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________________ बाद फोन पर आपको शुभकामना दी तो आपको लगेगा कि उसकी जिंदगी में आपका कोई मूल्य नहीं है और आप उपालम्भ दे बैठेंगे। लोगों की अपेक्षाएँ अलग-अलग तरह की होती हैं और यह जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति की अपेक्षाएँ पूरी कर दी जाएँ। एक ही व्यक्ति को कई लोगों से अलग-अलग अपेक्षाएँ हो सकती हैं। आदमी चाहता है कि मेरे अनुसार परिवार जिए, समाज जिए। जिस ट्रस्ट में मैं ट्रस्टी हूँ वहाँ मेरा ही दबदबा चले। अगर चार दोस्तों के बीच बैठा हूँ तो मेरी ही बात सुनी जाए। पत्नी को जैसा कहूँ, हू-ब-हू वह वैसा ही करे- पता नहीं ऐसी कितनी ही तरह की अपेक्षाएं होती हैं। हर व्यक्ति का सोचने का तरीका अलग होता है और व्यक्ति अपनी उसी सोच और धारणा के अनुसार निर्णय लेता है। एक छात्र जिसके परिवार को उससे पूरी अपेक्षा थी कि वह इस वर्ष परीक्षा की मेरिट लिस्ट में जरूर आएगा। संयोग से उसे इसके लिए जरूरत से दस अंक कम मिले तो इसके लिए परिवार में उसे डांट मिली और कहा गया कि तुमने पूरी मेहनत नहीं की होगी। वहीं दूसरी ओर उनके पड़ौसी का बेटा चालीस प्रतिशत अंक लेकर आया तो भी वे लोग मिठाई बाँट रहे थे। दरअसल उन्हें उसके पास होने की उम्मीद भी नहीं थी। अपेक्षा-उपेक्षा का मनोविज्ञान अपेक्षा और उपेक्षा का भी अपना एक विज्ञान है। अगर आपने ध्यान दिया हो तो देखा होगा कि यदि कोई अपरिचित व्यक्ति आपकी उपेक्षा करे तो आपको गुस्सा नहीं आता पर अगर खास परिचित आदमी आपकी उपेक्षा करे तो आप तत्काल क्रोधित हो उठते हैं। हम लोग यह अपेक्षा पाल लेते हैं कि दिल्ली में हमारा रिश्तेदार है।हम तो जब भी दिल्ली जाएंगे, वह हमें पूरी दिल्ली जरूर घुमाएगा। संयोग से तुम उसके घर चले गए। घूमाना तो दर की बात, वह आपके पास परा बैठ भी नहीं पाया क्योंकि वह अपने ऑफिस के कार्यों में उलझा हआ था। उसके इस व्यवहार ने आपको दुःखी और क्रोधित कर दिया। उपेक्षित अपेक्षा हमेशा गुस्से का निमित्त बनती है। अच्छा होगा कि हम औरों से अपेक्षाएँ पालने की बजाय अपने आप से अपेक्षा पालें। ___अभी हम जयपुर में थे। एक महानुभाव अपनी पत्नी के साथ हमसे मिलने के लिए आए। बातचीत के दौरान उनसे भोजन करने के लिए आग्रह किया गया। उन्होंने कहा – 'साहब, मेरी पत्नी की बुआ का बेटा यहीं रहता है। हमें उनके यहाँ भी जाना है अगर उनके यहाँ खाना नहीं खाया तो उन्हें बरा लगेगा।' मैंने कहा, 'जैसी आपकी मर्जी।' सांझ को वापस आए तो कहने लगे, 'साहब, हम भोजन यहीं करेंगे।' मैंने कहा, 'क्या मतलब?' थोड़े झल्लाते हुए, कहने लगे, 'साहब पता नहीं, कैसे आदमी हैं ? खाने का तो उन्होंने पूछा ही नहीं, केवल चाय कॉफी की मनुहार करते रहे। मैंने देखा कि उनके मन में सामने वाले के प्रति थोड़ी सी खटास पैदा हो गई थी। मैंने बात को सँवारते हुए कहा, 'हो सकता है कि सामने वाले ने यह सोचा होगा कि गुरुजनों के यहाँ से आए हैं तो भोजन तो करके ही आए होंगे।' कई बार व्यक्ति औरों की उपेक्षा का शिकार होकर अपने आपको अशांत कर लेता है और तनावग्रस्त हो जाता है। अगर हम किसी के द्वारा दिखाई दी गई उपेक्षा को सही अर्थ में लें तो वह हमें गुस्सा नहीं दिलाएगी 59 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003861
Book TitleJine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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