास इस बात का ध्यान रखे कि अपनी बहू से कभी व्यंग्य में न बोलें। आप बहू के पीहर के लिए छोटी-सी टिप्पणी करते हैं पर उसके लिए वह बाण का काम कर सकता है। अगर आपकी बहू ग़रीब घर से आयी हो तो भी उसे बातों में उसके पीहर की ग़रीबी याद न दिलायें । महाभारत का कारण केवल जुआ या चीर-हरण ही नहीं था, अपितु द्रौपदी की वह व्यंग्यात्मक टिप्पणी थी जिससे दुर्योधन के मन में द्रौपदी के प्रति विरोध की गाँठ बँधी । ज़मीन पर चलते समय पानी का भ्रम और पानी में उतरते समय ज़मीन का भ्रम, दुर्योधन चूक खा जाता है और द्रौपदी बोल पड़ती है अंधे का बेटा अंधा होता है। दुर्योधन को यह बात बाण की तरह चुभती है और वह द्रौपदी के अपमान के लिए विद्वेष की गाँठ बाँध लेता है । पालें' कोच' की सोच व्यवहार को प्रभावी बनाने के लिए चौथा गुर है कि आप कभी किसी की आलोचना न करें। न तो औरों की आलोचना करें न ही दूसरों के द्वारा की जा रही आलोचना सुनें। ध्यान रखें, जो आज आपके सामने किसी की आलोचना कर रहा है कल वह दूसरों के सामने आपकी आलोचना भी कर सकता है। अगर आपको परिवार के किसी व्यक्ति की गलती दिखाई देती है तो आलोचना करने के बजाय 'कोच' बनने की कोशिश करें। जैसे खेल कोच टोकता है, समझाता भी है, खेलने के गुर भी सिखाता है, इशारे भी देता है और आलोचना भी करता है, लेकिन उसका लक्ष्य, उसकी सोच, उसकी मानसिकता खिलाड़ियों को बेहतर बनाने की होती है । आप भी ऐसे ही कोच बनें ताकि व्यक्ति बेहतर जीवन जीने का मार्ग खुद को भी और औरों को भी दे सके। मुझमें कमियाँ आप निकाल सकते हैं और आप में मैं कमियाँ निकाल सकता हूँ। यह तो नज़रिया है कि व्यक्ति महान से महान पुरुष में भी कमियाँ निकाल सकता है और कमज़ोर से कमज़ोर व्यक्ति में भी विशेषताओं को ढूँढ सकता है । आप लोग मेरी यह सफेद चादर देख रहे हैं न, दो मिनट में यह काली हो सकती है, कैसे ? बस आप अपनी आँखों पर काला चश्मा चढ़ा लीजिए, हो गई न काली! सामने वाला न तो सफेद है न काला है; वह तो जैसा है 144 For Personal & Private Use Only . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसा ही है। फ़र्क आपकी नज़रों का है कि आप उसे कैसे देखते हो। नज़ारा वैसा बनता है जैसी हमारी नजरें होती हैं । इसलिए नज़रों को न बिगाड़ें। किसी को देखकर, किसी के साथ रहकर, किसी के साथ जीकर, किसी के साथ अपने आपको जोड़कर व्यक्ति अपनी नज़रों को हमेशा निर्मल बनाने की कोशिश करे। कहना भी हो तो अकेले में कह दें ताकि आलोचना न हो और उसे सुधरने का अवसर मिल सके। -- कहते हैं बीरबल ने अकबर का बहुत सुंदर चित्र बनाया और अकबर को भेंट कर दिया। अकबर ने अपने अन्य प्रिय सभासदों को वह चित्र दिखाया और कहा - देखो, इसमें कुछ कमी है क्या ? एक ने वह चित्र देखा और एक गोल बिंदी बनाई कि इसमें यहाँ कमी है, दूसरे ने भी कहीं कमी बताई, तीसरे ने कहीं और गोला बनाया कि यहाँ कमी है और दरबार के उन आठों रत्नों ने आठ जगहों पर निशान लगाए कि यहाँ यहाँ कमी है। बीरबल सारी बातें चुपचाप सुनता रहा। जब जहाँपनाह ने वह चित्र बीरबल को वापस दिया और कहा, 'देखो इन लोगों ने इस चित्र में यहाँ यहाँ कमी दिखाई है।' बीरबल ने कहा, 'जहाँपनाह इस चित्र को तो छोड़िये । मैं अपने साथ आठ कोरे कागज़ लाया हूँ और आप ये कागज़ इन्हें दे दीजिए और कहिये कि ये सभी एक-एक चित्र बनाएँ । तब पता लगेगा कि चित्र बनाना क्या होता है और चित्र में कमी निकालना क्या होता है।' व्यक्ति चित्र तो नहीं बना सकता लेकिन चित्र में कमियाँ निकाल सकता है। कृपया अपनी इस आदत को सुधारिये। न तो अज्ञानतावश और न ही ईर्ष्यावश, किसी की आलोचना मत कीजिये । मुस्कुराएँ जी भरकर व्यवहार को प्रभावी बनाने की अगली सीढ़ी है सदा मुस्कुराते रहें और अपने हृदय में दयालुता के भाव अवश्य रखें । मुस्कान का आदान-प्रदान जीवन की मुस्कान का राज है। जीवन की मधुरिमा मुस्कान में छिपी है। सुबह उठकर सबसे पहला काम करें एक मिनट तक तबीयत से जी भरकर मुस्कुराएँ । जो मुस्कान में जीता है और अपनी ओर से मुस्कान बाँटता है, उसका जीवन परमात्मा का पुरस्कार बन जाता है। हाँ, कभी भी किसी घटना को मानसिक तनाव न बनाएँ। जो होना था सो हुआ। होनी को टाला नहीं जा सकता, अनहोनी को किया नहीं जा सकता। फिर व्यर्थ की चिन्ता क्यों पालें । फिर हम अपने स्वभाव को क्यों चिड़चिड़ा बनाएं, क्यों हर समय बिसूरते रहें ? मुस्कुराते रहें और सोचें कि जो मिला है सो अच्छा मिला है। जीवन में होने वाले हर अनुकूल प्रतिकूल वातावरण को प्रेम से स्वीकार करें । सदैव स्वीकार करें जो होता है सो अच्छे के लिए होता है। अगर यह भी न स्वीकारें तो यह तो जीवन का सच है कि वही होता है जो होना होता है । कहें तो सुनें भी अगला क़दम है : दूसरों के व्यवहार का हमेशा सही अर्थ लगाएँ। किसी ने आपसे कोई बात कही है तो उसे सही अर्थों में ग्रहण करें। माना कि आपने किसी को फोन किया और वह नहीं मिला तो आपने संदेश दिया कि जब आएँ तब बात करा देना और किसी कारणवश वापस फोन नहीं आया तो आप रुष्ट हो गए कि उसने वापस फोन क्यों नहीं किया। नाराज़ न हों। संभव है सामने वाले ने फोन किया हो और न मिला हो। हो सकता है कि आपने जो नंबर दिये वह बच्चे ने ग़लत लिख लिया हो या हो सकता है कि सामने वाला व्यस्त रहा हो और यह भी हो सकता है कि 145 For Personal & Private Use Only . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसे संदेश ही न मिला हो। इसलिए कभी भी किसी के व्यवहार का ग़लत अर्थ न निकालें । आपको अपनी बातें दूसरों से कहने की आदत है, तो दूसरों की बातें सुनने की भी आदत डालें। घर में बच्चा भी है, पत्नी - बहु, बेटी भी है। उनकी बातों को नज़र अंदाज़ न करें। उनकी बातें भी धैर्यपूर्वक, शांतिपूर्वक सुनने का प्रयास करें । अगर आप दूसरों की बात सुनने की आदत डालेंगे तो आपको उसका व्यवहार नहीं चुभेगा । खुले दिल से करें तारीफ़ सफल व्यवहार के लिए अगला सूत्र है जीवन में ईमानदारी से औरों की प्रशंसा करें। चापलूसी की कोशिश न करें। ग़लती सभी से होती है, लेकिन उन पर टिप्पणी करने के बजाय, उनकी प्रशंसा करने की उदारता दिखाएँ। जो ग़लती नहीं करता उसे भगवान कहते हैं और जो गलती करके सुधर जाता है उसे इन्सान कहते हैं, लेकिन जो ग़लती पर ग़लती करे उसे शैतान कहते हैं । हम तो इंसान हैं, अपनी ग़लती को सुधारें और सच्चाईपूर्वक औरों की योग्यताओं की प्रशंसा करने की कोशिश करें। औरों की प्रशंसा करके ही अपने जीवन की प्रशंसा को पा सकते हैं । अपनी ग़लती को स्वीकार करने में सकुचाए नहीं। सावधानी रखें कि ग़लती न हो, फिर भी अगर ग़लती हो जाए तो उसे सहजता से स्वीकार कर लें। स्वीकार कर लेने से वह ग़लती न तो हमें कचोटती है और न ही घर के वातावरण को कलुषित करती है । -- जीवन में कभी किसी का मज़ाक न उड़ाएँ। याद रखें हमारे पास वापस वही लौटकर आता है जो हम अपने द्वारा आज किया करते हैं । जीवन और कुछ नहीं एक इको साउण्ड जैसी व्यवस्था है। हम जैसा बोलेंगे वापस वैसा ही आएगा। किसी लंगड़े, अंधे, बहरे, गूंगे, व्यक्ति की मज़ाक उड़ाने की बजाय अच्छा होगा, हम उसके सहयोगी बनें। अगर हम सहयोगी बनेंगे तो वापस भविष्य में कभी हमें सहयोग मिलेगा और मज़ाक करना वापस मज़ाक बनकर ही लौटेगा। एक व्यक्ति जो किसी अंधे व्यक्ति की अंधेरी जिंदगी को देखकर हँस तो सकता है पर उसका हमदर्द नहीं बन सकता। वह व्यक्ति आधे घंटे तक अपनी आँख के आगे पट्टी बाँधकर देखे तो अनुभव होगा कि किसी अंधे व्यक्ति की ज़िंदगी कैसी होती है । मैं तो कहूँगा कि मज़ाक का भी एक सीमित मात्रा में उपयोग किया जाए ठीक वैसे ही जैसी सब्जी में नमक का उपयोग किया जाता है। सीमित मात्रा में डाला गया नमक जहाँ सब्जी में स्वाद देता है, वहीं बेहिसाब डाला गया नमक उसी सब्जी को बेस्वाद बना देता है। मज़ाक सलिके की हो तो चुभती नहीं है। नहीं तो कई बार कोई मज़ाक वैर की गाँठ का कारण बन जाता है और सामने वाला व्यक्ति वापस हमारी मज़ाक उड़ाने का अवसर ढूँढने लग जाता है । मुझे याद है सम्राट अकबर के मन में एक बार बीरबल की मजाक उड़ाने की सूझी और उन्होंने राजसभा में आते ही बीरबल से कहा, 'बीरबल ! आज मैंने एक सपना देखा। मैंने देखा कि हम दोनों साथ-साथ जंगल में चल रहे थे। रास्ता भटक गए, रात जंगल में ही गुजारनी पड़ी और अंधेरे में जब हम रात को थोड़े चले तो मैंने देखा कि हम दो गड्ढों में गिर गए। मैं अमृत के गड्ढे में गिरा और तुम कीचड़ के गड्ढे में । और जैसे ही हम दोनों गड्ढे में गिरे, मेरा सपना टूट गया।' अकबर का इतना कहना था कि सभासदों ने जोरदार तालियाँ बजाई 146 For Personal & Private Use Only . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बीरबल की मजाक उड़ाने लगे । अब बारी बीरबल की थी। उसने कहा- जहाँपनाह! सपना तो जो आपने देखा, हू-ब-हू वैसा ही सपना मैंने भी देखा, पर मैंने देखा कि अपन दोनों गड्ढ़े में से बाहर आये और मैं आपको चाटने लगा और आप मुझे । बीरबल की बात सुनकर सभासद झेंप गए और अकबर का मुँह देखने लायक था। याद रखो तुम किसी की मजाक उड़ाओगे तो वापस तुम्हारे साथ वैसा ही होने वाला है । तर्क करें, तक़रार नहीं अगला पाठ है, तर्क भले ही करें, पर तकरार न करें। आप समाज में उच्च पदस्थ हैं तो अपनी बात ज़रूर रखें, तर्क के साथ रखें, पर उसे बहस पर ले जाकर तक़रार करना ओछापन है । अपनी बात सम्मानपूर्वक शालीनता के साथ औरों के सामने पेश करें, लेकिन अपनी बात को सिद्ध करने के लिए कुतर्क करने की बजाय सहज रूप से पेश करें। अगर आप सही हैं तो कोई माने या न माने उसकी मर्ज़ी। आप बहस करेंगे तो आग ही निकलेगी और वहीं तर्क से रोशनी निकलेगी। आपकी बात में तर्क और बुद्धि की रोशनी तो हो लेकिन तक़रार और बहस की आग न हो। अपने विचारों को खुला रखें, व्यर्थ की बहसबाजी और तक़रार में न उलझें । एक व्यक्ति सुअर से कुश्ती लड़ने गया। अब अगर वह जीतेगा तो भी कपड़े गंदे होंगे और हारेगा तो भी कपड़े गंदे होंगे। सूअर से कुश्ती लड़ोगे, तो उसका कुछ न बिगड़ेगा। हार और जीत में कपड़े तो तुम्हारे ही गंदे होंगे। ऐसी कुश्ती का क्या लाभ जिसमें तुम्हारे कपड़े गंदे हों । पिछले दिनों हम जयपुर में थे । वहाँ एक महानुभाव बहुत-सी संस्थाओं से जुड़े हुए किसी के अध्यक्ष थे, किसी के मंत्री । मैंने पूछा, 'आप इतनी संस्थाओं को कैसे संभालते हैं, इन सबके बीच अपने मन को कैसे शांत रख पाते हैं और कैसे समझाते हैं।' उन्होंने कहा, 'मैं ऐसी मीटिंग में ही बैठता हूँ जो शांतिपूर्वक सम्पन्न होती है। अगर कोई भी जोर से बोलता है तो मैं वहाँ से खड़ा हो जाता हूँ। मीटिंग का मूल्य है, समाज का मूल्य है, उस व्यक्ति का भी मूल्य है पर उससे भी ज्यादा मूल्यवान मेरे मन की शांति है। जहाँ मेरे मन की शांति भंग होती है मैं ऐसी सभा में बैठना पसंद नहीं करता । उस सभा से मैं निकल आता हूँ और कह आता हूँ कि जब आप शांत हो जाएँ तो मुझे बुला लेना ।' बहस, तर्कबाजी और व्यर्थ में किसी बात को घसीटना कब तक करोगे । सारी दुनिया को सुधारने का ठेका तुमने तो नहीं ले रखा है । अगर किसी को तुम्हारी बात नहीं माननी तो कब तक घसीट-घसीट कर मनवाने की कोशिश करोगे । एक व्यक्ति से किसी ने पूछा 'तुम्हारा नाम क्या है ?' उसने कहा 'घ.....घ......घ...... घसीटाराम' फिर उसने पूछा 'तुम्हारा क्या नाम है ?' पहले वाले ने कहा 'नाम तो मेरा भी घसीटाराम है, पर मैं इतना घसीट कर नहीं बोलता ।' बात तो आप भी कहते हैं और मैं भी करता हूँ फ़र्क सिर्फ इतना है कि घसीट-घसीट कर हम बात को कमज़ोर कर देते हैं और जब किसी बात का अधिक दबाव बनाते हैं, तर्क करते हैं तो बात तक़रार में बदल जाती । नरम लफ़्ज़ों में ठोस बात कहें, लेकिन कड़े लफ़्ज़ों में कभी भी ओछी बात न कहें । 147 For Personal & Private Use Only . Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठ पीछे भी तारीफ़ व्यवहार के आईने को साफ-सुथरा रखने के लिए अगली बात है कि किसी के बारे में पीठ पीछे टिप्पणी न करें। यह आपके व्यवहार का दोष है। जब सामने वाले व्यक्ति को ख़बर लगती है तो वह मानसिक रूप से आपसे टूटता है। अगर आपको कहना है तो उसी के सामने सम्मानपूर्वक अपनी बात कहें, क्योंकि हो सकता है कि दूसरे के सामने आपने उसकी बात की, उसने किसी दूसरे से कही और उसने उसी व्यक्ति को जाकर कह दी, जिसके संबंध में आपने कहा था। चार मुँह से निकली बात मिर्चमसाले के साथ संबंधित व्यक्ति तक पहुँचेगी तो आपकी छवि का क्या हश्र होगा। आपके संबंधों में दरार आ सकती है और आपका व्यवहार कमज़ोर हो सकता है। निभाएँ प्रतिज्ञा और वचन को प्रभावी शख्सियत के लिए जरूरी है कि अपने द्वारा किये गए वायदों को ज़रूर पूरा करें। अगर आप वचन देते हैं तो उसे पूर्ण करने की जिम्मेदारी निभाएँ । जीवन में दिए गए वचन पूर्ण करने के लिए हैं। आपकी बुद्धिमत्ता इसी में है कि वचन देने के पहले हजार दफा सोच लो। अपने दिए गए वचन को मरकर भी निभाने की कोशिश करें। ली गई प्रतिज्ञा और दिये गये वचन हर हालत में निभाए जाने चाहिए। __ अपनी ओर से अगली बात कहना चाहता हूँ : आप अहसानमंद रहें पर किसी पर अहसान जतलाने की कोशिश न करें। जीवन में किसी से पाकर कभी कृतघ्न न बनें और किसी का कुछ करके उससे कृतज्ञता की अपेक्षा भी न करें । नेकी कर, दरिया में डाल - किसी का कुछ करो, तो इसी भावना से। बेवक्त में काम आएँ ___ जीवन का अगला क़दम है कि भरोसेमंद बनें और वफ़ादारी निभाने की कोशिश करें। जब जिसके साथ कोई बात कही गई, कोई करार किया तो विपत्ति से विपत्ति की वेला में भी प्राणप्रण से उसके मददगार बनिये और उसके काम आने की कोशिश कीजिए। यह होगी आपकी वफ़ादारी और भरोसे का इम्तहान। जीवन में कभी किसी से द्वेष न रखें, क्षमा करें और कड़वी बातों को भूल जाएँ। आप राग को नहीं छोड़ सकते, कोई बात नहीं, पर किसी के प्रति द्वेष न पालें। अपनी ओर से क्षमा करें और ग़लत वातावरण, अशुभ व्यवहार को जीवन में भूलने की कोशिश करें। सच्चाई, ईमानदारी, निष्कपट व्यवहार के साथ जीवन जीएँ। प्रभावी व्यवहार का अंतिम सूत्र है कि अपने जीवन में सदा विनम्र बने रहें । जो जितना महान होता है, वह उतना ही विनम्र होता है। कैरी जब तक कच्ची होती है तब तक अकड़कर रहती है लेकिन जैसे ही वह रस से भरती है, माधुर्य से भरती है, कैरी चुपके-चुपके आम बन जाती है और धीरे से झुक जाती है। ये जीवन की गीता के अध्याय हैं, सूत्र हैं, जो मैंने आपके सम्मुख रखे हैं। आप अपने जीवन में इन्हें उतारेंगे तो निश्चय ही आप बन सकेंगे प्रभावी शख्सियत के मालिक। 148 For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन को निर्मल बनाने के सरल उपाय मधुर वचनों से प्रेम के पुल निर्मित होते हैं, वहीं कटु वचन से द्वेष की दीवारें । हमारा जीवन प्रकृति का अनमोल उपहार है। प्रकृति के लिए सूरज-चांद-सितारे -आसमान का मूल्य है । नदी- झील-झरनों का मूल्य है, पर्वत और वन-सम्पदा का मूल्य है, लेकिन इन सबसे भी कहीं अधिक संपूर्ण ब्रह्माण्ड में हमारा जीवन ही बहुमूल्य है। वह जीवन जिसके रहने पर पृथ्वी ग्रह की उपयोगिता है और जिसके न रहने पर पृथ्वी केवल पानी और ज़मीन का विशाल भाग भर रह जाएगी। जीवन के होने से ही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरिजाघरों का मूल्य है । जीवन स्वयं मंत्र हमने अपने जीवन में देवी-देवताओं की आराधना के लिए मंत्रों का जाप किया है, किसी ने शक्ति की भक्ति की है। किसी ने दुर्गा की पूजा की है, किसी ने महावीर और बुद्ध की उपासना की है तो किसी ने राम और कृष्ण के मंत्र का जाप किया है । पर हमने अपने जीवन में छिपी हुई शक्तियों को कभी पहचानने की कोशिश नहीं की है। मैं मानता हूं नवकार मंत्र का मूल्य है, गायत्री मंत्र का भी मूल्य है, मैं यह भी जानता हूं कि संसार में जितने मंत्र हैं उन सभी का मूल्य है, पर आप यह सोचें कि अगर जीवन ही न रहा तो इन मंत्रों का क्या उपयोग होगा । आज जब हम जीवन के बारे में समझने का प्रयास कर रहे हैं तो समझेंगे कि जीवन के ऐसे कौन से मंत्र होते हैं जिन्हें अगर हम जिएँ, जिह्वा से गुनगुनाएं, कानों से श्रवण करें, आंखों से देखें और जीभ से चखें तो मंत्र हमारे जीवन का कायाकल्प कर सकते हैं। ये वे मंत्र हैं जो हमारे जीवन की दशा और दिशा बदल सकते हैं । जीवन का पुनरुद्धार कर सकते हैं। इन मंत्रों को अगर अपने जीवन के साथ जोड़ते हैं तो ये हमारे जीवन का कायाकल्प कर सकते हैं । 149 For Personal & Private Use Only . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार का मायाजाल __ वृक्ष की जड़ें जैसे जमीन में होती हैं, मैं देख रहा हूं कि मनुष्य की जड़ें भी वैसे ही संसार में फंसी हुई हैं। व्यक्ति अभी तक अपने जीवन का कोई मार्ग तय नहीं कर पाया है। वह चला जा रहा है, क्योंकि चलने का रास्ता सामने है। जीवन के प्रति लोगों का कोई साफ-साफ दृष्टिकोण नहीं है कि वे कहाँ पहुँचना चाहते हैं, क्या बनना चाहते हैं, क्या पाना चाहते हैं और जिंदगी में क्या होना चाहते हैं । जैसे-जैसे वृक्ष बड़ा होता है, उसकी जड़ें गहरी होती हैं, वैसा ही मनुष्य के भी साथ होता है। वह जैसे-जैसे उम्र से बढता जाता है उसकी जडें भी संसार में गहरी हैं। परिणामतः जो व्यक्ति शांति पाने की कोशिश करता है, उसे अशांति मिलती है। जो मुक्ति पाने की कोशिश करता है उसे संसार की धारा मिलती है। व्यक्ति जो महानताओं को पाना चाहता है. क्षद्र तत्वों और वस्तुओं के मायाजाल में उलझकर रह जाता है। आज व्यक्ति के लिए धर्म पूजा-पाठ और आराधना का निमित्त तो ज़रूर है पर यह बाह्य धर्म मनुष्य के मन को शांति नहीं दे पा रहा है। देखता हूं, चालीस साल तक मंदिर में पूजा करने वाला व्यक्ति जब हमारे पास आता है तो कहता है - क्या बताऊं, मन में अभी भी शांति नहीं है। ये वर्षों से सामायिक करने वाले भाई और बहनें भी यह कह रहे हैं कि मन में शांति नहीं है। और तो और तीस साल से संत का जीवन जीने वाला व्यक्ति भी इसी उधेड़बुन में है कि मन में शांति नहीं है। धर्म तो वास्तव में जीवन को सुख और शांति से जीने की कला ही देता है। व्यक्ति के जीवन की निर्मलता में ही धर्म और शांति छिपी है । जितना साफ सुथरा घर के देवालय या मंदिर के मूल गर्भगृह को रखने की कोशिश करते हैं, हम अपने जीवन के देवालय को भी उतना ही निर्मल और साफ रखें क्योंकि यह सारी धरती परमात्मा का तीर्थ है, हमारा शरीर परमात्मा का मंदिर है और इस शरीर के भीतर विद्यमान आत्म्-तत्व ही परमात्म-ज्योति है। ईमानदारी से ज़रा अपने आप को टटोलें। कहने को बाह्य रूप से व्यक्ति ईमानदार होता है लेकिन बेईमानी का मौका मिलने पर आदमी चूकता नहीं है। अगर हम अपना आत्मावलोकन करें तो पाएंगे कि हमारी मनःस्थिति क्या है, हमारी मानसिकता कैसी है, हमारे कर्म कैसे हैं, हमारी दृष्टि कैसी है, हम कैसे काम कर रहे हैं, किस तरह का व्यवसाय कर रहे हैं, हमारे जीवन में कितना अंधेरा छाया है। दुनिया में एक गंगा वह है जो कैलाश पर्वत के गोमुख से निकलकर आती है। हम उस गंगा को निर्मल कहते हैं । मैं चाहता हूं कि व्यक्ति का जीवन भी इतना निर्मल बन जाए कि उसे निर्मल बनाने के लिए किसी गंगा या शत्रुजय नदी में स्नान करने की आवश्यकता न पड़े। उसका अपना जीवन ही गंगा की तरह निर्मल हो जाए, पवित्र हो जाए। बनें निर्मल सोच के स्वामी ___जीवन की निर्मलता का पहला मंत्र दे रहा हूं जिसे हमें अपने जीवन में जीना है, उतारना है, आचमन करना है। पल-प्रतिपल इस मंत्र को जीना है। जीवन के कायाकल्प के लिए पहला मंत्र है - व्यक्ति अपनी सोच को निर्मल बनाए। आपने सामायिक की या नहीं, मंदिर गए या नहीं, सुबह उठकर गायत्री मंत्र का जाप किया या 150 For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं, आगम या गीता का पारायण किया या नहीं, ये सब बातें गौण है। पहले अपनी सोच को निर्मल बनाएँ । यह वह मंत्र है जो सुबह भी हमें आनंद से भरेगा, सांझ भी आनंद से भरेगा और भरी दोपहर में भी आपके मन को शांति देगा। हर व्यक्ति दूसरे से महान और श्रेष्ठ होना चाहता है, पर श्रेष्ठताएँ धन या सौन्दर्य अथवा पद से नहीं अपितु बेहतर सोच से आती है। अपनी सोच को निर्मल बनाएं। उत्तम जीवन जीने के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति अपनी सोच को उत्तम बनाए। घटिया सोच रखने वाला व्यक्ति कभी भी बढ़िया जीवन नहीं जी सकता। अच्छा जीवन जीने के लिए सोच भी उच्च स्तर की होनी चाहिए। जब तक व्यक्ति की सोच नहीं सुधरेगी, तब तक व्यक्ति का जीवन नहीं सुधर पाएगा। आप देखें कि आपकी सोच में क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि आपकी प्रार्थनाओं में विश्व-कल्याण की भावना है और सोच में है औरों के अनिष्ट की कामना । ईमानदारी से देखें-जब आप सुबह प्रार्थना करते हैं तो होठों पर होता है 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया' सभी सुखी हो, सभी निरोगी हो सभी भद्र और कल्याण के मार्ग पर चलें। लेकिन अपनी अन्तर्योच को देखें, वह क्या कह रही है। हम केवल होठों से औरों के कल्याण की प्रार्थना करते हैं, पर हम अपनी सोच में औरों के अनिष्ट की कामना ही करते रहते हैं। मेरा भला हो, औरों का दीवाला हो, स्वार्थवश ऐसी सोच हो जाती है हमारी। सुंदर सोच का सौंदर्य __ अपनी सोच में इंसान जितना गिरता है मैं नहीं सोचता कि वह अन्य कहीं गिर सकता है। घटिया सोच से उसका आचरण घटिया होता है। सोच के बिगड़ने से उसका विचार बिगड़ता है, व्यवहार बिगड़ता है, जीवन जीने की शैली बिगड़ती है। आप स्वयं देखें कि आपकी सोच में पुण्य की कामना और भावना कितनी है ? । आप सडक पर चल रहे हैं. वहाँ किसी संदर महिला को देखकर सीता का भाव आता है या घटिया स्तर की भावना पैदा होती है। सड़क पर चलते हुए लंगड़े आदमी को देखकर हम हंस सकते हैं, पर हमारी जो सोच लंगड़ी होती जा ही है, उसके लिए हम क्या कर रहे हैं? अंधा व्यक्ति अगर चलते हए गिर पडे तो हम हंस देते हैं, लेकिन हमारी सोच जो अंधी होती जा रही है, उसका क्या, उससे अनभिज्ञता क्यों? किसी बौने आदमी को देखकर हम मज़ाक उड़ाने वाले लोग क्या अपनी बौनी सोच को देखते हैं ? बुरी सोच हमारे आचरण को दूषित करती है और व्यवहार को कुटिल बनाती है। आप बहुत सुंदर दिखाई दे सकते हैं लेकिन याद रखिए आप तब तक सुंदर नहीं हो सकते जब तक आपकी सोच सुंदर न हो। सुंदर चेहरा शरीर का सौंदर्य हो सकता है, लेकिन सुंदर सोच जीवन का सौंदर्य है। जन्म से आप नाटे, काले, मोटे होंठ, मोटी नाक वाले असुंदर हो सकते हैं, क्योंकि यह आपके हाथ में नहीं था। इससे अधिक फ़र्क भी नहीं पड़ता कि आप दिखने में कैसे दिखते हैं. लेकिन अपनी सोच को संदर बनान अवश्य ही आपके हाथ में है। ऊंचे कुल में, धनी या निर्धन घर में पैदा होना आपके हाथ में नहीं है। उसका शिकवा न करें, आपके हाथ में है आपकी सोच का स्तर। जो आपके हाथ में है उसे जरूर सुधारें। जैसे घर के 151 For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंगन में हम हर रोज़ कचरा निकालते हैं, पौंछा लगाते हैं वैसे ही रोज अपने दिमाग में झाडू ज़रूर निकाले लें, कोई दर्विचार का कचरा आ गया है तो उसे बाहर निकाल दें। अपने चिंतन को स्व सख के बजाय सर्वसख से जोडने की कोशिश करें। जब भी कामना करें स्वसख के बजाय सर्वसख की कामना करें। जब आप सबके कल्याण की सोचते हैं तो अखिल मानवता के कल्याण की बात होती है और जब केवल अपने कल्याण की सोचते हैं तो यह स्वार्थ की बात होती है। यह खुदग़र्जी की बात है कि व्यक्ति केवल अपने तक कल्याण भरी सोच को सीमित रखता है। ___ नकारात्मक सोच जीवन का ज़हर है। नकारात्मक नज़रिये के लोग सदैव औरों का नुकसान करके प्रसन्न होते हैं। आप देखते होंगे, रात को आपने स्कूटर घर के बाहर रखा और सुबह गये तो देखा स्कूटर की सीट कटी हई है। रात को किसी ने ब्लेड चला दी। उधर स्कूटर स्टार्ट करो तो हॉर्न बजना शुरू हो जाता है, पता लगता है किसी ने हॉर्न का स्वीच तोड़ दिया और हॉर्न बंद होने का नाम नहीं ले रहा। रात को आपने मोटर साइकिल में पेट्रोल भरवाया था, सुबह कहीं जाना था, सुबह गये मोटरसाइकिल स्टार्ट की, तो पता लगा कि पेट्रोल की टंकी खाली है। किसी ने टंकी की नलकी खोल दी है। पता है ये सब काम कौन करते हैं, घटिया सोच के वे लोग जिनके पास करने को कुछ नहीं, वे फुरसतिया लोग दिनभर हा-हा-ही-ही-ही करते रहते हैं। ___ मैं एक महिला को जानता हूं जो अपनी बहू के व्यवहार से कभी खुश नहीं थी। अगर खाना स्वादिष्ट बनाये और कोई तारीफ़ करे तो मसालों को श्रेय देगी। मैंने अभी अमुक मसाले मंगवाये इसलिए सब्जी स्वादिष्ट हुई। बच्चों की प्रशंसा में दो शब्द कहें तो वह महिला सीधे कहती है ये पोते-पोतियाँ तो बिल्कुल मुझ पर गए हैं । यदि कोई ग़लती हो बच्चों से तो कहेगी बहू से यही सब सीख रहे हैं । यानी सदा अपनी सोच का ग़लत उपयोग। विचार पर करें विचार विचार तीन तरह के होते हैं-विचार, अविचार, निर्विचार। विचार की स्थिति वह है जहाँ व्यक्ति सामान्य रूप में सोच रहा है। अविचार की स्थिति वह है जहाँ व्यक्ति के पास सोचने की क्षमता नहीं है, वह जड़बुद्धि है । निर्विचार की स्थिति वह है जहाँ व्यक्ति अनावश्यक विचारों से स्वयं को बचाए रखता है। अब देखें कि दिनभर कितने विरोधाभासी विचार आपके दिमाग़ में पनपते रहते हैं। द आप जानते हों कि मस्तिष्क में पनपने वाले विचारों का एक दिन में पांच प्रतिशत ही उपयोग हो पाता है। पिच्यानवें प्रतिशत विचारों का जीवन में कोई सीधा ताल्लुक नहीं होता। परिणामतः आप रात में सोए हैं तो विचार आपको प्रभावित कर रहे हैं। अगर आप तनावग्रस्त हैं तो इसका कारण है कि आपके विचार संतलित नहीं है। आप चिंताग्रस्त हैं तो इसका कारण आपके विचारों का उखड़ापन है। आप अवसाद या घुटन से भरते जा रहे हैं तो यह जान लें कि आप अपने विचारों का संतुलन बिठाने में असमर्थ हैं। और तो और, घर में लड़ाई-झगड़ा शुरू हो गया है तो इसका मूल कारण है कि हम घर में वैचारिक सामंजस्य नहीं बना पा रहे हैं। विरोधाभाषी विचार -- सुबह कुछ, दोपहर कुछ और सांझ को कुछ और होता है । दस मिनट पहले हमारे मन में जिसके प्रति मैत्री के विचार थे दस मिनट बाद ही उसके प्रति मन में द्वेष के, दुश्मनी के विचार उत्पन्न हो जाते 152 For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। थोड़ी देर पहले आप शांत थे लेकिन थोड़ा-सा निमित्त मिलते ही दो मिनट बाद आप अशांत हो जाते हैं । निराशा, अनुत्साह, तनाव, भय, चिंता, अवसाद, क्रोध, कुंठा ये सभी दोष इसीलिए होते हैं कि हम अपनी वैचारिक स्थिति को संतुलित नहीं रख पाते हैं । व्यक्ति के देखने और सोचने के दो नज़रिये होते हैं - व्यग्रता से सोचना, समग्रता से सोचना । 1 कभी कोई अचानक दुर्घटना हुई, कभी किसी ने अप्रिय शब्द कहे, हम समाज के मध्य बैठे और हमारे विरुद्ध गलत टिप्पणी हुई कि हम तत्काल अपनी सोच को व्यग्र कर लेते हैं और ग़लत निर्णय कर लेते हैं। एक व्यक्ति रोज़ स्थानक में जाता था । संयोग की बात कि स्थानक में दूसरे पदाधिकारी से उसका मनमुटाव हो गया । व्यग्रता में उसने निर्णय ले लिया कि आज के बाद वह स्थानक में पांव नहीं रखेगा। व्यग्रता में लिए गए निर्णय हमेशा ग़लत होते हैं । -- दूसरी सोच होती है समग्रता की । इधर का भी देखो, उधर का भी देखो, लाभ-हानि, आगे-पीछे - इन सबका विवेकपूर्वक निर्णय करने के बाद अपने जीवन में निर्णय करो। एक होता है सकारात्मक चिंतन, दूसरा है नकारात्मक चिंतन । जब आप किसी के बारे में नकारात्मक चिंतन लेकर चल रहे हैं तो जब भी उसके बारे में बात करेंगे आपका दृष्टिकोण उसे काटना ही होगा । दो तरह के लोग होते हैं एक कैंची की प्रकृति के, दूसरे सुई की प्रकृति के । जो कैंची की प्रकृति की सोच का मालिक है वह जहाँ बैठेगा, जिसकी सुनेगा, जिसको पढ़ेगा उसका काम होगा काटना । वह ढूंढेगा कि इसमें यह कमी है, उसमें यह कमज़ोरी है । पर सुई की प्रकृति के लोग हमेशा संयोजन और जोड़ने की सोच ही पालेंगे । सकारात्मकता का अमृत आप अपने आप को देखें कि आप किस सोच के धनी हैं ? कहीं आपके भीतर नकारात्मक सोच तो नहीं पल रही है ? नकारात्मकता हमारे जीवन का ज़हर और सकारात्मकता हमारे जीवन का अमृत है। अगर आप किसी फैक्ट्री के मालिक हैं या किसी दुकान के मालिक हैं, किसी संस्था के अध्यक्ष हैं, किसी समाज का संचालन कर रहे हैं, घर और परिवार के मुखिया हैं तो उसके सही संचालन की पहली अनिवार्यता है कि आपकी सोच सकारात्मक हो, विधायक हो । अगर आपकी सोच सकारात्मक है तो आप सही नज़रिये से निर्णय करेंगे । सास और बहू घर में दो महिलाएँ हैं और तो और अगर किसी आश्रम में भी दो लोग हैं। अगर ये वहाँ परस्पर दिन भर नकारात्मक रवैया अपना रहे हैं तो मान लीजिए ये दोनों दिन भर अशांत हैं और अगर दोनों सकारात्मक रवैया लेकर चल रहे हैं तो दोनों ही शांत हैं । सभी के जीवन में विपरीतताएं आती हैं। नकारात्मक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति विपरीतता को देखकर परेशान हो जाता है कि अब वह जीवन में कुछ नहीं कर सकता, जबकि सकारात्मक दृष्टिकोण वाला विपदा के आने पर यह सोचता है कि एक दरवाजा बंद हो गया है तो दूसरे दरवाज़े की तलाश करो, दूसरा बंद हो गया है तो तीसरे की तलाश करो, तीसरा बंद हो गया है तो चौथे की तलाश करो। वह जानता है कि प्रकृति की व्यवस्था है कि निन्यानवें द्वार बंद हो जाएँ तब भी एक द्वार खुला ज़रूर रहता है। जीवन में बंद द्वारों को देखने और बंद देखकर 153 For Personal & Private Use Only . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोने की बजाय अच्छा होगा कि आप खुले द्वार की तलाश करें। सकारात्मक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति अपने भाग्य की रेखाओं को बदलने में समर्थ होता है और नकारात्मक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति अपनी सुधरी हुई रेखाओं को भी बिगाड़ देता है। संशय से सर्वनाश मनुष्य की सोच के तीन दोष होते हैं - आशंका, आग्रह की भावना और आवेश । जिस समय ये तीन दोष हमारे मस्तिष्क में उथल-पुथल मचा रहे हों, उस समय लिए गए सही निर्णय भी गलत परिणाम दे जाते हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं - संशयात्मा विनश्यति - जिसके भीतर संशय की ग्रंथि बन गई है, वह नष्ट हो जाता है। संशय विचार का दोष है। मैंने अगर ऐसा किया और वैसा न हुआ तो, मैं घर से बाहर निकला और दुर्घटना हो गई तो, दुकान खोली और न चली तो? संशय हमें नकारात्मक दृष्टिकोण देता है। जब भीतर में संशय है तो सफल होते हए कार्य भी असफल हो जाते हैं, इसलिए व्यक्ति अपने मन में कभी संशय की. आशंका की ग्रंथि लेकर कार्य न करे। ___ एक किसान खेत में बीज का वपन करता है और उसके मन में एक संशय पनप गया कि मैं बीज तो बो रहा हूं और बारिश न हुई तो ? ऐसे में क्या वह बीजों का वपन कर पाएगा? जिसके भीतर संशय जगा उसकी श्रद्धा समाप्त, उसका विश्वास विछिन्न । संशय के द्वार पर खड़ा हुआ व्यक्ति जीवन का कोई निर्णय करने में समर्थ नहीं होता है । वह त्रिशंकु की तरह आसमान में लटकता रह जाता है। न आवेश, न आग्रह आवेश या क्रोध की वेला में जब भी कोई व्यक्ति सोचेगा, वह शुभ नहीं होगा। जब आप आवेश में हों और उस वक्त कोई निर्णयात्मक बात आ गई है तो आप उसे टाल दें। कह दें कि तीन घंटे बाद निर्णय लेंगे, ताकि आप भली-भाँति शांत मन से उसके बारे में सोच सकेंगे। जब आप सोच चुके हैं कि मुझे ऐसा ही करना है, मुझे ऐसा ही बनना है, मेरे द्वारा ऐसा ही कहा जाएगा तब आप किसी बात को सुलझा नहीं सकते। किसी समाज की मीटिंग होती है बात को सुलझाने के लिए। दस लोग इकट्ठे होते हैं। पहले से दोनों पक्ष सोचकर आये हैं कि हमें किसी भी हालत में इस बात को नहीं मानना है। आप ही बताएं कि तब दस घंटे तक भी चर्चा चलती रहे तो भी क्या निर्णय हो सकेगा? अनिर्णय रहेगा। जब पहले से ही सोचकर बैठे हैं कि हमें इस बात को नहीं मानना है तो निर्णय कैसे होगा। हाँ अगर वे सोच लें कि हमें जैसे-तैसे इस बात का समाधान निकालना ही है, तो समाधान ज़रूर हो जाएगा। हमारी छोटी-सी ग़लतफहमी किसी भी बात को बढ़ा देती है और बात का समाधान करने का छोटा-सा रवैया बड़ी बात को समाप्त कर देता है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम अपनी सोच और मानसिक दशाओं को किस तरह का रखते हैं, किस तरह का बनाते हैं। हम अपनी मानसिकता को निर्मल बनाने की कोशिश करें। हमारा मन अगर आवेश, आशंका और आग्रह की ग्रंथि से अलग हट चुका है तो हमारी सोच निर्मल हो सकेगी। हम अपने दिमाग़ से इस कचरे को बाहर निकाल फैंकें। 154 For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई हमें कड़वे शब्द कह दे तो हम क्या करेंगे ? कह दीजिए हमें ज़रूरत नहीं है । जब आपके घर कोई साधु-संत आते हैं और आप उन्हें कोई चीज देते हैं और उन्हें आवश्यकता न हो तो वह कहते हैं 'खप' नहीं है। दुनिया की हर खपत को मिटाने का एक ही उपाय है, जब भी कोई ऐसी-वैसी बात हो आप तत्काल कहें 'मुझे यह बात खपती नहीं है।' इतना भर कहने से, आप अनुभव करेंगे कि आप कई दुविधाओं से बच गए। गांधीजी ने तीन बंदर दिए थे - बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो। आज एक बंदर मैं भी दे रहा हूँ। जिसकी एक अंगुली होगी सिर पर कि बुरा मत सोचो। गांधीजी के तीनों बंदर अपूर्ण हैं जब तक यह चौथा बंदर न होगा कि बुरा मत सोचो। अगर व्यक्ति की सोच ही बुरी है तो वह बुरा देखता है, बुरा बोलता है, बुरा सुनता है। इसलिए आदमी अपनी सोच को सुधारने की कोशिश करे । आपका जीवन आपके हाथों में है । आप किराए की ज़िंदगी नहीं लाए हैं और न ही किराए का जीवन जी रहे हैं । किराए के मकान की मरम्मत आप यह सोचकर नहीं करते कि एक दिन छोड़ना है, पर आपकी ज़िंदगी किराए की नहीं है । इसलिए देखें कि इसमें क्या-क्या चल रहा है। नीर-सा निर्मल मन जीवन की निर्मलता का दूसरा मंत्र है मन को निर्मल रखें। हम देख लें कि हमारे मन में क्या भरा है । नगरपालिका की कचरा पेटी में शायद उतनी गंदगी नहीं होगी जितनी गंदगी मनुष्य के मन-मस्तिष्क में भरी होती है । मनुष्य का निर्मल मन किसी मंदिर के समान होता है जहाँ व्यक्ति अपने आराध्य को स्थापित कर सकता है। मन की निर्मलता में ही व्यक्ति की शांति और जीवन की भक्ति है। जिसका मन निर्मल व शांत है, जिसके मन की दशा पवित्र है वही साधना के योग्य है। हम ध्यान-साधना करने के लिए मन को एकाग्र करने की कोशिश करते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि मन को एकाग्र करने से पूर्व मन को निर्मल करने की जरूरत है। अगर अपवित्र मन के साथ आपने साधना कर ली और उसका परिणाम भी प्राप्त हो गया, यह परिणाम एक दिन आपको रावण और कंस बनाकर छोड़ेगा। कोई देव प्रसन्न होकर आए और कहे कि मैं तुम्हें अमृत देता हूं, संयोग की बात तुमने प्याला आगे कर दिया और वह प्याला अगर पहले ही जहर से सना हुआ है तो उसमें डाला हुआ अमृत भी जहर हो जाएगा। पवित्र मन किसी तीर्थ की तरह है। निर्मल मन में ही प्रभु का बसेरा होता है। मन मंदिर है, इसमें जाल न जमने दें। मन के आईने में आप सत्संग में आ रहे हैं तो आपकी पहली शुरुआत हो निर्मल सोच से और दूसरे चरण में हो मन की निर्मलता । अपने मन पर विवेक का अंकुश लगाने की कोशिश करें। अपने मन को एकाग्र करने के बजाय पहले निर्मल करें। मन को ऐसा बना लें कि वह मंदिर बन जाए, तीर्थ बन जाए, परमात्मा को विराजित करने के लिए आसन बन जाए। प्राय: लोग कहते हैं कि पापी पेट का सवाल है, पर पाप पेट में नहीं, मन में होता है। पेट को दो रोटी चाहिए, जो चाहिए आदमी के मन को चाहिए। मन के दर्पण में वही दिखाई देता है जो आप होते हैं। मुझे याद है - एक आदिवासी किसान खेत में हल चला रहा था कि खेत में एक चमकीली चीज निकली। 155 For Personal & Private Use Only . Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह एक आईना था। किसान ने उसे उठाया, अपनी आँखों के सामने लाया तो वह आश्चर्यचकित हो गया, क्योंकि उस चमकीली चीज में उसका खुद का चेहरा नज़र आ रहा था। उसे याद आया लोग कहते हैं कि मेरे पिता का चेहरा बिल्कुल मेरे जैसा ही था। शायद खेत में से मेरे पिता का ही चित्र निकला है। यह सोचकर वह उस आइने को घर ले आया और अलमारी में रख दिया। जब किसान बाहर जाता तो घर से निकलने से पहले प्रतिदिन अलमारी खोलता और चेहरे के दर्शन करता फिर रवाना हो जाता। इस तरह 15-20 दिन बीत गए। पत्नी सोचती कि रोज़ मेरा पति यह क्या करता है, अलमारी में उसने कोई चीज लाकर रखी है। रोज़ अलमारी खोलता है, मुस्कुराता है और चला जाता है, आखिर वह चीज क्या है। एक दिन जब पति बाहर गया हुआ था, तो पीछे से पत्नी ने अलमारी खोली और ढूंढकर वह चमकीली चीज, वह आईना निकाला और अपने चेहरे के सामने लाकर देखा तो एक महिला का चेहरा नज़र आया। उसने सोचा, ओह! तो मेरा पति इस 'चुडैल' के चक्कर में है। मैं सोचती थी कि यह रोज़ अलमारी खोलकर क्या देखता है। आज इसका रहस्य पता चल गया। वह दौड़ी-दौड़ी अपनी सास के पास गई और बोली 'माताजी देखिए, आपका बेटा किसी दूसरी के चक्कर में लगता है। एक और बहू लेकर आएगा।' सास ने उस आइने को अपने चेहरे के पास ले जाकर देखा और कहा, 'मेरा बेटा दूसरी बहू तो ला रहा है, पर यह बूढ़ी क्यों ला रहा है।' आपका मन आपके जीवन का आईना है। जैसा आपका मन वैसा ही जीवन। जैसी हमारी मानसिकता जैसी हमारी सोच जैसी हमारी अन्त:स्थिति. वैसी ही हमारे जीवन की स्थिति होने वाली है। माला-जाप, मंदिर-गमन. सामायिक मंत्र जाप ये सब बाद में हो. पहले हो मन की निर्मलता। निर्मल मन के साथ अगर आपने सात दफा मंत्र जपा तो वह बेहतर है और अगर कुटिल मन के साथ जीवन भर भी जाप करते रहे तो कुछ परिणाम नहीं निकलने वाला है। जब हम मंदिर जाते हैं तो कहा जाता है कि नहा धोकर, धुले हुए वस्त्र पहनकर जाओ. मैं कहना चाहंगा इसके साथ निर्मल मन भी लेकर जाएं। शायद बिना नहाए और बिना धले वस्त्र पहनकर जाने से भगवान अप्रसन्न नहीं होंगे, पर गंदे मन से भगवान नाखुश होंगे। गंदा मन लेकर कभी मंदिरों में न जाना। क्योंकि वहां भी तुम किसी सुंदर महिला और पुरुष को ही देखते रहोगे। अपने मन की दशा को निर्मल रखें । कभी किसी के लिए गलत न सोचें, अशुभ चिंतन न करें। अगर आप किसी के कारण दुःख से घिर भी जाएं, तो भी उसके लिए हमेशा सुख की कामना करें। जिसने आपके लिए अशुभ किया उसके लिए भी आप शुभ चिन्तन करें। मन के दोष हैं तीन हमारे मन की निर्मल दशा, निर्मल सोच, निर्मल भावना यही तो जीवन की निर्मलता है। हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि हमने अपनी मनोदशा को निर्मल कर लिया है। हमारा यह मन, हमारे अन्तर्हृदय में परमात्मा को विराजमान करने का दिव्य सिंहासन बन सकता है। आप उसे अपवित्र न करें, उसे बिगाड़ने की कोशिश न करें। लोग कहते हैं कि मैं क्या करता, उस समय मुझे गुस्सा आ गया। मैं पूछता हूँ कि कहाँ से आ गया, किस लोक से आ गया। गुस्सा कहीं से आया नहीं, यह तो हमारे भीतर 156 For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दबा हुआ ही था, मन की वृत्ति में । निमित्त मिलते ही वह उजागर हो गया। मन के तीन दोष हैं- मूर्च्छा, वासना, आवेश । मूर्च्छा मन में पलने वाली आसक्ति है । अति लगाव की भावना भी मूर्च्छा है। संसार क्या है ? मनुष्य के मन में पलने वाली आसक्ति और मूर्च्छा ही तो है जिसने इसका त्याग कर दिया, उसी का मन शांत हो सकेगा। किसी ने पत्नी छोड़ी या न छोड़ी, परिवार का त्याग किया या न किया, दुकान, मकान, पद, वैभव छोड़ा या न छोड़ा लेकिन जिसने आसक्ति और मूर्च्छा का त्याग कर दिया उसका मन शांत हो गया। अगर आप मूर्च्छा-भाव को हटाना चाहते हैं तो इसके लिए निर्लिप्तता का उपयोग करें। सबके साथ, सबके बीच रहकर भी सबसे ऊपर उठे रहें, निर्लिप्त रहें। संसार में कमलवत रहें । मन का दूसरा दोष है - वासना । अगर व्यक्ति के भीतर वासना की भावना पल रही है तो वह उस गिद्ध की तरह है तो धरती से कोसों ऊपर भी चला जाएगा, तब भी मांस के टुकड़े को देखते ही तुरन्त धरती पर मांस का टुकड़ा तलाशेगा। जो व्यक्ति कितना भी ऊपर उठ जाएगा, लेकिन निमित्त मिलते ही, वासना के अंकुरित होते ही दुष्कर्म की ओर बढ़ जाएगा। वासना के आगे तो बड़े-बड़े ऋषि महर्षि भी धराशायी हो गए हैं। अगर विश्वामित्र गिरते हैं तो इसका दोष किसी मेनका को देने की बजाय, विश्वामित्र के मन के अंदर छिपे वासना के बीज को ही है, जो मेनका का निमित्त पाकर उजागर हो गया। इसलिए मनुष्य टटोले अपने आपको कि वह वासना से कितना ऊपर उठ पाया है । आप ईमानदारी से अपने भीतर झांके और देखे कि क्या मन तृप्त हो गया है ? जैसी नज़र वैसा नज़ारा तीसरा मंत्र देना चाहूंगा नजर की निर्मलता का । जब भी किसी को देखें पवित्र आँखों से देखें। आपको सुंदर महिला और सुंदर पुरुष को देखने का पूरा हक़ है लेकिन शर्त यही है कि निर्मल आँखों से देखें । पवित्र आँखों से दुनिया के सौन्दर्य को देखें। मनुष्य सुंदरता ज़रूर देखे पर सही नज़रिये से देखे | जैसी हमारी नज़रें होती है, नज़ारा वैसा ही होता है। जैसी दृष्टि होगी वैसी ही सृष्टि भी होगी। तुम अपनी आँखों पर काला चश्मा चढ़ा लो तो सफेद दीवार भी काली हो जाएगी। ज़रूरत दीवार या दुनिया को बदलने की नहीं है, ज़रूरत है व्यक्ति की दृष्टि को बदलने की। बिना निर्मल दृष्टि जब भी किसी को देखोगे मलीनता ही होगी । मीरा गाती थी - 'बसो मेरे नैनन में नंदलाल ' हे प्रभु! मेरी आँखों में आकर ही बस जाओ, फिर मैं किसी को देखूं भी तो मुझे तुम ही नज़र आओ। जहाँ नजर डालूं, वहीं तुम दिखाई दो। इसलिए अपनी आँखों कों, नज़ारों को निर्मल बनाएं। जब भी किसी को देखें तो सतर्क रहें कि कहीं आपकी नजरों में विकृति तो नहीं है, आँखों में विकार की ग्रंथि तो नहीं है। बुरी नजरों से आप किसी अच्छे व्यक्ति को भी देखेंगे तो आपको उसमें बुराई ही नज़र आएगी। आप हमसे मिलने आते हैं और हम आपको अच्छे लगते हैं, क्योंकि आपकी आँखों में अच्छाई है और अगर हम बुरे लग जाएं तो दोष अपनी आँखों को देना क्योंकि हम तो जैसे हैं वैसे ही हैं। वास्तव में हम जैसे होते हैं, वैसा ही दूसरों को देखते हैं । बोली है अनमोल निर्मल जीवन का चौथा मंत्र है निर्मल वाणी । जब भी किसी से बोलें, किसी से बातचीत करें मधुर भाषा का 157 For Personal & Private Use Only . Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग करें। याद रखें, मुसीबत सदा मुंह से ही आती है। जब भी आप अपनी जीभ का गलत उपयोग करेंगे, तब यह जीभ गलत परिणाम लाएगी। अगर आप किसी के लिए दो शब्द प्रशंसा के नहीं कह सकते तो कृपया किसी की निंदा तो मत कीजिए। जीभ को व्यर्थ में मत घिसिए। जब हम बोलते हैं तो जीभ भीतर की ओर रहती है यह इस बात का संकेत है कि जैसा वह बोल रहा है स्वयं भी वैसा ही है। मधुर वचनों से प्रेम के पुल निर्मित होते हैं वहीं कटु वचनों से द्वेष की दीवारें। याद रखें बाण के घाव तो भरे जा सकते हैं, पर वचन के घाव कभी नहीं भर पाते। बुरा आदमी औरों की बुराइयाँ और अच्छा आदमी अच्छाइयाँ बतलाता है। अगर आप प्रेमपूर्वक सम्मान की भाषा बोल सकें तो बहुत अच्छी बात है। आप औरों को सम्मान दें दूसरे भी आपको सम्मान देंगे। दूसरों को 'तूतू' कहने वाला 'तू-तू' सुनता है और दूसरों को 'आप-आप' कहने वाला खुद के लिए भी 'आप' सुनता है। आप जैसी भाषा और वाणी बोलेंगे वैसी ही आप पर लौटकर आएगी। यह तो ईको साउण्ड है। अगर आप कुएं के पास जाकर कुएं में 'गधा' बोलेंगे तो 'गधा' ही वापस लौटकर आएगा और 'गणेश' बोलेंगे तो 'गणेश' ही वापस लौटने वाला है। जैसा हम बोल रहे हैं वैसा ही हम पर प्रतिध्वनित होने वाला है। इन होंठों और जबान से गीत भी गुनगुना सकते हो और चाहो तो गाली भी निकाल सकते हो। यह हम पर निर्भर है कि हम इस जबान का कैसा और क्या उपयोग करते हैं। हम एकाकीपन में भी अपने आत्म-संयम को बरकरार रखें। एक संयमी की प्रशंसा करना सरल है, पर वैसा संयमी जीवन जीना मुश्किल है। उत्तम कर्म ही हमारी पूजा बने और वही हमारा आशीर्वाद। 158 For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की बुनियादी बातें जो व्यक्ति अपने जीवन में बेलगाम आकांक्षाएँ रखता है | वह सुख की रोटी खाने को तरस जाता है। रिमझिम बारिश और सुहावने मौसम के बीच आज हम अपने ही जीवन से जुड़ी कुछ बुनियादी बातें करेंगे। पहले एक प्यारी-सी घटना को लेते हैं - एक सम्राट किसी फ़क़ीर के पास बैठा हुआ अपनी सत्ता, सम्पत्ति, वैभव और राज्य की यशोगाथाएँ सुना रहा था। वह कह रहा था, 'फ़क़ीर साहब जितना सुंदर राजमहल मेरा है, उतना सुंदर राजमहल दुनिया में शायद ही दूसरा हो । राजमहल की दीवारों में सामान्य रंग नहीं है। उन पर सोने के बरक़ लगाए गए हैं । सम्पूर्ण भरतखंड में मेरे विशाल साम्राज्य के समान दूसरा न होगा। फ़क़ीर साहब जितनी सुंदर राजरानियाँ मेरे महल में है, अन्य कहीं देखने को भी नहीं मिलेंगी। जितना विशाल राजकोष मेरे पास है, किसी अन्य सम्राट के पास नहीं होगा।' जैसा कि होता है प्रत्येक सम्पन्न व्यक्ति अपनी सम्पन्नता और वैभव की गाथाएँ कहते पाए जाते हैं वैसे ही वह सम्राट भी फ़क़ीर के सामने अपने ऐश्वर्य का बखान कर रहा था। सत्ता से बड़ी एक सत्ता सम्राट बोलता रहा, फ़क़ीर शांत भाव से सब कुछ सुन रहा था। अन्ततः सम्राट चुप हो गया।अब बोलने की की थी। फ़क़ीर ने कहा, 'सम्राट. तम मेरे एक प्रश्न का जवाब दो। सोचो कि तम अपने सैनिकों के साथ खेलने जंगल में गए।वहाँ तम मार्ग भटक गए और अपने सैनिकों से बिछड कर जंगल में बिलकल अकेले पड़ गए। गर्मी तेज थी वहाँ तुम्हें जोर की प्यास लगी। आसपास खूब तलाश करने के बाद भी तुम्हें कहीं पानी न मिला । न तालाब दिखा, न कुआँ और तो और कहीं नाला भी न मिला। भयंकर गर्मी में तुम प्यास से तड़पने लगे। तुम्हें लगा कि अब आधा एक घंटा और पानी नहीं मिला तो प्यास के मारे तुम्हारे प्राण ही निकल जाएँगे। तुम्हारा मन प्यास से आकुल-व्याकुल हो रहा है। तभी एक युवक वहाँ पहुंचता है और तुमसे कहता है कि उसके पास For Perso159Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक लोटा ठंडा मीठा पानी है क्या तुम पीना चाहोगे ?' 'तुम यकायक पानी देखकर एकदम प्रसन्न होकर पानी पीना चाहोगे लेकिन युवक तुमसे इस पानी की कीमत मांगेगा। तब तुम क्या करोगे ?' सम्राट ने कहा एक स्वर्ण मुद्रा दे दूंगा। फ़क़ीर ने कहा, अगर तब भी वह पानी न दे तो ? सम्राट ने कहा, 'दस स्वर्ण मुद्रा दे दूंगा।' फ़क़ीर ने कहा, 'अगर तब भी वह पानी न दे तो ?' सम्राट ने कहा, ' सौ स्वर्ण मुद्राएं दे दूंगा फिर भी नहीं देगा तो हजार या लाख स्वर्ण मुद्राएं भी दे दूंगा।' फकीर ने पूछा, 'अगर तब भी वह पानी न दे तो ?' सम्राट ने कहा, 'मरता क्या न करता, मैं अपना अंतिम दाँव खेलूंगा, क्योंकि प्यास जरूर बुझाऊंगा, उसे आधा साम्राज्य दे दूंगा और एक लोटा पानी ले लूंगा।' फ़क़ीर ने कहा, 'तुम्हारा आधा साम्राज्य भी अगर एक लोटा पानी न दिला सके और वह युवक फिर भी इनकार कर दे तो ?' सम्राट ने कहा, 'तब मैं उसी से पूछ लूंगा कि वह क्या कीमत चाहता है।' फ़क़ीर ने कहा, 'वह कहे कि मुझे तुम्हारा पूरा साम्राज्य चाहिए तब तुम्हें एक लोटा पानी मिल सकता है। एक ओर तुम्हारा जीवन दूसरी ओर पूरा राज्य, बोलो सम्राट सोचकर निर्णय दो कि तब तुम क्या करोगे ?' कुछ क्षणों तक सम्राट मौन रहा। फ़क़ीर ने पूछा, 'क्या तुम मना कर दोगे ?' सम्राट ने कहा, 'नहीं। सत्ता और साम्राज्य से भी बड़ी आदमी की जिंदगी होती है और जिंदगी बचाने के लिए सत्ता और साम्राज्य की कुर्बानी दी जा सकती है।' फ़क़ीर साहब, 'तब मैं अपनी ज़िंदगी और प्राणों को बचाने के लिए अपना सारा साम्राज्य उस युवक के नाम करने को तैयार हो जाऊंगा।' फ़क़ीर मुस्कुराये और बोले, 'तो यही है तुम्हारे इस तथाकथित अकूत वैभव और ऐश्वर्य का मोल। पता है तुम्हारे इस सम्पूर्ण राज्य का मोल कितना है ? एक लोटा पानी जितना । मैं तुम्हें यही बोध देना चाहता था कि तुम जो इतना यशोगान कर रहे हो इसकी कीमत केवल एक लोटा पानी है । धन नहीं, जीवन-धन जिसने अपने जीवन का मूल्यांकन करना सीख लिया है, जिसने अपने जीवन की महानताओं को पहचान लिया है, जिसने अपनी मूल्यवत्ता जान ली है वह दुनिया की सम्पत्ति से ऊपर अपने जीवन को रखेगा इस जीवन का उपयोग करेगा और जीवन को बचाने की कोशिश करेगा। याद रखें, धन से सब कुछ पाया जा सकता है, सत्ता से सब कुछ पाया जा सकता है लेकिन इनसे जीवन नहीं पाया जा सकता। सत्ता और वैभव जीवन से अधिक महान नहीं हो सकते । याद है ना जब सिकंदर भारत - विजय पर आया था तब उसे अस्सी वर्षीय वृद्धा मिली । उसने सिकंदर पूछा, 'तुम कौन हो और कहाँ से आए हो ?' सिकंदर ने कहा, 'मैं सिकंदर महान हूँ, विश्वविजेता हूँ और यूनान से आया हूँ।' वृद्धा ने कहा, 'क्यों आया है ?' उसने कहा, 'विश्व - विजय के अंतर्गत भारत को जीतने के लिए आया हूँ।' वृद्धा ने कहा, 'जब भारत को जीत लेगा तब क्या करेगा ? ' ' और जो पड़ौसी देश हैं उन्हें जीतूंगा।' 'उसके बाद क्या करेगा ?' 'सारी दुनिया को जीत लूँगा ।' 'उसके बाद क्या करेगा ?' वृद्धा ने फिर पूछा। सिकंदर ने कहा, 'उसके बाद सुख की रोटी खाऊंगा।' वृद्धा ने कहा, 'आज तुझे कौन-सी सुख की रोटी की कमी है जो जान बूझकर दुःख की रोटी की ओर क़दम बढ़ा रहा है। याद 160 For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखना जो व्यक्ति अपने जीवन में बेलगाम आकांक्षाएँ रखता है वह सुख की रोटी खाने को तरस जाता है।' ऐसा ही हुआ, सिकंदर अपनी आयु के पैंतीस वर्ष भी पूर्ण नहीं कर पाया था कि बीमार हो गया । रोग भी ऐसा लगा कि चिकित्सकों ने कह दिया कि उसे रोगमुक्त कर पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकीन है। उसकी आयु के एक-दो घंटे ही शेष रहे थे कि चिकित्सकों ने कह दिया कि अब उसे जो कुछ करना है कर ले। सिकंदर अपनी माँ को बहुत प्यार करता था। वह चाहता था कि उसकी माँ जो उससे बहुत दूर यूनान में थी उसका मुँह देख ले और उसकी गोद में सिर रखकर अपने प्राण छोड़े, लेकिन यह असंभव था। चिकित्सक कुछ नहीं कर पा रहे थे। तब सिकंदर ने वही किया, जो हर सम्पन्न व्यक्ति करता है, उसने अपना दाँव खेला और कहा, 'अगर तुम लोग मुझे चौबीस घंटे की जिंदगी दे सके तो मैं प्रत्येक डॉक्टर को एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दूँगा ।' डॉक्टरों ने कहा, 'कैसी मज़ाक करते हो सिकंदर । क्या धन से, सोने से जिंदगी खरीदी जाती है?' तब हताश हुए सिकंदर ने अपनी जिंदगी का दूसरा दाँव खेला। उसने कहा, 'तुम मुझे केवल बारह घंटे की जिंदगी दे दो मैं तुम्हें अपने विश्व साम्राज्य का आधा हिस्सा दे दूँगा ।' डॉक्टरों ने कहा, 'हम कोशिश कर सकते हैं, लेकिन बचाना हमारे हाथ में नहीं है । ' हताश होकर सिकंदर ने जीवन का अंतिम दांव लगाया कि 'अगर कोई मुझे दस घंटे की जिंदगी दे दे तो दुनिया का सारा साम्राज्य उसके नाम कर दूंगा।' लेकिन कोई ऐसा न कर सका। सिकंदर देखता रहा कि उसकी सांस धीमी पड़ने लगी, उसके प्राण निकलने को हो गए, तब उन क्षणों में मरने से पहले, अपने पास खड़े लोगों से कहा, 'मेरे मरने के बाद लोगों को बताना कि सिकंदर जिसने सारी दुनिया को जीता, पर अपनी ज़िदंगी से हार गया।' जीवन नहीं है बोझ मेरी बातें भी इसी से संबंधित हैं। मैं आपको यही बताना चाहता हूँ कि कहीं आप अंतिम समय में ज़िंदगी से न हार जाएँ, आपको यह न लगे कि सब कुछ पाकर भी आपने जीवन को खो दिया। पानी व्यर्थ बहता हो तो खटकता है, बल्ब फिज़ूल जल रहा हो तो खटकता है, कुछ भी अनावश्यक हो रहा हो तो खटकता है - यह अच्छी बात है पर व्यर्थ जाती हुई ज़िंदगी हमें क्यों नहीं खटकती। मनुष्य की यह बेशक़ीमती ज़िंदगी जिसमें वह अपनी महानताओं को उपलब्ध कर सकता है, इस ज़िंदगी के प्रति सचेत क्यों नहीं रहता। आप यह सावधानी तो रखते हैं कि कहीं धंधे में घाटा न लग जाए, बेटा बिगड़ न जाए, पत्नी किसी और के साथ न हो जाए- इनमें बहुत सावधानी रखी जाती है लेकिन अपनी ज़िंदगी के प्रति क्या इतनी ही सावधानी रखते हैं ? अनावश्यक कार्यों में, दोस्तों के साथ निरर्थक बातों में, ताश- जुएँ में, अपना समय बर्बाद करते रहे हैं । और तो और, पूछने पर कि भई क्या कर रहे हो तो उत्तर मिलता है टाइम-पास कर रहे हैं । क्या ज़िंदगी केवल ‘पास' करने के लिए है ? क्या हमारी ज़िदंगी इतनी भारभूत बन गई है कि हमें ज़िंदगी को पास करना पड़ रहा है । जीवन गतिशील हो, कृत्रिम नहीं वास्तविक हो । अपनी ज़िंदगी में देखें कि हमारी मुस्कान कृत्रिम है या वास्तविक है ? व्यक्ति के जीवन का सुख-शांति - आनंद सब कुछ कृत्रिम हो गया है। भीतर कुटिलता से भरा हुआ आदमी बाहर से कोमल नज़र आ रहा है। बाहर से मुस्कुराने 161 For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला भीतर से कैंची चलाने की कोशिश कर रहा है। बाहर से अपनत्व दर्शाने वाला भीतर से गिराने और काटने की कोशिश कर रहा है। मेरे देखे, व्यक्ति की जिंदगी इतनी दोहरी हो गई है कि बाहर का चेहरा कुछ और है, भीतर का चेहरा कुछ और। बाहर धर्म, तो भीतर अधर्म क्यों? ___आपने दो मुंहे सांप के बारे में सुना होगा। दो मुंहे इंसान सांपों से ज्यादा ज़हरीले होते हैं। सांप का काटा तो शायद बच भी जाए, पर दो मुंहे इंसान के काटे को तो भगवान भी नहीं बचा सकते। हम देखें कि कहीं हमारी जिंदगी दोहरी तो नहीं होती जा रही है। हम बाहर से धार्मिक हैं, लेकिन भीतर से अनैतिक हैं। बाहर से तो प्रसन्न नज़र आ रहे हैं, लेकिन भीतर से कुटिल हैं। हम बाहर से तो सामाजिक एकता की बात कर रहे हैं, लेकिन भीतर से समाज में घात कर रहे हैं। बाहर से तो हम अहिंसा और शांति की बातें करते हैं, लेकिन भीतर से अशांति और क्रूरता को जन्म दे रहे हो। ईमानदारी से अपने मन को टटोलें कि बाहर से अच्छे नज़र आने वाले हम लोग भीतर से कैसे हैं? ___ हम लोग किसी के घर ठहरे हुए थे। दो मंज़िल का मक़ान था, छत्त थी, बरामदा भी था। बरामदे में उस व्यक्ति ने विभिन्न प्रकार के फूलों के गमले लगा रखे थे। सांझ को जब मैं बरामदे में घूम रहा था तो पाया कि फूल भी नकली थे और गमले भी कृत्रिम थे। उन्होंने कई तरह के नकली फूल सजा रखे थे। सुबह जब मकान मालिक उठा तो उसने उन नकली फूलों पर पानी भी छिड़का । मैंने सोचा, आखिर इन प्लास्टिक के फूलों पर पानी छिड़कने का क्या औचित्य? आखिर मैंने पूछ ही लिया कि इन प्लास्टिक के फूलों पर पानी क्यों छिड़क रहे हो? उसने जवाब दिया ताकि, पड़ौसियों को लगता रहे कि असली फूल आपके चेहरे पर यह जो मुस्कान है वह प्लास्टिक के फूलों पर छिड़का गया पानी है बस! भीतर की मुस्कान, भीतर की शांति, भीतर का आनंद मरता जा रहा है। हमारे अन्तर्मन का प्रेम मृतप्रायः होता जा रहा है। जीवन उस साईकिल की तरह हो गया है जो चल तो रही है पर वहीं की वहीं खड़ी है। व्यायाम करने के लिए लोग साइकिल चला तो रहे हैं, पर साइकिल वहीं की वहीं है। कहीं हमारी स्थिति भी ऐसी तो नहीं है? मैं जीवन की जो बुनियादी बातें बताना चाहता हूँ, अगर उन्हें जीवन में जी लिया जाए तो जीवन का कायाकल्प हो सकता, जीवन का रूपान्तरण हो सकता है। जीवन में चिर-शांति और चिर-आनंद पाया जा सकता है। ये बातें अगरबत्ती की सुगंध की तरह हैं, जो नासापुटों में अपने आप भर जाती हैं। इन्हें आप अपने भीतर तक उतरने दें, दिमाग में रखने की बजाय दिल तक लाने की कोशिश करें। इच्छाओं का अंत कहाँ ___जीवन की पहली बुनियादी बात है, अगर आप अपने जीवन में शांति और आनंद पाना चाहते हैं तो दो बातों से जरूर बचें, पहली-आकांक्षाओं का मकड़जाल और दूसरी-व्यर्थ की कल्पनाँ। अगर आपके 162 For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीतर चिंता का भूत सवार है, तनाव, अवसाद है, घुटन है, विफलता के कारण कुछ कर नहीं पा रहे हैं, तो इसका मूल कारण है व्यर्थ की कल्पनाएँ और आकांक्षाओं का मकड़जाल । एक इच्छा को पूरी कर देने से क्या इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं ? जितनी इच्छाएँ पूरी करते हैं, उतनी ही बढ़ती जाती हैं। आदमी का अंत होता है, लेकिन इच्छाओं का अंत नहीं होता । हमारी इच्छाएँ आकाश के समान अनंत है । जैसे आकाश मकान के पार समाप्त होता दिखाई देता है, लेकिन वहाँ जाकर देखने से वह फिर उतना ही दूर हो जाता है जितना पहले था। वैसे ही जीवन में इच्छाएँ चाहे जितनी पूरी करते जाएँ, फिर भी वह पकड़ से बाहर रहती हैं। ये भी पा लूं, वह भी बटोर लूं और बटोरते - बटोरते घर में कितना संग्रह करते जा रहे हैं । कभी घर में देखा है आपने कितना कूड़ा-करकट इकट्ठा कर रखा है। खाली डिब्बे काम के न थे पर रख लिये कि भविष्य में कभी काम आएँगे । ये चीज काम की नहीं है पर अभी रख लूँ भविष्य में कभी काम आएगी। हम घरों में पचास प्रतिशत सामान ऐसा रखते हैं जिनका उपयोग छह महीनों में कभी नहीं करते। बेवज़ह का संग्रह ! जो लोग बेवज़ह संग्रह करते हैं वे जीवनभर तो संग्रह करते ही हैं, मृत्यु के कगार पर पहुँचकर उनके प्राण इसी संग्रह में अटक जाते हैं। मुझे याद है - एक संपन्न व्यक्ति की पत्नी बीमार हो गई। इतनी बीमार कि मरणासन्न हो गई । उसकी दशा देखकर पति भी व्याकुल रहता कि कितनी तकलीफ उठा रही है फिर भी प्राण नहीं निकलते थे । एक दिन पति ने पूछ ही लिया कि उसे क्या तकलीफ है। पत्नी ने कहा-मेरे पास जो इतना जेवर है, सैकड़ों साड़ियाँ हैं उनका क्या होगा । पति ने मज़ाक में कह दिया मैं पहन लूंगा। इतना सुनते ही पत्नी का देहांत हो गया और वर्षों गुजर गये पति आज भी महिलाओं के वस्त्र पहनता है और वैसा ही श्रृंगार करता है । व्यक्ति जीवन में केवल आवश्यकताओं की पूर्ति करे । आपकी आवश्यकता बीस साड़ियों की है लेकिन आकांक्षा पचास साड़ियों की है। पुरुष लोग ही एक छोटा-सा नियम ले लें कि वे एक ही रंग के कपड़े पहनेंगे जैसे कि केवल सफेद कपड़े पहनेंगे। अब हमें देखिए हमारा नियम है श्वेत कपड़े पहनने का अब कितना संग्रह करेंगे। जब आपका भी नियम होगा तो कितने वस्त्र इकट्ठे करेंगे एक रंग के ? लोगों में रंग का भी राग है। कपड़े सब कपड़े हैं पर रंगों का फ़र्क है। महिलाएँ बेहिसाब साड़ियाँ इकट्ठी करती हैं पर पहन कितनी पाती हैं। एक बार में एक ही साड़ी पहनोगे ना, दो तो नहीं पहन पाओगे। लोगों का रंगों का भी राग है। कपड़े सब कपड़े हैं पर रंगों का फर्क है। रंगों का भी अपना राज है । यह आपके स्वभाव के प्रतीक होते हैं। किसी को लाल रंग पसंद है तो किसी को गुलाबी, तो किसी को पीला रंग पसंद होता है । जिसका स्वभाव तेज होता है उसे लाल रंग पसंद होता है । जिसका स्वभाव थोड़ा मीठा होता है उसे गुलाबी रंग अच्छा लगता है। जिसका स्वभाव खट्टी-मीठी प्रकृति का होता है उसे पीला रंग अच्छा लगता है। जो शांत स्वभाव का होता है उसे सफेद रंग अच्छा लगता है। जिसकी जैसी चित्त की प्रकृति होती है वैसे-वैसे रंग के कपड़े पहनने की कोशिश करता है । व्यक्ति आकांक्षाओं के मकड़जाल में न उलझे, अपनी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की सीमा बनाए । रहने के लिए मकान है, खाने के लिए रोटी है, 163 For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहनने के लिए कपड़े हैं, समाज में इज्जत की जिंदगी है तो विश्राम लो। अपनी आवश्यकता जितना ही धन कमाओ और बेवज़ह उलझकर रातों की नींद न गंवाओ और न दिन का चैन खोओ। कल नहीं, बस यही पल ___कल्पनाओं की उधेड़बुन मन को अशांत करती है। कल्पनाओं में खोकर आज का सुख-चैन समाप्त न करो। हम आज के लिए केवल दस प्रतिशत सोचते हैं और कल के लिए नब्बे प्रतिशत सोचते हैं । जो आज है व्यक्ति उसके बारे में कम चिंतन करता है और जो भविष्य है जिसका आज कुछ पता ही नहीं उसके लिए अपना वर्तमान गंवाता रहता हैं। कल की जिंदगी मिलेगी तो कल की व्यवस्था भी मिलेगी। हम आज में जिएं न कि भविष्य की योजनाओं में। व्यक्ति को चिंता रहती है कि छह पीढ़ियाँ तो आराम से रह सकेंगी पर सातवीं पीढ़ी का क्या होगा। तुम अपनी सोचो जो कल होगा उसकी बच्चे खुद व्यवस्थाएं करेंगे। भविष्य की चिंता में आज के आनन्द से क्यों वंचित रहते हो। मुझे याद है - एक दंपति के संतान नहीं थी। शादी को सोलह वर्ष हो चुके थे, लेकिन उन्हें न तो पुत्र हुआ और न ही पुत्री। सभी देवी-देवताओं को मनाया, तंत्र-मंत्र सब किया, लेकिन कोई लाभ न हुआ। आखिर एक ज्योतिषी के पास गए, उन्होंने सुन रखा था कि वह ज्योतिषाचार्य जो कहता है वह जरूर हो जाता है। उसे उन्होंने अपनी जन्म पत्रियाँ दिखाईं। ज्योतिषी ने जन्मपत्री देखकर कहा कि संतान का योग तो है और ठीक नौ महीने बाद तुम्हारे संतान होने वाली है। उन्होंने ज्योतिषाचार्य को पांच सौ रुपये भेंट किये और खुशी-खुशी घर आए कि नौ माह बाद अपने यहाँ बेटा होने वाला है। ___ अब उन्होंने योजनाएँ बनानी शुरू कर दी कि बेटा होने वाला है तो क्या-क्या करना है। सोचने लगे कि सोलह-सत्रह साल बाद बेटा होगा और वे नगर के सर्वाधिक सम्पन्न लोगों में से हैं सो शहर के सारे लोगों को बुलाएँगे, सूची बनाई गई। कुछ सुझाव पत्नी ने भी दिये। उसके लिए कैसे खिलौने लाने हैं इसकी चर्चा हुई, क्या कपड़े बनवाएँ जाएंगे इस पर भी बात कर ली। लड़का बड़ा होगा तो उसे पढ़ाएंगे लिखाएंगे, अच्छे स्कूल में शिक्षा दिलवाएंगे। लेकिन वह बड़ा होकर क्या बनेगा? पति ने कहा 'अपने बेटे को तो डॉक्टर बनाएंगे' पत्नी ने कहा 'अरे छोड़ो आजकल डॉक्टरों को पूछता कौन है, थोड़े दिनों बाद हालत यह हो जाएगी कि डॉक्टर ठेलागाड़ी लेकर चलेंगे और आवाजें लगाएँगे इंजेक्शन लगवा लो, इंजेक्शन । मैं तो अपने बेटे को एम.बी.ए. कराऊँगी।आजकल उसकी ज्यादा कीमत है।' पति ने कहा 'नहीं, एम.बी.ए. नहीं कराएँगे, डॉक्टर ही बनाएँगे।' ____ दोनों में तनातनी हो गई, दोनों ही अपनी बात पर अड़ गए। बात बढ़ती गई और रात भर विवाद चलता रहा। दोनों एक-दूसरे से नाराज़ हो गए। पति ने कहा 'तू मेरी बात क्यों नहीं मानती।' पत्नी ने कहा 'जब बात नहीं मानते तो साथ रहने का मतलब क्या।' पत्नी मायके चली गई। बात बढ़ती जा रही थी, मामला तलाक तक जा पहुंचा। दोनों न्यायालय तक पहुंच गए अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए। पत्नी ने कहा 'अब भी मान जाओ, बेटे को एम.बी.ए. बना दो।' पति ने कहा 'नहीं, मर जाऊँगा पर बेटे को डॉक्टर ही बनाऊँगा।' दोनों ही जिद्दी प्रकृति के थे। 164 For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायालय में न्यायाधीश ने वाद-प्रतिवाद सुना और कहा 'आप दोनों ही भले नज़र आते हो फिर तलाक क्यों ले रहे हो ? कारण बताओ तो मैं कोई समाधान कर दूं।' पति ने कहा 'मेरी पत्नी चाहती है कि अपने बेटे को एम.बी.ए कराये और मैं उसे डॉक्टर बनाना चाहता हूं।' न्यायाधीश ने कहा 'इसमें लड़नेझगड़ने की या तलाक लेने की क्या बात है । इसका समाधान मैं कर देता हूं। तुम्हारा लड़का कहाँ है उसे बुलाओ उसी से पूछ लेते हैं, वह क्या बनना चाहता है।' पति-पत्नी एक-दूसरे का मुँह देखने लगे कि लड़का कहाँ है। न्यायाधीश ने पूछा 'क्या बात है लड़का कहीं बाहर गया है क्या ?' जवाब मिला ' बाहर नहीं गया है लड़का तो अभी जन्मपत्री में है । ' व्यर्थ की कल्पनाएँ। याद रखें, जो कल देता है वह कल की व्यवस्थाएँ भी देता है। बच्चे का जन्म बाद होता है, माँ का आंचल दूध से पहले भर जाता है, यह है प्रकृति की व्यवस्था । यह प्राणीमात्र के लिए प्रकृति की व्यवस्था है कि जो चोंच देता है वह चुग्गे की व्यवस्था भी ज़रूर करता है । परिजन अतिथि, अतिथि देव दूसरी बात जो कहना चाहता हूँ वह है- अपने व्यवहार में शालीनता रखें। जब भी किसी के साथ पेश आएँ, किसी के सामने अपनी बात रखें तो शालीनता बनाए रखें। पत्नी को भी कभी 'तुम' न कहें। मैंने कई घरों में एक विचित्र बात देखी है लोग अपनी माँ को भी 'तुम' कहते हैं और ऊपर से यह भी कि इसमें प्यार और अपनापन होता है। यह कोई प्रेम नहीं है, औरों को सम्मान देना सीखें। अगर आप 'तुम' कहकर बात करोगे तो आपकी संतान भी आपको 'तुम' ही कहेगी । औरों को 'आप' कहकर 'आप' कहलाया जाता है और 'तुम' कहकर 'तुम' कहलाया जाता है। अगर आपका नौकर भी है तो यह नहीं कि हमेशा उससे झगड़ते रहें, उसे डांटते रहें, अपशब्द बोलते रहें। नौकरी उसकी मज़बूरी है, वरना वह भी आपकी तरह सेठ हो गया होता। नौकर के साथ भी सम्मानपूर्ण भाषा का उपयोग करें। एक महिला मुझसे कह रही थी' क्या बताऊँ महाराज जी मेरे पति बहुत झगड़ालू हैं, गुस्सैल हैं, ये हैं, वो हैं पर मैं किसी से नहीं कहती। ' मैंने कहा 'तब मुझे क्यों कह रही हो ।' व्यक्ति शालीनता नहीं रख पाता कि कहाँ कौन-सी बात कही जाए। पूर्ण कोई भी नहीं है, सभी में कुछ-न-कुछ कमियाँ ज़रूर होती है। पति में कमियाँ न होतीं तो वह तुमसे शादी ही क्यों करता ? मेरे साथ ही न आ जाता ? एक-दूसरे की कमियाँ उघाड़ने की बजाय शालीनता से पेश आएँ। याद रखें वह आपकी अर्द्धांगिनी है नौकरानी नहीं। माना कि आप उसके पति हैं, संरक्षक हैं, फिर भी पत्नी इज्ज़त की हक़दार है। अगर आप इज्जत पाना चाहते हैं तो इज्ज़त देना सीखें । मैं तो कहूँगा अपने बच्चों को भी इज्ज़त दो । अपने पति को भी इज्ज़त दो। पति की तारीफ़ करने की आदत डालें। मैंने अनेक लोगों पर प्रयोग करके अनुभव किया है कि अगर मैं किसी पुरुष से कहूँ कि 'आपकी पत्नी बहुत सुशील है, अच्छी कुलीन है, शांत स्वभाव की है।' तो वह कहेगा 'सब आपकी कृपा है, बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद है, आप सही कहते हैं महाराज।' और अगर यही बात मैं उसकी पत्नी को कहूँ तो वह तुरंत कहेगी, ‘रहने दीजिए महाराज, मैं जानती हूँ हकीकत क्या है।' अगर मैं कहूँ कि आपके पति देव हैं तो वह कहेगी 165 For Personal & Private Use Only . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आपके सामने देव हैं, पर मैं जानती हूँ वे कैसे देव हैं।' औरों की तारीफ़ करने की और सुनने की आदत डालें। घर के सदस्यों को हमेशा अतिथि मानकर चलें, ताकि उनके सम्मान में कभी कमी न आए और अतिथि को हमेशा भगवान। अगर अतिथि से कोई कांच की गिलास फूट जाए तो आप कहते हैं न् ठीक है, ठीक है, कोई बात नहीं। अतिथि के सामने तो इतना बड़प्पन दिखाते हो और अगर घर की बहू से ग्लास फूट जाए तो उसे अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। घर के सदस्य को भी अतिथि का दर्जा दो ताकि तुम उनके साथ ग़लत तरीके से पेश न आओ और अतिथि को भगवान का स्वरूप मानो ताकि उन्हें पूर्ण सम्मान दे सको। शालीनता में ही कुलीनता विनम्र रहें और मधुर वाणी का उच्चारण करें। आपके व्यवहार की शालीनता आपके जीवन को ऊंचा उठाएगी। किसी की कुलीनता की पहचान उसकी सम्पत्ति से नहीं उसकी शालीनता से होती है। आप किसी मीटिंग में हैं और एक अन्य व्यक्ति थोड़ी देर से आता है तो आप उसके सम्मान में खड़े हो जाएँ यह आपकी शालीनता है। देकर पाएं मान-सम्मान ___ दुनिया में सम्मान पाने का एक ही तरीक़ा है कि औरों को सम्मान दो। गाली-गलौच आपको शोभा नहीं देती। दोस्तों के बीच, यह सोचकर कि यहाँ तो सब चलता है, उल्टी-सीधी भाषा का प्रयोग करना, अपशब्द बोलना तुम्हें शोभा नहीं देता। क्या आप शराबी हो, पियक्कड़ हो जो ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे हो। शब्दों का उपयोग तौल-तौलकर किया जाए। कुछ लोग होते हैं, जो बोलने के बाद सोचते हैं, कुछ लोग बोलते हुए सोचते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं, जो बोलने से पहले सोचते हैं। जो बोलने के बाद सोचते हैं उनके पास सोचने के अलावा कुछ नहीं होता, लेकिन जो सोचने के बाद बोलते हैं उन्हें बोलने के बाद कभी सोचना नहीं पड़ता। आप नहीं जानते आप मज़ाक-मज़ाक में किस तरह के अपशब्द कह देते हैं। घर में बहू-बेटियाँ होती हैं और आप बैठक-रूम में बैठकर भद्दे मज़ाक करते रहते हैं। किसी एक के पीछे घर की मान-मर्यादा को भंग नहीं किया जा सकता। व्यक्ति से बढ़कर घर की मर्यादा और कुलीनता होती है जिसे घर की मर्यादा और कुलीनता का ख्याल नहीं, वह घर में रखने लायक नहीं होता, क्योंकि एक व्यक्ति के गलत आचरण को समूह ढोये, यह सही नहीं है। आप अपनी मनमर्जी को घर वालों के लिए भारभूत ना बनाएँ। ___याद रखें, जब बोलें तो किसी का मज़ाक उड़ाते हुए न बोलें। आप नहीं जानते आप तो मज़ाक के मूड में बोल रहे हैं, पर सामने वाला किसी गंभीर मूड में आया है। तब आप उसके मन को बहुत बड़ी चोट पहुँचा रहे होते हैं । जब भी मज़ाक करें इस बात का ध्यान रखें कि सामने वाला भी मज़ाक के मूड में है या नहीं। जिह्वा आपको ज़रूर मिली है पर इसके चारों ओर बत्तीस पहरेदार भी हैं। ये बत्तीस दांत आपकी जीभ को बचा रहे हैं लेकिन इस जीभ का आपने गलत उपयोग कर लिया तो यह जीभ बत्तीस दांत तुड़वा भी सकती है। इसलिए भद्र शब्दों का प्रयोग करें, शालीनता बनाए रखें। 166 For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बात और, सड़क चलते खाद्य पदार्थों का सेवन न करें। राह के किनारे खड़े चाट-पकौड़ों के ठेले से वस्तुएं लेकर खाते लोगों को देखा करता हूँ। चले जा रहे हैं सड़क पर कि ठेला दिखाई दिया और खड़े हो गए । हाथ धोए नहीं, घर से चले थे जब जूते बांधे थे, गाड़ी चला रहे थे तो धूल-गंदगी हाथों पर आ गई, लेकिन लिया दोना और झट से खाना शुरू कर दिया। विवेक रखें, खानपान में विवेक रखें। शालीनता हो खाने-पीने में, उठनेबैठने में। जो भी काम आप कर रहे हैं, हर उस काम के साथ शालीनता जुड़ी रहे । आएँ औरों क एक अन्य बात जो जीवन में जीने जैसी है वह है- वक्त-बेवक्त औरों के काम आना सीखें। जिंदगी में कभी किसी का समय एक जैसा नहीं रहता है, न मेरा और न ही आपका। अगर मैं अहंकार करूं कि मुझे सुनने के लिए हजारों लोग आते हैं - पर पता नहीं है कि मेरा कल क्या होगा। आज मुझे सुनने के लिए लोग तड़पते हैं - यह सोचकर अहंकार न करें बल्कि यह सोचकर विनम्र रहें कि भगवान ने जब तक यह ज़बान दी है तब तक है, दुनिया में कई लोग हैं जिनकी ज़बान को लकवा हो गया और उनकी बोलती बंद हो गई। कब तक किसकी चली है। अगर कोई ऊपर बैठा है तो ऊपर नहीं हो जाता और जो नीचे बैठा है वह नीचे नहीं हो जाता। कौन बड़ा कौन छोटा, किस बात का अहंकार । हर व्यक्ति समय का गुलाम है वह जीवन में घटने वाली घटनाओं के सामने मजबूर होता है। बड़े से बड़ा और महान से महान व्यक्ति भी परिस्थितियों का दास होता है। इसलिए आज अगर आपका वक्त अच्छा है तो उन लोगों के काम आएँ जिनका वक्त बिगड़ा हुआ है, क्योंकि पता नहीं कल को आपका वक्त कैसा हो। आप कार से जा रहे हैं और आपकी कार खाली है तो किसी बुजुर्ग के लिए मददगार बनिए। चौराहे से जा रहे हों तो बीच चौराहे पर गाड़ी रोककर खड़े न हो जाए। कल ही मैं मंदिर जा रहा था तो देखा कि बीच चौराहे पर केले का ठेलेवाला खड़ा है और आते-जाते लोग अपनी गाड़ियाँ रोककर केले खरीद रहे हैं। मंदिर में आने-जाने वालों को दुविधा हो रही थी। ऐसा न करें । अपनी सुविधा के लिए औरों को दुविधा देना दोष है। कब, कहाँ, कैसे नियमों का पालन किया जाए, इसका ध्यान रखें । सड़क पर जाते हुए अगर कोई घायल व्यक्ति मिल जाए तो यह न सोचें कि पुलिस के लफड़े में कौन पड़े। पुलिस के लफड़े से बचना भी चाहें तो जरूरी नहीं कि बच ही जायें कोई दूसरा निमित्त आपको फंसा सकता है। घायल व्यक्ति को देखकर नज़रअंदाज न करें, अन्यथा ऐसा कर आप अपने भविष्य को बिगाड़ रहे हैं। हो सकता है कल को आप सड़क पर घायल पड़े हों और कोई उठाने वाला न हो। मैं तो कहूंगा कि घायल जानवर या कोई पक्षी भी दिख जाए तो उसके मुंह में भी दो घूंट पानी डाल दें। अगर आप और कुछ नहीं कर सकते तो नवकार मंत्र या गायत्री मंत्र का श्रवण करा दें, उसे ईश्वर की शरण दिला दें। हो सकता है मरते समय आपके द्वारा दिया गया धर्ममंत्र का पाठ फिर से किसी धरणेन्द्र और पद्मावती को पैदा करने का सौभाग्य दिला सके । मदद करें, अहसान नहीं आप अपने पुत्र को व्यवसाय के लिए पांच लाख रुपये दे सकते हैं तो क्या अपने भाई को, चाहे वह 167 For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपसे अलग भी हो चुका है, पर दुविधा में पांच लाख रुपये व्यवसाय के लिए नहीं दे सकते ? अगर आपके बेटे ने कुछ गलत काम कर दिया, कहीं रुपये डूबो दिये, दिवाला निकाल दिया या शेयर मार्केट में पच्चीस लाख डूबा दिये तो आप अपना मकान बेचकर भी कहते हैं कि बेटा नुकसान कर आया तो भी इज्ज़त तो रखनी ही पड़ेगी। अरे, भाई के साथ ऐसा हो जाए तब ? तब भी काम आओ। अगर आपके पड़ोसी के कार आ जाए तो जलना मत कि उसके कार आ गई और मेरे तो अभी स्कूटर ही है । यह सोचना कोई बात नहीं। उसके कार आ गई, अच्छा हो गया, मेरी गली में तो एक भी कार नहीं थी, माँ बूढ़ी है अगर कभी रात में बीमार हो गईं तो पड़ौसी इतना भला है कि कभी तो कार काम आ जाएगी। औरों के साथ निःस्वार्थ भाव से पेश आएँ । अपने मन को दूसरों के प्रति निर्मल रखें। किसी का कुछ करके कृतज्ञता पाने की कोशिश न करें और न ही किसी से कुछ पाकर कृतघ्न बनें। दूसरों के सहयोगी बनें। अगर आपको पता चल जाए कि आपका पड़ौसी दुकानदार किसी मुसीबत में आ गया है तो उसे नज़रअंदाज़ न करें । उसकी मुसीबत में सहयोगी बनें। जो मुसीबत आज उस घर में आई है कल आपके घर भी आ सकती है। याद रखें मुसीबत किसी व्यक्ति विशेष के पास नहीं आती, वह किसी का भी द्वार खटखटा सकती है। एक-दूसरे का सहयोगी बनना ही मित्रता और मानवता की कसौटी है । सबसे बड़ा सहयोग तुम्हारा मुझे याद है - श्रीराम ने लंका - विजय अभियान प्रारंभ किया। समुद्र पार करने के लिए समुद्र पर पत्थरों का पुल बनना शुरू हुआ। पत्थर पर पत्थर लगाए जा रहे थे कि तभी राम ने देखा एक गिलहरी पानी में जाती है, फिर मिट्टी पर आती है और फिर पत्थरों के बीच जाती है। वापस आती है फिर पानी में जाती है, मिट्टी पर आती है और फिर पत्थरों के बीच चली जाती है। वह बार-बार लगातार यही किए जा रही थी। राम ने सोचा, आखिर यह गिलहरी कर क्या रही है । उन्होंने हनुमान से कहा, इस गिलहरी को पकड़कर लाओ तो । हनुमान गिलहरी पकड़ लाये और राम के हाथ में दे दी। राम ने गिलहरी से पूछा, ‘'तुम यह बार- बार क्या कर रही हो। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। तुम पानी में जाती हो, फिर आकर मिट्टी में लोटपोट होती हो, फिर पत्थरों के बीच जाती हो और कुछ करके वापस आ जाती हो' । इस पर उसने कहा, 'भगवन! मैंने सोचा, सती सीता की रक्षा के लिए, उसकी आन-बान और शान रखने के लिए आप लंका पर युद्ध के लिए जा रहे हैं, वानरों की सेना आपके साथ, युद्ध में सहयोगी बन रही है तो मैंने सोचा मैं भी सहयोगी बनूं। मेरे पास और तो कुछ सहयोग करने को नहीं था क्योंकि इन पत्थरों को उठाने की क्षमता तो मुझमें नहीं है तो मैंने सोचा कि इन पत्थरों के बीच जो खाली जगह है उसे मिट्टी डाल-डालकर भर दूं, ताकि जब आप सेना सहित इस पर से गुजरें तो ये पत्थर आपको न चुभें ।' भगवान श्रीराम ने कहा, 'गिलहरी, तू महान है, पर एक बात तो बता । यहाँ तो इतनी बड़ी सेना है और तू छोटी-सी बार-बार आ जा रही है, अगर किसी के पांवों के नीचे आकर मर गई तो ।' गिलहरी ने कहा, 'प्रभु ! तब मैं यह सोचूंगी कि नारी जाति के शील और धर्म को बचाने के लिए जो युद्ध लड़ा गया उसमें सबसे पहले मैं काम 168 For Personal & Private Use Only . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आई।' तब राम ने गिलहरी की पीठ पर स्नेह से, प्रेम और वात्सल्य से भरकर अंगुलियाँ चलाई और कहा 'लंका-विजय अभियान में सबसे बड़ा सहयोग तुम्हारा है।' । तुम छोटे हो तो यह मत सोचो कि तुम कुछ नहीं कर सकते। जो तुम्हारी हैसियत है तुम उतना तो करो। जो औरों के वक्त-बेवक्त में काम आता है उनका वक्त बेवक्त और बुरा नहीं आता है, जो दूसरों के लिए अपनी आहुति देता है। ईश्वर के घर से उसके लिए आहुतियाँ समर्पित होती हैं। ये वे बातें जिन्हें मैंने अपनी ओर से आपको समर्पित की हैं । ये बातें जीवन के लिए, जीवन के विकास के लिए, सुख के लिए सहज उपयोगी हैं। यदि आप इसमें से दो-चार बिन्दुओं को भी जीवन से जोड़ने में सफल हो जाते हैं, तो निश्चय ही जीवन धन्यभाग हो जाएगा! 169 For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवार की खुशहाली का राज खशहाल परिवार में हर सुबह ईद, दोपहर होली और साँझ दिवाली होती है। HOPord N IRNEURRRCESARICHESTEDintilatoryaamiARALIA s ian स्वर्ग तब धरती पर उतर आता है जब किसी परिवार में खुशहाली छाई रहती है। जहाँ लोगों के बीच प्रेम, आत्मीयता, आनन्द, सहभागिता, रूठना- मनाना, नाराजगी, आदर और सम्मान एक साथ वैसे ही पला करते हैं जैसे बगीचे में भांति-भांति के फूल खिला करते हैं तो समझ लीजिए कि स्वर्ग कहीं ओर नहीं है। जहाँ परिवार में घुटन और टूटन हैं, द्वेष और विरोध है, ईर्ष्या और विद्वेष की भावना है, समझिए वहीं नरक का बसेरा है। कुछ लोग अपने जीवन और परिवार की खुशहाली के लिए कई प्रकार की सुविधाओं को घर में इकट्ठा करते हैं ताकि उनके होने से बच्चे खुश हो जाएँ। लेकिन घर में उत्तम सामग्रियों के संचयन से स्वर्ग इजाद नहीं होता है। घर में फ्रीज और टी.वी. के होने या विदेशी वस्तुओं के संग्रहण से भी स्वर्ग नहीं होता है। संस्कारों की पहली पाठशाला परिवार में खुशहाली तब छाई रहती है, जब परिवार में आनन्द और प्रेम का माहौल होता है, हर व्यक्ति एक दूजे के प्रति सहभागिता और त्याग की भावना से जुड़ा होता है। तब राम के वनवास में भी स्वर्ग होता है। इसके विपरीत जहाँ परिवार में द्वेष होता है वहाँ किसी का राजतिलक होते हुए भी नरक होता है। परिवार तो हमारे जीवन की पाठशाला है। विद्यालय में तो बच्चा बाद में जाता है उसके संस्कार पहले घर में पड़ते हैं। विद्यालय तो शिक्षा देने के लिए होते हैं, लेकिन परिवार अच्छे संस्कार देने वाले होते हैं। हमारे चरित्र का निर्माण हमारे परिवार के आधार पर होता है। हमारा नज़रिया हमारे पारिवारिक चरित्र से बनता है। हमारे जीवन की अच्छी और बुरी आदतों का मूल भी कहीं न कहीं हमारे परिवार के भीतर ही होता है। आप बच्चों के लिए अच्छा प्रवक्ता होने के बजाय उनके सामने खुद को अच्छे उदाहरण के रूप में पेश करें। 170 For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक व्यक्ति जो अपने बच्चों के सामने ऊँची-ऊँची डींगे हाँकने की, ऊँचे-ऊँचे आदर्श स्थापित करने की, सत्य, ईमान, धर्म और संस्कार के दीप जलाने की बातें करता है उसके लिए अच्छा होगा कि वह इनके लिए भाषण देने के बजाय स्वयं को इन कार्यों के लिए समर्पित करके उदाहरण प्रस्तुत करें। याद रखिए खुशियाँ कभी किराये पर नहीं मिलती। मैं प्रायः देखा करता हूँ कि हर घर में साजो-सामान लगभग एक जैसा होता है - वही दो या चार पहिया वाहन, टी.वी. फ्रीज, बीवी, बच्चे, दुकान, मकान । फिर भी एक परिवार के सात सदस्य खुश नज़र आते हैं और दूसरे परिवार के पांच सदस्य दुःखी नज़र आते हैं। एक जैसी सुविधाएं दोनों परिवारों में होने के बावजूद कहीं पर खुशियाँ हैं और कहीं ग़म है। सुबह ईद तो शाम दिवाली जहाँ परिवार खुशहाल होता है वहां की हर सुबह पर्व की तरह होती है। जिन परिवारों में खुशियाँ नहीं होती उन्हें ईद मनाकर खुशियाँ मनानी पड़ती है, जहाँ परिवार में प्रेम और आनन्द नहीं होता उन्हें होली पर खुशियाँ पानी पड़ती हैं और जिन लोगों के अन्तर्मन में प्रेम और शांति के दीप नहीं जलते उन लोगों के लिए दिवाली आया करती है। जहाँ लोगों के घरों में खुशियाँ हैं वहाँ रोज ही होली, दीवाली और ईद का पर्व होता है। रिश्तों के अपने खास अर्थ होते हैं। हम परिवार के आपसी रिश्तों को यूं ही ऊपर-ऊपर न लें, क्योंकि इन्हीं रिश्तों में आदर होता है, इन्हीं में सम्मान होता है, हर रिश्ते में प्रेम और त्याग की भावना भी जुड़ी होती है। परिवार के हर सदस्य की अलग-अलग खूबियाँ होती हैं । कोई यह न सोचें कि परिवार के सभी सदस्य एक जैसा ही सोचेंगे। यह भी संभव नहीं है कि परिवार के सारे लोग एक जैसे कर्म करें, एक जैसी आदत और एक जैसा स्वभाव रखें। जैसे हर कुएं के पानी का स्वाद अलग होता है वैसे ही परिवार के हर सदस्य का स्वभाव भी अलग-अलग होता है। जैसे कुछ लोगों की खास खूबियाँ होती हैं वैसे ही कुछ लोगों की खास खामियाँ, खास कमजोरियाँ भी होती हैं । अलग-अलग किस्म के और अलग-अलग स्वभाव के लोग एक परिवार में जीते हैं । इन कमजोरियों, खूबियों, खामियों और आदतों में जीते हुए भी अगर एक-दूसरे के साथ सामंजस्य के भाव बने रहते हैं तो वह परिवार समन्वित होता है । समन्वय के भावों से परिवार में खुशहाली रहती है। वहाँ भाई, भाई से टूटकर नहीं, मिलकर रहता है । ननद और भोजाई आपस में नाक सिकोड़कर नहीं, प्रेम और आत्मीयता से जीते हैं । सास और बहू एक-दूसरे से कटकर, हटकर नहीं बल्कि दूध में शक्कर जैसे घुलमिलकर रहते हैं। स्वर्ग की सावधानियाँ हाँ, परिवार को स्वर्ग बनाया जा सकता है, परिवार को खुशहाल और खुशियों से लबरेज किया जा सकता है। बस जरूरत है कुछ सावधानियों की। व्यवहार की थोड़ी-सी असावधानियाँ जहाँ परिवार को नरक बना देती हैं, वहीं व्यवहार की थोड़ी-सी सावधानियाँ हमारे परिवार को स्वर्ग बनाए रखती हैं । घर का कोई सदस्य गुस्सैल या क्रोधी प्रकृति का है तो ऐसा न समझें कि उसे अलग कर दिया जाए बल्कि यह सोचें कि इस सदस्य के साथ अपना तालमेल कैसे स्थापित करें। दूसरे यह कोशिश करें कि उसके साथ घर के सभी सदस्यों का ऐसा सरलतम व्यवहार हो कि धीरे-धीरे उसका क्रोध, अहंकार, गुस्सा भीतर-ही-भीतर गलना-पिघलना शुरू हो जाए। ईश्वर 171 For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो वैसे जोड़े बनाकर ही भेजता है। पति का स्वभाव अगर तेज होता है तो पत्नी का स्वभाव शीतल बनाकर भेजता है और पत्नी का स्वभाव तेज तो पति को शांत बनाकर भेजता है। इसके बावज़ूद घर के अन्य सभी सदस्य इस तरह का माहौल बनाकर रखें कि किसी एक के मन में पीड़ा है तो सभी उसकी पीड़ा को समझें। अगर किसी एक के मन में किसी बात को लेकर ईर्ष्या के भाव जग गए हैं तो परिवार के लोग नज़रअंदाज़ करने के बजाय उसे समझें। अगर परिवार में कोई महिला घुटन या कुंठा महसूस कर रही है तो अन्य सभी उसकी कुंठा और घुटन को समाप्त करने की कोशिश करें । हरदम न होगी हरियाली परिवार में हम लोगों का एक-दूसरे के साथ कैसा व्यवहार हो ? सबसे पहले देखें बच्चों के प्रति । अपने बच्चों को सिखायें कि उन्हें जन्म से सुविधाएँ तो मिली हैं, पर जीवन में सुविधाभोगी न बनें। जिन्हें बचपन से सारी सुविधाएँ मिलती हैं और जो अपने बच्चों को संघर्ष का च्यवनप्राश नहीं खिलाते उनके आगे के जीवन में कोई दुःख की वेला आ जाए, किसी असुविधा का सामना करना पड़ जाए तो वे बच्चे जीवन से हार जाया करते हैं। एक बात का ध्यान रखें कि जीवन में हरी घास कभी-न-कभी सूखती अवश्य । अपने बच्चों को इस बात का अहसास कराते रहें कि उन्हें जो हरी घास जन्म से मिली है उसे सूखने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है। उन्हें इस बात का संकेत देते रहें कि जितने मजे से आज हरी घास में खेल रहे हैं अगर जीवन में सूखी घास भी आ जाए तो उतने ही प्रेम से उसका भी सामना करने का हौंसला रखना । उन्हें समझाएँ कि पैसा बहुत परिश्रम से कमाया जाता है, इसलिए उस पैसे से पढ़े-लिखें, योग्य बनें, फिर खुद कमाकर उपभोग करें। पिता के पैसे पर ऐश न करें। इस बात का उन्हें हमेशा अहसास कराते रहें कि पैसा न तो जमीन खोदकर निकाल सकते हैं, न आकाश से बरसता है । पैसे को परिश्रम से कमाते हैं इसलिए बच्चे पैसे का मूल्यांकन करें । आप पैसे का इसलिए मूल्यांकन कर रहे हैं कि आपने बड़ी मेहनत से कमाया है। जब इसी मेहनत से कमाए गए पैसे को बेटा व्यर्थ ही उड़ाता है तो पिता को तक़लीफ होती है। इसलिए उसे अहसास कराएँ कि जो पैसा उसने मोबाइल पर, गप्पे मारने में खर्च कर दिया, वह उन्होंने परिश्रम करके पाया था। उसे समझना होगा कि दोस्तों के काम पर जो वह इधर-उधर भटक रहा है, गाड़ी चला रहा है उस गाड़ी का पैट्रोल कोई नल में पानी की तरह नहीं आया है, अपितु पैट्रोल में लगे पैसों को अपने परिश्रम से कमाया है। आपको वह सब करना होगा अगर आप चाहते हैं कि आने वाला कल आपके बच्चों के जीवन में दुविधाएँ खड़ी न करें । हमारे पास अधिकांश लोग यही शिकायत लेकर आते हैं कि बच्चे उनके कहने में नहीं है, बुरी संगत, बुरी आदतों से घिर गए हैं, बच्चा मनमानी करता है, उन पर हाथ उठाने लगा, सामने जवाब देने लगा है, जान से मरने-मारने की धमकी दे रहा है। इस तरह उनका बच्चा बिगड़ता जा रहा है। मैंने देखा है कि बच्चा बाईस वर्ष का होता है उससे पहले ही अपने माँ-बाप का जीवन नरक बना देता है । इसलिए उन्हें अहसास करा दिया जाए कि वे मोबाइल पर जो गप्पे लगा रहे हैं या दोस्तों की महफिल में जाने के लिए कार में पेट्रोल फूंक रहे हैं इसका उपयोग अपनी ज़िंदगी में अपने ही बलबूते पर करें। पहले खुद कमाओ, फिर उसका उपयोग करो । 172 For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख नहीं, दुःख जुटा रहे हैं ___कई लोगों की सोच होती है कि उन्होंने बचपन में दुःख उठाए हैं अब अपने बच्चों को क्यों वही दु:ख उठाने दें? सो वे बच्चों के लिए हर सुविधा का सामान जुटा देते हैं। पर याद रखें, आप तो दुःख के दिनों से उबरकर सुख में आ गए हैं लेकिन आपके बच्चे सुख देखकर दुःख में जाने वाले हैं। तुमने दुःख के, परिश्रम के संघर्ष के दिन देखे थे इसलिए तुम्हें खबर है पैसा कैसे कमाया जाता है और उसने बचपन में सुख के दिन देखे हैं, इसलिए आगे जाकर वह दुःख के दिन देखने वाला है । इसलिए उसे अहसास कराएँ कि बेटा, जीवन में धन का कितना उपयोग है और उसे कितनी मितव्ययता के साथ खर्च किया जाना चाहिए। उन्हें बुद्धिमान बनाएँ, पर इतना भी न बनाएँ कि वह आपको ही बुद्धू बनाने लगे। कुछ वर्षों पूर्व हम जयपुर में किसी परिवार में एक दिन के लिए ठहरे हुए थे। मैंने पूछा, 'बिटिया कहाँ है ?' कहने लगे, 'बाहर गई है गाड़ी लेकर' दोपहर में फिर पूछा, 'बिटिया नहीं आई ?' बताया कि वह अपनी सहेलियों के साथ घूमने-फिरने गई है। सांझ को फिर पूछा तो बताया गया कि वह अपनी सहेलियों के घर से अभी तक नहीं आई है, जिस घर में इतना भी अंकुश नहीं है कि बेटी कितनी देर तक घर के बाहर रहे और मातापिता को यह भी खबर नहीं है कि बेटी किस सहेली के यहाँ गई है। क्षमा करें ऐसी लड़की जब बीस साल की हो जाएगी तो वह कभी तुम्हारे हाथ की रहने वाली नहीं है। यदि तुम अपने बच्चे को बचपन में हद से ज्यादा सुविधाएं देते रहे तो ये सुविधाएँ ही उनके और तुम्हारे लिए दुविधाएँ बन जाएँगी, क्योंकि जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होगा वह और अधिक सुविधाभोगी बनता जाएगा और उसके बाईस साल के होने पर जब आप ब्रेक लगाने की कोशिश करेंगे तब आपका ब्रेक फेल हो जायेगा। उस वक्त आप सोचेंगे कि अब इस पर रोक लगाऊं कि अब यह ये-ये काम न करें, दोस्तों की महफिल में न जाए, खाने-पीने की गलत आदतों से न जुड़े, रात को देर तक घर से बाहर न रहे, पर तब तक देर हो चुकी होगी और बच्चा आपके कहने में न होगा। मैं कहा करता हूँ, अपने बेटे को इतना लायक भी मत बना देना कि वह तुम्हें ही नालायक समझ बैठे। चूक जाएँगे, सुधार लें चूक ___ मैं चाहता हूं कि हम अपने बच्चे को बहुत प्रेम दें, प्यार दें लेकिन काम पड़ने पर अपने बच्चे को डाँटने की हिम्मत भी रखें। उसे प्यार करें लेकिन वक्त आने पर उसे अहसास करा दें कि बेटा, अब तुम्हारी सीमा हो गई। अगर आप ऐसा करने में संकोच कर रहे हैं, हिचकिचा रहे हैं कि ऐसा कहने से मेरा बेटा कहीं नाराज न हो जाए, कहीं कुछ गलत न कर बैठे तो जान लें कि आप चूक खा रहे हैं । एक खुशहाल परिवार हमारे द्वारा, हमारी संतान के द्वारा नरक बना दिया जाएगा। अपने बच्चों को केवल विश्वविद्यालय की डिग्री तक सीमित न करें, उसे लौकिक व्यवहार की सीख भी दें, अपने परिवार, घर व समाज की मर्यादाओं की डिग्री दें। अगर आपका बेटा आपके घर की मर्यादाओं का पालन नहीं कर रहा है तो मैं कहना चाहूंगा कि ऐसा बेटा घर में रखने लायक नहीं होता है। जो बच्चे अपनी मर्जी के मालिक हैं और अगर आप उन पर अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं तो आगे जाकर आप दुःखी हो सकते है। हम सोचते हैं कि यह तो बच्चा है, चलो इसका कहा मान लेते हैं, पर क्या यह जरूरी 173 For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है कि बच्चा भी हमारा कहना माने । जैसे आप बच्चे की मर्जी पूरी करते हैं तो क्या यह जरूरी नहीं हैं कि बच्चा भी आपकी मर्जी का ख्याल रखें। परिवार के हर सदस्य की भावना का मूल्य होना चाहिए, पर परिवार की मर्यादाओं के मौल पर नहीं। आपका बच्चा अगर गलत जा रहा है तो आप समझाएं और उसे लाख समझाने के बावजूद वह सही रास्ते न आए तो मोह में बंधकर सहन करने की बजाए उसका बहिष्कार एवं त्याग करने की हिम्मत दिखाएं। परिवार के सदस्यों की भावना का मूल्य हैं पर याद रखें घर की भी अपनी मर्यादाएँ होती है। आप अपने घर में ऐसे कार्य करें कि जिन्हें करके आप स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर सकें और बच्चा उन कार्यों का अनुसरण करे तो वे कार्य घर को स्वर्ग का स्वरूप देने का कार्य कर सकें। दुनिया की श्रेष्ठतम रिकॉर्डिंग व्यवस्था बच्चे के दिमाग में स्थापित है। आप जो कह रहे हैं, कर रहे हैं वह सब भविष्य के लिए उसमें रिकॉर्ड होता जा रहा है और समय आने पर भविष्य में वही रिकॉर्डिंग आपके लिए दोहराई जाएगी। बच्चा व्यवहार को दोहराएगा। जो आप आज कर रहे हैं, कल वह वही करने वाला है। ईर्ष्या का नहीं, प्रेरणा का पाठ पढाएँ तीसरी बात यह कहना चाहंगा- बच्चों से अधिक अपेक्षाएं न पालें। आप बार-बार उनसे कहते हैं कि देख यह तेरी क्लास के बच्चे की फोटो अखबार में छपी है। वह खेलने में कितना तेज है. गोल्ड मेडल मिला है। कभी आप कहते हैं कि पडौसी का बच्चा अपनी क्लास में फर्स्ट आया है। तम तो पढते ही नहीं, बद्ध हो - ऐसा ही काफी कुछ कहते रहते हैं। बच्चों की किसी से तुलना न करें और न ऐसी अपेक्षा रखें कि मेरा बच्चा ऐसा हो, मेरे बच्चा अन्य किसी के जैसा हो। उसे उसका नैसर्गिक विकास प्रदान कीजिए । वह आपका पप्पू है, पीपाड़ी नहीं कि जब चाहें तब उसका बाजा बजाने लग जाएँ। कुछ दिन पहले एक महानुभाव अपने दो बच्चों को लेकर हमारे पास आए और कहने लगे कि यह छोटा बच्चा पढ़ने में बहुत होशियार है, बुद्धिमान है, लेकिन यह बड़ा वाला थोड़ा कमजोर है। मैंने पूछा - मतलब ? वार्षिक अंक कितने आते हैं ? कहने लगे - ठीक है, अभी 82 प्रतिशत आए हैं। मैंने कहा - तुम्हारा यह बड़ा बच्चा चौथी कक्षा में इंग्लिश मीडियम में 82 प्रतिशत अंक लाया है और तम कहते हो कि यह कमजोर है। ईमानदारी से बताओ कि जब तुम आठवीं में पढ़ते थे, तब क्या 42 प्रतिशत अंक भी ला पाए थे? आप बच्चों को अखबार में छपी फोटो दिखाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि वह भी कर दिखाए, लेकिन अगर आपका बच्चा आपसे सफल मित्र की छपी तस्वीर दिखाकर कहे कि देखो, आप भी कुछ ऐसा करें कि अखबार में आपके दोस्त जैसी तस्वीर छप सके, तब आपका चेहरा कैसा होगा। एक पिता ने अपने पुत्र से कहा मैं तुम्हारी उम्र में था तो बारहवीं पास कर गया था, तू अभी तक नौंवी में ही है । बच्चा तपाक से बोला- रहने दीजिए पापा, राजीव गांधी आपकी उम्र में देश के प्रधानमंत्री बन गए थे, पर आप? अगर आप बच्चे से अधिक योग्यताएं पाने की उम्मीद करेंगे तो बच्चा भी आपमें उच्च योग्यताओं को पाने की अपेक्षा रखेगा। इसलिए कोशिश करें कि सहज रूप में बच्चे के जीवन का विकास हो । बच्चे को प्रेरणा का पाठ पढ़ाइये, उसे आंशिक रूप से स्पर्धा का पाठ भी पढ़ाईये, लेकिन ऐसा न हो कि पढ़ाते-पढ़ाते बच्चे को ईर्ष्या का पाठ पढ़ाना शुरू कर दें। आप प्रेरणा का पाठ 174 For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़ाइये कि वह औरों के जीवन को देखकर अपने जीवन के विकास की संभावनाओं की तलाश करे। आप बच्चे का सर्वतोभावेन विकास चाहते हैं तो उससे अधिक अपेक्षाएं न रखें। उसके जीवन का सहज विकास होने दें। जब उसके जीवन का सहज विकास होगा तो वह तनावमुक्त होगा और जब आप उसे असहज कर देंगे तो उसे अपना जीवन तनावपूर्ण लगने लगेगा। ध्यान रखें, अपने बुढ़ापे के लिए भी उससे अधिक अपेक्षाएं न रखें कि मैंने इसके लिए क्या-क्या सपने देखे थे, इसके लिए क्या-क्या सोचा था। इसके लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया और आज क्या दिन देखने पड़ रहे हैं। आपके मन में यह जो जंजाल चलेगा, वह आपका जीवन नारकीय बना देगा। संतानें आपकी बात मान लें तो अच्छी बात है, स्वीकार कर लें तो ठीक है और अस्वीकार कर दें तो खास बात नहीं है। टोकें, रोकें, रखें निग़ाह एक बात और कि आप अपने बच्चों के चरित्र के प्रति सजग रहें । केवल पढ़ाई के नाम पर उनका बचपन 'कॉन्वेंट' स्कूलों के नाम न कर, अपना समय भी उन्हें दे। यह देखने, परखने की भी कोशिश करें कि आपका बच्चा कहाँ जा रहा है, किन लोगों के बीच रह रहा है। अगर वह थोडी-सी भी गलत राह पर जा रहा है तो आप नज़रअंदाज करने की बजाय उसे हिदायत दें, उस पर अंकुश लगाएँ, उसे संकेत दें। और तो और उसे टोकने की हिम्मत रखें। अगर वह गलत दोस्त के साथ जा रहा है तो यह न सोचें कि इसे मैं अलग से एकांत में कहूँ कि बल्कि उस दोस्त के सामने उसे टोकने की हिम्मत रखें । बिगडैल बच्चे के माँ-बाप कहलाने के बजाय आप बिना बच्चे के रहें तो ज्यादा अच्छा है। आप कम दुःखी होंगे। गांधारी अगर बिना संतान की होती तो शायद उतनी दुःखी न होती जितनी दुःखी वह दुर्योधन और दुःशासन जैसे सौ पुत्रों को जन्म दे कर हुई थी। मेरे पास बिगड़ी संतानों के माता-पिता आते रहते हैं। मैं उनसे यही कहता हूँ कि आप थोड़ी हिम्मत दिखाओ और अपने बच्चों को सुधारने की कोशिश करो। एक पिता ने मुझे बताया कि उनका बेटा उनके हाथ से निकल गया है, कुछ भी कह देता है और अब तो हद हो गई है कि वह उन पर हाथ भी उठा देता है। मैंने पूछा, तुम क्या कर रहे हो। कहने लगे, सहन कर रहा हूँ। मैंने पूछा- अगर तुम्हारे पड़ौसी ने तुम्हें चांटा मारा होता तो तुम क्या करते? उन्होंने कहा साहब, पुलिस में रिपोर्ट लिखवाता। मैंने कहा - यह तुम्हारे जीवन की पहली भूल थी कि बच्चे ने तुम पर हाथ उठाया और तुमने उसके हाथ सही सलामत रहने दिये। अगर उसी दिन तुम उसका हाथ मरोड़ने की हिम्मत रखते तो जिंदगी में उसकी अंगुली भी तुम्हारी ओर नहीं उठती। अपने बच्चे को प्रेम करने का जज्बा रखते हैं तो मौका पड़ने पर उसे ललकारने का हौंसला भी रखें। ऐसा करके आप अपने भविष्य को नरक बनाने से बच जाएंगे। ____ मैं अहमदाबाद के एक परिवार को जानता हूं - बहुत सम्पन्न है । उनके पुत्र के दोनों जेबों में मोबाइल रहते हैं। स्कूल जाने के लिए कई कारें - जब जिसमें जाना चाहे, जाए, न जाना चाहे तो न जाए। पैसा खर्च करने की बेहिसाब छूट माँ को अपने क्लबों और किटी पार्टियों से फुर्सत नहीं है और पिता अपने व्यवसाय में व्यस्त हैं बच्चे की तरफ कौन ध्यान दे। जब वह बालक ग्यारह वर्ष का था, तब से मैं उन्हें जानता हूं। अक्सर मैं कह भी देता था 175 For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि जरा बच्चे का भी ध्यान रखें, पर फुर्सत कहाँ। अब वह लड़का सत्रह वर्ष का हो गया है। एक दिन माँ मेरे पास आई, रोने लगी वह, बहुत दुःखी थी, बता रही थी कि एक दिन मैंने बच्चे को किसी बात पर कह दिया कि ज्यादा शैतानी की तो चाँटा मार दूंगी तो उसने पलटकर जवाब दिया – अगर तू मुझे चाँटा मार सकती है तो भगवान ने मुझे भी हाथ दिए हैं। माँ तो अपने बेटे की यह बात सुनकर ही अवाक रह गयी। उसकी आँखों में आँसू के अलावा कुछ नहीं था कि अब ये दिन भी देखने पड़ रहे हैं। बच्चों को दीजिए संस्कार की पूंजी ऐसा तभी होता है जब हम कुछ ज्यादा ही लाड-प्यार में बच्चों को रखते हैं और दूसरा उन्हें टोकने का हौंसला नहीं रखते । इसलिए मैंने पहले ही कहा कि अपने बच्चे को संघर्ष, आत्मविश्वास और परिश्रम का च्यवनप्राश खिलाइये। वे माता-पिता सामान्य होते हैं जो बच्चे को जन्म देते हैं और उन्हें उनकी तक़दीर पर छोड़ देते है कि भगवान उन्हें जैसा चाहे, वैसा पाले। वे माता-पिता मध्यम होते हैं जो बच्चे को जन्म देकर बहुत सारा धन देते हैं। उनके नाम जमीन-जायदाद, मकान-सम्पत्ति आदि छोड़ जाते हैं । श्रेष्ठ और उत्तम प्रकृति के माता-पिता वे होते हैं जो अपने बच्चे को सुसंस्कार की पूंजी दिया करते हैं। वे जीवन का पाठ पढ़ाते हैं, जीवन के नैतिक संदेश देते हैं जिनके चलते वह अपने जीवन का चहुंमुखी विकास करने में सक्षम व समर्थ होता है। दो चार फूलों के खिलने से बाग उपवन नहीं होता, वह उपवन तब होता है जब वहाँ कई तरह के फूल खिले होते हैं। अगर आप परिवार में कई सदस्य हैं तो ये अलग-अलग तरह के खिले हुए फूल हैं और इन फूलों से हम अपने घर, जीवन और परिवार के उपवन में खुशहाली और स्वर्ग को संजो सकते हैं। जीवन-विकास के लिए दीजिए धरातल अन्तिम बात जो बच्चों के संबंध में कहना चाहूंगा कि आप अपनी ओर से बच्चों को विकास का मौका दें। यह न सोचें कि बच्चा है, अभी पढ़ने दो। जैसे ही बच्चा सोलह वर्ष की उम्र पार करे, उसे पढ़ाई के साथ अपने बिजनेस से जोड़ने की कोशिश करें। ईश्वर ऐसा न करे, लेकिन यह भी हो सकता है कि आपका बच्चा पढ़ाई पूरी करे, उससे पहले आपके साथ कुछ अनहोनी हो जाए तो आप उसे अपने ऑफिस, दुकान, व्यवसाय से जरूर जोड़ें ताकि शिक्षा के साथ वह व्यवसाय में भी पारंगत होना शुरू हो जाए। आप उसे जीवन-विकास के लिए ज़मीन दें। अगर आप उसे छोटा कैनवास देंगे तो वह वहीं तक सीमित रहेगा, लेकिन बड़ा कैनवास देंगे तो वह वन में उतना ही बडा चित्र उकेरने में सफल और सक्षम होगा। अगर पस्तक को पढना है तो उसे आँख से थोड़ा दूर रखना होता है। अधिक पास रखने से आँख खराब हो सकती है, वैसे ही बच्चे का भविष्य संवारना है तो उसे भी आँख से दूर रखने की हिम्मत जुटाइये। जब वह आँख से दूर होगा तो आत्मनिर्भर होगा। ___मैंने देखा है कि बच्चे घर में माँ से कहते हैं मुझे यह सब्जी नहीं सुहाती, मुझे यह अच्छा नहीं लगता, वह अच्छा नहीं लगता, आज ये बनाओ। माँ खाने का आग्रह करती है और बच्चे ना-नुकुर करते रहते हैं पर वही बच्चे जब हॉस्टल में चले जाते हैं तब उसी सब्जी के लिए लाइन में लगना पड़ता है, गर्म पानी के लिए लाइन में 176 For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड़े होना पड़ता है, जैसा खाना मिले खाने के लिए मजबूर होते हैं । तब वे आत्मनिर्भर होना शुरू होते हैं। जब उन्हें ग्राउण्ड मिलता है तब वे अपने विकास के लिए समर्थ होते है। हाँ, अपने बच्चों को व्यावहारिक शिक्षा भी दें। अकेले ही सब्जी खरीदने न जाएं । अपने बच्चे को भी साथ ले जाएं ताकि वह समझ सके कि कौनसे फल या सब्जी काम के हैं या अच्छे हैं, ताकि बड़े होने पर आपके बच्चे औरों के सामने केवल यह न कहते रहें कि हमारे पिताजी बहुत अच्छी कच्ची-कच्ची भिंडी लाते थे, या क्या मटर लाते थे छांट-छांटकर, अपितु वे स्वयं भी उतनी ही अच्छी सब्जियां ला सकें। अपने बच्चे को जीवन की पाठशाला की डिग्रियां भी जरूर दीजिए। जब वह इस प्रकार की छोटी-छोटी चीजों के साथ वाकिफ होता रहेगा तो शिक्षा की डिग्रियों के साथ जीवन की व्यावहारिक पाठशाला की डिग्रियां भी अर्जित कर लेगा। बच्चों और अभिभावकों के बीच संबंधों की चर्चा के बाद हम पति-पत्नी के रिश्ते पर बात करते हैं। यह एक नाजुक रिश्ता है। जब पति-पत्नी के बीच तालमेल नहीं होता है तो अग्नि की साक्षी में लिए गए फेरे मुश्किल में पड़ जाते हैं और घर घुटन, तनाव, अवसाद से घिरकर नरक बन जाता है । जानें, उनके बीच कैसा तालमेल हो, कैसे निभाएं यह रिश्ता? चयन जीवन-साथी का ___मेरा पहला संकेत है कि जीवन साथी बहुत सावधानी से चुनें। आपके अधिकांश सुख और दुःख केवल एक चयन से जुड़े हुए हैं । केवल रंग-रूप देखकर जीवन-साथी न चुन लें। गोरा रंग केवल दो दिन अच्छा लगता है और ज्यादा पैसा दो महीने अच्छा लगता है, लेकिन जीवन न तो केवल रंग के साथ और न केवल धन के साथ जिया जाता है । जीवन तो आखिर जीवन के साथ जिया जाता है। इसलिए जब आप जीवन साथी का चयन करें तब बारीकी से ध्यान रखें। उसका स्वभाव कैसा है, उसका व्यवहार, सोच, जीवन-शैली कैसी है, क्योंकि आपके जीवन के ज्यादातर सुख और दुःख आपके जीवन साथी से जुड़े हुए हैं। पत्नी को अपना समय भी दें। केवल उसे पहनने के लिए कीमती सोने की चूड़ियाँ और वस्त्र ही न दें अपना कीमती समय भी उसे दें क्योंकि वह आपसे थोड़ा समय भी चाहती है। आप ऑफिस से घर पहुंचे और देखा कि पत्नी सोई है, क्योंकि उसके सिर में भयंकर दर्द हो रहा है। आप उसके पास गए और उसके सिर पर हाथ रखा और कहा - यह क्या हो गया, चलो तुम्हें डॉक्टर के पास ले चलूं डॉक्टर को दिखा लाता हूं। पत्नी की आँख में आँसू आ जाते हैं। तुम परेशान हो जाते हो कि मैं तो इसके डॉक्टर के पास ले जा रहा हूं और यह तो रोने लग गई है।आँसू इसलिए आए कि तुमने प्रेमभरा हाथ उसके माथे पर रखा उसने महसूस किया कि मेरे पति के पास मेरे लिए समय भी है। पत्नी अर्धांगिनी है, गुलाम नहीं तुम्हारा समय धन कमाने में, दोस्तों, परिचितों में चला जाता है, अपनी पत्नी को भी समय देना सीखिए । आपका समय आपकी पत्नी के लिए सबसे बड़ा उपहार है। वह आपसे समय चाहती है, उसकी उपेक्षा न करें। न ही उसे अपने अहंकार का पोषण करने का माध्यम ही बनाएं। अपने क्रोध को प्रकट करने का पात्र भी उसे न 177 For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाएं । याद रखें, वह आपकी अर्धांगिनी है, पत्नी है - नौकर और गुलाम नही । मैंने देखा है, लोग बाहर दूसरों के साथ बहुत नरम होते हैं, और घर जाकर पत्नी के साथ छोटी-छोटी बात में गरम हो जाते हैं। ___ एक व्यापारी जो व्यापार में ग्राहकों के साथ नरम थे, समाज की मीटिंगों में सब लोगों के साथ नरमाहट से पेश आते थे लेकिन जैसे ही घर में घुसते सीना तानकर खड़े हो जाते, आँख ऊंची करके गम्भीर हो जाते, नरमाहट गरमाहट में बदल जाती। क्यों? अपनी पत्नी को हर समय कोप का भाजन न बनाएं। ऐसा न हो कि बाजार की झंझटबाजी आप घर पर ले आएं, पत्नी भी तो बेचारी घर में पिसती रही है । घर में आपके बच्चों को संभाल रही है, आपकी माँ ने भी उसे कुछ सुना दिया है, आपकी बहन भी कम नहीं है। कुछ-न-कुछ कड़वी बातें बोलती रहती है - एक वह अकेली है और घर के बाहर से आई है और घर में सात सदस्य पहले से हैं। वह घर में सभी का व्यवहार सहन कर रही है और आप घर में पहुंचे और विस्फोट कर बैठे तो उस बेचारी का कौन होगा ? याद रखें पराई बेटी को बहू बनाकर अपने घर लाना सरल है, पर उसके दिल को जीतना मुश्किल है। लक्ष्मी लाएँ तो लक्ष्मी समझें भी। वह अपने आप आपके घर नहीं आई है। आप घोड़ी पर चढ़कर बैंड-बाजों के साथ नाचते-गाते उसके हाथ थामकर सम्मान के साथ लाए हैं। अगर आप अपने घर लक्ष्मी को लेकर आए हैं तो उसे लक्ष्मी जैसा सम्मान देना भी सीखिए। हर समय अपनी पत्नी पर धौंस न जमाइए। अगर हर समय धौंस जमाते रहे तो मानसिक तौर पर पत्नी आपके विपरीत हो सकती है। मुझे याद है - एक व्यक्ति शादी करने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि कुछ लोगों ने उसे कह दिया था कि शादी मत करना। शादी करने के बाद बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं । पत्नी अगर गुस्सैल हो तो जीवन नरक बना देती है। घर में हर समय तानाशाही और मनमर्जी चलाती है और आदमी से जो चाहे सो कराती है। उसने सोचा कि जानबूझकर मैं यह आफत मोल नहीं लूंगा । वह अट्ठाईस साल का हो गया तब तक शादी नहीं की। एक दिन उसके दोस्त ने कहा 'अरे भाई शादी क्यों नहीं करते?' उसने कहा 'क्या बताएं जमाना बहुत बदल गया है, पत्नी आती है तो धौंस जमाती है, अपने से यह सब सहन नहीं होगा, अकेला रहूंगा और शादी-वादी नहीं करूंगा।' दोस्त ने कहा 'मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूं जिससे पत्नी जीवनभर तुम्हारी दासी बनकर रहेगी।' उसने उपाय बताया कि जैसे ही शादी करके पत्नी आए तुम अगले ही दिन से पत्नी पर धौंस जमाना शुरू कर देना। उसने पूछा कैसे?' मित्र ने कहा 'दूसरे ही दिन से अकड़कर ही बोलना और साथ में यह भी जोड़ देना, ऐसा काम करो नहीं तो?' उसने कहा, 'यह ठीक है, पत्नी को पहले दिन से ही दबाकर रखो तो जीवनभर दबी रहेगी।' __ ऐसा ही हुआ, उसने शादी कर ली और अगले दिन सुबह ऑफिस जाना था। उसने कहा, 'मेरे लिए जल्दी से नाश्ता तैयार करो नहीं तो?' पत्नी ने सोचा आज तो पहला दिन है और यह शुरुआत ही नहीं तो' से! फिर उसने कहा, 'जल्दी से मेरे जूतों की पॉलिश करो नहीं तो?' पत्नी और घबराई। दोपहर में ऑफिस से आया और बोला 'मेरे लिए खाना बनाओ नहीं तो ?' पत्नी बिचारी घबराई कि न जाने क्या 178 For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म किये थे सो ऐसा पति मिला जो हर समय धौंस जमाता रहता है। यह काम करो नहीं तो, वह काम करो नहीं तो ........ आखिर मैं करूं क्या? इस तरह छह महीने बीत गए। उस व्यक्ति ने सोचा दोस्त ने बडी जोरदार बात बताई है। इसकी तबसे हिम्मत नहीं हई जबान चलाने की। पत्नी बेचारी सोचती न जाने क्या बात है हरदम धमकाते रहते हैं, कहीं मैं कुछ बोल दूं तो डर लगता है मुझे छोड़ ही न दें, कहीं तलाक ही न ले ले। साल भर बीत गया तब भी उस युवक की आदत नहीं सुधरी। जब भी कुछ काम कहता 'नहीं तो जरूर जोड़ देता। एक दिन पत्नी अपनी पड़ोसन के यहाँ गई जो थोड़ी उम्रदराज थी। उसने बातों-बातों में बताया कि मेरा पति जो कहता है मैं करने को तैयार रहती हूँ, आज तक 'ना' नहीं कहा है, लेकिन जबसे इस घर में आई हूं मेरे साथ एक बात हो रही है । वे हमेशा कहते हैं कि यह काम करो नहीं तो, वह काम करो नहीं तो, ऐसा करो नहीं तो, वैसा करो नहीं तो, मेरे साथ हर वक्त नहीं तो, नहीं तो क्यों होता है। आप मुझे कोई उपाय बताएं। पड़ोसन ने कहा 'ठीक है, आज जब वह ऑफिस से आए और तुम्हें कोई काम बताए और कहे नहीं तो, तो तुम पूछ लेना नहीं तो क्या कर लोगे।' उसने कहा 'नहीं, नहीं यह नहीं पूछ सकुँगी, कहीं नाराज हो गए तो, मुझसे तलाक ही ले लिया तो?' पड़ोसन ने कहा 'तू चिंता मत कर, हिम्मत करके आज पूछ ही लेना। मैं सब जानती हूँ तेरा पति कितना दब्बू है । वह कुछ नहीं कर सकता है।' ___ शाम को पति घर आया, जनवरी का महीना था आते ही उसने कहा मुझे नहाना है मेरे लिए पानी गर्म कर नहीं तो .......' पत्नी ने हिम्मत बटोरी और पूछ ही लिया ‘नहीं तो आप क्या कर लेंगे ?' अब बारी पति की थी उसने सोचा दोस्त ने यहीं तक बताया था आगे तो बताया ही नहीं था और कुछ उपाय सूझा नहीं सो कहा 'नहीं तो क्या ठंडे पानी सावधान रहिये, अगर आपके पति में ज्यादा धौंस जमाने की आदत रखते हैं तो मेरी बहिनों हौंसले कभी पस्त न होने देना और हिम्मत करके यह बात पूछ ही ले ना - नहीं तो क्या कर लोगे? वो ठंडे पानी से नहाने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता। कहना-सुनना एकांत में पति-पत्नी के रिश्तों में एक बात ओर ध्यान रखें कि पत्नी के साथ प्रेमभरा व्यवहार करें। चार लोगों के बीच उसे टोकाटोकी न करें। मुझे यह बात चुभती है। एक पति-पत्नी हमसे मिलने के लिए आए। बहुत से लोग हमारे पास बैठे थे। पत्नी ने कुछ बात कही और पति ने उसे अपनी आँखें दिखानी शुरू कर दीं, पत्नी बेचारी सहमकर एक किनारे बैठ गई। तब मैं सोचने लगा आखिर आदमी ऐसा क्यों करता है ? तुम्हें अपनी बात कहने क है तो क्या पत्नी को यह हक नहीं है। उसके अधिकारों का क्या हम यं ही हनन करते रहेंगे ? घर-परिवार में अगर आपकी वाइफ है तो उसे सही सलामत रखें। यही आपकी लाइफ है । याद रखें, वाइफ को दुःखी रखकर आप अपनी लाइफ को सुखी नहीं बना सकते। अगर आप पत्नी से अनुशासन चाहते हैं तो आप भी अनुशासन में रहें। उसकी गलती होने पर अगर उससे 179 For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सॉरी की अपेक्षा रखते है तो अपनी गलती होने पर आप भी सॉरी कहें। सॉरी कहिए-समझौता कीजिए, तनाव से बचिये और मस्त रहिए। घर में छोटी-से-छोटी बात पर सॉरी कहने की हिम्मत रखिए और घर को सुखमय बनाइये । छोटी-छोटी बात को लेकर आप इतने तनाव में आ जाते हैं कि दिन-रात घर में न होते हुए भी घर को नरक बना देते हैं। कम न होने दें पति का गौरव ___जितना फर्ज़ पति का है घर का सुखद वातावरण बनाने का, उतना ही उत्तरदायित्व पत्नी का भी है। अपने पति को हर समय हाँकने की कोशिश मत कीजिए। अगर हर वक्त उसे हाँक रहे हैं तो एक दिन उग्र बनकर वह आपको ही मारने का प्रयास करेगा। ज़िंदगी में पति के मान-सम्मान और गौरव को बनाकर रखने की कोशिश कीजिए। पति के दोष निकालने वाली महिलाओं से कहूंगा वे पति की तारीफ करने की आदत डालें। चार लोगों के बीच आपके पति को भद्र, सज्जन बताया जा रहा है तो विपरीत टिप्पणी करके उसे दर्जन घोषित मत कीजिए। पति के साथ लचीला व्यवहार रखें । दोष किसमें नहीं होता। उसमें दोष न होता तो तुमसे शादी ही क्यों करता, संत ही न बन जाता। कमियाँ दोनों में हैं और अगर आप दोनों एक-दूसरे के साथ समझौता कर लेंगे, तो परिवार खुशहाल बन सकेगा। ___ एक बात और, अपने पति को कभी गलत कार्य करने के लिए प्रोत्साहित न करें। पति को सुधारने में अगर पत्नी का हाथ है तो उसे बिगाड़ने में भी उतना ही हाथ पत्नी का होता है। अगर गलत काम करके पति द्वारा धन घर में लाया जाए तो उसे प्रोत्साहन न दें। आप पति को बताएं कि आप ऐसे धन को घर में रखना पसंद नहीं करते जो गलत तरीके से कमाया गया है। पति के गलत तरीके से कमाए हुए धन से आप महंगी सोने की चूड़ी खरीद कर पहन लेंगे, पर याद रखें आपके पति के हाथों में आने वाली हथकड़ियों को आप नहीं रोक पाएंगे। गलतियों को दफ़न करें कब्र में अपने घर को खुशहाल बनाना है तो परिवार का हर सदस्य अपने साथ एक कब्रिस्तान रखें और दूसरों की गलतियों को उसमें दफन कर दे। अगर आपकी भूलने की आदत है, तो औरों की भूलों को भूलने की कोशिश करें। आप हमेशा सरल रहें, दूसरों के साथ सदा नम्र बने रहें और दूसरों को अहसास कराते रहें कि तुम्हारी यह नम्रता तुम्हारा बड़प्पन है, न कि तुम्हारी कमजोरी। जिस दिन लगे कि तुम्हारा हाथ जोड़ना दूसरे को तुम्हारी कमजोरी लग रहा है तो उसे अहसास करा दें कि तुम्हें हाथ उठाना भी आता है। __ मैं संकेत कर रहा था कि पति को कभी गलत ढंग से धन कमाने को प्रोत्साहित न करें। मैंने सुना है एक व्यक्ति नदी के पुल से कहीं जा रहा था। वह किसी फैक्ट्री का कर्मचारी था, यात्रा पर निकला था। थोड़ी देर आराम करने के लिए रुका और कुर्सी पर बैठा। आराम कर ही रहा था कि यकायक, उसके पास जो ब्रीफकेस था वह पानी में गिर पड़ा। ब्रीफकेस तो अधिक कीमती न था, पर उसके अंदर जरूरी कागजात थे। बेचारा रोने लगा, गुहार लगाने लगा कि कोई पानी में से ब्रीफकेस निकाल दे। उसके रोने की आवाज सुनकर जल देवता वहाँ प्रकट हो गए। जल देवता ने पूछा, 'क्या हुआ भाई?' उसने कहा, 'मेरी ब्रीफकेस पानी में गिर गई है, आप उसे निकाल 180 For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दें।' जल देवता पानी में गये और सुंदर-सी चमड़े की ब्रीफकेस निकालकर ले आए और पूछा क्या यही तुम्हारा ब्रीफकेस है ?''नहीं, यह मेरी ब्रीफकेस नहीं है, वह ईमानदार था। जल देवता फिर पानी में गए और इस बार एक सुंदर और मजबूत ब्रीफकेस लेकर आए जिसमें रुपये भी भरे थे। ब्रीफकेस खोलकर दिखाते हुए पूछा – क्या यह उसकी ब्रीफकेस है? उसने कहा- 'नहीं-नहीं यह भी मेरी ब्रीफकेस नहीं है, मेरी ब्रीफकेस तो रेग्जीन की है, जिसके भीतर रुपये नहीं, मेरे कागज हैं।' जल देवता भीतर गए और उसकी वही रेग्जीन की ब्रीफकेस लेकर आ गए और पूछा, क्या यह है ?' उसने तपाक से कहा, 'हाँ-हाँ यही है।' ___जल-देवता उसकी ईमानदारी से इतने खुश हुए कि उसकी वास्तविक ब्रीफकेस के साथ वे अन्य दोनों ब्रीफकेस भी दे दीं । घर आकर उसने अपनी पत्नी को सारी बातें बताई। पत्नी खुश हो गई कि कितने अच्छे जल देवता है। उसकी नीयत डोल गई। उसने कहा 'चलो मैं भी चलूंगी नदी पर।' उसने सोचा सोने की चूड़ी डालकर हीरे की ले आऊंगी। पति-पत्नी दोनों नदी पर पहुंचे। बिना पीठ वाली कुर्सी पर बैठे। पहले तो ब्रीफकेस गिरी थी इस बार तो पत्नी ही गिर गई। पति दुःखी होकर रोने लगा, पुकारने लगा कि कोई उसकी पत्नी को बचा ले। तभी जल के देवता प्रकट हुए और पूछा 'वत्स! क्या हुआ ?' उसने कहा, पत्नी के कहने पर लोभवश मैं फिर आ गया था, लेकिन इस बार तो मेरी पत्नी ही गिर गई। जल देवता इस बार मेरी पत्नी को निकालकर ला दीजिए।' जल के देवता भीतर गए और ऐश्वर्या को बाहर निकालकर लाए और पूछा यह है तुम्हारी पत्नी?' उसने कहा हाँ, यही है।' ऐश्वर्या को उसने अपने पास रख लिया। जल देवता ने कहा, 'भैय्या, पिछली बार जब मैं नोटों से भरा ब्रीफकेस लेकर आया था तब तो तुम्हारे मन में पाप नहीं आया, तुम सच बोलते रहे, लेकिन इस बार झूठ कैसे बोल गया? तेरी पत्नी तो अभी पानी में है।' उसने कहा, 'जल देवता अब आपसे क्या छिपाना। पहले आप ब्रीफकेस लाए थे और इस बार ऐश्वर्या को लाए अगर मैं कहता यह नहीं है तो आप माधुरी को ले आते और मैं कहता यह भी नहीं है तो तीसरी बार में आप मेरी असली पत्नी को ले आते और जैसे तीन ब्रीफकेस दिये थे वैसे ही इनको मुझे सौंप देते। अगर मैं तीनों को घर ले जाता तो मुझे अपनी जिंदगी नरक नहीं बनानी थी जल के देवता!' __परिवार में संतुलन रखिए। पति-पत्नी के बीच संतुलन, पिता-पुत्र के बीच संतुलन, सास-बहु के बीच संतुलन ! घर-परिवार की व्यवस्था संतुलन पर ही चलती है। आप घर में संतुलन को साधिए, संस्कारों को साधिए, घर सुखमय और स्वर्गमय बन सकेगा। 181 For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेहतरीन किताबें रॉयल साइज, रॉयल मैटर रॉयल प्रजेंटेशन किताबों की कीमत लागत से भी कम पूजा भी eur श्री चन्द्रप्रभ गहोपावाग तितपसाभर जीने की कला लाइफ़ हो तो ऐसी! घरको कैसे स्वर्ग बनाएँ की ममतत्त्व मधु जीवन जीना देउताल मजकल श्री ललितप्रभ 10MLade अध्यात्म का अमृत प्रभाटी ककिकामोसमाधान जीने की कला (रॉयल साइज) पृष्ठ : 196 मूल्य :70/ अध्यात्म का अमृत पृष्ठ : 144 मूल्य : 50/ घर को कैसे स्वर्ग बनाएँ पृष्ठ:48 मूल्य : 10/ लाइफ हो तो ऐसी! पृष्ठ: 144 मूल्य : 50/ कैसे जिएँमथुरजीवन श्रीराम श्री ललियान कैसे बनाएं समय को बेहतर प्रेरणा लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ योग अपनाएँ, जिंदगी बनाएँ श्री वासवान प्रेरणा लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ पृष्ठ :128 मूल्य : 40/जागेसो पृष्ठ : 112 मूल्य : 25/ कैसे जिएँ मधुर जीवन पृष्ठ :112 मूल्य : 25/ योग अनाएँ, ज़िंदगी बनाएँ पृष्ठ :108 मूल्य : 25/ कैसे बनाएं समय को बेहतर पृष्ठ :112 मूल्य : 25/माँ की ममता हमें पुकारे पाध्याय विश्न सफल MI-india-nhोन ततितपासागर जीवन के समाधान श्री चक्रप महावीर आध्यात्मिक विकास जरा मेरी आँखों से देखो व श्री चन्द्रग्रम Kamayeer श्रीवा ansी किलो माला को मा लोक बाकी जीवन के समाधान पृष्ठ :160 मूल्य : 80/ जागे सो महावीर पृष्ठ: 192 मूल्य : 40/ जरा मेरी आँखों से देखो पृष्ठ : 112 मूल्य : 25/ माँ की ममता हमें पुकारे पृष्ठ: 32 मूल्य : 8/- कैसे करें आध्यात्मिक विकास पृष्ठ:160 मूल्य : 50/ For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु से मृत्यु से मुलाकात पृष्ठ : 200 मूल्य : 50/ महागुहा की चेतना श्री चन्द्रप्रभ महागुहा की चेतना पृष्ठ 192 मूल्य 40/ : श्री म आत्मा की प्यास बुझानी है तो..... आत्मा की प्यास बुझानी है तो पृष्ठ : 112 मूल्य 25/ ム श्री चन्द्रप्रभ की श्रेष्ठ कहानियाँ स श्रेष्ठ कहानियाँ पृष्ठ : 128 मूल्य: 25/ ध्यानयोग विधिश्रवन अ ध्यानयोग विधि और वचन पृष्ठ : 160 मूल्य 40/ श्री जतिप्रभ बजाएँ अन्तर्मन का इकतारा बजाएँ अन्तर्मन का इकतारा पृष्ठ 192 मूल्य 40/ शांति पा पाने का सरल रास्ता शांति पाने का सरल रास्ता पृष्ठ 112 मूल्य 25/ जिएं तो ऐसे जि श्री जिएं तो ऐसे जिए पृष्ठ : : 128 मूल्य : 40/ श्री चन्द्रप्रभ रूपांतरण रूपांतरण पृष्ठ : 160 मूल्य 25/ श्री कन्द्रा The tot तक का 新 कद्राण से द योग पृष्ठ : 192 मूल्य : 40/ अंतर्यात्रा प्ररानीवन की सोज श्री चन्द्रप्रभ महाजीवन की खोज पृष्ठ : 160 मूल्य : 40/ अपने आपसे पूछिए मैं कौन हूँ मैं कौन हूँ पृष्ठ : 112 मूल्य : 25/श्री चन्द्रप्रभ For Personal & Private Use Only The विपश्यना साक्षात्कार का मा द विपश्यना पृष्ठ : 160 मूल्य : 30/ ध्यान ध्यान अंतर्यात्रा पृष्ठ : 160 मूल्य : 30/- पृष्ठ 160 मूल्य : 25/ श्री जागा मेरे पार्थ श्री चन्द्रप्रभ जागो मेरे पार्थ पृष्ठ : 250 मूल्य 45/ अमृत arger अमृत का पथ पृष्ठ : 176 मूल्य 80/ : श्री चन्द्रप्रभ ध्यानयोग धन्यान ध्यानयोग पृष्ठ : 160 मूल्य : 80/ C htt क बेहतर जीवन के बेहतर समाधान बेहतर जीवन के बेहतर समाधान पृष्ठ : 126 मूल्य 25/ पर्युषण E पृष्ठ : 4 प्रवचन पर्युषण प्रवचन : 112 मूल्य 25/ . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपल्टएम उदोपाध्यायसनासागर पल-पल लीजिए जीवन का आनंद यह है दिल में कीजिए स्वय का कायाकल्प रास्ता ति, सिद्रिमोट मुक्ति पाने चिंता, क्रोध और तनाव-मुक्ति के सरल उपाय सरल रास्ता भी शांति, सिद्धि और मुक्ति चिंता, क्रोध और तनाव पाने का सरल रास्ता मुक्ति के सरल उपाय पृष्ठ:176 मूल्य : 40/- पृष्ठ : 160 मूल्य : 50/- पल-पल लीजिए जीवन का आनंद पृष्ठ:112 मूल्य : 25/ यह है रास्ता जीवंत धर्म का पृष्ठ :120 मूल्य : 25/ 7 दिन में कीजिए स्वयं का कायाकल्प पृष्ठ : 176 मूल्य : 30/ श्रीचन्द्रप्रमे श्री बन्दाम ध्यानका श्रीचन्द्रप्रभ विज्ञान वाहजिंदगी ध्यानयोग पर समना मार्गदर्शन शानदार जीवन की दमदार बातें। नई दिशा नई दृष्टि ऐसी हो जीने की शैली -tent Pawana चार्जक जिंदगी hिe jांचा + पीलापन ऐसी हो जीने की शैली चार्ज करें जिंदगी पृष्ठ : 96 मूल्य : 25/- श्री चन्द्रप्रभ ध्यान का विज्ञान पृष्ठ : 144 मूल्य : 30 नई दिशा नई दृष्टि पृष्ठ : 192 मूल्य : 35/ वाह! जिंदगी पृष्ठ : 112 मूल्य : 25/लोकप्रिय पुस्तक अब भारत को जनाना होगा यो dapur ज्योति कलश छलके महावीर ध्याक्ष को बहाई देने वाले ध्यान सूत्र आपकी और आज का हर समस्या का समाधान न जन्म न मृत्यु श्री चन्द्रप्रभ पी ललितपन श्री चन्द्रप्रभ wom भी वापस महावीर आपकी और आज की ध्यान को गहराई देने वाले अब भारत को जगना होगा न जन्म, न मृत्यु ज्योति कलश छलके हर समस्या का समाधान ध्यानसूत्र पृष्ठ : 176 मूल्य : 35/- पृष्ठ : 192 मूल्य : 35/ पृष्ठ : 160 मूल्य : 30/पृष्ठ : 300 मूल्य : 60/- पृष्ठ : 192 मूल्य : 35/ न्यूनतम 400 -कासाहित्य मंगवाने पर डाकखर्च संस्थाद्वारादेय होगा। धनराशि SRIJITYASHASHREE FOUNDATION के नाम सेड्राफ्ट बनाकर जयपुर के पते पर भेजें। उपरोक्त साहित्य प्राप्त करने हेतु अपना ऑर्डर निम्न पते पर भेजें। श्री जितयशा श्री फाउंडेशन बी-7, अनुकम्पा द्वितीय, एम. आई. रोड, जयपुर (राज.)0141-2364737, 2375796 For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द आर्ट ऑफ लिविंग जीवन प्रभु का वरदान है।जीवन का उसी तरह आचमन कीजिए। जैसे कि आप श्रीप्रभुकेचरणामृत का पान करते हैं। प्रभुकी पूजा और प्रार्थना तो सभी करते हैं, लेकिन जीवन की महान सौगात देने के लिए प्रभु के प्रति आभार का भाव हम कभी समर्पित नहीं करते हैं। जीवन देने के लिए जैसे ही हम प्रभु के प्रति आभारी होंगे, हमारा जीवन के प्रति नज़रिया खुद-ब-खुद बदल जाएगा। तब आपके पाँव, पाँव नहीं रहेंगे, सूर काइकताराऔर मीराकेधुंघरू बन जायेंगे। __ जीवन को जीना खुद ही एक बहुत बड़ी कला है। जैसे ढोलक पर थाप बजाना आ जाए तो संगीत के सुर-ताल झनझना उठते हैं, ऐसे ही जीवन को जीना आ जाए तो जीवन का हर दिन, हर घड़ी एक उत्सव बन जाए। राष्ट्र-संत महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागर जी की यह मीठी-मधुर, रसभीनी पुस्तक 'जीने की कला हमारे लिए हमारे ही जीवन का दस्तावेज़ है।संतप्रवर इतने करीने से हमारे दिल केतारों को छूते हैं कि अनायास ही हमारे भीतर से शांति, सौन्दर्य और आनन्द के संगीत का झरना फूट पड़ता है। जीवन जीने के तौर-तरीके सिखाने वाली किताबें यूँ तो दुनिया में और भी आई हैं, लेकिन जब आप इस किताब को पढ़ेंगे तो आप बीज न रह पाएँगे, फूल और फूल की तरह सुवासित हो उठेगे, जिंदगी बदल जाएगी। कह उठेंगे आप - धन्यभाग! 9165 FORsonay Ofivate Use Only