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और आटा बन गए पिसकर।
आइए, अब हम देखते हैं हमारे जीवन की क्या मर्यादा है, जिन्हें हम सरलता से जी सकते हैं । एक तो वह होता है जो दिन भर राम-राम जपता है और दूसरा वह है जो राम की मर्यादाओं को जीता है। जब तुम राम से पूछोगे कि इन दोनों में से कौन उन्हें प्रिय है तो निःसंदेह वे मर्यादाओं को जीने वाले का ही नाम लेंगे। महावीर की पूजा करने वाला महावीर को कितना पाएगा पता नहीं, लेकिन उनके आदर्श और नैतिक नियमों को जीने वाला महावीर के पास ही रहता है। जानें कम, जिएं ज्यादा
मर्यादाओं से जुड़ी जीवन की बातें प्रायः हर व्यक्ति जानता है। वह जानता है कि क्या अपनाया जाना चाहिए और क्या छोड़ा जाना चाहिए, लेकिन प्रमाद या आदतवश हम अपने संयम और विवेक को नजरअंदाज करते रहते हैं। सभी जानते हैं कि दूसरे को नहीं सताना चाहिए। रिश्वत नहीं लेना चाहिए और गलत दृष्टि नहीं डालनी चाहिए। बुरे काम करने वाले भी जानते हैं कि ये काम नहीं करने चाहिए, फिर भी वह जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करता है। इसलिए मैं निवेदन कर रहा हूँ कि जानबूझकर अनजान बनने की बजाय ज्ञात सत्य को जीवन में जीने का प्रयास करना चाहिए। हमें इस बात की खुशी नहीं है कि यहाँ इतने हजार आदमी सत्संग सुन रहे हैं । सत्संग को सुनकर लोगों का जीवन बदल रहा है, जीवनशैली बदल रही है। व्यक्ति किसी भी गलत काम को करने से पहले एक बार सोच रहा है।
___ व्यक्ति एक बार भीतर का स्नान करे, गंगा को उतारने जैसा अपने भीतर भागीरथी प्रयास करे ताकि वह अपने अन्तर्मन को भी निर्मल व पवित्र कर सके। अंदर उतरें, करें रूपांतरण
हजारों हजार संतों को सनने का क्या लाभ अगर जीवन में रूपांतरण घटित न हो! मझे याद है. एक बढे बुजुर्ग रोज किसी संत के सत्संग में जाया करते थे, भले ही वहाँ जाकर वे झपकियाँ ही लेते हों, पर सत्संग में जाते रोज थे। उनकी इच्छा थी कि उनका बेटा भी उनके साथ सत्संग में चला करे। वे रोज अपने बेटे से आग्रह करते
और कहते 'बेटे, एक बार तो चलो, वहाँ देखो तो हजारों लोग आते हैं । एक दिन तो प्रवचन सुनने चलो।' पिता के बहत आग्रह करने पर अन्तत: एक दिन बेटा चला ही आया। वहाँ उसने संत की वाणी सुनी। दया, करुणा, प्रेम पर संत उद्बोधन दे रहे थे। वे समझा रहे थे कि कोई घर के दरवाजे पर आ जाए तो उसे भूखा मत लौटाओ, भोजन दे दो, कुछ खाने को दे दो। इस तरह वे दया-दान की बातें बता रहे थे।
उस युवक ने सब सुना। अगले दिन की बात है। बेटा दुकान पर बैठा था और दादाजी सत्संग सुनने चले गए थे। जब वे सत्संग से दुकान की ओर लौटे तो देखा कि बेटा दुकान में बैठा है और बाहर जवार की बोरी खुली रखी है जिसको गाय बड़े मजे से खा रही थी। इतने में पिताजी पहुँचे और चिल्लाने लगे, 'अरे बुद्ध, तू देखता नहीं है, बाहर गाय धान खा रही है और तू आराम से बैठा है। उसने कहा - 'पिताजी, कल ही तो संतप्रवर ने कहा था कि घर पर कोई भूखा, दीन-दु:खी आ जाए तो उसे भोजन देना चाहिए। ठीक है, दस रुपये का धान खा भी लेगी
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