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________________ एकमात्र सगा भाई और उसका परिवार नहीं आएगा।' मैंने पूछा - 'क्यों?' वे कहने लगे- 'दोनों भाइयों में किसी बात को लेकर तनातनी हो गई थी जिसके कारण उनमें वैर-विरोध की भावना बढ़ती ही चली गई।' स्मरण रखें- 'अगर कटुता को समय रहते मिटा लिया जाता है तो वह मिट जाती है लेकिन उसे भविष्य के लिये छोड़ दिया जाए तो समय बीतने के साथ-साथ वैर-विरोध, कटुता और वैमनस्य बढ़ते ही जाते हैं। समाज के लोगों ने मुझसे निवेदन किया- 'आप चलें उस व्यक्ति के घर और उसे समझाएँ। मैं सहमत हो गया कि अच्छा चलता हूँ। उन लोगों के साथ मैं उन महानुभाव के घर पहुँचा । वह दरवाजे पर स्वागत के लिए आया और मुझे भीतर ले गया। मैं उसके कहने के पूर्व ही आँगन में बैठ गया। मेरे बैठते ही वह भी सामने बैठ गया। मैंने कहा- 'आज तो तुम्हारे लिये बहुत खुशी और सौभाग्य की बात है कि आज तुम्हारे घर में पूरे समाज का भोजन है। उसने कहा, 'नहीं महाराज, मेरे घर में नहीं है । वह मेरा भाई लगता था किन्तु अब नहीं है। उसके घर में भोजन है।' मैंने कहा-'अच्छा, तुम तो आओगे न? उसने कहा- 'किसी हालत में नहीं, मर जाऊँगा तब भी नहीं। अरे, हमारे बेटे-बेटियों की शादियाँ हो गईं। किन्तु मैं उसके घर नहीं गया और न वह मेरे घर आया। मैंने पूछा- 'बात क्या है?' वह कहने लगा- 'अब आपसे क्या छिपाना । बीस-बाईस साल पहले उसने समाज में मेरा अपमान कर दिया था, अपशब्द कह दिये थे। फिर बात बढ़ती चली गई और हमने एक-दूसरे के घर आना-जाना और खानापीना सब बंद कर दिया।' पन्ना पलटा, हम भी पलट लें 'सगे भाई !' मैंने चुटकी लेकर कहा- 'क्या बीस-बाईस साल पुराना कैलेण्डर है आपके घर में? जरा लाइए तो।' वह सकपकाया और कहने लगा-'महाराज, आप भी क्या बात करते हैं ? बीस साल पुराना कैलेण्डर घर में थोड़े ही होता है।' मैंने कहा- 'जब तुम दो साल पुराने कैलेण्डर को भी घर में नहीं रख सकते तो बीस साल पुरानी बात को अपने घर में या मन में क्यों रखे हुए हो? उसे निकालो, क्योंकि यह सब तुम्हारे दिमाग का कचरा है।' शायद नगरपालिका की कचरापेटी की सफाई रोज होती होगी लेकिन मनुष्य का दिमाग उस कचरापेटी से भी बदतर है क्योंकि उसने दिमाग में काम की बातें तो दो प्रतिशत किन्तु ऊल-जलूल इधर-उधर की बातों का संग्रह अट्ठानवें प्रतिशत कर रखा है। वैर-विरोध, वैमनस्य, प्रतिशोध की भावना वही व्यक्ति पालता है जिसने जीवन में क्षमा और प्रेम का आनन्द नहीं लिया है। जिसने अमृत का आनन्द नहीं लिया है वही समुद्र के खारे पानी को पीना चाहता है। तुम खारे पानी को पीने के आदी हो चुके हो और मीठे जल के स्वाद से वंचित हो। जलती हुई शाखा पर कोई भी पंछी अपना घोंसला नहीं बनाना चाहता है । गुस्सैल अथवा क्रोधी आदमी के पास उसका सगा भाई भी बैठना पसंद नहीं करता है। प्रतिशोध तो वह विष है जो मस्तिष्क की ग्रंथियों को कमजोर करता है और मन की शांति को भस्म कर देता है। अगर मनुष्य यह सोचता है कि वह वैर को वैर से, युद्ध को युद्ध से, हिंसा को हिंसा से काट देगा तो यह उसकी भूल है। वैर-विरोध और वैमनस्यता की स्याही से सना हुआ वस्त्र खून से नहीं बल्कि प्रेम आत्मीयता, क्षमा तथा मैत्री के साबुन से साफ किया जाता है। पुराने आघातों को याद करना मानसिक दिवालियापन है, बदला लेने की भावना क्रूरता है और प्रतिशोध की सोच आत्मघात है। 83 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003861
Book TitleJine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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