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देखा, पिछले तीन वर्षों में उनके विरोध की भावना को। उफ् ! शायद झोंपड़पट्टी में रहने वाले लोग जिन्हें हम नासमझ कहते हैं और जिन्हें हम धर्म और बुद्धि के विवेक से हीन समझते हैं, वे भी आपस में एक दूसरे का ऐसा विरोध नहीं करते होंगे जैसा उन संतों ने एक-दूसरे का विरोध किया था। मेरे पास, कभी अमुक परम्परा के लोग आते और अपने संत की तारीफ करते, कभी दूसरी परम्परा के लोग आते और अपने संत की प्रशंसा करते। मैं उनसे कहता, 'अभी तुम्हारे संत, संत कहाँ हुए हैं ! जो लोग अपने समाज में, अपने पंथ में वैर-विरोध और कटुता की भावना का पोषण करते हैं, क्या वे लोग संत कहलाने के भी योग्य हैं ? संतों के मन में भी अगर संतों के प्रति वैर और विरोध है तो फिर मैं यह पूछना चाहूँगा कि प्रेम का बसेरा कहाँ होगा? प्रेम-सरोवर सूख न पाए
मैंने एक राजस्थानी कहावत पढ़ी है- 'कुत्ता लडै दांतां तूं, मूरख लहै लातां सूं और संत लड़े बातां तूं।' सभी लड़ने में मशगूल हैं । धोबी धोबी से मिलता है तो राम-राम करता है, नाई-नाई से मिलता है तो राम-राम करता है, जो भी एक दूसरे से मिलते हैं तो नमस्कार-प्रणाम करते हैं, मगर दुर्भाग्य यह है कि अगर संत संत से मिलता है तो वह हाथ भी जोड़ने को तैयार नहीं होता। सोचें, वस्त्र बदलकर साधु तो हो गए हैं पर क्या मन से भी साधु हो पाए हैं ?
जिसके मन में कठोरता, कटुता, कलह और संघर्ष की भावना रहती है उसके चित्त में कभी किसी के प्रति प्रेम नहीं होता। उसके प्रेम के सरोवर का पानी सूख जाता है और उसमें दरारें पड़ जाती हैं । स्नेह की कमी से मेलजोल में कटौती होती है। वह स्वयं तो दुःखी रहता ही है किंतु अपनी उपस्थिति से आसपास के लोगों को भी दुःखी करता है। अपने क्रोध और अहंकार से स्वयं को तो दंडित करता ही है, दूसरों को भी दंडित करने की सोचता रहता है। इतिहास में खून की जो नदियाँ बहती रही हैं, उनका एकमात्र कारण प्रतिशोध और बदले की भावना रही है। चिरकाल तक मनुष्य के मन में प्रतिशोध की भावना लहराती है। आइये, हम जीवन का बोध जगाएँ, प्रतिशोध को हटाएँ और प्रेम की गंगा-यमुना को अपने हृदय में बहाएँ। वैर बिन, ये चार दिन
एक बार हम अपने मन को टटोलें, किसी धार्मिक ग्रन्थ की तरह ईमानदारी से अपने मन को पढ़ें। अपनी विचारस्थिति को पढ़ें कि कहीं उसके भीतर कोई वैर तो नहीं है। चार दिन की छोटी-सी जिंदगी में दो दिन तो बीत गए और शेष दो दिन भी बीत जाएँगे - फिर किस बात का वैर-विरोध!
___ चार दिन की जिंदगी में, इतना न मचल के चल।
दुनिया है चल-चलाव का रास्ता, जरा सँभल के चल॥ छोटी-सी जिंदगी में कैसा वैर-विरोध ! मेरे प्रभु, छोटी-छोटी बातों की गांठें न बाँधे । जैसे गन्ने की गांठ में एक बूंद भी रस नहीं होता वैसे ही जिस आदमी के मन में गांठें बन जाती हैं, उसका जीवन भी नीरस हो जाता है।
इतिहास की एक घटना है- काशी में ब्रह्मदत्त नाम के एक नरेश हुए। उनके पड़ोसी राज्य कोशल' के राजा थे दीर्धेती। एक दफा कोशलनरेश और काशीनरेश के मध्य युद्ध हुआ। कोशलनरेश अपनी रानी को लेकर
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