________________
होना चाहिए । जब व्यक्ति के मन में हताशा आ जाती है तब वह पचास वर्ष की आयु में ही बूढ़ा हो जाता है और जिसके मन में उत्साह रहता है वह अस्सी वर्ष का होकर भी जवान होता है। याद रखिए बुढ़ापा पहले मन में आता है फिर तन में ।
बुढ़ापा जीवन को सार्थकता प्रदान करने का चरण है । आप जानते हैं हमने संन्यास लिया बचपन में और हमारे पिता ने लिया पचपन में। पचपन बचपन का पुनरागमन होता है। जो बचपन से ही अपनी बुद्धि का सार्थक प्रयोग करना शुरू कर देता है उसका पचपन सार्थक हो जाता है। जिस उम्र में लोग परिवार के राग में उलझे रहते हैं, जिस उम्र में लोगों का घर से तीन दिन के लिए निकलना मुश्किल होता है उस उम्र में अगर व्यक्ति जीवन भर के लिए घर-परिवार, पति, पत्नी, दुकान, धन-वैभव, मकान के मोह का परित्याग करके साधना के मार्ग पर कदम बढ़ा दे तो क्या यह कम तारीफ़ की बात है। सचमुच जिसने बुढ़ापे को सही दिशा देने की विद्या पा ली उसी बुढ़ापा सार्थक हो जाता है ।
कल तुम्हें, आज उन्हें ज़रूरत
जो स्थितियाँ बचपन में होती हैं वही स्थितियां लगभग बुढ़ापे में भी होती हैं। आप देखें - जब आप बच्चे थे तो अपने आप खड़े नहीं हो पाते थे । मम्मी-पापा ने आपको अंगुली दी और खड़ा होना तथा चलना सिखाया। आज तुम्हारी माँ पिचयासी साल की हो गई है, वह खड़ी नहीं हो पा रही, चल नहीं पा रही है । तब तुम्हारी अंगुली कहाँ चली गई है ? बचपन में तुम बिस्तर गीला कर देते थे, गंदा कर देते थे । सोचो कभी ऐसा भी हुआ होगा कि तुम छोटे रहे होगे तब तुम्हारी माँ खाना खा रही थी कि तुमने शौच कर दी थी। तुम्हारी माँ ने खाना बीच में ही छोड़कर तुम्हारे शरीर की शुद्धि की, हाथ धोए और पुनः खाना खाने बैठ गई । यही उदारता क्या तुम अपनी माँ के बुढ़ापे में एक बार भी दिखा पाओगे ? बचपन में तुम अपने हाथ से खाना नहीं खा पाते थे, बुढ़ापे में उन्हें भी बहुत दिक्कत होती है। बचपन में तुम्हें अकेले रहना अच्छा नहीं लगता था, बूढ़ों की मजबूरी है कि वे अकेले रहने को विवश हो जाते हैं। फ़र्क़ केवल इतना है कि जब तुम बच्चे थे तो माँ-बाप ने तुम्हे बड़े प्रेम से पाला था और आज जब वे बूढ़े हो गए हैं तो तुम्हारे भीतर उन्हें पालने के लिए उतना प्रेम नहीं है। जब तुम बच्चे थे तो उन्होंने खुशियों से पाला था लेकिन उनके बुढ़ापे को सुखमय, आनंदमय करने के लिए तुम्हारे अन्तर्मन में कोई खुशियाँ नहीं कि तुम अपने माँ-बाप या दादा-दादी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करो।
मैंने देखा है जो अपना बुढ़ापा नहीं साध पाते उनका बुढ़ापा कितना त्रासदी से भरा होता है । भगवान, जितना रोग से बचाए उतना उस बुढ़ापे से भी बचाए जिसमें व्यक्ति मोहासक्त तो रहता है पर जीवन का ज्ञान नहीं हो पाता। आचार्य शंकर काशी में थे, वे भगवान विश्वनाथ के दर्शन कर गंगा के तट पर आए। वहाँ उन्होंने दो बूढ़े व्यक्तियों को देखा। उनमें से एक व्याकरण के सूत्रों को याद कर रहा था और दूसरा बूढ़ा अपने पोते-पोतियों के मायाजाल में उलझा हुआ था। तब आचार्य शंकर ने कहा- अरे, तेरे अंग गल गए हैं, दाँत टूट गए हैं, चेहरा झुक गया है, चेहरे पर झुर्रियाँ छा गई हैं, कमर झुक गई है। आँख से देख नहीं सकते, कान से सुन नहीं पाते, लेकिन इसके बाद भी संसार की मोह-माया और जिजीविषा तुम्हारे भीतर अभी भी जवान है। अब तो आत्म-चिंतन,
Jain Education International
128
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org.