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________________ ज़िंदगी में अपने मन को कमज़ोर करने की बजाय कुछ-न-कुछ सीखते रहें। हर उम्र में व्यक्ति सीख सकता है। संबोधि-धाम में जयश्री देवी मनस चिकित्सा केन्द्र चलता है। उस चिकित्सालय के प्रभारी चिकित्सक ने अपने पैंसठ वर्ष की आयु में पढ़ाई शुरू की और निरंतर पांच वर्ष तक अध्ययन करने के पश्चात आज वे वहाँ का चिकित्सालय संभाल रहे हैं। इसके पूर्व वे भूजल विभाग में उच्च अधिकारी थे। वहाँ से सेवानिवृत्त होने के बाद वे हमारे पास आए और बोले कि वे अपना जीवन कुछ अच्छे कार्य के लिए समर्पित करना चाहते हैं। हमने चिकित्सालय में कार्य करने का सुझाव दिया। प्रारंभ में तो वे सहयोगी के रूप में कार्य करते थे लेकिन मन में उत्सुकता जगी और पढ़ाई प्रारंभ की। वे महाशय डॉ. जे.एल. बोहरा हैं। संबोधि-धाम में 'बैच-फ्लॉवर' रैमेडीज से चिकित्सा की जाती है जो जर्मनी से संबंधित है। उन्होंने जर्मन से अध्ययन शुरू किया, परीक्षाएँ दी और ज़िंदगी के बहत्तरवें वर्ष में वे डॉक्टर बने, है न प्रशंसा की बात ! आदमी बनना चाहे और न बन सके ! जो बनना चाहता है वह बुढ़ापे में भी बन सकता है और जिसे बिगड़ना हो वह जवानी में भी बिगड़ सकता है। इसलिए स्वयं को कभी कमज़ोर महसूस न करें। अपने दिमाग़ को उज्ज्वल, निर्मल और पवित्र रखें। जो है उसे प्रेम से स्वीकार करें। मुझे याद है महात्मा गांधी एक बार श्रीलंका गए थे, कस्तूरबा भी साथ ही थी। वहाँ उन्हें किसी समारोह की अध्यक्षता करनी थी। वहाँ उनका स्वागत-सत्कार हुआ। संयोजक महोदय खड़े हुए और बोले यह हमारा सौभाग्य है कि आज हमारे यहाँ भारत के एक महापुरुष महात्मा गांधी पधारे हैं, उनके साथ उनकी माँ कस्तूरबा भी आई है। गुजराती में माँ को 'बा' कहते हैं, सो उसने समझा कि ये गांधी जी की माँ होंगी। सभा में बैठे हुए लोग चौंक गए कि संयोजक महोदय यह क्या बोल गए? क्या उन्हें नहीं मालूम कि कस्तूरबा उनकी पत्नी है, माँ नहीं। किसी ने जाकर उन्हें बताया 'बा' माँ नहीं, गांधीजी की पत्नी है। वह खड़ा हुआ और माफ़ी मांगने लगा कि उससे भूल हो गई। संयोजक चुप हो, इससे पहले ही गांधी जी खड़े हो गए और कहने लगे, 'इस व्यक्ति ने मेरी सोच को सुधारा है, मैं तो बुढ़ापे की ओर ही जा रहा हूँ। अगर इस व्यक्ति से मेरी पत्नी के लिए माँ का संबोधन निकला है तो आज मैं इस मंच से घोषणा करता हूँ कि आज के बाद कस्तूरबा मेरे लिए मातृवत् ही रहेगी।' पंचरत्न की पोटली जीवन में जिस व्यक्ति की उन्नत सोच होती है, वह हर आने वाले मोड़ को सही तरीके से स्वीकार कर लेता है। मैं सभी वृद्धों से कहना चाहता हूँ कि शरीर भले ही बूढ़ा हो जाए, लेकिन अपनी बुद्धि, अपने विचार, अपने मन को कभी बूढ़ा न होने दें। हम अपने बुढ़ापे को कैसे सार्थक करें? इसके लिए आपको पांच सूत्र देना चाहूँगा। 1. मोहासक्ति से ऊपर उठने की कोशिश करें। अगर आप अपने बुढ़ापे को सुखमय और सार्थकता से जीना चाहते हैं, तो आपके मन में घर-परिवार और विशेषकर धन के प्रति जो मोह-वृत्ति है उससे बाहर आएँ । ज्यादा कंजूसी अच्छी बात नहीं है। बुढ़ापे में भी यह सोच रहे हैं कि अपने बच्चों के लिए संग्रह कर लूँ तो छोड़ें इस बात को। बच्चों के पंख लग गए हैं, वे उड़ रहे हैं, अपनी व्यवस्था खुद कर रहे हैं, आप क्यों कंजूसी कर रहे हैं। व्यर्थ 133 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003861
Book TitleJine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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