SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्मल करें स्वभाव चौथा मंत्र देना चाहूँगा, आप अपने स्वभाव के प्रति सजग रहें। यदि आप स्वयं सुखी रहना चाहते हैं और दूसरों से भी सुख पाना चाहते हैं तो अपने स्वभाव का अवलोकन जरूर करें। आप देखें कि पूरे सप्ताह में आपने क्या अच्छा और क्या बुरा किया? किससे प्रेम किया और किसके प्रति क्रोध किया? किसके प्रति क्षमा-भाव रखा और किसे अपशब्द कहे? सप्ताह में एक दिन तय कर लें कि आप अपने क्रिया-कलापों का उस दिन पर्यवेक्षण करेंगे। दूसरे दिन उन सभी कार्यों को दोहराएँ और संकल्प लें कि अच्छे काम अधिक करेंगे और बुरे तथा गलत कार्यों को छोड़ने का प्रयास करेंगे। सदा श्रेष्ठ कार्यों से प्यार स्वयं ईश्वर से प्यार करने के बराबर है। यदि जीवन में सत्संग करने के बाद भी हमारा स्वभाव नहीं बदल रहा है तो मनन करें कि हमने आखिर क्या पाया? तीस दिन पहले भी आप क्रोध करते थे और आज भी आपको गुस्सा आ रहा है तो आप यहाँ आकर व्यर्थ का एक घंटा न गंवाएँ। आप और कुछ काम करें। अगर आप अपने जीवन को रूपान्तरित करने के प्रति सजग नहीं हैं तो यहाँ सत्संग में आने का औचित्य ही क्या हैं? आप अपने स्वभाव को पढ़ें कि उसमें क्या विकृति या सुधार आया है ? स्वभाव में कितनी अनुकूलता या प्रतिकूलता आई है? अगर आप चाहते हैं कि जीवन में आपको लोगों का प्यार मिले मरने के बाद दुनिया आपको याद रखे तो आप अपनी ओर से सबको प्रेम और मधुर व्यवहार दें। आपका निर्मल और पवित्र स्वभाव जीवन-विकास के मार्ग खोलेगा। शांत स्वभाव के लोग जहाँ इ स्वर्ग की शांति पाते हैं. वहीं कडवे और झगडाल स्वभाव के लोग महल में रहकर भी नरक को जीने को मजबर हो जाते हैं। वाणी का मिठास जीवन में मिठास घोलना है वहीं वाणी का खटास जीवन में घोलता है। संतोषी, सदा सुखी सुखी जीवन का अगला मंत्र है-'संतुष्ट रहना।' हम कहते हैं -'संतोषी सदा सुखी'। और अतिलोभी सदा दुःखी। जिसके जीवन में संतोष-धन आ जाता है वह अपार सुख का मालिक हो जाता है। जो मिला है, जैसा मिला है, जिस रूप में मिला है, उसे स्वीकार करना सीखें। अति लोभ विनाश का कारण बनता है। लोभ तो पाप का बाप है। भगवान् महावीर ने कहा है-'क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का और लोभ सब कुछ नाश कर देता है इसलिए संतोष रूपी धन बटोर लें। विधाता और भाग्य ने जो दिया है, अच्छा दिया है, श्रेष्ठ दिया है। अतः सुखी जीवन के लिए इससे बढ़कर दूसरा धन और क्या हो सकता है? तरुवर बनें, सरोवर बनें जीवन में दूसरों के काम आना - यह भी सुखी जीवन का एक मंत्र है। इसमें हमारे मन को तो 15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003861
Book TitleJine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy