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________________ विषय पर । मैंने हॉल में बैठे सभी लोगों से पूछा कि यहाँ बैठे लोगों में से कितने लोग ऐसे हैं, जिन्हें कोई-न-कोई चिंता हमेशा सताती रहती है। हॉल में बैठे लगभग सभी लोगों ने अपने हाथ उठाकर संकेत दिया कि सभी लोग चिंतित है। मैंने कहा कि यदि आप चिंतातुर रहेंगे तो मेरी बातों को न तो गहनता से समझ पाएंगे और न ही चिंताओं से मुक्त हो पाएंगे। मैंने कहा, मेरा उद्बोधन सुनने से पहले में आप सब लोगों की चिंताए आप लोगों से लेकर अपने पास रख लेता हूँ ताकि आप चिंता मुक्त होकर मेरी बातों को ग्रहण कर सकें। मैंने एक-एक काग़ज़ सभी श्रोताओं के पास भिजवा दिया और कहा कि आप केवल एक काम करें, इस कोरे काग़ज़ पर अपनी-अपनी चिंताएं लिखकर काग़ज़ मुझे सौंप दें और आप चिंता मुक्त हो जाएं। जब तक व्यक्ति चिंतामुक्त न होगा तब तक चिंतामुक्ति के उपाय समझ भी न पाएगा। सच्चाई तो यह है कि हमारी एक-एक चिंता हमारी ही चिता की एक-एक लकड़ी होती है और उस लकड़ी को हम स्वयं टुकड़ा-टुकड़ा कर इकठ्ठा करते हैं। जैसे कई लकड़ियाँ जलाओ और उसमें कुछ सूखी और गीली लकड़ियाँ हो तो सूखी लकड़ियाँ तो आराम से जल जाती है जबकि गीली लकडियाँ जल तो नहीं पाती पर धआँ ही उगलती है। हमारी चिंताओं की स्थिति भी ऐसी ही है कछ चिंताएँ तो सखी लकडियों की तरह होती हैं जो आज है और कल जलकर खत्म हो जाएंगी लेकिन कछ चिंताएँ गीली लकडियों की तरह होती हैं जो हमारे भीतर ही भीतर धुआँ उठाती है और हमें मानसिक संताप देती हैं। जो चिंताएँ गीली लकड़ियों की तरह होती हैं वे हमें परेशान ही करती हैं समाधान का सूत्र कभी नहीं बन पातीं। __जिस समस्या का कोई हल नज़र न आए और पुन: पुन: वही सोच होती रहे तो वही हमारे लिए चिंता का कारण बन जाती है और गीली लकड़ी की तरह हमें तिल-तिल कर जलाती है। सच्चाई तो यह है कि जीवन भर चिंताओं के साथ रहते-रहते हमें चिंताएं पालने का शौक-सा हो जाता है। पर सावधान रहें ! चिंताएँ रोग हैं, अच्छा होगा इससे बचने के लिए हम कुछ आत्मिक, आध्यात्मिक उपाय कर सकते हैं । अगर लगे कि चिंता हमें ज्यादा ही सता रही है तो अपने अंतरमन को अन्य किसी निमित्त से जोड़ने की कोशिश कीजिए। विधाता के विधान पर विश्वास करते हुए जो कुछ हो जाए उसे सहजता से स्वीकार कीजिए। चाहें तो किसी संत के प्रवचनों को सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त कर सकते हैं। चिंता के निमित्तों से अपने मन को हटाएं और किसी श्रेष्ठ कार्य में मन को नियोजित करके चिंता की छुट्टी कर दें। 52 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003861
Book TitleJine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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