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________________ सेवा नहीं कर रहे तो अपने बेटे से यह आशा क्यों कर रहे हो। ये आशाएँ जब टूटती हैं तो बुढ़ापे में सिवाय दुःख के कुछ हासिल नहीं होता। तुम निःस्वार्थ भाव से बेटों के लिए जितना कर सको, कर दो, पर वापसी की अपेक्षा न रखो। अनावश्यक हठ भी न करें। घर में रहकर यह न कहें कि जो आपने कह दिया वह क्यों नहीं हुआ। कई बार बूढ़े लोग घर में रहकर झगड़ पड़ते हैं या दुःखी हो जाते हैं कि मैंने कहा था और घर में लोगों ने ऐसा किया या ऐसा क्यों नहीं किया । वाक्युद्ध शुरू हो जाता है और घर में अशांति छा जाती है। घर के लोगों को अगर तुम्हारी सलाह की ज़रूरत है, तो वे ज़रूर पूछेंगे और अगर तुम बिन माँगे दिन भर अपनी सलाह देते रहोगे तो उस सलाह की कोई क़ीमत न होगी । घर के लोग अगर आपके लिए कुछ काम करें तो उन्हें साधुवाद दो, कहो - मेरा बेटा बहुत अच्छा है, मेरा बहुत ध्यान रखता है। भले ही न रखता हो - पर शायद तुम्हारे इस प्रकार कहने से ही ध्यान रखना शुरू कर दे। एक बात और ध्यान रखें कि घर में कभी व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग न करें। कई बार बूढ़े लोग व्यंग्य में ऐसी बातें कह जाते हैं जो घर के लोगों को चुभने लगती है । आक्रोश में ग़लत कठोर शब्दों में कहने की बजाय उसी बात को सरल शब्दों में कहने से वह बात अधिक प्रभावी होती है। आप अशक्त हो चुके हैं, आपसे काम नहीं बन रहा है तो व्यंग्यपूर्वक बोलने की बजाय मधुरता से बोलें और अपना कार्य करवा लें । सीखें सत्तर पार भी एक बात और, सीखने की कोई उम्र नहीं होती है। शरीर से भले ही बूढ़े हो जाएं, पर मन को कभी अशक्त न मानें। सत्तर वर्ष के हो गए हो तब भी अच्छी किताबों को पढ़ें, उनका स्वाध्याय करें, कुछ अच्छी बातें सीखने की कोशिश करें। भारतीय लोग स्वयं को बहुत जल्दी बूढ़ा मानने लगते हैं, क्योंकि वे अपने दिमाग़ का उपयोग बंद कर देते हैं । उन्हें तो लगता है हम बूढ़े हो गए हैं अब क्या करें। मुझे याद है - एक जहाज में बूढ़ा जापानी यात्रा कर रहा था। आयु होगी लगभग अस्सी वर्ष की। वह जहाज में बैठा एक पुस्तक खोलकर कुछ पढ़ रहा था। एक अन्य महानुभाव जो उसी जहाज में यात्रा कर रहे थे, उन्होंने उससे पूछा- अरे, भाई क्या कर रहे हो ? उसने कहा- चीनी भाषा सीख रहा हूँ। वे सज्जन बोले- अस्सी साल के हो गए लगते हैं। बूढ़े हो गए, मरने को चले हो । अब चीनी भाषा सीखकर क्या करोगे ? जापानी ने पूछा, क्या तुम भारतीय हो ? उसने कहा- हाँ हूँ तो मैं भारतीय, पर तुमने कैसे पहचाना ? जापानी व्यक्ति ने कहा- मैं पहचान गया। भारतीय आदमी जीवन में यही देखता है कि अब तो मरने को चले, अब क्या करना है। हम मरने नहीं चले हैं, हम तो जीने चले हैं। मरेंगे तो एक दिन जब मृत्यु आएगी, लेकिन सोच-सोचकर रोज क्यों मरें ? जीवन में बुढ़ापे को विषाद मानने के बजाय इसे भी प्रभु का प्रसाद मानें। विषाद मानने पर जहाँ आप निष्क्रिय और स्वयं के लिए भारभूत बन जाएंगे, वहीं प्रमाद त्यागने पर आप नब्बे वर्ष के होने पर भी गतिशील रहेंगे। महान दार्शनिक सुकरात सत्तर वर्ष की आयु में भी साहित्य का सर्जन करते थे । उन्होंने कई पुस्तकें बुढ़ापे में ही लिखी थी । कीरो ने अस्सी वर्ष की उम्र में भी ग्रीक भाषा सीखी थी। पिकासो नब्बे वर्ष के हुए तब तक चित्र बनाते रहे थे । यह हुई बुढ़ापे की ज़िंदादिली । Jain Education International 132 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003861
Book TitleJine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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