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________________ दो घड़ी भी चैन से नहीं बिता सकता । संपन्नता व्यक्ति को सुविधा दे सकती है, किन्तु सुख नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बाहर से मुस्कुराने वाला व्यक्ति भीतर में घुट-घुट कर जी रहा हो। यदि आप धनदौलत, जमीन-जायदाद को ही जीवन का सुख मानते हैं तो आपकी दृष्टि से मैं दुःखी हो सकता हूँ क्योंकि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है न धन, न दो फुट ज़मीन और न ही बीवी-बच्चे । फिर भी मैं आपसे ज़्यादा सुखी हूँ क्योंकि मेरे पास शांति है, अन्तर्मन की शांति। यदि तुम सुख की दो रोटी खा सको और रात में चैन की नींद सो सको और कोई मानसिक जंजाल न हो, तो जान लेना कि तुमसे अधिक सुखी कोई नहीं है। सुख और दुःख व्यवस्थाओं से कम, वैचारिक तौर पर अधिक उत्पन्न होते हैं। व्यवस्थाओं के यथावत् रहते हुए भी आदमी कभी दुःखी और कभी सुखी हो जाता है। निमित्तों के चलते सुख और दुःख के पर्याय बदलते रहते हैं। ये निमित्त भी बाहर ही तलाशे जाते हैं, पर हमें न तो कोई दुःख दे सकता है और न ही सुख। अपने सुख और दुःख के जिम्मेदार हम स्वयं हैं, अन्यथा जो व्यवस्था कल तक सुख दे रही थी वह आज अचानक दु:ख क्यों देने लगी? कल तक जो पत्नी सुख देती हुई प्रतीत हो रही थी, वही आज अगर क्रोध करने लगी तो दुःख क्यों हो रहा है? दरअसल सुख पत्नी से नहीं बल्कि उसके व्यवहार से था और वही व्यवहार बदला तो पत्नी दुःखदायी हो गई। सुविधाओं में सुख कहाँ देखिए आप सुखी और दुःखी कैसे होते हैं ? आप एक मकान में रहते हैं, जिसके दोनों ओर भी मकान हैं। एक मकान आपके मकान से ऊँचा और भव्य है तथा दूसरा मकान आपके मकान से छोटा और झोंपड़ीनुमा है। आप घर से बाहर निकलते हैं और जब भी आलीशान कोठी को देखते हैं , आप दु:खी हो जाते हैं और जब झोंपडी को देखते हैं तो सखी हो जाते हैं। भव्य इमारत को देखकर मन में विचार आता है. ईर्ष्या जगती है-यह मझसे ज्यादा सखी. जब तक मैं भी ऐसा तीन मंजिला मकान न बना लँ तब तक सुखी न हो सकूँगा। लेकिन जैसे ही झोंपड़ी को देखते हैं, तो सुखी हो जाते हैं, क्योंकि आपको लगता है कि यह तो आपसे अधिक दुःखी है। प्रकृति की व्यवस्थाएँ तो सबके लिए समान हैं, लेकिन प्राय: स्वयं के अन्तर्कलह के कारण ही व्यक्ति दु:खी हो जाता है। जैसे कि आपने लॉटरी का टिकिट खरीदा। लॉटरी खुली और आपने अखबार में देखा कि उसमें वे ही नंबर छपे हैं जो आपके टिकिट पर हैं। आपकी तो क़िस्मत ही खुल गई, आपने प्रसन्न होकर घर में बताया कि पाँच लाख की लॉटरी खुली है। सब बहुत खुश हैं। प्रसन्नता के मारे आपने एक अच्छी-सी पार्टी का आयोजन भी कर डाला। मित्र आए, ऊपरी मन से आपको बधाइयाँ भी मिली, अंदर से तो उन्हें डाह हो रही थी लॉटरी तो उन्होंने भी खरीदी थी, पर इसके कैसे खुल गई। खैर, रात में जब सोने लगे तो विचार आया कि इस इनामी राशि को कैसे खर्च किया जाए? सोचा कि एक कार ही ले ली जाए । तभी दूसरे विचार ने जोर मारा कि दो लाख रुपये जमा करा दिए जाएँ, ताकि भविष्य सुरक्षित रहेगा। इसी 10 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003861
Book TitleJine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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