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हम अपने जीवन में उस सहनशीलता का विकास करें कि अगर कोई हमारे प्रति अन्याय करे तो भी हम अपने अन्तर्मन में न्याय की भावना ही रखें। दुश्मन के प्रति भी दोस्ती का भाव रखना ही सहनशीलता का विकास है।
प्रतिशोध मिटाने का दूसरा तरीका है -क्षमा का विकास। जब भी विपरीत स्थितियाँ और वातावरण निर्मित हो तब उनके प्रति अपने अन्तर्मन में क्षमा और प्रेम को जन्म दें। महावीर के कान में कीलें ठोकी गईं तो उन्होंने क्षमा को धारण किया। आपके कान में कड़वे शब्द पड़ें तो आप भी क्षमाशील बनें। एक संत के जीवन में अगर कषाय जगता है तो वह उसे साँप बनाता है और अगर साँप के जीवन में क्षमा जगती है तो वह उसे देव बना देती है । यही क्षमा, अहिंसा और प्रेम जीवन जीने की कला है ।
क्षमा-प्रेम का स्वाद अनुपम
वैर-विरोध और प्रतिशोध उसी को अच्छे लगते हैं जिसने अभी तक प्रेम और क्षमा का स्वाद नहीं चखा है। दुनिया में दो कठिन कार्य हैं- किसी से क्षमा मांगना या किसी को क्षमा करना । परन्तु ये दोनों ही कार्य आपको अनेक कठिनाईयों से मुक्ति दिलाते हैं। शुरू-शुरू में माफी मांगना हमें जहर पीने के समान लगता है परन्तु परिणाम में अमृत जाता है। क्षमा मांगना यदि प्रायश्चित का सुंदर व अच्छा रूप है तो क्षमा करना बड़प्पन का प्रतीक। इसमें आप न केवल मन की उलझन से मुक्त होंगे अपितु अपनी शक्ति और शांति में बढ़ोतरी करने में भी सफल हो जाएंगे ।
जब कोई व्यक्ति आपके प्रति गलती या अपराध कर देता है तो आपके मन में जलन या प्रतिशोध की भावना पैदा होती है। परिणामस्वरूप आप उचित - अनुचित का निर्णय नहीं कर पाते हैं। याद रखें क्रोध का तूफान आपके दिमाग के दीपक की लौ को बुझा देता है।
किसी से माफी मांगकर या किसी को माफ कर आप उसके प्रति कोई उपकार नहीं करते। अपितु स्वयं पर ही उपकार करते हैं क्योंकि आप बदले की भावना और वैर विरोध जैसे नकारात्मक भावों से मुक्त होकर शांत और प्रसन्न होते हैं।
त्याग तभी जब त्यागा अहम्
प्रतिशोध को हटाने का तीसरा उपाय है- अहंकार का समापन । अगर आपके भीतर 'मैं' का भाव है, तो कृपया उसे निकाल दें वैसे ही जैसे आप पांव में गड़े हुए कांटे को निकालते हैं। आप सभी बुद्धत्व की राह के राही हैं और इस मार्ग पर चलने की पहली सीढ़ी ही अहंकार का त्याग है। आपने सब कुछ त्याग दिया पर अहंकार को न त्याग सके तो आपके सभी त्याग व्यर्थ हैं ।
अगर व्यक्ति शांति चाहता है तो सबका सम्मान करे, हिंसा का बहिष्कार करे, दूसरों के कार्यों में सहयोग दे, बंधुत्व के भाव का स्वयं में संचार करे और समय-असमय दूसरों के काम आए।
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