Book Title: Jain Ramayan
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचित्र जैन रामायण विश्वदर्शन व जैन संस्कृति का अनूठा संगम प. पू. आचार्यदेवश्री गुणरत्न सूरीधरजी म. सा. in Education International For Personal & Prhal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gooo ooo 0 00 oooo oooooooooo Այս քշյ յայյյ Հո:ց: 3Ideas թյUR(q ziaRos. «I * • • • • • • • 11 • • • 70% ((( : • : : : Ե For Personal & Private Use Only lendon Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... लेखकश्री... परम पूज्य दीक्षादानेश्वरी युवक जागृति प्रेरक आचार्यदेवश्री गुणरत वरजी म. सा. .... प्रकाशक - प्राप्तिस्थान ... जिनगुण आराधक ट्रस्ट 151, गुलालवाडी, कीका स्ट्रीट, पहली मंजिल, मुंबई - 4. फोन : 3474791/3867581 ... प्रथम आवृत्ति ... वि. सं. २०५८, ख्रिस्ती संवत २००२ मूल्य :500/इस पुस्तक व किसी भी भाग के पुनर्मुद्रण के समस्त अधिकार प्रकाशक के स्वाधीन है। ...अन्य प्राप्तिस्थान ... 1) मल्टीग्राफिक्स 8) मोतीलाल बनारसीदास 18, खोताची वाडी, वर्धमान बिल्डींग, वी.पी. रोड, 41,यू. ओ.बंगलोरोड, दिल्ली- 110007. मुंबई-400004,फोन : (022)3873222/3884222 फोन : 2918335/2911985 2) राजस्थान जैन उपकरण भंडार 9) मनोजकुमार बी.हरन 1362, पीपलापोल,आस्टोडिया, अहमदाबाद-380001. बोम्बे मेटल मार्ट, पो.बो. 285, मडगांव, गोवा, फोन : 2141263 पिन - 403 601, फोन:722859 घर:735027/735034 3) सुघोषा कार्यालय 10) मोहनलाल भीकमचंद लुणावावाले तलेटी रोड, पालीताना (गुज.), पिन- 364270. जैन मार्केट, पाली (मारवाड),राज., पिन-306401. , . फोन: 02932-21003/25387 4) श्री महावीर पुस्तक भंडार मु.पो. शंखेश्वर, वाया हारिज, जि. - पाटण (गुज.), 11) महावीर जैन उपकार भंडार पिन-384246. सुभाष चौक, गोपीपुरा, मेन रोड, सुरत - 395003. फोन : 7440265/7439223 5) श्री जैन प्रकाशन मंदिर 309/4,खत्री की खडकी, दोशी वाडा की पोल, कालुपुर रोड, 12) सेवंतिलाल वी. जैन अहमदाबाद-380001. 20, महाजन गली, झवेरी बाजार, पहली मंजिल, शॉप नं. 2, मुंबई - 400 002. फोन : 2404717 6) महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा जि.गांधीनगर (गुज.), पिन - 382009. 13) नवयुग पुस्तक भंडार नवा नाका रोड, पहली मंजिल, 7) रमेशकलर कंपनी राजकोट - 360 001. फोन : 225596 नं.2,सुब्रमन्यम्लेन, पहलामाला, रतनबाजारव्यु, चैन्नाई-600003.फोन : 5351277/5354479 14) गुरु गौतम एन्टरप्राईझेस आदिनाथ जैन मंदिर के पास, चेक पोस्ट, बैंगलोर - 560 053. फोन : (080)2253566 15) श्री वर्धमान जैन तत्त्वज्ञान केन्द्र 7. विनायक मुडाली स्ट्रीट, एलिफन्ट गेट स्ट्रीट के पास, CACE चेन्नई-600079. फोन : 5291080 जैन रामायण निenadeateiadiaarti DESIGNED AND PRINTED BY MULTY GRAPHICS 18, Khotachi Wadi, Vardhaman Bldg., 3rd Flr., V. P. Road, Mumbai - 400004.23:3873222/3884222 E-mail : multygraphics@vsnl.net इ.ए.आशावक गुमाल सूटकरी.. For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा गुरू का नाम: प. पू. वर्धमान तपोनिधि, युवा शिविरों के आद्य प्रवचनकार, न्याय शिरोमणि, सुविशाल गच्छाधिपति श्री आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. A दीक्षा दाता: प.पू. सिद्धान्त महोदधि, कर्म साहित्य निष्णात, परम नैष्ठिक ब्रह्मचर्यधारक, अनेक साधु-समाधि दाता, सर्वजनहितचिन्तक, सुविशाल गच्छाधिपतिश्री आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेम सूरीश्वरजी म. सा. आज्ञा प.पू. सिद्धान्त दिवाकर, सुविशाल गच्छाधिपति श्रीमद विजय> जयघोषसूरीश्वरजी म. सा. गुरू का नाम: मेवाड देशोद्वारक, ४०० अठ्ठम के महा तपस्वी, राष्ट्रसंत, आचार्यदेव श्रीमद् विजय जितेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. लाखकशी का परिचय नाम भाषा : प.पू. द्विशताधिक दीक्षा दानेश्वरी आचार्य देव श्री गुणरत्नसूरीश्वरजीम. सा. जन्म : सं.१९८९,पोष सुद ४,सन् १९३२, पादरली (राज.) दीक्षा : सं.२०१०, महा सुद ४, सन् १९५४, मुंबई गणि पदवी सं.२०४१,मागसर सुद ११,सन् १९८४, अहमदाबाद पंन्यास पदवी ___ : सं.२०४४, फागण सुद २, सन् १९८८, जालोर (राज.) आचार्य पदवी : सं.२०४४, जेठ सुद १०, सन् १९८८, पादरली (राज.) : गुजराती, हिन्दी, मराठी, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी माध्यम से व्यवहारिक शिक्षण साहित्य : खवगसेढी, उपशमनाकरण आदि ६० हजार श्लोक प्रमाण संस्कृत प्राकृत ग्रंथ तथा गुजराती हिन्दी और अंग्रेजी में सौ चालो सिद्धगिरिजईए, जैन रामायण आदि ज्ञानाभ्यास : न्याय, व्याकरण, काव्य,छंद, आगम आदि अनेक शास्त्र। विशेषताएँ :१) २१ वर्षकी युवावस्था में सगाईछोडकर दीक्षा ग्रहण की। जीरावला तीर्थ में ३२०० व्यक्तियों की सामूहिक चैत्री ओली का रेकोर्ड। २७०० यात्रिकों का मालगाँव (राज.) से पालिताणा तथा ४००० यात्रिकों का पालीताणा से गिरनारजी का ऐतिहासिक छरी पालक संघ २८ युवक-युवतियाँ सुरत में, ३८ युवक-युवतिओं की पालीताणा में सामूहिक दीक्षाएँ, कुल २१३ दीक्षा भेरुतारक तीर्थ के प्रेरणादाता जिसकी प्रतिष्ठा में ७०० साधु-साध्वी भगवंतो की उपस्थिति तथा चैत्री ओली में २७४ भाई-बहिनों नेजावज्जीव चोथे व्रत का स्वीकार किया। शंखेश्वर महातीर्थ में ऐतिहासिक ४७०० अठ्ठम। ७) सूरत दीक्षा में ५१,०००, पालीताणा में ५२,००० तथा अहमदाबाद में ५५०० युवानों की समूह सामायिक। खवगसेढी ग्रन्थ के सर्जनहार जिसके विषय में जर्मन प्रोफेसर क्लाउज ब्रून ने प्रशंसा की है। ९) ४२ आध्यात्मिक ज्ञान शिविर के सफल प्रवचनकार। १०) ६८ शिष्य-प्रशिष्य मुनिराजो के तारणहार। ११) नाकोडा ट्रस्ट द्वारा संचालित निःशुल्क विश्वप्रकाश पत्राचार पाठ्य क्रम द्वारा ९०,००० विद्यार्थियों के जीवन में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। ८ खपत For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आज तक प्राकृत - संस्कृत के अलावा हिन्दी, गुजराती आदि कई भाषाओं में रामायण कई बार छप चुके हैं। यद्यपि कुछ रंगीन चित्र व संपूर्ण श्याम-श्वेत चित्रों सहित जैन रामायण छपे हैं, परंतु आज के टी. वी. युग में पाठकों को चार रंग वाले चित्र ही रुचिकर बनते हैं। अंग्रेजी में कहा है कि 'ONE PICTURE IS MORE THAN THOUSAND WORDS - एक चित्र हज़ारो शब्दों से भी ज्यादा प्रभावित होता है। अतः दीक्षादानेश्वरी आचार्यदेवश्री गुणरत्नसूरीश्वरजी मा. सा. के दिल में १४ वर्ष पूर्व, यह विचार अंकुरित हुआ। जोधपुर, पाली, नागोर, जालोर, सिरोही आदि स्थानों पर हुए उनके, रामायण पर जाहेर प्रवचनों से काफी लोग प्रभावित हुए। अरे ! बीकानेर में अंजनासुंदरी व सीताजी आदि की घटनाएँ सुनते सुनते सोनी वगैरह जैनेतर लोग के भी आँखों से अश्रु बहाने लगे। अतः चित्रमय जैन रामायण बनाया जाए, तो प्रवचन में नहीं आनेवाले लोग भी इसका लाभ ले सकेंगे। रामायण की उपयोगिता, पूज्य आचार्यश्री ने प्रस्तावना में बतलाई ही है। १४ साल पहले जालोर के चातुर्मास में पूज्य आचार्यदेवश्री नेपाली निवासी आर्टिस्ट दिलीपभाई सोनी को मार्गदर्शन प्रदान कर चित्र बनवाने का कार्य प्रारंभ किया । चातुर्मास पश्चात् जहाँ कहीं स्थिरता होती, वहाँ आर्टिस्ट दिलीपभाई मार्गदर्शन प्राप्त कर चित्रकार्य आगे बढ़ाते। इस तरह चौदह वर्ष के बाद जिस तरह रामचन्द्रजी अयोध्या लौटे, उसी तरह चौदह साल पश्चात् यह रामायण, आपके समक्ष आ रहा है। पूज्य आचार्यदेवश्री को शासन के अनेक कार्य होते हुए भी चित्र, लेखन आदि तैयार करके हमारे ऊपर महान उपकार किया है। इसे भावी पीढ़ी कभी नहीं भूलेगी। इस कार्य में मुनिराजश्री वैराग्यरत्नविजयजी म. सा., मुनिश्री अर्हरत्नविजयजी म. सा. एवं प्रवर्तिनी साध्वीजी पुण्यरेखाश्रीजी म. सा. की शिष्या प्रशिष्या साध्वीजी निमेषरेखाश्रीजी, सा. रक्षितरेखाश्रीजी, सा. चिरागरेखाश्रीजी म. सा. एवं अन्य साधु-साध्वीजीयों का हार्दिक सहयोग रहा। इन सभी को वंदन करते हुए हम आभार मानते हैं। इस जैन रामायण को प्रकाशित करने में मुख्य सौजन्य देनेवाले संरक्षक, उपसंरक्षक व श्रुतभक्तों ने अविस्मरणीय सहयोग दिया है, उन सबका व आर्टिस्ट दिलीपभाई सोनी का हम हार्दिक आभार मानते हैं। मल्टी ग्राफीक्स ने छपाई में अद्भुत परिश्रम लिया है। उनको धन्यवाद देते हुए उनकी सेवा की अनुमोदना करते हैं। हमें विश्वास है कि यह पुस्तक, आपको अवश्य पसंद आएगी। आप अपने स्वजन, मित्र आदिको इसे पढ़ने की प्रेरणा करें। - श्री जिनगुण आराधक ट्रस्ट For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पिछली कई सदियों से भारत ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व के जन सामान्य के हृदय पर जितना प्रभाव रामायण और महाभारत का रहा है, उतना किसी अन्य ग्रन्थ का नहीं रहा। भारतीय व्यक्ति, फिर वह चाहे किसी भी प्रांत का हो, किसी भी धर्मसंप्रदाय से जुडा हो, शहरी हो या ग्रामीण, सुशिक्षित हो या अशिक्षित, वह रामायण से परिचित तो होता ही है। रामायण ने हमारे अभिजात साहित्य आदि को अत्यंत प्रभावित किया है। विद्वानों का कहना है कि वाल्मिकी रामायण के पूर्व भी अनेक रामकथाएँ प्रचलित थी, जिन्हें मौखिक परंपराओं ने जीवित रखा था। वाल्मिकी रामायण की भी अनेक प्रतिभाशालियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ न कुछ नयी विवेचना की है। इस योगदान ने रामायण को और भी रोचक बनाया है। वाल्मिकी के साथ साथ तुलसीरामायण (वज्रभाषा), दुर्गावर कृत मीती रामायण (बंगाली), दिवाकर भट्ट कृत रामायण (काश्मीरी), एकनाथ कृत भावार्थ रामायण (मराठी), कंपनकृत पंपारामायण (कन्नड), आदि कुछ ऐसे ग्रंथ है, जो प्रांतीय भाषा में लिखे है। इनका अंतरंग, बहुतांश वाल्मिकी रामायण के साथ साधर्म्य रखता है, किंतु बहिरंग में उनके कर्ताओं की प्रतिभाशक्ति के अनगिनत आविष्कार का अनुभव किया जा सकता है। भारत में युग-युग से चली आ रही मौलिक जैन संस्कृति ने आर्य संस्कृति को एक नया, अनोखा योगदान दिया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह एकनया, लाजा की आग्रही जैन संस्कृति (धर्म), भारत व कुछ पडोसी देशों में पायी जाती है। जैन संस्कृति ने भी रामायण को अनन्यसाधारण महत्त्व दिया है। जैन रामायण : करीब पौने बारह लाख वर्ष पूर्व, भगवान मुनिसुव्रत स्वामी हुए। उनकी परंपरा में सुव्रत मुनि हुए, जिनके सानिध्य में रामचंद्रजी ने साधना की। शरीर व आयुष्य की गणना के आधार पर करीब पौने बारह लाख वर्ष पूर्व, राम, लक्ष्मण, सीता आदि हुए हैं, ऐसा कई विद्वानों का अभिप्राय है। पश्चात् केवलज्ञानी भगवान महावीरस्वामी ने अपने केवलज्ञान द्वारा, इस रामायण की घटनाओं को जाना, जिसकी उनके शिष्य गणधर गौतमस्वामी आदि ने सूत्र के रूप में रचना की। उसके बाद परंपरा से यह जैन रामायण, आचार्य श्री विमलसूरि के पास पहुँचा। उन्होंने १९९५ वर्ष पहले, प्राकृत भाषा में गाथा (श्लोक) के रूप में 'पउमचरियं' की रचना की। बहुतांश जैनेतर समाज व कुछ हद तक जैन बालक एवं युवा वर्ग, जैन रामायण से अपरिचित है। आजकल के गतिमान जीवन में संस्कृत-प्राकृत पुस्तकें पढ़ने के लिये किसी के पास समय नहीं है, अतः विद्वद्भोग्य ग्रंथ अथवा महाकाव्यों को पढ़ना असंभव होता जा रहा है। इसलिये हिन्दी, अंग्रेजी व गुजराती आदि भाषाओं में 'जैन रामायण' की आवश्यक्ता महसूस हुई। जैन रामायण की विशेषता यह है कि वह किसी भी आयु के व्यक्ति को आकर्षित करता है। अधेड एवं वृद्धों को इसमें छलकता वैराग्य आकर्षित करता है। जीवन के अच्छे बुरे अनुभव लेने के पश्चात् जीवन पथ में अपने साथसाथ चलनेवाले अनेक सुहृद व सहचरों को मृत्युमुख में प्रवेश करते देखकर उनकी स्थिति भी रामचंद्रजी की तरह For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोलायमान हो सकती है। रामचंद्रजी को जागृत करने का कार्य जो जटायु व कृतान्तवदन देवों ने किया था, शायद कार्य हमारे लिये प्रस्तुत ग्रंथ कर सकता है। युवावर्ग, इस ग्रन्थ में छलकते वीररस व वैराग्य इस से प्रेरणा पा सकते है। पाप कार्य करने वाले रावण को रोकने के लिये, रामचंद्रजी व लक्ष्मणजी हिचकिचाये नहीं। आज का काल रामायण से विशेष भिन्न नहीं है। पापी व अधम मनोदशा रखने वाले व्यक्ति को रोकने व सदाचार की रक्षा के लिए प्रयत्न करना चाहिये। रामायण में पुत्रप्रेम व भ्रातृप्रेम का उत्युच्च आविष्कार पाया जाता है। राम-लक्ष्मण भरतशत्रुघ्न के मधुर संबन्ध, आदर्शतम मार्गानुसारी गुण है। इन आदर्शपुत्रों का अपने माता-पिता के प्रति रवैया देखकर, हम आश्चर्यचकित हो जाते है। राम ने सारा षड्यन्त्र रचने वाली कैकेयी को भी वनवास जाते व वापस लौटते वक्त प्रणाम किया है। वे मानते की सौतेली होते हुए भी कैकेयी माँ ही है। पिता की दीक्षा निर्विघ्नता पूर्वक हो, इसलिए राम स्वयं वनवास स्वीकारते हैं व भ्रातृभक्त लक्ष्मण उन्हें अनुसरते है इच्छा नहीं होते हुए भी प्रदीर्घ समय तक भ्रातृराम के आदेश से भरत ने राज्य का पदभार संभाला। एक तरफ राम के लिये राजप्रासाद व राजवैभव का त्याग करनेवाली सीताजी है, तो दूसरी ओर सीताजी के प्रति एकतरफ प्रेम रखने वाले अपने पति का प्रेम प्रस्ताव लेकर सीता के समक्ष आनेवाली सती मंदोदरी है। पति द्वारा देशनिकाला मिलने पर भी सीताजी, उन्हें दोषी नहीं मानती व केवल राम के लिये नहीं, अपितु समस्त मानवसमाज के लिये उपयुक्त, ऐसा चिरंतन सत्य संदेश, राम के लिये भिजवाती है। केवल पति की इच्छा के लिये अग्निदिव्य करने के लिये सती सीताजी, संसार की क्षणभंगुरता से भलीभाँति परिचित थी । अतः अग्निदिव्य के पश्चात् पुनः सम्राज्ञी बनने के विकल्प को ठुकराकर शांतिदायी, ज्ञानदायी व मोक्षदायी दीक्षामार्ग का ही चयन करती है। राम को वनवास की अनुमति देते कौशल्या को जो दुःख हुआ था, उससे कई गुणा अधिक सीता को अनुमति देते समय हुआ। वह हमारे सामने आदर्श सासु का मिसाल देती है रामायण के पात्रों के जीवनद्वारा अपने लिये नये ध्येय व आदशों की निर्मिति का कार्य पिढी कर सकती है। युवा बालकों के लिये आकाशगामी विद्याधर, सीतादिव्य, कृत्रिमाकृत्रिम सुग्रीव, जटायु देव, अतुल शक्तिशाली एवं विनम्र हनुमान, चमत्कारों के सर्जक विविध देव आदि अद्भुत पात्र आकर्षक बनाते है। 'बहुरत्न वसुंधरा' के प्रति इनका क्या ऋणानुबंध है कि जो देवलोक के विभिन्न स्तरों से जटायु आदि देव पृथ्वी की ओर खिंच आते है। रामायण के प्रत्येक पात्र पर एक ग्रंथ लिखा जा सकता है। कई बुद्धिजीवी विद्वमानी जीवों का कहना है कि जैन सिद्धांतों में अहिंसा को अनावश्यक महत्व दिया गया है। अतः जैन क्षत्रिय, अपने धर्मसिद्धांतों को स्वीकारकर, धीरे-धीरे क्षात्र धर्म से दूर जा रहे है। किंतु उनकी धारणा गलत है। क्योंकि राम-लक्ष्मण, सीता के शीलधर्म की रक्षा के लिये अपराधी रावण के विरूद्ध युद्ध करते हैं। अन्याय, For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनैतिकता, असदाचार के विरोध में आवश्यक्तानुसार युद्ध का संदेश देने वाले जैनसिद्धान्त का यह पहलु, रामायण में प्रकट रूप से दिखता है। प. पू. संघदास गणि म. सा. रचित "वासुदेव हिण्डी" प्राचीनतम रामायण ग्रंथ है, परंतु प. पू. आ. विमलसूरिजी लिखित “पउमचरियं" सब से ज्यादा विख्यात है। प. पू. गुणभद्र म.सा. लिखित 'उत्तरपुराण' तथा प. पू. भद्रेश्वर म. सा. लिखित 'कथावली' भी जैन रामायण ग्रंथ है। प. पू. रविसेन म. सा. द्वारा लिखित 'पद्मपुराण', प. पू. स्वयंभू म. सा. का 'महापुराण' प. पू. कृष्णदास म, सा. का 'पुण्यचंद्रोदयपुराण', प. पू. धनेश्वर सूरीश्वरजी म. सा. का 'शत्रुजयमहात्म्य', प. पू. शिलाचार्य म. सा. का 'चोवन्न महापुरूष चरियं', व प. पू. आ. हेमचंद्राचार्यसूरिजी म. सा. का 'त्रिषष्ठीशलाकापुरुषचरित्रं' व अन्य उपलब्ध पुस्तकों के आधार पर प्रस्तुत पुस्तक निर्माण की गई है। मैं इन सभी का आभारी हूँ। इस ग्रन्थ का वांचन, अध्ययन से आधुनिक युग में क्या लाभ हो सकता है ? सब से पहले, आज का जनजीवन पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहा है। समस्त विश्व भर में एक कृत्रिम उपभोक्तावाद पर आधारित पाश्चात्य संस्कृति का निर्माण हो रहा है। त्याग, भ्रातृप्रेम, पातिव्रत्य जैसे सनातन मूल्यों को ठुकराकर, व्यक्ति को स्वार्थकेंद्रित बनाने का प्रत्यक्ष संदेश, आज फिल्में एवं टी. वी. के कार्यक्रम दे रहे हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में हमारा मार्गदर्शक बन सकता है, 'जैन रामायण'। जिसमें, आर्य संस्कृति के मार्गानुसारी गुणों की तलहटी से लेकर, लोग संयम के सोपान द्वारा मोक्ष के अधिकारी बन सकते है। हमारे आर्य व श्रमण संस्कृति की गरिमा गाने वाले इस ग्रंथ में हमें, व्यक्तिगत तनावपूर्ण क्षणों में योग्य निर्णय लेने हेतु सहायता मिलती है। रामायण के हर पात्र का भाषण, संभाषण, मौन, क्रिया, प्रक्रिया, व धर्मसाधना हमारे लिये बोधकारी बनती है। रामायण में विमान स्थापत्यशास्त्र, एवं शस्त्रास्त्रों का उल्लेख मिलता है, जिसमें राजा मधु के पास चरमेन्द्रद्वारा दिया गया प्रक्षेपास्त्र भी शामिल है, जो कि करीब तेरह सहस्र कि. मी. की दूरी तक जाकर प्रहारकर पुनः अपने स्वामी के पास लौट आता। इन्ही ग्रन्थों के अभ्यासद्वारा विदेशी वैज्ञानिकों ने अनेक अन्वेषण किये हैं। रामायण का अध्ययन हमें हमारे बढ़ते हुए निजी तनाव एवं सामाजिक तनाव से लोहा लने के लिये प्रेरणा देता है। सीता के विरह अग्नि में जलते हुए राम, अपने दुःख को भूलकर जटायु व वज्रकर्ण आदि की सहायता करते हैं। आज, जब हमारे निजी एवं सामाजिक संबंध शनैः शनैः अर्थविहीन बने जा रहे हैं, तब रामायण ही उन्हें दोबारा नया अर्थ प्रदान कर सकता है। इसके व्यक्तिगत, पारिवारिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि कोई भी संदर्भ सदा के लिये चिरंजिवी है- सर्वत्र निरवद्य मार्गदर्शक, प्रेरक हैं, थे व रहेंगे। रामायण ने हमें, जो गौरवशाली धरोहर दी है, उसे न आक्रमण छीन सकते है और न ही क्रूर नियम छीन सकते है, क्योंकि वह हमारे रक्त प्रवाह में बहती है व हमारे हृदयों में संपादित है। भिन्न-भिन्न रामायण में आती हुई भिन्न-भिन्न घटनाएँ : भिन्न भिन्न लेखकों द्वारा रामायण का आलेखन अलग अलग रीति से किया गया है। उसमें मतमतान्तर को महत्त्व न देकर उसमें बताये गए आदर्श व जीवनोपयोगी मार्ग को स्वीकारना चाहिए। जैसे कि एक रामायणकार ने कहा कि लंका की अशोक वाटिका में सीताजी ने सफेद पुष्प देखे थे, दूसरे ने कहा कि लाल पुष्प देखे थे। उसके विवाद में यानी सफेद या लाल पुष्प के विवाद में न पड़कर उस For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंग में ध्वनित होता हुआ आदर्श, पति-विरह दुःसह्य होता है जिससे सीताजी को सुगंधी वाटिका में भी आनंद की अनुभूति नहीं हुई। यह आदर्श स्वीकारना चाहिए। हो सकता है कि उसमें पुष्प सफेद होंगे, मगर पतिविरह से रोती हुई सीताजी की आंखे लाल हो जाने से लाल महसूस हुए होंगे। इस प्रकार समन्वय करके आदर्श को स्वीकारना चाहिए। इसी प्रकार वाल्मिकी रामायण में राम की एक ही पत्नी बताई है, जबकि अन्य उत्तरपुराण, महापुराण, पउमचरियं वगैरह रामायण में अनेक पत्नियों का वर्णन है। इसके विवाद में न उलझ कर वे पातिव्रत्यधर्म पालन में दृढ थी। यह आदर्श स्वीकारना चाहिए। एक रामायणकार लेखक ने कहा है कि हनुमानजी ब्रह्मचारी थे, अन्यने कहा कि हनुमानजी ने शादी की थी। शादी की या नहीं, इस विवाद में न पड़कर सीताजी की खोज व प्राप्ति में रामभक्त हनुमानजी ने पराक्रम कर अद्भुत योगदान दिया था। यह आदर्श स्वीकारना चाहिए। इस आदर्श में सभी रामायणकार सर्वसम्मत है। किसी रामायणकार ने राम को नीलवर्ण व लक्ष्मण को गौरवर्ण के बताये हैं, जब कि उत्तरपुराण आदि में लक्ष्मण नीलवर्ण के व राम गौरवर्ण के बताये हैं। इस उलझन में न पड़कर उनका भ्रातृप्रेम व अद्भुत पराक्रम था, यह आदर्श स्वीकारना चाहिए। एक रामायणकार ने कहा कि रामचंद्रजी ने श्रेष्ठ आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की थी। अन्यने कहा कि दीक्षा लेकर आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की थी। इसमें सभी का आदर्श एक ही है। कवि कालीदासजी ने भी कहा है कि - शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्धक्ये मुनि वृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।१।। अर्थात् प्रौढावस्था में सूर्यवंशज मुनि वृत्तिवाले होते थे कहिए या दीक्षा लेकर मुनि बने, इसमें तात्त्विक भेद नहीं लगता, सिर्फ शाब्दिक भेद है। इतना ही नहीं, कई लेखक पांच-छ हजार वर्ष पहले राम वगैरह हुए ऐसा मानते है। कई मानते हैं कि करीब पौने बारह लाख वर्ष पहले हुए थे। इसलिये अलग अलग समय में होने वाले राम आदि की कुछ घटनाएं भिन्न भिन्न हो सकती है। इतने लम्बे समय के अन्तराल में राम, सीता, लक्ष्मण वगैरह समान नाम वाले भिन्न भिन्न व्यक्तियों की घटनाओं का भिन्न भिन्न होना कोई अशक्य बात नहीं है। जैसे कि जैनेतर वैदिक महाभारत में एक प्रसंग में कहा गया है कि अर्जुन के बाण से घायल होकर कर्ण गिर पडे, तब उसकी दानवीरता की परीक्षा करने के लिए श्रीकृष्णजी ने ब्राह्मण का रूप धारण करके कर्ण के पास आकर याचना की। तब उनके पास कुछ भी नहीं था। याचक को खाली हाथ न लौटाना पडे, इसलिए वे पत्थर लेकर सोने की रेखा वाला अपना दांत तोडने लगे। तब श्रीकृष्णजी ने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट करके कहा-"मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम वास्तव में दानेश्वरी हो।" तब कर्ण ने उनसे कहा, "यदि मुझ पर प्रसन्न हुए हो, तो मैं याचना करता हूँ कि मेरा अग्निसंस्कार उसी जगह पर करना, जहाँ पर किसी का अग्निसंस्कार न हुआ हो।" कुछ क्षणों में कर्ण का अवसान हो गया। श्रीकृष्णजी ने बहुत स्थानों की खोज की, मगर ऐसा स्थान न मिला । तब वे समुद्र के मध्य भाग में एक पहाड की चोटी पर गए। यहाँ पर किसी का अग्निदाह नहीं हुआ होगा, यह सोचकर उन्होंने चिता की रचना की। इतने में आकाशवाणी हुई कि - अत्र द्रोणशतं दग्धं, पांडवानां शतत्रयम् । दुर्योधनसहसं च, कर्णसंख्या न विद्यते ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरे कृष्णजी ! इस स्थान पर १०० द्रोणाचार्यजी, ३०० पांडव व १००० दुर्योधनों का अग्निदाह हो चुका है। कर्ण तो यहाँ पर इतने जला दिए हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। यदि समुद्र के मध्य में इतने द्रोणाचार्य आदि का अग्निसंस्कार हो चुका हो, तो सारी पृथिवी पर आज तक द्रोणाचार्य आदि करोडों हो गये होंगे। यह सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार आज राम आदि भी अनेक हुए होंगे, मगर हमें उनके जीवन से श्रेष्ठ आदर्श व गुण अपनाने चाहिये। जैन साधु-साध्वीजी महासती सीता के आदर्श को इतना महत्त्व देते हैं कि उनका नाम लिए बिना, अपने शयन स्थान से सुबह होने पर भी १०० कदम के बाहर नहीं जाते। अहो कितना महत्त्वपूर्ण आदर्श जिन्दा है महासती सीता का। इस प्रकार रामायण के पात्रों का चिन्तन-मनन करके जीवन श्रेष्ठ बनाना चाहिए। कबीरदासजीने कहा हैं कि, जीवन ऐसा चाहिए, जैसा शूप सुहाय। सार सार को ग्रही ले, थोथा देई उडाय ॥१॥ उपसंहार : इस सारे प्राक्कथन का यह उपसंहार है कि हमें भ्रातृप्रेम, पितृभक्ति, सास-बहु का प्रेम, देवरभोजाई का वात्सल्य, माता-पुत्री का स्नेह, पत्नी का समर्पणभाव, पतिकर्तव्य का उत्तरदायित्व आदि मार्गानुसारी गुणों समान पर्वत की तलहटी से प्रारंभकर सम्यग्दर्शन, देशविरति, सर्वविरति के सोपान पर चढ़कर पर्वत की चोटी समान मोक्षनगर तक पहुँचना है। यह सोपान क्रम रामायण में दृष्टि गोचर होता है। जैसे मित्र का संदेश सुनकर दशरथ के पिता राजा अनरण्य, वृद्ध कंचुकी को देखकर राजा दशरथ, राम, भरत, शत्रुघ्न, कैकेयी, सीताजी, लक्ष्मण की मृत्यु देखकर लव-कुश, रावण की मृत्यु से प्रभावित हुए कुंभकर्ण, ईन्द्रजित, मेघवाहन, मंदोदरी, सूर्यास्त देखकर हनुमानजी, राम की मृत्यु से प्रभावित सुग्रीव, बिभीषण आदि दीक्षा ग्रहणकर आत्मकल्याण व मोक्ष के उच्च शिखर तक पहुँच सके हैं। अतः कहा गया है कि रामायण दीक्षा की खान है। पुमर्थाः इह चत्वारः, कामार्थों तत्र जन्मिनाम्, । अर्थभूतौ नामधेयादनौँ परमार्थतः, ॥ अर्थस्तु मोक्ष एवैको, धर्मस्तस्य कारणम् ॥ यद्यपि धर्म-अर्थ-काम- मोक्ष, चार पुरुषार्थ कहलाते हैं, परंतु उनमें अर्थ और काम नाममात्र के पुरुषार्थ हैं। परंपरा में वे अनर्थ को साधनेवाले हैं। वास्तविक अर्थ में एक मोक्ष ही पुरुषार्थ है, और धर्म उसका कारण है। जो धर्म मोक्ष का कारण हो, वही धर्म पुरुषार्थ कहलाता है, अन्य नहीं। यह शास्त्रोक्त वचन है। रामायण के मुख्य पात्रों का चिंतन मनन करने से यह ज्ञात होता है कि अधिकतर पात्रों ने मोक्ष पुरुषार्थ को ही प्रधानत्व दिया है। आप भी मोक्षपुरूषार्थ करके परंपरागत मोक्ष प्राप्त करें, यही शुभेच्छा । इस पुस्तक व प्राक्कथन में कुछ भी शास्त्र विरुद्ध लिखा हो, तो मिच्छामि दुक्कडं ! श्रावण सुद १० - गुणरत्नसूरि For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रामायण अनुक्रमणिका अयोध्या नरेश राजा अनरण्य का मोक्ष ... 1 नारदजी का साधर्मिक प्रेम ... 5 धर्मशील दशरथ राजा का परिणय ... 3 - मोहाधीन बिभीषण ... 7 सीता का जन्म व भामंडल का अपहरण ... 15 कैकेयी का स्वयंवर ... 8 जनक राजा की चिंता ... 17 सीता का स्वयंवर ... 22 जनक का अपहरण ... 19. अयोध्या में शान्ति-स्नात्र महोत्सव ... 24 दशरथ द्वारा कैकेयी को वरदान ... 31 कैकेयी का पश्चात्तापव भरत का राज्याभिषेक ... 38 गोकीर्ण यत्र के द्वारा सेवा ... 42 राम-लक्ष्मण व सीता का वन प्रस्थान ... 34 76 जटायु से मिलन ... 45 | अवंतिप्रदेश में परोपकारी राम - सौमित्र एवं जानकी का प्रवेश ... 41 For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • दो सुग्रीव की लड़ाई ... 54 - हनुमान-सीता साक्षात्कार ... 57 सीता का अपहरण ... 46 युद्ध का प्रारंभ ...66. बहुरूपी रावण की लक्ष्मण द्वारा मृत्यु ... 69 लक्ष्मण घायल ... 674 रामचंद्रजी का लंका प्रवेश व अयोध्या में पुनरागमन ... 75. भरत एवं कैकेयी की दीक्षा व मोक्ष ... 80 सीताजी पुंडरीकपुर में ... 87 कुंभकरण आदि की दीक्षा ... 74 लक्ष्मण का राज्याभिषेक व गर्भवती सीता का त्याग ... 81 राम का पश्चात्ताप ...88 हनुमान की दीक्षा व लक्ष्मण की मृत्यु ... 100 लव-कुश का जन्म व पितृमिलन ... 89 सीता द्वारा अग्निदिव्य व दीक्षा ... 95 लक्ष्मणजी के शवसमेत रामचंद्रजी का वनविचरण ... 105 रामचंद्रजी की दीक्षा व मोक्ष ... 107 लक्ष्मणजी सीता व रावण के आगामी भव... 110 For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट की अनुक्रमणिका १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. राक्षसवंश की स्थापना चंद्रगति भामंडल आदि के पूर्ववभ दशरथ, सत्यभूति व जनकराजा के पूर्वभव जटायु का पूर्वजन्म वानरवंश की स्थापना जै इंद्रजित, मेघवाहन, मंदोदरी के पूर्वभव भरत व भुवनालंकार हाथी के पूर्वभव राम-लक्ष्मण, विशल्या, विभीषण, रावण, सुग्रीव व सीता के पूर्वभव लव-कुश के पूर्वभव 112 113 For Personal & Private Use Only 114 115 116 117 118 120 122 न रामायण के प्रकाशन में प्रेरक स्व. प. पू. मुनिराज श्री देवेशरत्नविजयजी म. सा. ने ६३ वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर गुरू समर्पण के १२ वर्ष तक विशुद्ध संयम की आराधना की। साधना के दौरान व पहले भी आप परिवारजन को दीक्षा की प्रेरणा देते। जिसके परिणाम स्वरूप मुनि अर्हंरत्नविजयजी म. (सांसारिक दोहित्र), मुनि परमरत्नविजयजी म. (सांसारिक दामाद) साध्वीजी हर्षितरेखाश्रीजी म. सा. लक्षितरेखाश्रीजी म. सा. कुलरेखाश्रीजी म. सा. समकितरेखाश्रीजी म. (सांसारिक पुत्रियाँ), सा. मधुररेखाश्रीजी म. (सांसारिक धर्मपत्नी) सा. तत्वेशरेखाश्रीजी म., सा. जिनरेखाश्रीजी म. सा. राजुलरेखाश्रीजी म. सा. तीर्थरेखाश्रीजी म. (सांसारिक दुहित्रियाँ) इन ११ जन ने दीक्षा ग्रहण की। रामायण के प्रकाशन में भी आपने काफी प्रेरणा दी। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमि अयोध्यानरेश राजा अनरण्य का मोक्ष “स्वाभाविकं तु यन्मित्रं, भाग्येनैवाभिजायते। आद्य तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव ने सामाजिक, सांस्कृतिक व तदकृत्रिमसौहार्दमापत्स्वपि न मुञ्चति ।" धार्मिक जीवन की नींव रखी थी। उनके पुत्र राजा भरत चक्रवर्ती थे। उनके अनेक पुत्र थे। उनमें से ही एक पुत्र आदित्य यश से सूर्यवंश का अर्थात् मानव को सुमित्र तो सद्भाग्य द्वारा ही प्राप्त होता है। प्रारंभ हुआ। इस वंश में अनेकानेक राजा हुए । फिर तीर्थकर भगवान सुमित्र की विशेषता है अकृत्रिम मैत्री और सहृदयता ! वह अपना मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में अयोध्या नगरी में अनेक राजाओं मित्रभाव संकटसमये त्यागता नहीं है। आज के युग में कुमित्रों की को शरण एवं सहाय देनेवाले तथा स्नेहीजनों को ऋण से मुक्त बनाने अत्यधिक भरमार होने के कारण हम सब अवनति की तरफ बढ़ते ही वाले अनरण्य राजा हुए। उनकी महिषी पृथ्वीदेवी से अनंतरथ और जा रहें हैं। कुमित्र कैसे होते हैं ? दशरथ नाम के दो पुत्ररत्न उत्पन्न हुए । “परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् । वास्तव में राजधर्म निभाना बहुत जटिल है । प्रायः निरंकुश, वर्जयेत् तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥" अमर्याद राज्यादि सत्ता व्यक्ति को मद, मोह और अहंकार के अथाह हमारे समक्ष मीठी बातें करनेवाले परंतु पीठ मुडते ही हमारा सागर में डुबा देती है। ऐसे व्यक्ति प्रजाजनों को अनंत पीडाएँ पहुँचाने नुकसान करनेवाले कुमित्रों को जहर से भरे दूध के घड़े के समान में कोई कसर नहीं रखते। संतान समान पौरजनों के प्रति तिरस्कारवृत्ति त्यजना उचित है। रखनेवाले ऐसे शासक अपने मनुष्यत्व एवं क्षत्रियत्व दोनों पर कलंक सुमित्र के कारण जीवन में आत्मोत्थान की प्रेरणा मिले बिना लगाते हैं। यदि वे अपने मिथ्या अहंकार त्याग दें, तो वे प्रजाजनों के नहीं रहती। कहते हैं जैसा संग वैसा रंग । सहस्रांशु राजा एवं अनरण्य दुःखभंजक बनते हैं । दुःख का मूल-कारण है पाप और अनंतसुख राजा दोनों के बीच प्रगाढ मित्रता थी। इसी कारणवश एक दिन दोनों ने का कारण है पुण्य एवं धर्म । अहंकार रहित राजा, दुःख के कारणभूत अभिग्रह लिया कि दोनों साथ में ही संयम ग्रहण करेंगे, दीक्षा लेंगे। पापों की घृणा दूर करनेवाले एवं अनंतसुख के कारणभूत धर्म व पुण्य राक्षसवंश के राजा रावण के साथ सहस्रांशु राजा का युद्ध हुआ, जिसमें के कारणों का पोषण करने की प्रवृत्तिधारक होते हैं। राज्य को असार सहस्रांशु राजा परास्त हो गए। उस समय वहाँ उनके पिता मुनिराजश्री और अस्थिर मानने वाले ऐसे शासकों का प्राकृतिक झुकाव राज्यत्याग शतबाहु पधारे। उसी समय सहस्रांशु राजा ने अपने पिता के सान्निध्य कर संयम-साधना में रत रहने के प्रति होता है। "जो राजेश्वरी वह में दीक्षा अंगीकार की और अपने मित्र को एक दूतद्वारा दीक्षा के समाचार नरकेश्वरी" यह वाक्य सदा उनके हृदय में गूंजता रहता है। लेकिन पहुँचाए। जब तक राज्यत्याग के लिए अनुकूल स्थिति प्राप्त न हो, तब तक वे "सद्रक्षणाय खलनिग्रहाय" सज्जनों के सम्मान की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिए ही राज्य चलाते हैं । शक्कर की मक्खी समान ऐसे शासक छोटा-सा निमित्त मिलते ही राज्यत्याग व मोहत्याग कर ऋषि बन जाते हैं। अयोध्या के राजा अनरण्य और माहिष्मती के राजा सहस्रकिरण सुमित्र थे। सुमित्र के योग से जीवन आबाद बनता है। सुभाषितकारों का कहना है PESONI अनरण्य राजा के पास सहस्रांशु राजा के दूत का आगमन For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वर दुतने अयोध्यानगरी जाकर अनरण्यराजा को अपने स्वामी के दीक्षा के समाचार देकर कहा कि "हमारे स्वामी कहते हैं कि हम दोनों ने साथ में ही दीक्षा लेने का प्रण किया था। अब मैंने तो दीक्षा ले ली है। अतः आपको भी इसके अनुरूप करना चाहिये। लगे। “अब मुझे अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए।" उन्होंने अपने परिवार के समक्ष संयम ग्रहण की इच्छा व्यक्त की। युवराज अनन्तरथ के मन में पिता की बात सुनकर वैराग्य जगा । अतः उसने भी अपने पिता के साथ-साथ दीक्षाग्रहण करने का निर्णय ले लिया। ऐसे सुपुत्र बहुत कम होते हैं, जो पिता के उत्तम मार्ग का अनुसरण करने के लिए तत्पर हो। समाचार सुनते ही अयोध्यापति राजा अनरण्य विचार करने WWEETS टी AD बालक दशरथ का राज्याभिषेक अनरण्य राजाने एक महीने की आयु धराते अपने शिशु दशरथ का राज्याभिषेक कराया एवं ज्येष्ठ पुत्र अनन्तरथ के साथ अभयसेन मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या अपने परिवार एवं नन्हें बालकों को त्यागकर दीक्षा लेना उचित है ? हाँ, सर्वथैव उचित है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों की गठरी साथ में ही लाता है, जिसमें पुण्य भी होता है और पाप भी। अतः मोहाधीन न होकर संयम में उद्यम करनेवाले पुण्यात्मा चारित्र लेने में विलंब नहीं करते। क्या पुत्र के शैशवकाल में पिता की मृत्यु नहीं होती? क्या पिता की मृत्यु के पश्चात् बालक बड़े नहीं होते? होते हैं। शिशु दशरथ देखते ही देखते For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल्य एवं किशोरावस्था को लांघकर युवा बनें। आश्चर्य की बात यह है कि जबतक उन्हें युवावस्था प्राप्त न हुई, तब तक उनके राज्य में एक भी उपद्रव न हुआ। उपरोक्त उदाहरण से यह समझा जाता है कि प्राचीन काल के शासक सत्ता लोभी नहीं थे, सिंहासन से लिपटकर रहने में उन्हें तनिक भी रुचि नहीं होती थी। शक्कर पर बैठी हुई मक्खी कोई कारण पाते ही जिस प्रकार उड़ जाती है, उसी तरह योग्य कारण मिलते ही वे सत्वर राज्य का त्याग कर देते थे। वैराग्यवासी बनकर चारित्रधारी बन जाते थे। अनरण्य राजा भी दूत के संदेश का निमित्त पाकर अपने पुत्र सहित चारित्रधारी मुनि बन गए। उनके मानसपट पर अतीतवैभवका साया तक कभी न पडा । मैं राजकुमार था, सुखसाधनों का उपभोक्ता था, अब मुझसे यह कठोर साधना कैसे होगी? ऐसे क्षुद्र एवं कायर विचारों ने उनकी आत्मा की ऊँचाईयों को कभी स्पर्श भी न किया। "जैसा वृक्ष वैसा फल" इस उक्ति के अनुसार युवा मुनि अनंतरथ भी अपने पिता मुनि की तरह संयम एवं तपसाधना में प्रगति करने लगे। राजर्षि अनरण्य राज्यवैभव को भूलकर संयम जीवन की साधना में इस प्रकार लीन बने कि शरीर को भी भूल गए। छ? - अट्ठम, मासक्षमण आदि एक से एक कठोर तपश्चर्या से कर्मों की दलदल से निकलकर उनकी आत्मा शुद्ध उर्ध्वगामी बनी। “देहं पातयामि कार्य साधयामि" इस उत्कृष्ट भावना के बल से शरीर को क्षीण बनाते बनाते उन्होंने कर्मों को इस प्रकार कृश बनाया कि घाती कर्मो का नाश हो गया। केवलज्ञान की प्राप्ति से राजर्षि अनरण्य ने मोक्ष प्राप्त किया। राजा दशरथ पुण्यात्मा थे। अपने पुण्यप्रभाव के फलस्वरुप उन्हें मिला था अतुलनीय धैर्य, साहस एवं पराक्रम का वरदान । इसी वरदान के कारण राज्य में अंतर्गत राजद्रोह तथा अन्य शत्रु राजाओं द्वारा आक्रमण का तनिक भी भय नहीं था। अन्यथा बाल राजा पर कौन लालची शत्रु राजा बिना आक्रमण किये रहता है ? स्वयं सर्वेसर्वा होते हुए भी राजा दशरथ दीन-दुःखियों के प्रति करुणाभाव रखते थे। कोई भी याचक राजा दशरथ के प्रांगण से रिक्त हस्त पुनः नहीं लौटता था । ग्यारहवें कल्पवृक्ष की भाँति वे सबकी इच्छापूर्ति करते थे। राजा दशरथ साधकधर्म एवं क्षात्रधर्म दोनों का पालन सतर्कता से करते थे। सत्ता के मोह से पागल-सी बनी कितनी आत्माएँ सत्ता प्राप्त होते ही प्रायः स्वधर्म को भूल जाती हैं। ऐसी दुर्गुणी आत्माएँ दुर्गति के अलावा और क्या प्राप्त कर सकती हैं? अनंतरथ मुनि भी अपने राज्यवैभव व विलास के साधनों को भूलकर श्रेष्ठतम तप एवं संयमसाधना में इस प्रकार एकाग्र बनें कि धर्मशील दशरथ राजा का परिणय यौवनावस्था में पदार्पण करते ही तीन उत्तम कुल गोत्रोत्पन्ना राजकन्याओं के साथ दशरथ परिणयबंधन में बंधे। उनकी पहली सहचारिणी थी अपराजिता उपाख्या कौशल्या । वे दर्भस्थलनगरनरेश सुकोशल की पत्नी सम्राज्ञी अमृतप्रभा की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी। दूसरी पत्नी थी सुमित्रा, वे कमलसंकुल के शासक राजा सुबंधुतिलक की पत्नी रानी मित्रादेवी की पुत्री थी। तीसरी थी राजकुमारी सुप्रभा जो रथनुपुरनगरसम्राट की आत्मजा थी। विचार करता है। अपनी पत्नी के साथ एकांत मनाने कहाँ जाऊँ? यहाँ जाऊँ की वहाँ जाउँ इन्हीं विचारो में वह न केवल धर्म को भूल जाता है अपितु धर्म का वैरी भी बन जाता है। विद्वानों ने कहा ही है, “कामातुराणां न भयं न लज्जा।" सम्यग्दृष्टि आत्मा इस सत्य से परिचित होती है कि कर्म के उदय से कामभोग भी करने पड़ते हैं। उसमें भी धर्म एवं अर्थ अक्षत अबाधित रहें, इसका संपूर्णतया ख्याल रखते हुए जीवन जीने का प्रयास करते हैं। जो आत्माएँ कामभोग में आसक्त बनकर धर्मव अर्थ को भूल जाती हैं, वे पृथ्वीतलपर धिक्कार के पात्र बनती हैं, एवं मरणोपरांत जन्मजन्मांतर दुर्गति और ज़ालिम दुःख का अनुभव करती है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं - मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । सम्यग्दृष्टि आत्मा भले ही भोगों का सर्वथा त्याग न कर सकें, परंतु मर्यादा में अवश्य रहती है। इससे वे दुःखद कर्मों का उपार्जन न करते हुए मोक्षमार्ग में प्रगति करती है। दशरथ राजा परम विवेकी थे। अतः धर्म एवं अर्थ इन दो पुरुषार्थों को क्षति न पहुँचे, इसका संपूर्ण ध्यान रखकर तीनों पत्नियों के साथ वैवाहिक सुख का उपभोग लेते थे। अपने राजधर्म को भूलकर वे विषयसुख में आकंठ नहीं डूबे थे। आधुनिक मानव विषयसुख में इस प्रकार अधीन बन चुका है कि ब्याह होते ही धर्म और कर्तव्य को भूल जाता है और काया वाचा मन से, केवल इंद्रियजन्य सुखों का ही For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराक्षस वंश में जन्मे रावण प्रतिवासुदेव थे। उनकी राजसभा में एक नैमित्तिक बैठते थे। प्रतिवासुदेव राक्षस वंश में जन्मे हुए ज्ञानी एवं तत्ववेत्ता थे। एक दिन बातबात में रावण ने उस नैमित्तिक से कहा "संसारवर्ती सभी जीव मृत्यु के अधीन है। यद्यपि देव व्यवहार में अमर कहलाते हैं, परंतु अपनी समयमर्यादा पूर्ण होने के पश्चात् वे भी अवश्य मृत्यु पाते हैं । चराचर सृष्टि मृत्यु के लिए भक्ष्यसमान है। जातस्य धुवो मृत्युः । जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है, परंतु जन्म वैकल्पिक है। जितने जीव जन्मते हैं, वे सभी मरण के शरण होते ही हैं, परंतु जो मरते हैं उन्हें जन्म लेना अनिवार्य नहीं। जो मरकर मोक्ष पाते हैं, वे जन्ममृत्यु की शृंखला से मुक्त हो जाते हैं। जो मोक्ष नहीं पाते, उनके लिए पुनर्भव अनिवार्य है। इस प्रकार जन्म पाने वाले सभी की मृत्यु निश्चित है। अतः आप मुझे बताएँ कि मेरी मृत्यु स्वपरिणाम से होगी अथवा किसी निमित्त से होगी?" रावण ने यह प्रश्न नैमित्तिक से कौतुकवशात किया था। उत्तर में नैमित्तिक ने कहा - कि "भविष्य में जन्म लेनेवाली जनकराजा की पुत्री एवं दशरथराजा के पुत्र के निमित्त से आप की मृत्यु निश्चित होगी।" * * राज्य सभा में बिभीषण का आक्रोश SEXK9 "MROIRTODAY AAMIN यह सुनते ही क्रोधावेश में बिभीषण उठा और उसने घोषणा की, "इस नैमित्तिक की भविष्यवाणी सदा सत्य ही होती है, किंतु मैं इस वाणी को झूठलाकर ही रहूंगा । दशरथ के पुत्र एवं जनक की पुत्री जन्म लें, इसके पूर्व ही मैं दशरथ और जनक दोनों की हत्या करुंगा। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी । इस प्रकार दोनों राजाओं की असमय मृत्यु होने से संतानजन्म होगा कैसे?" बिभीषण की बातें सुनकर बलशाली जीजिविषा रखनेवाले रावण ने अपने अनुज को प्रतिज्ञापूर्ति करने अनुमति दे दी। आवेश में आकर बिभीषण ने जब यह प्रतिज्ञा की, उस समय नारदजी राजसभा में उपस्थित थे। नारदजी यह उद्घोषणा सुनते ही सत्वर दशरथ से मिलने के लिए चल दिए। |卐 राक्षसवंश स्थापना, देखिये परिशिष्ट Edu PILIP SONI 0 00 Internet For Peso Private Use Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 नारदजी का हृदय सदा साधर्मिक प्रेम से छलकता था। अतः रावण की राजसभा से उठकर वे सीधे दशरथ के वहाँ जा पहुँचे । नारदजी को देखते ही दशरथ राजा खड़े हो गए व संपूर्ण सम्मान सहित उन्हें उच्चासन पर बिठाया। इसके पश्चात् दशरथ राजा ने विनयपूर्वक पूछा कि, “आप कहाँ से पधारे हैं ? मेरे लायक कुछ सेवा है ?" उत्तर में नारदजी ने कहा कि, "मैं श्री सीमंधरस्वामी तीर्थकर भगवान का दीक्षा महोत्सव देखने पुंडरीकिणी नगरी गया था। वहाँ से पुनःप्रस्थान के समय मेरुपर्वत होकर समस्त तीर्थकर समुदाय को वंदनादि कर मैं लंकानगरी गया। वहाँ श्री शांतिनाथ भगवंत के जिनप्रासाद में गया व मूलनायक श्री शांतिनाथजी के दर्शन वंदनादि कर मैं रावण की राजसभा में पहुँचा। सभा में नैमित्तिक ने आपके पुत्र एवं जनकपुत्री के निमित्त से रावणवध होगा, ऐसी भविष्यवाणी की। भविष्यवाणी सुनते ही क्रोधित विभीषण ने आपकी एवं जनकराजा की हत्या करने की प्रतिज्ञा की। यह सुनते ही मैं शीघ्र आपसे सावधान रहने के लिए विनति करने आया । आपके नगर से प्रयाण कर मैं जनकजी के वहाँ जाऊँगा एवं उन्हें भी सतर्कता का संदेश पहुँचाऊँगा।" यह कहकर नारदजी ने मिथिला नगरी की दिशा में प्रस्थान किया। वहाँ जाकर उन्होंने मिथिलाधिपति जनकराजा से समस्त समाचार कहे। नारदजी का साधर्मिक प्रेम 5 नारदजी जैसी महान आत्माओं के मन में धर्म एवं धर्मी का अनन्यसाधारण महत्त्व था। यह महत्त्व यह लगाव इतना प्रगाढ था कि अपने सभी कार्यों को भूलकर वे साधर्मिक भाई की सहायता करने के लिए चल पड़े। स्वकार्य से अधिक महत्त्व साधर्मिक कार्य को देते थे महात्मा नारदजी । यदि दूसरी ओर देखते हैं तो एक लोकोक्ति का स्मरण होता है कि भाग्यवान को भूत कमाकर देता है। दशरथ राजा एवं जनकराजा कितने महान पुण्यात्मा रहे होंगे कि इन दोनों के पुण्योदय से नारदजी, रावण की सभा में पधारे और पुण्य के बल से ही नारदजी द्वारा एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण संदेश उन्हें मिला एक ओर पाप बांधने में निपुण महारथी भयंकर भीषण योजनाएँ बनाकर कर्मबंध करते हैं, दूसरी ओर पुण्यशाली का पुण्य इन भीषण योजनाओं को परास्त कर देता हैं। नारदजी यदि चाहते, तो जनकराजा को संदेश पहुँचाने का उत्तरदायित्व दशरथराजा को सौंप सकते थे, किंतु साधर्मिक भक्ति ही जिनके लिए स्वधर्म है, ऐसे नारदजी स्वयं मिथिला नगरी पहुंचे व समस्त हकीकत जनकराजा से कह दी। दशरथ व जनक का वनवास Hal Porvat . DILIP SON Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर दशरथ राजा ने अपने मंत्रियों को बुलवाकर विचार-विमर्श किया। मंत्रियों ने राय दी कि योगी पुरुष के समान कालवंचना के लिए अपने मंत्री को राज्य का उत्तरदायित्व सौंपकर दशरथराजा के लिए वन में जाना उचित होगा। राक्षसवंश का पराक्रम तो अतुल्य है ही, परंतु साथ-ही साथ वे मायावी विद्याओं में भी इतने कुशल हैं कि उनसे बचना अशक्य है। अतः कालवंचना के लिए अयोध्यापति दशरथ का वन में विचरना ही योग्य है । मंत्रियों की राय मानकर दशरथ, योगी जैसे भगवे वस्त्र परिधान कर एकाकी वन की ओर चल पड़े। इसके पश्चात् मंत्रियों ने दशरथ राजा की सरुप, सप्रमाण, लेप्यमय मूर्ति गुप्तस्थान में बनवाई। मूर्तिको राजमहल के शयनखंड में रखा गया। जनकराजा के मंत्रियों ने भी ठीक ऐसी ही राय अपने नरेश को दी। अतः वे भी अपने मंत्रियों को राज्य सौंपकर वन की दिशा में चल दिए। इधर जनकराजा के मंत्रियों ने भी अपने स्वामी की लेप्यमय मूर्ति रात्रि के अंधकार में स्थापित कर दी। राजा दशरथ एवं जनक अब योगियों की भाँति वन-वन विचरने लगे। जब पुण्य का उदय होता है, तब चाहें कितनी भी विपदाएँ आए, कोई अपना बाल तक बांका नहीं कर सकता है। जब दशरथ बाल्यावस्था में थे, उनके पुण्योदय ने उन्हें एवं उनके राज्य को लेशमात्र पीडा से सुदूर रखा और जब पाप का उदय हुआ, तो वे ही दशरथ एवं जनकराजा को अपने प्राण बचाए रखने के लिए राजदरबार का त्यागकर संन्यासीवेष में अटवी में भटकना पड़ा। ISLAM पाप कर्मो का उदय होने पर राजा महाराजा राज्यविहीन हो जाते हैं। पाप का उदय होते ही सोलह सहस्र देव-देवता सेवा में विद्यमान होते हुए भी सुभुम चक्रवर्ती को सागर में डूबकर मरना नसीब हुआ। मुंजराजा को भिक्षा मांगने के लिए विवश किया पाप कर्मो के उदयने! अब दशरथराजा और जनक राजा भी योगी बन कर अकेले ही विचरने लगे । मंत्रियों के अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति को इस बात का पता नहीं चला। यहाँ तक कि स्वेच्छा से परिणीत अपनी कौशल्यादि रानियों को भी दशरथ राजा ने इस बात का पता नहीं लगने दिया। alelated यदि एक मृत्यु से बचने के लिए राज्यत्याग उचित है, तो अनंत मृत्युओं को आँखों के सामने रख, उनसे बचने के लिए सम्यग्दृष्टि आत्माएँ संयमधर्म की ओर आकर्षित हो, तो उसमें आश्चर्य नहीं है। अतः सम्यग्दृष्टि आत्माएँ चाहे कितने भी भौतिक सुख साधनों का उपभोग ले रही हो, अनंत मृत्युओं की असीम वेदना सदा उनके आँखों समक्ष रहती है। अतः भौतिक धन-लक्ष्मी का त्याग कर वे खुशी-खुशी वैराग्य-लक्ष्मी को अपनाते हैं और अपनी ही मस्ती में जीवन जीते हैं। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10999099 Jain Education Into 223 DILIP SONI 4 मोहाधीन बिभीषण दशरथ की मूर्ति का वध अवसर के खोज में सतर्क बिभीषण ने एक रात, दशरथ के खंड में प्रवेशकर लेप्यमय मूर्ति पर अपने खड्ग का प्रहार किया एवं मूर्ति का मस्तक शरीर से अलग कर दिया । मोहाधीन बिभीषण ने चुपकी से राजप्रासाद में प्रवेश तो किया, परंतु वे इतने भयभीत हो चुके थे कि पलभर वहाँ खड़े नहीं रह सकें। उन्होंने इतना भी विचार नहीं किया कि मैंने वास्तव में दशरथ राजा की हत्या कर दी है या किसी मूर्ति का मस्तक काटा है। लेप्यमय मूर्ति में रक्तसमान दिखनेवाला लाक्षारस भरा था। अंधकार में मूर्ति का मस्तक छेद होते ही बिभीषण का खड्ग लाक्षारस में रंग गया। खड्ग से टपकते लाक्षारस को बिभीषण ने रक्त मान लिया और वे खुशी-खुशी लंका की ओर चल दिए । दशरथ के मंत्रीजनों ने भी ऐसा ही अभिनय किया कि वास्तव में ही राजा मर चुके हो। कौशल्यादि राजमहिषियों एवं परिवार जनों ने शोकप्रदर्शन किया। इसलिए अंगरक्षकों के साथ-साथ सामंत राजा भी वहाँ दौडकर आए। बुद्धिमान एवं गंभीर मंत्रियों ने रहस्यभेद नहीं होने दिया और मरणोत्तर आवश्यक अंत्येष्टि की क्रियाएँ पूर्ण की। मन ही मन में अपने राजा का जीवन बचाने का आनंद होते हुए भी उन्होंने बाह्याकृति से किसी को भी ज्ञात होने नहीं दिया कि वास्तव में मूर्ति कटी थी, न कि राजा दशरथ का देह। उनकी शोकपूर्ण मुखमुद्राएँ देखकर सभी को लगा कि राजा दशरथ अब नहीं रहें । राजा दशरथ की मूर्ति की हत्या करने के पश्चात् बिभीषण ने विचार किया कि अब राजा दशरथ तो नहीं रहें, अब उनके वंश में संतान का जन्म होना असंभव है। केवल जनकराजा की पुत्री से अपने भ्राता रावण का वध संभव नहीं है। अतः जनकराजा के वहाँ जाकर उनकी हत्या करने का व्यर्थ प्रयास कर अपने जीवन को विपत्ति में झोंकना आवश्यक नहीं है। संन्यासवेषधारी राजा दशरथ एवं जनक अपने जीवनरक्षा के लिए योगियों की भाँति वन में विचर रहे थे। परंतु ऐसा व्यक्ति लाख कष्ट भुगतने के पश्चात् भी त्यागी For Personal & Private Use Only 7 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए दो-चार मील पैदल चलें, तो क्या उसकी इस क्रिया को कायक्लेश तप कहना उचित है ? नहीं कहलाता। क्योंकि वे, मरण टालने का प्रयास कर रहे थे, जीवन जीने की लालसा एवं भविष्य में राजवैभव के पुनःप्राप्ति की इच्छा उनकें अंतर में जीवित थी। अतः उन्हें त्यागी नहीं कहा जाता। ज्वरपीडित व्यक्ति को वैद्यराजा या डाक्टर कईबार केवल मूंग का पानी अथवा सादा पानी ही पीने के लिए कहते हैं। इस प्रकार सभी आहार त्यागने वाले व्यक्ति को न तपस्वी कहा जाता है, न उसकी क्रिया को उपवास या तप कहा जाता है। यदि कोई व्यापारी लाभ पाने दशरथ राजा एवं जनकराजा वन में योगियों की भाँति विचरते तो थे, परंतु उनके मन में वैराग्यभाव नहीं था। हमारे कष्ट कब दूर होंगे और कब हमें राजसिंहासन पुनःप्राप्त होगा, ऐसे ही विचार उनके मन में आते थे। कैकेयी का स्वयंवर वन में विचरते विचरते वे दोनों उत्तरापथ में आए। वहाँ उन्हें ज्ञात हुआ कि कौतुकमंगल नगर में नरेश शुभमति एवं रानी पृथ्वीश्री की कन्या, जो युवराज द्रोणमेघ की बहन राजकुमारी कैकेयी है, उसका स्वयंवर रचाया जा रहा है। राजकुमारी कैकेयी न केवल सुंदर थी, अपितु विविध कलाओं में रुचि एवं नैपुण्य रखती थी। कैकेयी का स्वयंवर स्वयंवर में अनेक पुरुषों को आमंत्रित किया जाता है। उनमें से यथायोग्य वर का चयन, कन्या अपने इच्छानुसार करती है। उसी पुरुष के साथ कन्या का विवाह होता है। कैकेयी के स्वयंवर के लिए एक भव्य मंडप बनाया गया। हरिवाहन आदि अनेक शासक एवं राजकुमार स्वयंवर के लिए आमंत्रित किये गए। वे सब मंचपर क्रमशः अपनी अपनी योग्यता के अनुसार बिराजमान थे। दशरथ एवं जनक राजा दोनों को अपने योगीवेष के कारण अंतिमस्थान मिला। अतः वे दोनों वहीं पर बैठ गए। इसके पश्चात् उत्तमोत्तम वस्त्र एवं रत्नालंकारों से विभूषित लावण्यवती कैकेयी ने अपने कोमल हस्तों में वरमाला लेकर स्वयंवर मंडप में प्रवेश किया। उसके साथ-साथ एक दासी भी चल रही थी। कुछ ही देर में अपने लिए सुयोग्य पति का चयन करने वह मंडप में विहरने लगी। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैकेयी के लालित्य एवं लावण्य से विमोहित राजा, मन में विचार करने लगे कि, "क्या आज मेरे भाग्यरवि का उदय होगा ? क्या यह कन्या मेरे पास आकर मुझे अपने जीवनसंगी के रूप में स्वीकार करेगी? यहाँ तो एक से बढ़कर एक रूपशाली, धैर्यशाली, उत्तम कुलोत्पन्न राजवंशी उपस्थित है ? सभी ही के हृदय में कैकेयी को पाने की अभिलाषा है। क्या यह कन्या मुझे पसंद करेगी?' जैसे ही कैकेयी एक एक राजा के समक्ष आकर उनका निरीक्षण करती, वैसे ही उन राजाओं के हृदयसागर में आनंद एवं उमंग की लहर उमडती । मानो हृदयसागर में ज्वार आया हो। परंतु जब वह उन्हें देखा अनदेखा कर आगे चली जाती, तब उनके हृदयसमुद्र में निराशा का भाटा आ जाता। इस प्रकार स्वयंवर मंडप में उपस्थित बहुत से राजवंशियों को निराशासागर में जलसमाधि देते देते अचानक कैकेयी कार्पटिकवेशधारी दशरथ राजा के समक्ष आकर खड़ी हो गई। मानो विशाल सागर का रौद्रभीषण सौंदर्य देखकर आश्चर्य से वहीं की वहीं थमी हुई गंगा नदी हो । दशरथराजा का उन्नत ललाट, कमलदलसमान नेत्र, मनोहारी हास्य एवं पौरुषसभर प्रमाणबद्ध शरीर निहारते कैकेयी का शरीर रोमांचित हुआ। एक पल भी विलंब किये बिना कैकेयी ने दशरथ के कंबुसमान ग्रीवा में वरमाला पहना दी। हरिवाहनादि सब ही राजा यह दृश्य देखकर क्रोध से तमतमा उठे । स्वयंवर मंडप में सुंदर, बलशाली, पराक्रमी एवं कुलवान ऐसे अनेक राजवंशी थे। फिर भी उन्हें ठुकराकर राजकुमारी ने एक सामान्यतम कार्पटिक के गले में वरमाला डाल दी। यह घटना सब ही राजाओं को बड़ी अपमानजनक लगी। उनकी क्रोधाग्नि भडक उठी। वास्तविकता से यदि विचार किया जाए, तो इस में कुछ भी अपमानजनक नहीं था। स्वयंवर में अपने पति का चयन करने की संपूर्ण स्वतंत्रता राजकुमारी को दी जाती है। वह जिस किसी को भी चुनती है, उसी के साथ उसका विवाह संपन्न हो जाता है। फिर भी मोहाधीन जीव तात्विक विचार नहीं करते। For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैकेयी का सारथ्य हृदय में ब्याह रचाने का स्वप्न लेकर कौतुक मंगलनगरी आए हुए हरिवाहन आदि, योद्धा बनकर समरांगण में आए। उनका सामना हो रहा था वीर दशरथ से, जो एकदम अकेले थे। कैकेयी ने उनके सारथ्य का उत्तरदायित्व अपने कोमल स्कंधों पर उठाया। अब नीडर दशरथ अकेले ही उस अनगिनत सुभटों पर बाणवर्षा करने लगे - सुभाषितकार कहते NHATULDREN एकेनाऽपि हि शूरेण पदक्रान्तं महीतलम्। क्रियते ही भास्करण स्फारस्फुरिततेजसा ।। आकाशपट पर एक ही सूर्य बिराजमान है, परंतु वे अपनी तेजस्वी स्फुरायमान किरणों से पृथ्वी को एक ही पल में भर देता है। वैसे ही पराक्रमी पुरुष भले ही वह अकेला क्यों न हो? पृथ्वी को जित लेता है। दशरथ के सौभाग्य से उन्हें कैकेयी के रूप में कुशल सारथि मिला था। जिस प्रकार उत्तम प्रकार के सुवर्ण में जड़ने के कारण उत्कृष्ट रत्न की आभा में चार चाँद लगते हैं, उसी प्रकार अतुल्य योद्धा दशरथ के पराक्रम को साथ मिला सारथी कैकेयी के कौशल्य का ! दशरथ का रथ मन एवं मरुत् की गति से अधिकतर गतिमान होकर दौड रहा था और पराक्रमी दशरथ एक के पश्चात् एक शत्रुसेना के सुभटों के रथ एवं शस्त्रास्त्रों को क्षतविक्षत कर रहे थे। वीरत्व ने शत्रुओं को गलितगात्र बना दिया। जिस प्रकार शकेंद्र असुरों की सेनाओं को परास्त करते हैं एवं मृगेंद्र मृगों के झुंड को भयभीत करते हैं, उसी प्रकार दशरथ की शरवृष्टि ने समस्त शत्रुसैन्य को परास्त कर दिया। अंत में शत्रुराजा दातों में तृण लिए दशरथ के शरण में आए। For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Mr . कैकेयी को वरदान इस घटना के पश्चात् शुभमति ने राजा दशरथ के साथ राजकन्या कैकेयी का विधिवत् ब्याह किया। दशरथ ने नवोढा कैकेयी से कहा- “देवी ! आपके सारथ्य के कारण आज हमारा विजय संभव बन सका । हम आपसे प्रसन्न हैं - अतः आपका मनचाहा वरदान माँग लीजिए। उसे मैं पूर्ण करूँगा।" कैकेयी ने कहा, "इस समय वरदान माँगने की आवश्यकता नहीं है। इसे धरोहर के रूप में रखिये, योग्य समय आने पर उसे अवश्य माँगूगी, तब उसे पूर्ण कीजियेगा।" दशरथ के प्रखर पराक्रम ने संपूर्ण शत्रुसेना को अंकित बनाया। सेना समेत वे राजगृही की और पधारें। इसके पश्चात् उन्होंने मगध नरेश को परास्त किया और राजगृही नगरी में अपना आवास बनाया। ATVAVAN फिर दशरथ ने दूत भिजवाकर अयोध्या नगरी से अपनी तीनों रानियों को बुलवाया। दूत का संदेश पाते ही कौशल्यादि समस्त रानियाँ पहले तो आश्चर्यचकित बनी, क्योंकि उनके अस्तित्व पर लगा हुआ ग्रहण अचानक समाप्त हुआ और उसका स्थान लिया असीम हर्षसागर ने ! वे सब सत्वर राजगृही पधारी। मन में प्रखर इच्छा होते हुए भी वे अयोध्या में पुनः नहीं आये, क्योंकि रावण की भयानक छाया अभी भी उनके मन पर छाई हुई थी। TOARVA For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Coool कौशल्या द्वारा ४ स्वप्न देखना alle Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमित्रा द्वारा ७ स्वप्न देखना ර න් / දමමින් ම ට on Internation of Personal & Private Use One Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 कौशल्या ने ४ व सुमित्रा ने ७ स्वप्न देखे राजगृही में नूतन राजधानी की स्थापना कर दशरथ राजा अपने परिवारजनों के साथ आनंदपूर्वक समय व्यतीत कर रहे थे। एक दिन सुतिथि, सुनक्षत्र और सुयोग का समन्वय साधकर पाँचवें देवलोक की एक दिव्य आत्मा ने राजमहिषी कौशल्या की कुखि में प्रवेश किया। महारानी ने रात्रि के अंतिम प्रहर में (१) हाथी (२) सिंह (३) चंद्रमा एवं (४) सूर्य ये चार महास्वप्न देखे। अपने पति दशरथ से उन्होंने स्वप्न का विवरण किया एवं स्वप्न का फल पूछा। स्वप्न का अर्थ स्पष्ट करते हुए दशरथ ने कहा, "हे देवी! जो स्त्री ये स्वप्न देखती है वह पुरुषो में उत्तम ऐसे बलदेव को जन्म देती है। आप के पूर्वसुकृत के फलस्वरुप आप भी शीघ्र ही बलदेव को जन्म देनेवाली है।" स्वप्नफल सुनते ही कौशल्याजी हर्ष-विभोर बन गई। उस दिन से गर्भ का योग्य भरण-पोषण हो, इसलिए वे सतत सतर्क रहने लगी। पुत्रजन्मोत्सव मनाया गया। दशरथ राजा ने जिनालयों में अरिहंत परमात्मा का स्नात्र महोत्सव, अष्टप्रकारी पूजा आदि धर्मानुष्ठान __ किए। बंदियों को कारागृहों से मुक्त किया। कमलपुष्पों में पुंडरीक नामक कमल सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। नौ माह की अवधि संपूर्ण के पश्चात् महारानी कौशल्या ने पुंडरीक समान उत्तम लक्षणयुक्त पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्णिमा के तेजस्वी एवं शीतल चन्द्रबिंब के दर्शन होते ही सागर हर्षविभोर होकर उछलता है, ठीक उसी प्रकार नवजात शिशु के मुख का अवलोकन एवं अवघ्राण करते ही राजा दशरथ का हृदय भी नर्तन करने लगा। पद्म नामक यह सर्वप्रथम दशरथपुत्र जगत में राम इस अभिधान से प्रसिद्ध हुआ। पुत्र जन्म से आनंदविभोर राजा दशरथ ने दीन दुःखियों तथा याचकों को इतना दान दिया कि मानो उनके पास कुबेर का भंडार हो। चिंतामणि रत्न के समान राजा दशरथ ने भी याचकों को इच्छित दान देकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किये। शुक्लपक्ष के चंद्रमा की भाँति प्रतिदिन बालकों का विकास होने लगा। प्रारंभ में स्तनपान करनेवाले और अधिकतर समय निद्रित रहनेवाले ये दो दिव्य शिशु कुछ बड़े हुए। अपने पिताश्री की गोद में खेलनेवाले वे चंचल बालक उनके केश, दाढी-मूंछे खिंचते। उनकी नटखट निर्दोष बाललीलाओं के साक्षी दशरथ एवं अन्य राजाएँ आनंद का अनुभव करते। शिशुओं की विशुद्ध मोती-सी काया, कमलपुष्प के समान कपोल और पवन के साथ अठखेलियाँ करनेवाली अलकावली (केश समुह)सब को आकर्षित करती थी। दोनों बालक सदा किसी न किसी राजा के गोद में खेलते-कूदते थे। धन्य है वे माता-पिता, जिनके घर ऐसे दिव्य बालक जन्म लें। धन्य हैं वे सब जिन्होंने उनके कोमल-स्पर्श का अनुभव किया, क्योंकि वे दोनों भविष्य काल में मोक्ष प्राप्त करनेवाली आत्माएँ थी। समस्त विश्व में शायद आनंद, यह एक ही वस्तु है जो बाँटने से बढ़ती है। राजा दशरथ के आनंद के अनगिनत प्रतिबिंब प्रजाजनों के हृदयदर्पण में दृष्टिगोचर होने लगे। पौरजन भी आनंदविभोर होकर नृत्य करने लगे, गाने लगे, कस्तुरी, केशर की छींटे उड़ने लगी। नगर की सुंदरता से अलकापुरी तथा अमरावती के वासियों के मन में कुछ समय के लिए ईर्षा की अनुभूति जरूर हुई। परंतु वे भी अपने अपने नगर में रामजन्मोत्सव मनाने लगे। शिशु राम, चंद्र के समान शीतल गौरवर्ण के थे। कुछ समय के पश्चात् महाराणी सुमित्रा की कुक्षि में देवलोक से एक महर्द्धिक देव की आत्मा च्यवन कर आई। सुमित्रा ने (१) हाथी (२) सिंह (३) सूर्य (४) चंद्र (५) अग्नि (६) लक्ष्मी तथा (७) समुद्र ये सात शुभ स्वप्न देखे । सात स्वप्नों के दर्शन का फल जब उन्होंने राजा दशरथ से पूछा, तब उत्तर में राजा ने कहा, "हे सुभगे ! हमारा पुत्र तीन खंड का शासक वासुदेव बनेगा।" यह सुनते ही सुमित्रा का मन हर्षोल्लास से प्रमुदित हुआ। योग्य समय आने पर उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम नारायण रखा गया। यह पुत्र, नील कमल-सा देहवर्ण वाला, लक्ष्मण नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस बार पहले से अधिकतर उल्लास से शनैः शनैः दशरथपुत्रों ने किशोरावस्था प्राप्त की। उन्होंने अनेकविध विद्याएँ तथा कलाएँ संपूर्णतया प्राप्त की। कलाचार्य तो केवल शिक्षाप्रदान के माध्यम थे। उन बालकों ने अपने पूर्वजन्मों की साधना के बल से इन कलाओं में नैपुण्य प्राप्त किया। युवावस्था में पदार्पण करते समय वे इतने बलशाली बन चुके थे कि महान पर्वतों को एक ही मुष्टिप्रहार से चूर्णचूर्ण कर देते । कुतूहलवशात जब कभी वे अपने धनुष्यों की प्रत्यंचा खिंचते, तब ऐसा रौद्रभीषण टंकार होता, मानो कोई साक्षात् सूर्य का भेदन कर रहा हो । अपने युवापुत्रों का बाहुबल, शस्त्रास्त्रविद्या में चरमकौशल्य तथा बुद्धिबल देखकर राजा दशरथ इतने प्रभावित हो गए कि वे विचार करने लगे, "मेरे इन युवराजों के समक्ष स्वयं देव अथवा असुर टिक नहीं सकते, तो रावण क्या कर पाएगा? अब समय आया है अयोध्या पुनरागमन का!" इस प्रकार निर्भय होकर वे अपने समस्त परिवार के साथ अयोध्या पधारे। दुःख, दुर्दशा रूप राहुकेतू का ग्रहण समाप्त हुआ और दशरथ के प्रखर पराक्रम For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य ने पुनः पृथ्वी को पादाक्रांत किया। कहा गया है “कर्मन की गति न्यारी संतो कर्मन की गति न्यारी" अपने अशुभ कर्मो का उदय होते ही परमपराक्रमी सम्राट् दशरथ कार्पटिक वेश धारण कर वन-वन विचरने के लिए विवश हो गए थे और शुभ कर्मो का पुनः उदय होते ही राजवैभव समेत अयोध्या पधारे। 6 सीता का जन्म सीता का जन्म व विदेहा के पुत्र का अपहरण - 15 अयोध्या में कैकेयी ने शुभ स्वप्नों के सूचन पश्चात् एक पुत्र को जन्म दिया। भरत क्षेत्र के भूषणसमान इस पुत्र का नाम भरत रखा गया। रानी सुप्रभा ने एक बलशाली पुत्र को जन्म दिया। भविष्य में यह बालक अनगिनत शत्रुओं का हनन करेगा, यह जानकर उसका नाम शत्रुघ्न रखा गया। भामंडल का अपहरण PLIE For Personal & Private Use Only इस ओर जनकराजा भी पुनः मिथिला पधारे। कुछ समय पश्चात् उनकी महारानी विदेहा ने पुत्र एवं पुत्री रूप जुड़वाँ शिशुओं को जन्म दिया। पहले देवलोक में रहनेवाले पिंगल नामक देव को अवधिज्ञान से यह ज्ञात हुआ कि जो व्यक्ति पूर्वजन्म में उसका वैरी रह चुका था, आज महारानी विदेहा की गोद में पनप रहा है। उसने विचार किया अपने शत्रु की आत्मा मिथिला युवराज के चोले में विविध सुखों का आस्वाद करें, इसके पूर्व मैं ही क्यों न उसका अपहरण कर उसे मृत्यु को सौंप दूँ। इस दुर्विचार से ग्रस्त पिंगलदेव ने अदृश्य रूप से मिथिला आकर रानी विदेहा के नवजात पुत्र का अपहरण किया। उस बालक को वैताढ्य पर्वत की किसी शिला पर पटक कर हत्या करने का विचार पिंगलदेव ने किया था।.. परंतु कदाचित् उस बालक के पुण्यप्रभाव से कहिए या स्वयं देव के पुण्यप्रभाव से कहिए, उसने विचार किया कि, 'पूर्व भव की संयम साधना के फलस्वरूप मैंने देव का जन्म प्राप्त तो किया है, पर अब बालहत्या का पातक कर अपने लिए दुर्गति को क्यों निमंत्रित करूँ ?' इस शुभ विचार ने उसे बालहत्या करने से परावृत्त किया। उसने नवजात बालक को कुंडलादि आभूषणों से सुसज्ज किया और वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी के नंदन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 उद्यान में धीरे-से रख दिया। इसके पश्चात् उसने पहले देवलोक की ओर निर्गमन किया। उस समय अपने प्रासाद के गवाक्ष में बैठकर चंद्रगति राजा रात्रिशोभा निहार रहे थे। चंद्रगति राजा पूर्वभव में उस नवजात शिशु के पिता थे। नंदन उद्यान में रात्रि के समय अद्भुत प्रकाश देखकर उन्होंने विचार किया कि कहीं साक्षात् चंद्रमा तो भूलोक पर नहीं पधारे ? वे सत्वर नंदनउद्यान पहुँचे । दिव्य आभूषणों से मंडित उस शिशु को देखते ही उनके हृदय में वात्सल्य जागृत हुआ। बालक को उठाकर वे महल पधारे और उसे अपनी निद्रित महारानी के समीप रखा। महारानी पुष्पवती को कोई संतान न थी। महारानी को जगाकर वे बोले “हे महारानी ! देखिए, आपने कितने सुंदर बालक को जन्म दिया है।" यह सुनते ही महारानी ने कहा, "मैं ठहरी अभागिनी ...वंध्या स्त्री ! मेरे भाग्य में संतानजन्म का सुख कहाँ है ?" इस पर चंद्रगति राजा ने उन्हें संपूर्ण हकीकत सुनाकर कहा, “गर्भधारण एवं प्रसववेदना इत्यादि कष्टों का अनुभव किए बिना आप माँ बनी हैं ..हे देवी ! यह तो आश्चर्यजनक बात है।" इसके पश्चात् शेष रात्रि महारानी ने प्रसूति-कक्ष में बीताई। प्रातः होते ही पुत्रजन्म की उद्घोषणा कर दी गई। मेरे किए किस कर्म का दंड मुझे अब भुगतना पड़ रहा है ? कहाँ है मेरा नन्हा, कहाँ है....?" इस प्रकार बिलखती महारानी विदेहा को सांत्वना देते हुए जनकजी ने कहा, "महारानी ! आप चिंता न करें ! मैं सत्वर राजदूतों को बालक को ढूंढने हेतु भिजवाता हूँ।'' परंतु राजदूत भी नवजात शिशु को ढूंढ निकालने में असमर्थ रहे। तब उन्होंने यह सब अपने ही कर्मों का फल है, इस हकिकत को स्वीकारा । पुत्री का नाम सीता रखा गया। सीता, इस नाम का अर्थ है - जिसमें अनेक सद्गुणरूप सस्य अर्थात धान्य के अंकुर फूट निकलते हैं, वह, अर्थात् भूमि अथवा मनोभूमि। धीरे-धीरे पुत्र वियोग का दुःख महारानी भूलने लगी। सुख एवं दुःख दोनो अनित्य हैं... अशाश्वत हैं । वे आते-जाते रहते हैं। सुज्ञ व्यक्ति भौतिक सुख-दुःख के द्वंद्व से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता हैं - क्योंकि केवल मोक्ष ही शाश्वत है, अनंत सुखमय एक कवि ने क्या खूब कहा है - एक ही डाल पर लगते है शूल, उसी पर लगते है फूल, दुःख के बाद सुख, सुख के बाद दुःख, यह है प्रकृति का रूल। नगर में धूम-धाम से पुत्र जन्मोत्सव मनाया गया। उत्तमोत्तम रत्नों से युक्त कुंडल के कारण उस बालक का मुख अत्यंत तेजस्वी देदीप्यमान दीख रहा था। अतः उसका नाम भामंडल रखा गया। अपने पापकर्म के उदय से वह बालक अपनी जन्मदात्री से बिछड गया, परंतु पुण्यकर्म के उदय से उसने अपना शैशव चंद्रगति राजा के प्रासाद में सुख से बीताया। क्या कहें इस कर्म के पराक्रम का जो कभी पलभर में राजा महाराजाओं को सड़क की खाक छानने के लिए विवश करता है, तो कभी सड़क पर घूमनेवाले किसी निर्धन को अधिपति बना देता हैं। Faroe0000000 GO500Aठन Cololypto यहाँ चंद्रगति राजा की नगरी में पुत्रजन्म का उत्सव मनाया जा रहा था, तब वहाँ जनकराजा की नगरी में शोक के बादल मंडरा रहे थे। महारानी विदेहा ने युगल को जन्म तो दिया था, परंतु वे अपने पुत्र को देख भी न पायी । पुत्र विरह से व्याकुल हतप्रभ महारानी विलाप करने लगी, "अरे ! पूर्वजन्म के किस वैरी ने मेरे पुत्र को मुझसे छीन लिया है ? विधाता...! तुमने मुझे नेत्र दिए और उन्हें छीनकर मुझे पुनः नेत्रहीन बनाया। नवकमल से कोमल मेरा नन्हा किस यातनाओं का सामना कर रहा होगा? क्या मैंने किसी पूर्वजन्म में किसी माँ से उसका शिशु छीना था? क्या मैंने किसी निरपराधी को वियोग की अग्नि में जलाया था ? + चंद्रगति, पिंगलदेव एवं राजपुत्र भामंडल के पूर्वजन्मों की विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें परीशिष्ट क्र.२ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनकराजा की चिंता जनक राजा के प्रासाद में सीता बढ़ने लगी। धीरे-धीरे वह शुक्ल पक्ष के चंद्रबिंब की सोलह कला से बढ़कर पूर्णिमा के संपूर्ण विकसित चंद्र की भाँति सुंदर दीखने लगी। रूपवती सीता बुद्धिमती एवं गुणवती भी थी। सागरराज से मिलनोत्सुक अभिसारिका गंगा नदी की चंचलता उनमें थी। जल में तैरती मछलियों की सुंदरता उनके नेत्रों में थी, कमलनयना सीता में लक्ष्मीजी का राजसी वैभव तथा शारदामाँ के बुद्धिलालित्य का मनोज्ञ समन्वय दृष्टिगोचर होता था। आत्मजा सीता को देखकर जनकराजा और विदेहा रानी के हृदय कभी खुशी से झूम उठते, तो कभी अपनी त्रिलोकोत्तमा के अनुरूप वर कहाँ मिलेगा, इस बात की चिंता से ग्रस्त होते थे। परास्त हो जाती है, जनकराजा भी उसी प्रकार म्लेच्छों का आक्रमण रोकने में असमर्थ बने । म्लेच्छों द्वारा जिनमंदिरों का विनाश देखकर उनका हृदय क्षतविक्षत हो गया। ऐसी संकटबेला में मानव की परछाई भी उसका साथ छोड़ देती है, तब स्नेही स्वजनों का क्या कहना ? चिंताग्रस्त जनकराजा को अचानक राजा दशरथ का स्मरण हुआ। वन में विकसित उनकी मैत्री के संस्मरणों ने उन्हें भावुक बनाया। दशरथ में जनक ने और जनक में दशरथ ने एक सच्चे हितैषी सौहार्य का अनुभव किया था। अतः आपत्कालीन सहायता की मांग करने के लिए उन्होंने अपना दूत तुरंत अयोध्या भेजा। अर्धबर्बर अनार्य देश के आंतरंगतम आदि अनेक शासकों ने जनकराजा की भूमिपर सामूहिक आक्रमण किया। जिस प्रकार कल्पान्त के समय सागर रौद्रतांडव करते आगे बढ़ता है, पथ में चाहे नगर हो या ग्राम, अभिजनों के प्रासाद हो या आदिमजनों की झोपड़ियाँ, मानव एवं मानवनिर्मित सभ्यता को अपने विकराल भुजाओं में लपेटकर वह चलता ही रहता है। विश्व की हर शक्ति उस विनाशनृत्य के समक्ष दुतने राजा दशरथ की राजसभा में जा कर उन्हें प्रणाम किया। आतिथ्यशील दशरथ ने उसका सादर स्वागत किया और अपने नजीक बिठवाकर उसे आगमन का प्रयोजन पूछा। उत्तर में दूत ने कहा, "हे राजोत्तम! मेरे स्वामी जनकराजा के अनगिनत आप्तजन हैं किंतु आपत्काल में सहायता करनेवाले स्नेही केवल आप ही हैं। वनवास के काल में आप परस्पर मित्र बनें... सुख दुःख के पल एक साथ व्यतीत किए। इससे मेरे स्वामी को विश्वास है कि इस दुःसमय ARCHIR STAR Purni दशरथ की राजसभा में जनक राजा का दूत For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि। लोकोत्तराणां चेतांसि, कोऽहि विज्ञातुमर्हति ।। में केवल आप ही उनका साथ देंगे । हे क्षत्रियश्रेष्ठ ! हे आद्यजिनेश्वरकुलसंभव ! आपत्ति के समय जिस प्रकार मानव कुलदेवता का स्मरण करते हैं, तद्वत् संकटसमय में सुमित्र का स्मरण करते हैं। आपके अलावा मेरे स्वामी का कोई अन्य सुमित्र नहीं है, अतः आप ही उनकी सहायता करें।' आपकी मित्रता दूध और पानी के समान है। जब दूध उबलता है, तब पानी भी उसके साथ उबलता है। उफनकर जब दूध अग्नि में जाने लगता है; तो पानी छींटने से वह बच जाता है। राजा जनक की आंतरिक वेदना सुनकर आप भी संतप्त बने हैं। अतः विनाश की ओर अग्रेसर उन्हें, पानी समान पधारकर, आप शांति प्रदान करें। दशरथराजा ने रणवाद्यों का घोष करवाया। उसी समय राम ने राजसभा में प्रवेशकर विनयपूर्वक कहा- "पिताश्री ! आप अपने सुमित्र की सहायता करने जा रहे हैं, तो अपने अनुजों के साथ यहाँ रहकर राम क्या करेगा ? पुत्रप्रेम से मोहित आप यदि ऐसा विचार करते हैं कि मेरे पुत्र अभी बालक है, वे युद्ध में बर्बर सुभटों का सामना कैसे करेंगे? तो मैं यही कहूँगा कि आग का एक छोटासा तिनका पलभर में महावनों को भस्मीभूत कर देता है। सूर्यवंश में जन्मा प्रत्येक पुरुष स्वयंभू पराक्रमी होता है। अतः सुप्रसन्न मन से हमें युद्ध के लिए अनुमति दीजिए। कुछ ही समय में आप जयवार्ता सुनेंगे।" इससे अनुमान होगा कि प्राचीन भारत के सुपुत्र कितने विनयशील होते थे। जहाँ मृत्यु से मिलाप होने की संभावना होती, वहाँ स्वयं आगे जाते, अपने पूर्वजों को आगे जाने नहीं देते। आज के उपभोक्तावादी युग में खानपान, वस्त्र प्रावरण, हर्ष-उल्लास की प्राप्ति के लिए युवा-वर्ग अंधाधुंध दौड़ रहा है। जीवन संघर्ष, अर्थार्जन और युद्धसंघर्ष का उत्तरदायित्व अपने पूर्वजों के कंधों पर डालते उन्हें तनिक भी पश्चात्ताप नहीं होता। राजा दशरथ से मिथिलानगरी की ओर प्रस्थान की अनुमति दूत ने आगे कहा, “वैताढ्य पर्वत की दक्षिण में तथा कैलाश पर्वत की उत्तर में अनार्य देश है। उनमें अर्धबर्बर की प्रजा अत्यंत निर्दयी है। इस देश के पुरुष क्रूरता की चरमसीमाएँ लाँघ चुके हैं। इस देश में मयुरसाल नामक नगर है। इस नगर का राजा आंतरंगतम अत्यंत क्रूर म्लेच्छ है। जिनशासनद्वेष्टा इस राजा ने अन्य असंख्य राजाओं के साथ मिलकर पवित्र मिथिलानगरी पर महाकाल की भाँति आक्रमण किया है। इस बर्बर सेना ने जिनालयादि धार्मिक स्थानों का विध्वंस किया है। अतः आप मेरे स्वामी जनकराजा की सहायता करें। मेरे स्वामी की सांप्रत स्थिति उस गजराज के समान है, जिसका पैर क्रूरतम नक्रने अपने विकराल मुख में जकड दिया है । हे नरपुंगव ! मेरे स्वामी की सहायता करना ही धर्म की सहायता करना है। हमें निराश न करें।" सज्जन पुरुष का मन वज्र से अधिक कठोर एवं कुसुम से अधिक कोमल होता है । एक सुभाषितकार ने कहा है Soal & Private Use Only www.pahelibrary.org Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 मिलते ही लक्ष्मण एवं राम अपने सैन्य के साथ मिथिला के लिए रवाना जनक का अपहरण हुए। विजयाकांक्षी म्लेच्छ सुभटों ने मिथिलानगरी को चारों दिशाओं से घेर रखा था। महाराजा जनक बहुत चिंताग्रस्त थे। समूचा संसार चिंता से भरा हुआ है। चिंता का एक कारण दूर होते ही दूसरा समक्ष आकर खड़ा हो जाता है। सर्वसंगपरित्याग कर वैराग्यलक्ष्मी की आराधना करनेवाले मुनिजन ही सारी चिंताओं से राम द्वारा म्लेच्छ सैन्य का तितर-बितर होना मुक्त होते हैं। अस्तित्व की चिंता, उदरभरण की चिंता, स्वजनों की चिंता, परजनों की चिंता, आत्मरक्षा की चिंता, पररक्षा की चिंता यह रामसैन्य को देखते ही म्लेच्छ सुभट उस पर टूट पडे। क्षणभर इस मायावी संसार की विशेषता है। में शत्रुओं के शस्त्रआच्छादन ने वातावरण अंधकारमय बना दिया। म्लेच्छ सेना ने मान लिया था कि उनका विजय निश्चित है। महाराज इस माया ने विभिन्न रूप धारण कर जगत को संमोहित किया जनक भी निराशा के सागर में डूब गए थे। सहसा राम ने धनुष्य प्रत्यंचा है। यहाँ तक कि उसने ज्ञानियों को भी नहीं छोडा है। केवल मुनिजन खिंचकर टंकार किया और धनुष्य पर बाण चढ़ाया। पल भर में अविरत ही उसके प्रभाव से दूर है। वर की चिंता से राजा जनक मुक्त तो हुए, बाणवर्षा से म्लेच्छ सेना क्षत-विक्षत होने लगी। राजा जनक का सैन्य परंतु सीता-विवाह के मार्ग में कितनी कठिनाईयाँ आती है- अब मृगशावक अथवा खरगोश की भाँति भयभीत हो चुका था। राम के देखेंगे। सैन्य की मनःस्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। इतने में दशरथनंदन द्वारा जनकद्वारा सीता विवाह की घोषणा होते ही चारों दिशाओं में अचानक मगनक्षत्र के वर्षा की भाँति शरवर्षा प्रारंभ हुई। म्लेच्छ सुभट सीता के लावण्य एवं गुणों की चर्चा होने लगी। सीता के सौंदर्य के विस्मयचकित हुए। अचानक उन्होंने राम व लक्ष्मण को देखा। अपने विषय में बातें सुनकर नारदजी भी सीता के दर्शन करने जनकराजा के अपने शस्त्र उठाकर वे राम की ओर दौडे, परंतु शीघ्र लक्ष्यवेधी राम ने कन्यागृह में आए। वैसे तो नारदजी अतिशुद्ध ब्रह्मचर्य व्रतधारी है। क्षणमात्र में उन्हें तितर-बितर कर दिया। जिस प्रकार एक ही अष्टापद काया, वाचा, मन से दृढ शीलव्रता नारदजी किसी भी राजा के अंतःपुर प्राणी हाथियों को क्षतविक्षत कर देता है, उसी प्रकार राम ने म्लेच्छ । में बिना किसी रोक-टोक के जा सकते थे। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं सेना को क्षतविक्षत कर दिया। प्राण बचाने के लिए म्लेच्छ सेना पलायन था। वासना के कारण नहीं, अपितु कौतुहलवशात नारदजी ने सीता करने लगी। युद्धभूमि का दृश्य क्षणभर में परिवर्तित हुआ। जनकसैन्य के प्रासाद में प्रवेश किया। में जयघोष सुनकर महाराजा जनक आश्वस्त हुए। पौरजनों के हर्षकी नारदजी का दुबला-पतला शरीर, भारी तोंद, पीला कौपीन कोई सीमा न रही। (वस्त्र विशेष) पीले केश व नेत्र तथा लंबी शिखा देखकर सीता घबराई राम का अतुलनीय पराक्रम देख हर्षित, राजा जनक ने अपनी और भय से काँपते काँपते चिल्लाने लगी, "ओ माँ.. ओ माँ...दौडो... पुत्री सीता का परिणय राम के संग होगा, ऐसी घोषणा की। दशरथ मुझे बचाओ।" सीता को इस तरह भयाकुल होकर चीखते सुनकर राजा के बजाय राम के युद्धभूमि आने से जनक की दो प्रकार से रक्षक, दास, दासी, द्वारपाल एवं सैनिक दौडते आए और बिना कुछ कार्यसिद्धि हुई। सर्वप्रथम म्लेच्छों के विनाश से जिनालय सुरक्षित पूछे ही नारदजी पर टूट पडे। किसीने उनकी ग्रीवा पकडी, तो किसीने बने तथा स्वकन्या सीता के लिए सुयोग्य वर की प्राप्ति हुई। शिखा खींची। किसीने उनकी भुजाएँ पकडकर मरोडी, तो किसीने उनपर प्रहार किए। फिर भी नारदजी किसी भी प्रकार से मुक्त होकर राम, सीता से परिणय करने के लिए मिथिलानगरी नहीं आये वहाँ से भागे और आकाशमार्ग से वैताढ्य पर्वत पर आ पहुँचे । वहाँ थे। अपितु पितृभक्ति एवं धर्मरक्षा के लिए आए थे। धर्मात्माएँ धर्मपर पहुँचते ही उन्होंने राहत की लंबी-सी साँस ली और विचार करने आक्रमण एवं धर्म का ध्वंस देख नहीं सकती। धर्मरक्षा के लिए रामद्वारा लगे। "सिंहनियों से घिरी हुई गाय शायद ही बच सकती है, मैं भी उन किये गए पराक्रम से प्रभावित होकर जनकराजा ने अपनी पुत्री का सिंहनीसमान दासियों के वज्रहस्तों से बचकर वैताढ्य पर्वत की शिखा विवाह बिना मांगे ही राम के साथ निश्चित किया। जनकराजा भी पुत्री पर आ गया हूँ। मुझे मेरे अपमान का प्रतिशोध लेना ही चाहिये। अब के लिए योग्य पति प्राप्त करने की चिंता से मुक्त हुए। मैं वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में चंद्रगति राजा के प्रासाद में जाऊँगा तथा सीता का चित्र, पटपर बनाकर उसके पुत्र भामंडल को दिखाऊँगा। इससे उसके मने में सीता के प्रति अनुराग जगेगा और वह For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 किसी भी प्रकार से सीता का अपहरण करेगा। अतः सीता का विवाह चंद्रगति राजा ने सत्वर नारदजी को बुलवाया, प्रेमभक्ति से राम के साथ नहीं होगा, इससे मेरा प्रतिशोध पूर्ण होगा।" उनका आदरसत्कार किया और फिर विनयपूर्वक पूछा, "रूपयौवन द्वारा आशीर्वादित एक कुलीन कन्या का चित्र आपने युवराज भामंडल कर्म की विचित्रता तो देखिये ! सीता ने हेतुशः नारदजी को को बताया था। क्या आप बता सकते हैं यह कन्या कौन है ? किस मार नहीं दिलवाई थी। युवा आर्यनारी विचित्र वेशभूषावाली अज्ञात कुल से संबंधित है ?" नारदजी ने कहा, 'हे राजन् ! यह छबी व्यक्ति से घबरा जाए, एवं उसकी चीखें सुनकर दास, दासी, रक्षक मिथिला नरेश जनक की पुत्री सीता की है। अप्सराएँ, गंधर्वकन्याएँ व सत्वर आकर अपना कर्तव्य निभाएँ, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। नागकन्याएँ भी रूप में इस कन्या की बराबरी नहीं सीता ने योजनापूर्वक नारदजी की पिटाई करवाने के लिए षड्यंत्र तो कर सकती, तब मानवकन्याएँ ऐसा रूप कहाँ से ला नहीं रचा था। तो ऐसी स्थिति में प्रतिशोध की भावना क्यों रखनी सकेगी? वास्तव में यह कन्या इतनी सुंदर है कि चाहिए? परंतु मोहनीय कर्म के उदय ने सामान्यतः विवेकी कहलवाते उसका संपूर्ण तादृश चित्र बनाने के लिए विश्व का नारदजी को विचार करने का अवसर भी न दिया। यह है कर्म की सर्वोत्तम चित्रकार भी असमर्थ है। कोई भी कवि इस विचित्रता ! आवेश में आकर उन्होंने प्रतिशोध का संकल्प किया। रूप को शब्दों में बाँध नहीं सकता। यह कन्या आपके परिणामतः सज्जन तथा सुशील जनकराजा और सीता पर विपदाएँ पुत्र के लिए सर्वथा योग्य है। चंद्रगतिराजा ने अपने आ गई। पुत्र को बुलवाकर कहा, "पुत्र ! मिथिलानरेश की नारदजी ने वस्त्र के पट पर सीताजी की एक अद्भुत छबी कन्या सीता से तुम्हारा परिणय होकर ही रहेगा, यह बनाई और वह पट युवराज भामंडल के समक्ष प्रस्तुत किया। सीताजी मेरा वचन है। अतः तुम संपूर्णतः आश्वस्त रहो।' का रूप देखते ही युवराज मदन के पंचशरों का शिकार बन गया। इसके पश्चात् उसने नारदजी को सादर कभी वह सारी रात सो नहीं पाता, तो कभी योगी की तरह सुनमुन सम्मानसहित बिदा किया। बैठ जाता। आहार विहार के प्रति भी वह बेभान रहने लगा। मदन के पाँच बाण फूलों से बने हैं, परंतु वे मानव के विद्या, विवेक, संयम, सदाचार सब को क्षत-विक्षत कर देते हैं। कामराग जीव को अस्थिर फिर चंद्रगतिराजाने चपलगति विद्याधर को बना देता है। विषय के फल भविष्य में कितने भयंकर कटु होंगे, यह जनकराजा का अपहरण करने का आदेश दिया और न समझनेवाले जीव, चित्र से, जो केवल आभास है, विवेकविहीन अपनी स्थनुपुरनगरी में स्थित राजप्रासाद में उसे बन जाते हैं। अशांति के शिकार बनकर कर्मबन्ध करते हैं। अपने पुत्र लाने के लिए कहा। मिथिलानगरी पहुँचते ही की दयनीय स्थिति देखकर चंद्रगति राजा ने उसे पूछा, "हे पुत्र ! चपलगति विद्याधर ने सुलक्षणयुक्त श्वेतवर्णी अश्व क्या तुम किसी आधि - मानसिक पीडा से या शारीरिक व्याधि से का रूप धारण किया । राजा जनक, अश्वरत्न को पीडित हो ? क्या किसीने तुम्हारी आज्ञा का भंग कर तुम्हें दुःख देखते ही मोहित हो गए। ऐसा उत्तम अश्व अपनी पहुँचाया है ?" लज्जित भामंडल ने उत्तर नहीं दिया। चुपचाप अश्वशाला में हो, यह लालसा उनके मनमें जगी। अधोमुख बैठा रहा। वास्तव में देखा जाए, तो जनकराजा बड़े विवेकी कुलीन आत्माएँ गुरुजनों के सामने अपने राग-अनुराग के थे, पर मोह, लालसा ने उन्हें भी नहीं छोडा । अन्न विषय में बातें नहीं करती। कुलमर्यादा उन्हें ऐसा अनाचार करने से की अति लालसा के कारण ही पक्षी एवं मत्स्य जाल बचाती हैं। आजके आधुनिक युग में अमर्याद व्यक्ति-स्वातंत्र्य, इस में फँस जाते हैं और कभी अपने जीवन से, तो कभी लुभावने नाम से अनाचार, अनर्थ कर रहे हैं। हमारा सामाजिक, नैतिक स्वतंत्रता से हाथ धो बैठते है। लालसा से विमोहित एवं आध्यात्मिक अधःपतन हमें दुर्गति का शिकार बना रहा है। भामंडल जनकराजा भी अश्व के पीछे पीछे गए और अंत मे कामुक अवश्य था, परंतु कुलमर्यादाओं से अनभिज्ञ नहीं था। अतः अश्वपर आरूढ हो गए। अश्व ने सत्वर छलांग निर्लज्ज न होकर उसने अपने पिता के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। मारी और गगनमार्ग से उड़कर सीधा चंद्रगति राजा अतः चंद्रगतिराजा ने भामंडल के मित्रों से उसके दुःख का कारण के रथनुपूर नगर पहुँच गया। यहाँ मिथिलानिवासी पूछा। तब उन्होंने नारदजी द्वारा बताये गये नारीचित्र की हकीकत उसे हाहा-कार करते रह गए। बताई। For Personal & Private Use Only www.ibinelibrary.org/ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंद्रगतिराजा ने मिथिलानरेश जनक को आलिंगन दिया और मित्रतापूर्वक मधुरवाणी से कहा, “राजन् ! अनंत सद्गुण एवं स्वर्गीय लावण्य से युक्त आपकी पुत्री सीता अभी अविवाहित है, मेरा पुत्र Jain Education in चपलगति द्वारा जनक का अपहरण For Persondra Pevate Use Only 21 भामंडल भी रूप, यौवन व सद्गुणों से परिपूर्ण है, मेरी इच्छा है कि हमारी मित्रता और प्रगाढ बने, इसलिए आपसे अनुरोध है कि आप अपनी पुत्री का विवाह मेरे पुत्र के साथ कर दीजिए।" रथनुपूरनरेश को उत्तर देते जनकराजा ने शालीनता पूर्वक कहा, “आपका कथन यथायोग्य है, परंतु राम के पराक्रम से प्रभावित होकर मैंने अपनी पुत्री का वाग्दान उनके साथ किया है। अतः अब उसका विवाह भामंडल के साथ कैसे हो सकता है ? कन्या का वाग्दान तो केवल एक बार ही होता है। " I प्रत्युत्तर में चंद्रगति राजा ने कहा, “हे राजन् ! हमारे बीच जो परस्पर स्नेह है, उसमें अभिवृद्धि हो इसीलिए मैं आपको यहाँ ले आया और आपसे यथाविधि कन्या का हाथ माँगा। सीता का अपहरण हमारे लिए कोई अशक्य बात नहीं है। फिर भी आपकी विवशता मैं समझ सकता हूँ आपने राम का अतुल्य पराक्रम देखकर अपनी पुत्री उन्हें सौंपी है। अब मैं चाहता हूँ राम हमें पराजित करे और सीता का पाणिग्रहण करे। मेरे पास देवाधिष्ठित और अत्यंत तेजस्वी दो धनुष्य हैं, जिनके नाम वज्रावर्त एवं अर्णवावर्त है मैं ये दोनों धनुष्य आपको अर्पण कर हैं। रहा हूँ। जो व्यक्ति इनमें से किसी एक धनुष्यपर प्रत्यंचा लगाएगा, जित उसीकी होगी। यदि राम इस धनुष्य पर प्रत्यंचा लगाने में यशस्वी होते हैं, तो आप सीता का विवाह अवश्य उनके साथ कीजिए।" इस प्रकार राजा चंद्रगति ने जनकराजा को अपनी बात मानने के लिए विवश किया। जनकराजा ने भी कोई अन्य पर्याय न होने के कारण उनकी बात का स्वीकार किया। फिर चंद्रगतिराजा ने मिथिलानरेश को सम्मानपूर्वक बिदा किया और स्वयं सपरिवार आकर मिथिलानगरी की सीमाओं के बाहर रुक गए। अपने प्रासाद में आकर जनकराजा ने सारा वृत्तांत अपनी पत्नी रानी विदेहा से कहा, तब वे फूटफूट कर रोने लगी। वे कहने लगी, “हन्त हन्त ! मेरा भाग्य ही निर्मम बन चुका है। वर्षो पहले भाग्य ने मेरे पुत्र को मुझ से अलग करवाया। अब क्या पुत्री के Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अपहरण के पश्चात् ही उसका हृदय शीत होगा? अरे सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी स्वेच्छा से कन्यादान करता है। हमें इतनी भी स्वतंत्रता नहीं है कि हम अपनी इच्छानुसार सीता का विवाह कर सकें । यदि राम धनुष्य पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा पाये, तो निश्चित ही सीता का पति कोई अन्य बनेगा।" है? इन देवधनुष्यों को वे लता की भाँति उठाएँगे और उन पर प्रत्यंचा चढाएँगे। सीता का विवाह केवल राम के साथ होगा। मैंने युद्धभूमि में राम को देखा है। अतः मुझे विश्वास है कि विजयश्री राम के ही गले में वरमाला पहनाएगी।" इसके पश्चात् जनक राजा ने एक विशाल मंडप बनवाया । धनुष्यद्वय की मंडप में स्थापना की गयी। जनकराजा ने दूरसुदूर के महाराज, युवराजों को निमंत्रण भेजे । वे समस्त, मिथिला पधारे और मंडप में यथास्थान बिराजमान हुए। तब जनकराजा ने उन्हें आश्वासन देते कहा, ''प्रिये..! आप चिंता न करें। आद्य जिनेंद्र के वंशज राम के लिए कौनसी बात अशक्य सीता का स्वयंवर दिव्य वस्त्रालंकारों से मंडित युवराज्ञी सीता ने स्वयंवर मंडप में प्रवेश किया। राम का स्मरण करते हुए उन्होंने धनुष्यद्वय की पूजा की। फिर वे अपने करकमलों में वरमाला धारण किये सलज्ज एवं स्वस्थ रूप मंडप में खड़ी रही। सीता को देखते ही भामंडल की लालसा उत्तेजित हो गई, वे, नारदजी की कथनी से कई गुणा अधिक सुंदर थी। राजा जनक ने द्वारपालद्वारा घोषणा करवाई कि जो नरशार्दूल धनुष्यद्वयी में से किसी भी एक पर प्रत्यंचा लगाने में यशस्वी होगा, वही सीता का पाणिग्रहण करेगा। यह घोषणा सुनते ही युवराज, राजकुमार क्रमशः धनुष्य के नजीक जाने लगे, पर धनुष्य उठाने का साहस तक कोई भी कर न पाया। क्योंकि वे जाज्वल्यमान धनुष्य प्रखर अग्निशिखाएँ एवं फुत्कार करते हुए भयंकर विषधर सर्पो से परिवेष्टित थे। सीता के इच्छुक, साहस जुटाकर धनुष्य के समीप जाते तो थे, पर लज्जा से अधोमुख पुनः लौटकर अपने अपने स्थानपर बैठ जाते । चंद्रगति राजा यह सब देखकर स्मित कर रहे थे। उन्हें विश्वास था कि अंत में सीता केवल उनकी पुत्रवधू बनेगी। अब राम उठे... और धनुष्य की ओर चल दिये.. जनकराजा के हृदय की गति तेज हो गयी... वे विचार करने लगे कि "कहीं अन्य राजाओं की भाँति रामचंद्र भी धनुष्य उठाने में असफल हो जाए तो......?" HEARNGA ASSOMWASEE For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंवर मंडप जब राम मंच पर चढ़े, तब वहाँ न तो अग्नि शिखाएँ थी, न ही भयंकर सर्प । वातावरण में सन्नाटा छा गया। मंडप में उपस्थित सभीजन शांत बैठे। देवलोक से देव गण तथा अधोलोक से नाग, सर्प, पन्नग आदि विस्मयचकित हो यह अभूतपूर्व दृश्य देखने लगे। राम ने बजावर्त धनुष्य खिलौने की भाँति उठाया और लोहपीठ पर स्थापन किया, फिर उसे बेंत की तरह मोड़कर प्रत्यंचा चढाई । प्रत्यंचा कान तक खिंचकर ऐसा आस्फालन किया कि उस धनुष्य के टंकार की प्रतिध्वनि उर्ध्वलोक और अधोलोक में स्पष्ट सुनाई दी। हर्षोत्फुल्ल सीता ने राम के ग्रीवा में वरमाला पहनाई। इसके पश्चात् राम ने प्रत्यंचा पुनः उतार दी। राम की आज्ञा लेकर लक्ष्मण आगे बढ़े व तत्काल अर्णवावर्त धनुष्य पर प्रत्यंचा चढाई । धनुष्य का आस्फालन इतना तीव्र था कि दिग्गजों के पैर कंपायमान हुए। उस समय लक्ष्मण के वीरत्व से प्रभावित विद्याधरों ने अठारह लावण्यवती विद्याधरकन्याएँ लक्ष्मण को अर्पण की। चंद्रगति भामंडल आदि समस्त राजा निराश होकर अपने अपने नगर लौट गए। 1 अहंकार ही मानव के दुःख का कारण है अहंकारी चंद्रगति और भामंडल मानते थे कि कोई भी मानव उन दिव्य धनुष्यों को उठा तक नहीं पायेगा । अतः विजय उन्ही की होगी। किंतु राम-लक्ष्मण ने धनुष्यों पर प्रत्यंचा लगाकर मानो उनके अहंकार का चूर्ण चूर्ण कर दिया। अंत में हताश, हतोत्साह बनकर उन्हें लौटना पड़ा। जनकराजा ने अयोध्या निमंत्रण भिजवाकर दशरथराजा को बुलवा लिया। वे मिथिला पधारे और रामसीता की परिणय विधि महोत्सवपूर्वक संपन्न हुई। जनकराजा के अनुज कनकराजा ने उसी सुमुहूर्तपर अपने सुप्रभारानी की पुत्री भद्रा का हाथ दशरथपुत्र भरत को सौंप दिया। दशरथराजा एवं उनके सभी मित्रगण ने राजपुत्र एवं पुत्रवधुओं के साथ अयोध्या की दिशा में प्रयाण किया। अयोध्या पहुँचते ही अयोध्यावासियों ने बड़े उत्साह तथा उमंग से नूतन दंपतियों का स्वागत किया व नगरप्रवेश करवाया। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education inte 24 - अयोध्या में शांति-स्नात्र महोत्सव PU Mauoardasti www.jainedureydra TD Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or p ony Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 pom शांति स्नात्र अषाढ शुक्ल अष्टमी के शुभ दिन दशरथराजा ने धूमधाम से अष्टान्हिका चैत्य महोत्सव का आयोजन किया। इस अवसरपर उत्तमोत्तम पूजासामग्री के साथ शांतिस्नात्र महापूजा भी करवाई। ABOUNTRIAL DANTIMATERN शांतिस्नात्र संपन्न होते ही अंतःपुर के मुख्यअधिकारी कंचुकी के द्वारा शांतिस्नात्र का जल मुख्यमहिषी पट्टरानी कौशल्या को सर्वप्रथम भेजा गया । अन्य रानियों के प्रासादों में दासियों द्वारा स्नात्रजल भेजा गया। सामान्यतः कंचुकी वृद्ध पुरुष ही होता है। राजा दशरथ के अंतःपुर का कंचुकी भी वृद्धत्व के कारण धीरे-धीरे चल रहा था । अतः वह पट्टरानी के प्रासाद में शीघ्र न पहुँच पाया। युवा दासियों ने दौडदौड कर अन्य रानियों के प्रासादों में स्नात्रजल शीघ्र पहुंचा दिया। कौशल्या द्वारा आत्महत्या का प्रयास स्नात्रजल सबसे पूर्व न मिलने के कारण महारानी कौशल्या दुःखी होकर विचार करने लगी- 'मैं तो राजमहिषी हूँ.. फिर भी शांतिस्नात्र का जल सबसे पहले अन्य रानियों को पहुँचाया गया। हाय... कितनी मंदभागिनी हूँ मैं ! स्वमान का ध्वंस होने पर जीवित रहना मृत्यु से भी अधिक दुःखद है। अब मेरे लिए आत्महत्या करना ही उचित है।"क्रोधावेश के कारण कौशल्या ने विवेकशक्ति खो दी। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 के लिए कोई प्रायश्चित्त भी नहीं इसलिये वह महापाप है। कहा गया है - क्रोधात् भवति संमोहः, संमोहात् स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।। क्रोध से संमोह होता है, संमोह से स्मृति चलित होकर ध्वंस होती है, स्मृतिभ्रंश से बुद्धि का विनाश होता है और बुद्धिनाश के कारण सर्वनाश होता है। विवेकी आत्मा ऐसा प्रसंग आने पर विचार करती है, आत्महत्या सबसे बडा पातक है। हत्या भी पाप है किंतु उसके लिए प्रायश्चित्त है, जो आत्मा को विशुद्ध बनाता है। आत्महत्या राजा कदाचित् शांतिस्नात्र का जल मुझे भेजना भूल गए होंगे, तो मैं ही क्यों न किसी अन्य व्यक्ति को भिजवाकर जल मंगवाऊँ? परंतु पट्टरानी कौशल्या के मस्तिष्क पर उस समय अहंकार एवं आवेश ने आक्रमण किया था। अतः वे विवेकशक्ति को ठुकराकर आत्महत्या के लिए प्रेरित हो गई। अचानक दशरथ राजा वहाँ पहुँचे और अपनी पट्टरानी के गले में फाँसी का पाश देखकर भयभीत हो गए ! कौशल्या द्वारा दशरथ को उपालंभ । 000 किसी तरह समझा बुझाकर राजा दशरथ ने कौशल्या को नीचे उतरवाई और पुच्छा की, "किसने आपका घोर अपराध किया है जिसके कारण आप आत्महत्या करने के लिए विवश हो गई? कहीं मैं ही आपका अपराधी तो नहीं हैं ?" क्रोधावेश से कंपायमान कौशल्या बड़ी कठिनाई से केवल इतना ही बोल पायी - "अन्य सभी रानियों के आवास में शांतिस्नात्र का जल पहुंचाया... और मेरे यहाँ.......?" LESED ALL .. . PICIPAN oilewoni lesal1290 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000CUC0000 D t.coeine DILIP SONY स्नात्र जल लेकर कंचूकी का आना राजा कुछ कहे इसके पूर्व वृद्ध कंचुकी स्नात्र जल लेकर वहाँ आ पहुँचा। फौरन दशरथ राजा ने महारानी कौशल्या के मस्तक पर शांतिस्नात्र के जल का अभिसिंचन किया और फिर कंचुकी से पूछा, “सब से पहले तुम्हें ही स्नात्रजल दिया था, तो यहाँ पहुँचते पहुँचते तुम्हें इतना विलंब कैसे हुआ?" कंचुकी ने कहा- “आपका कथन सत्य है - सबसे प्रथम स्नात्रजल मुझे ही दिया गया था। फिर भी मुझे विलंब हुआ। इसमें मेरा कोई दोष नहीं है - अपराधी तो मेरी यह वृद्धावस्था है। मेरा शरीर अब जवाब दे चुका है। गात्र गात्र शिथिल हो चुका है। यदि आप इस वृद्ध शरीर का एक बार अवलोकन करेंगे, तो ज्ञात होगा कि आपका अपराधी कौन है?" For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 रहता है। विष तो केवल एक बार प्राणनाश करता है। विषयसुख का विष तो जन्मजन्मांतर तक प्राण नाश कराता है। अतः देहपतन हो जाएँ, उसके पूर्व क्यों न मैं कठोर मोक्ष साधना के माध्यम से कर्मों को चूर्ण चूर्ण करूँ?" दशरथराजा ने एक ही बार उस पर नखशिखांत दृष्टि डाली! किसी समय धसमसते यौवन से परिपूर्ण शरीर अब एक कंकाल बन चुका था। पाँचो ज्ञानेंद्रियों की ज्योति क्षीण हो गई थी। सारे केश श्वेत हो चुके थे। शरीर में मांस एवं रुधिर का नामोनिशान तक नहीं था। केवल अस्थियाँ, उभरी हुई नसें और चर्म से ढंका वह शरीर देखकर दशरथ के मन में वैराग्य जागृत हुआ। वे विचार करने लगे। जन्म से मृत्यु तक अविरत चलती जीव की यात्रा में देह को क्या क्या नहीं भुगतना पड़ता है ? आज इस वृद्ध कंचुकी की जो अवस्था है, वह कल मेरी होगी? इसके पश्चात् क्या ? इस प्रकार वे वैराग्यभाव से संपन्न बने। पुण्यशाली आत्माओं को सफल पुरुषार्थ करने के लिए सुयोग प्राप्त होते हैं। एक दिन सत्यभूति मुनि अयोध्या की सीमा के बाहर पधारे। वे चार ज्ञानों के ज्ञाता थे। यह शुभसमाचार विदित होते ही दशरथ राजा सपरिवार वंदन करने गए। सीता प्राप्त न होने के कारण शोकसंतप्त बने युवराज भामंडल एवं निराश बने राजा चंद्रगति भी स्थावर्त पर्वत से पुनः लौटते समय वहाँ पहुँचे । राजा दशरथ एवं राजा चंद्रगति देशना सुनने के लिए यथास्थान बैठ गए। पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् । "यह दुष्टचक्र कब तक चलता रहेगा? जन्म मृत्यु का दृश्य मानव रोज देखता है, फिर भी भौतिकसुख व विषयसुख के पीछे लगा। सत्यभूति के प्रवचन सुनकर भामंडल का बेहोश होना DILIP SONI 1997 Weih Edi lem For Perse v ate Use Only Norg Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामंडल बेहोश मुनिराजश्रीसत्यभूतिमनःपर्यवज्ञान के स्वामीथे, अतः भामंडल की मनोदशा जान गए। उन्होंने देशना में चंद्रगति राजा व रानी पुष्पवती तथायुवराज भामंडल व सीता के पूर्वभवों का विस्तृत वर्णन किया। फिर उन्होंने जनक राजा की रानी विदेहा ही कुक्षि से भामंडल और सीता का पुत्रपुत्री रूप से जन्म व अपहरण का वृत्तांत यथार्थ रूप से कहा मुनिराजश्री का कथन सुनते ही भामंडल मूच्छित होकर भूमि पर गिर पडा। पुनः चेतना प्राप्त होते ही मुनिराजश्री सत्यभूति की बातें अक्षरशः सत्य है, यह उसने चन्द्रगति को ज्ञात किया। कर्म की विचित्र लीला देखकर राजा चंद्रगति के मन में वैराग्य जगा। भामंडल ने अपनी ज्येष्ठ भगिनी सीता को प्रणाम किया, सीता ने भी उसे अपना अनुज जानकर आशीर्वाद दिये। राम ने स्नेहपूर्वक भामंडल को आलिंगन दिया। राजा चंद्रगति ने विद्याधरों को भिजवाकर मिथिलानरेश जनक एवं रानी विदेहा को बुलवाया। उनके आते ही चंद्रगति ने उन्हें संपूर्ण हकीकत सुनाई और कहा कि वास्तव में युवराज भामंडल आपके ही सुपुत्र हैं, यह जानते ही रानी विदेहा के स्तन से दूध की धारा बहने लगी, जनकराजा अत्यंत प्रमुदित बने । भामंडल ने भी अपने वास्तविक मातापिता को प्रणाम किया, मातापिता ने उसे सप्रेम आशीर्वाद दिये। जनकराजा ने अपने युवापुत्र के स्कंधों पर राज्य की धुरा सौंपकर आत्मसाधना हेतु मुनिराजश्री सत्यभूति से दीक्षा ग्रहण की। hue MOTwetalal cobcodaibcoochodai इसके पश्चात् दशरथ राजा ने मुनिश्री से अपने पूर्वभवों की पृच्छा की। सत्यभूति मुनि से अपने पूर्वजन्मों का ब्यौरा सुनकर राजा दशरथ का वैराग्य भाव अति उत्कट हो गया। वे राम को राज्य सौंपने के लिए प्रासाद गए। भामंडल ने रथनुपूर की दिशा में प्रयाण किया। DAODDAmawe Cooooooooooobar के पूर्वभव में जनकराजा एवं सत्यभूति मुनि से दशरथ के क्या संबंध थे? पूर्वभव का विवरण सुनते ही दशरथ के मन में वैराग्य क्यों जगा? यह जानने के लिए पढ़ें - परिशिष्ट-३ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशरथ द्वारा कैकेयी को वरदान ASTROMBALKARNA ASTMETALLIATATBILITAN 3590 SON COM DOCCUDiscoCDOC DILIP 96 भरत द्वारा दीक्षा की अ याचना : असार संसार का त्याग कर मोक्षमार्ग पर चलने के लिए आतुर दशरथ राजा ने अपने समस्त परिवार एवं मंत्रीजनों को बुलवाकर पियुष वाणी से दीक्षा के लिए अनुमति मांगी। पिता का मनोरथ सुनते ही भरत ने प्रणाम करते हुए कहा, "पिताश्री ! यदि आप अनुमति दें, तो मैं भी आपके साथ दीक्षा ग्रहण करुंगा। अन्यथा मुझे अत्यंत दुःखदायक दो पीडाओं को भुगतना पड़ेगा। पहली पीडा है आपका वियोग व दुसरी है संसार का संताप। अतः मैं आपश्री के साथ ही दीक्षा ग्रहण करने के लिए उत्सुक हूँ।" Lin Education International For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशरथ द्वारा भरत को राज्य देने का कथन यह सुनकर कैकेयी ने विचार किया 'मेरे पतिदेव ने दीक्षा ग्रहण का अडिग प्रण किया है। यदि वे दीक्षा लेते हैं, तो मैं राजरानी नहीं कहलाउँगी। फिर दशरथ ने राम एवं लक्ष्मण को बुलवाकर कहा, "कैकेयी के सारथ्य कौशल्य के कारण एक युद्ध में मेरी विजय हुई थी। तब प्रसन्न होकर मैंने कैकेयी को वरदान दिया था, जो उसने भविष्यकाल के लिए सुरक्षित रखा था। आज राजरानी कैकेयी चाहती है कि दीक्षा लेने के पूर्व, मैं अपना राज्य भरत को सौंपकर ऋणमुक्त बनें, ताकि दीक्षाले सकूँ। ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते हे राम! राज्य पर तुम्हारा अधिकार है - परंतु आज मैं तुम्हारे अधिकार का उल्लंघन करते हुए भरत को राज्य सौंप रहा हूँ।" यह तो ठीक, परंतु यदि भरत भी दीक्षा लेगा तो मेरा राजमाता का बिरुद भी नहीं रहेगा।' इस प्रकार मोहपाश में बद्ध कैकेयी ने दशरथ से कहा- "स्वामिन् ! महाराज ! विश्व में कुछ भी असंभव नहीं है, कदाचित् प्रकृति अपना मार्ग बदल सकती है, सूर्य अपनी गति बदल सकता है - परंतु यदि कुछ न बदलता हो, तो वह है सत्यवादी पुरुष का वचन ! आपको स्मरण होगा कि मेरे सारथ्य से प्रसन्न होकर आपने स्वयंवर के समय मुझे वरदान दिया था। UHUVIDHDBUALSURUVHURUHURUUUUBURUUURVEVENTS मैंने वह वरदान भविष्यकाल के लिए रखा था। आप मेरे ऋणी हैं । अतः आप दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व मेरा ऋण अदा कर दीजिए। इसके पश्चात् ही आप दीक्षा ग्रहण कर सकते हैं, क्योंकि ऋणधारी व्यक्ति दीक्षा नहीं ले सकता !" AMOEOMARA दशरथ राजा ने कैकेयी को उत्तर देते हुए कहा, ''मुझे मेरे वचन का स्मरण है। दीक्षा निषेध के अलावा आप अन्य कुछ भी माँग सकती हैं।' कैकेयी ने कहा, "यदि आप दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं, तो अयोध्या का राज्य भरत को दीजिए।" कैकेयी की माँग स्वीकार करते दशरथ ने कहा "भरत सहर्ष मेरा राज्य ग्रहण कर सकता है।" DILIP.SON For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 पिता का वचन सुनते राम ने सहर्ष कहा, "मेरी माताश्री कैकेयी की इच्छानुसार आपने मेरे महापराक्रमी अनुज को अपना उत्तराधिकारी बनाया है, यह सर्वथैव उचित हैं। किंतु आप समझते हैं, इससे मेरे अधिकार का उल्लंघन हुआ है, तो वह समझ मिथ्या है। क्या मेरे व्यक्तित्व में आपको कभी अविनय अथवा राज्यलालसा की अनुभूति हुई है ? कि जिसके कारण आप अधिकार के उल्लंघन की बात करने के लिए विवश हो गए ? राज्यग्रहण करने की मुझे न लालसा है, न अधिकार है। मैं तो केवल आपके श्रीचरणों का दासानुदास हूँ। यदि आपकी इच्छा हो, तो आप एक सेवक को भी राज्य दे सकते हैं। भरत को मनाते हुए राम ने कहा, "हे अनुज ! पिताजी ने अपने ऋण से मुक्त होने के लिए तुम्हें राज्य दिया है। अतः तुम दोषी नहीं हो। पिताजी की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए तुम सहर्ष राज्यग्रहण करो।' भरत अश्रुभीनी आँखों से कहने लगे, "पिताश्री... भ्राताश्री ! आप दोनों उदारतापूर्वक मुझे राज्य सौंप रहे हो, किंतु मैं राजग्रहण को लौलुप्य एवं हीनत्व समझता हूँ। भ्राताश्री ! पिताजी के वचनपालन के लिए आप मुझ दीन को अपने समस्त अधिकार सौंप रहे हैं। आप परम त्यागी व परम उदार हैं। पर क्या मैं दशरथ का पुत्र एवं आपका अनुज नहीं हूँ? क्या मैं आपका अधिकार छीन सकता हूँ? नहीं... नहीं... मेरा राज्याभिषेक, असंभव !" यह शरीर मुझे आप से मिला है, शैशव से आज तक आपने इसका भरण-पोषण किया है। शिष्टाचार सुसंस्कार मुझे आप से ही मिले हैं। मेरे तन मन धन पर आपका संपूर्ण अधिकार है। भरत और राम दोनों एक ही हैं। आप सहर्ष भरत का राज्याभिषेक कीजिये। इसमें मेरी अनुमति का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।" तब राम ने दशरथ ने कहा- "पिताश्री ! मेरे यहाँ रहने से भरत कदापि राज्यग्रहण नहीं करेगा। अतः आप मुझे वनवास स्वीकृति की आज्ञा दीजिये। इससे भरत राज्यग्रहण करेगा व आप ऋणमुक्त होकर संयम ग्रहण कर सकेंगे।" क्या आधुनिक युग के पुत्र की ऐसी सोच हो सकती है ? नहीं ! आज का पुत्र सब से पहले अपने अधिकार के लिए पिता से संघर्ष करेगा। हो सकें तो वह अपने पिता का स्वामित्व भी छीन ले, ताकि भविष्य में उसे ऐसे धर्मसंकट का सामना न करना पडे। आज के युग में पुत्र, पैतृक संपत्ति के लिये पिता को न्यायालय तक घसिटने में भी संकोच का अनुभव नहीं करता। अवसर्पिणी के पंचम आरे में और क्या नहीं हो सकता? राम की पितृभक्ति तो देखिये। अपने पिता के लिए उन्होंने राजसिंहासन, राजप्रासाद और राजवैभव का पल-भर में त्याग कर दिया। राम की उदारता, निःस्पृहता का कितना मनोज्ञ दर्शन होता है। जैनेतर रामायणों में तो कैकेयी ने दशरथ से दो वरदान माँगे थे। जिनमें भरत का राज्याभिषेक व राम के लिए वनवास माँगा था। राम का निवेदन श्रवण कर दशरथराजा प्रसन्न हुए। उन्होंने भरत को सत्वर राज्यग्रहण करने का आदेश दिया। किंतु भरत के मन में वैराग्य जागृत हुआ था। अतः उसने कहा, "पिताश्री ! मैंने पहले ही आपके साथ दीक्षा लेने के लिए अनुमति मांगी थी। आपसे प्रार्थना है कि आप किसी भी प्रकार मेरी दीक्षा का निषेध मत कीजिए। मैं तो आप ही के साथ दीक्षा ग्रहण करूँगा।" दशरथ ने कहा, "तुम अपनी माँ की एवं मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते, तुम्हारी माताश्री को मैं ने वरदान दिया था। क्या तुम चाहते हो कि वचनभंग का पाप मेरे मस्तक पर रहें ?" For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 12 राम, लक्ष्मण व सीता का वनप्रस्थान अपने पिता से वनवास की अनुमति पाकर राम धनुष्यबाण आदि लेकर वनवास के लिए चल दिये। पितृभक्त पुत्र के विरह की कल्पनामात्र से दशरथ राजा मूर्च्छित होकर गिर पडे । पुत्र के प्रति आत्यंतिक स्नेह होने के कारण इस प्रकार दशरथ राजा को बार-बार मूर्छा आना संभव ही नहीं, परंतु सामान्य है। राम कहने लगे, "माता ! आप तो क्षत्रियाणी हैं... सामान्य स्त्री की भाँति रोना आपके लिए योग्य नहीं। क्या सिंहनी का शिशु वन में अकेला नहीं विचरता? क्या उसकी माता सिंहनी अपने शिशु के लिए चिंतित रहती है ? हे माता ! मेरे पिताश्री अपनी वचनपूर्ति कर ऋणमुक्त बनें और संयम ग्रहण करे, इस हेतु मैं वनप्रस्थान कर रहा हूँ। यदि मैं यहाँ रहता हूँ, तो भरत राज्यस्वीकार नहीं करेगा, अतः मेरा यहाँ से प्रयाण करना आवश्यक है। इस तरह प्रेमयुक्त वचनों की वर्षा से कौशल्या की हृदयाग्नि शीतल कर तथा माता सुमित्रा, सुप्रभा एवं कैकेयी को यथोचित प्रणाम कर रामचंद्र वनवास के लिए चल दिए। रामचंद्र मनोविज्ञान के ज्ञाता थे। उन्होंने विचार किया कि, "पिता के वचनपालन के लिए मैं वनवास जा रहा हूँ, मेरे पिताजी को मेरे विरह की कल्पना मात्र से इतना आघात पहुँचा है, तो वात्सल्यस्वरूपा मेरी माताजी किस मनोदशा में होगी?" इसलिए कौशल्या को प्रणाम करते समय उन्होंने कहा, "माताश्री ! केवल मैं ही नहीं परंतु भरत भी आपका पुत्र है। मोक्षपथ के यात्री मेरे पिताजी की वचनपूर्ति भरत के राज्याभिषेक से ही होगी। यदि मैं यहाँ रहँगा, तो भरत कदापि राज्यग्रहण नहीं करेगा। चरितं रघुनाथस्य शतकोटीप्रविस्तरम् । एकैकं अक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ।। अतः मुझे स्वेच्छा से वनवास ही स्वीकार्य है। जब मैं यहाँ नहीं रहूँगा, तब आप अपनी अमृतदृष्टि से मेरे अनुज भरत का अभिसिंचन करें ! हे माता... मुझ में एवं भरत में कुछ भी अंतर नहीं हैं।" यह वचन तनिक भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। यदि रामचरित्र के अक्षरमात्र से हम कुछ प्रेरणा प्राप्त करें, तो हमारे महापातकों का विनाश हो सकता है। राम का विनय ही देखिये। जिस माता कैकेयी के कारण इतना उपद्रव मचा, उनके लिए राम ने कभी भी कोई कटुवचन नहीं कहा, किंतु वे उनका यथायोग्य आदर करते रहे। वनगमन के पहले उन्होंने माता कैकेयी को भी प्रणाम किया। राम का औदार्य, सौहार्द एवं बंधुप्रेम की अनुभूति करते करते अचानक रानी कौशल्या मूर्च्छित हो गई। दासी ने शीतल चंदन जल से उनका अभिसिंचन किया, तब उन्हें होश आया और वे विलाप करने लगी, "हाय ! मैं क्यों इस तरह जी रही हूँ ? राम के विरह की व्यथा मैं कैसे सह पाऊँगी? एक तरफ पति संयममार्ग के यात्री बनने जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ पुत्र वनवास के लिए जा रहा है ! आर्यनारी की विशेषता यह है कि वह काया वाचा मन से पति के प्रति समर्पणभाव रखती है। राम, जब वनगमन के लिए चल दिए, तब सीताजी ने यह न सोचा कि, अभी अभी मुझे ब्याह कर घर लाए हैं और पिता की वचनपूर्ति के लिए वनवास जा रहे हैं। इतनी वेदनाओं का सामना कर मेरा हृदय अभी भी अक्षुण्ण क्यों है? मृत्यु ही मेरे सर्व दुःखों को समाप्त कर सकती है... परंतु वह मुझपर अभी भी दया क्यों नहीं कर रही है? आखिर किसलिए मैं यह अर्थहीन जीवन जी रही हूँ?" इतना बड़ा निर्णय लेने के पहले मुझसे बात करना तक उचित नहीं समझा ! जो उनके मन में आया वही करते हैं। अपने राज्याधिकार की कोई किंमत नहीं है। स्वयं वनवास जा रहे हैं? यह भी नहीं सोचते कि मेरा यहाँ क्या होगा? ऐसे विचार आज की नारी ही कर सकती है सीता नहीं!... सीता सती व समर्पित थी। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्रवधू के लिए पुत्री से भी अधिक प्रेमभाव रखनेवाली कौशल्या ने कहा, "हे भद्रे ! विनीत राम तो पितृप्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए वनगमन कर रहा है। वह नरशार्दूल है, अतः वनवास के कष्ट उसके लिए असह्य नहीं। किंतु हे वत्से ! तुम तो शैशव से उत्तमोत्तम सुखसुविधाओं में पली हो, वनवास के कष्टों को कैसे सह पाओगी? वन के काँटे, कंकर तुम्हारे पदकमलों को लहूलुहान करेंगे । सूर्यतेज का प्रचंड प्रकोप तुम कैसे सह सकोगी? वर्षा एवं शीत तुम्हारी कोमल काया पर क्या क्या अत्याचार नहीं करेंगे। हे आर्ये ! तुम्हें कायिक एवं मानसिक कष्टों से जर्जर होते हुए देखकर राम को भी भारी दुःख होगा। फिर भी हे सीते! तुम अपने पति की सहचरी हो, सुख दुःख में पति का साथ देना अपना कर्तव्य समझती हो। इसलिए वनपथ पर राम की अनुगामिनी बनने की तुम्हारी इच्छा का मैं निषेध कतई नहीं करूँगी, किंतु तुम्हें वनगमन के लिए मैं अनुमति भी नहीं दे सकती। तुम्हारे वनवास की कल्पनामात्र से मेरा रोमरोम कंपायमान हो रहा है।" MUUUN कौशल्या से वनवास की अनुमति माँगती सीता विनयशीला सीता दशरथराजा को प्रणाम कर माता कौशल्या के समीप आई और बद्धांजली उसने नम्रता से कहा, "माताजी ! क्या शरीर और आत्मा अलग रह सकते हैं? क्या प्रकृति व पुरुष एकदूसरे से अलग हो सकते हैं ? अग्निसमक्ष मैंने हर सुखदुःख में आर्यपुत्र का साथ निभाने का प्रण किया है। वे वन जा रहे हैं । वन में वे फलाहार करेंगे, पर्णशय्या पर शयन करेंगे और यहाँ मैं प्रासाद में रहकर उत्तमोत्तम अन्न एवं मुलायम शय्या जैसे सुखसाधनों का उपभोग कैसे ले सकती हूँ ? अतः मुझे वनगमन कर अपना पत्नीधर्म निभाने के लिए अनुमति दीजिए।" कौशल्या व्यवहारिक धर्म का मर्म जानती है। पुत्रवधू के प्रति उन्हें वात्सल्य एवं अनन्य करुणाभाव है। प्रासाद में पली जानकी को वनजीवन में कितने कष्ट भुगतने पडेंगे? इसके विचारमात्र से वह काँपती है, परंतु स्वयं कर्तव्यदक्ष पत्नी होने के नाते पत्नीधर्म भी जानती है। पति-पत्नी का अलग होना शरीर और छाया का अलग होना है, यह वे जानती है। अतः उसने जानकी को भले ही वनगमन के लिए अनुमति न दी किंतु उनके निर्णय का निषेध भी नहीं किया। बरसों तक अपने लाडले लाल पर जीव न्योछावर करनेवाली, बहुतांश माताएँ बहू को अपना शत्रु ही मानती हैं। इसीलिए गुजरात के लोकजीवन में एक कहावत आई है - "जे आँखमाथी पडावे आँसु, For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 तेनुं नाम सासू" कौशल्या क्षत्रिया थी, उत्तम कुलोत्पन्ना थी, पूर्वभव के 5 पुण्य से उनका परिणय प्रथम जिनेश्वर के वंश में हुआ था। इन्हीं कारणों से उनके व्यक्तित्व में झलकती साहसिकता दृष्टिगोचर होती है। रामायण के अधिकतर पात्र किसी न किसी आदर्श से जुड़े हैं। वनवास के लिए सज्ज अपने प्राणनाथ से सीता यह नहीं कहती, किससे पूछकर आपने यह निर्णय लिया ? आपको वन में जाना है, तो जाईये, मैं क्यों आपके साथ चलूँ ? मुझसे पूछे बिना राज्याधिकार छोड दिया और अब जोगी बन रहे हैं। मैं क्यों यह प्रासाद और सुखसुविधाएँ छोडूं ? कौशल्या की बात सुनकर शोकरहित सीता, कौशल्या को प्रणाम कर बोली, “आपके प्रति मेरी भक्ति सदा कल्याणकारी रहेगी। मुझमें कष्ट सहने का अंशमात्र सामर्थ्य नहीं है, परंतु आपकी भक्ति व आशीर्वाद में महाचमत्कारी शक्ति गुहारूप से स्थित है। उसके माध्यम से मेरे सभी कष्ट सुसह्य बनेंगे। पुष्पसुगंध जिस प्रकार पवन का अनुसरण करती है, उसी प्रकार मैं भी राम का अनुसरण करूंगी !" राम के वनवास का समाचार सुनते ही लक्ष्मण का क्रोधाग्नि प्रज्वलित हुआ, वे विचार करने लगे, "मेरे पिताश्री का स्वभाव सरल है, वे तो भरत को राज्य सौंपकर ऋणमुक्त बन गए हैं। किंतु मैं शांत नहीं रह सकता... मैं तो भरत से राज्य छीनूँगा व पुनः राम को सौंप दूंगा... परंतु यदि मैं ऐसा करता हूँ, तो क्या राज्यवैभव को तृणवत् मानकर उसे त्याग ने वाले मेरे भ्राता राम उसे पुनः स्वीकार करेंगे ? नहीं.. कदापि नहीं... और मेरे मुमुक्षु पिताश्री को ऐसा करने से कितना कष्ट होगा ? इससे तो यह योग्य है कि भरत का राज्याभिषेक हो...। मैं राम का अनुज हूँ. भ्रातृसेवा मेरा कर्तव्य है.. मैं एक सेवक की भाँति अपने भ्राता की परछाई बनूँगा।" मन ही मन में यह निश्चय कर लक्ष्मण ने अपने पिता दशरथ को प्रणाम किया और फिर माता सुमित्रा को प्रणाम कर विनयपूर्वक पूछा, "पितृवचन पूर्ण करने के लिए भ्राता श्री वन की ओर चल दिए हैं .... मैं उनका सेवक हूँ ? तो क्या मैं भी उनका अनुसरण करने के लिए वनप्रयाण करूँ ?" सुमित्रा का हृदय विशाल था। उन्होंने कहा, “पुत्र ! अपने ज्येष्ठ भ्राता का अनुसरण करने के लिए तुम तत्पर हो..... तुम्हें मैं कैसे रोक सकती हूँ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ..। किंतु राम तो कब के वनप्रयाण कर चुके हैं... तुम सत्वर निकलो.... ताकि तुम दोनों के बीच अंतर न बढे" सुमित्रा राम की सौतेली माता थी... परंतु राम के लिए कितना प्रेम उमड़ रहा था उनके अंतःकरण में । सुमित्रा से आशीर्वाद पाकर लक्ष्मण कौशल्या को प्रणाम करने गए। कौशल्या के नैत्रों से अभी भी अश्रुधाराएँ बह रही थी। वह बोली, "मेरा पुत्र मुझ अभागिनी को त्यजकर वनवास के लिए चला गया। मेरे क्षतविक्षत हृदय को तुम्हारा ही आधार है। पुत्र.. राम तो जा चुका है... कम से कम तुम तो यहाँ रह जाओ", लक्ष्मण ने कहा, "आप तो राम की माता हो सामान्य स्वी की भाँति दुःखी क्यों हो रही हो ? मैं सदैव राम के अधीन था, अधीन हूँ एवं अधीन रहूँगा । आप धैर्य धारण करें व मुझे अनुमति दें।" राम आदि का वन प्रयाण वन की तरफ प्रस्थान करने वाले राम, लक्ष्मण, सीता को देखकर पौरजनों, की आँखों से आँसू बहने लगे। पिता के आज्ञापालन के लिए राम, पति सेवा के लिए सीता और भ्रातृभक्ति के लिए लक्ष्मण वन गमन कर रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था, मानो अयोध्या के पंचप्राण ही उन महात्मात्री के साथ साथ अयोध्या को त्याग कर अनंतयात्रा के लिए निकल रहे हो.... अयोध्यानगरी के अभिजन, महाजन एवं सामान्यजन आँसू बहाते हुए राम, लक्ष्मण, जानकी के पीछे पीछे जा रहे थे। वे क्रूर कैकेयी और अपने भाग्य को कोस रहे थे। दशरथराजा भी अपनी रानियों के साथ राम के पीछे वन पहुँच गए। अयोध्यानगरी वीरान हो गई। राम ने अपने माता-पिता एवं पौरजनों को विनयपूर्ण वाणी से समझाबुझाकर पुनः अयोध्यानगरी की ओर रवाना किया। अयोध्या में भरत ने राज्याभिषेक के लिए अनिच्छा व्यक्त की। अपने भ्राता के विरह का उन्हें इतना तीव्र आघात लगा कि पुत्र की मर्यादाओं का भी उन्हें विवेक न रहा। अतः अपनी माता कैकेयी For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Merca Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 13 कैकेयी का पश्चात्ताप व भरत का राज्याभिषेक पर वे अत्यंत क्रोधित हुए। भरत की मनःस्थिति देखकर दशरथराजा ने सत्वर राम, लक्ष्मण एवं सीता को पुनः बुलवाने के लिए मंत्रियों को रवाना किया। उन्होंने राम से पुनरागमन के लिए दीनभाव से प्रार्थना की। किंतु राम टस से मस नहीं हुए। फिर भी वे निराश नहीं हुए। वे तो राम के पीछे पीछे चलने लगे। आशा तो वह संजीवनी है, जो मानव को मृत्यु से लड़ने की शक्ति देती है। किसीने क्या खूब कहा है - आशा नाम मनुष्याणां कश्चिदाश्चर्यशृंखला। तया बद्धाः प्रधावन्तो मुक्तास्तिष्ठन्ति पंगुवत्। अर्थात् आशा नाम की डोर से बंधे मनुष्य क्रियाशील रहते हैं, और जो उसे छोड़ दे, वे अपंगवत् निष्क्रिय हो जाते हैं। उसके बाद अयोध्या में दशरथ राजा ने भरत को समझाया, “अब राम, लक्ष्मण सीता के पुनः लौटने की कोई संभावना नहीं है। अतः तुम राज्यग्रहण करो, ताकि मेरी दीक्षा में अवरोध न आए।" भरत ने कहा, “किसी भी परिस्थिति में मैं राज्यग्रहण नहीं करूंगा। मैं स्वयं वनगमन करूँगा व अपने भ्राता को मनाकर पुनः अयोध्या लाऊँगा । यह वार्तालाप हो ही रहा था, इतने में कैकेयी वहाँ आई व राजा दशरथ से कहने लगी “आर्यपुत्र ! आपने अपने वचनानुसार भरत को राज्य दे दिया है, अतः आपकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई, आप ऋणमुक्त हो चुके हैं। किंतु विनयशील भरत को राज्यग्रहण करने में कतई रुचि नहीं है। मुझे एवं अन्य माताओं को दुःख की तीव्र अनुभूति हो रही है। मैं पापिणी हूँ - अविचारी हूँ। आप सपुत्र हैं, फिर भी आज राज्य राजा से विहीन है। जिस प्रकार पतिविहीन नारी का अस्तित्व निरर्थक है, उसी प्रकार राजविहीन राज्य का अस्तित्व निरर्थक है। हे मेरे सुपुत्र ! तुम्हारे जाते ही मेरे प्राण क्यों नहीं चले गये ? कहते हैं "कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।" अरे कोई मुझे देखो... मैं अभागिनी सुपुत्र की कुमाता हूँ। नाथ ! आप मुझे अनुज्ञा दीजिए, मैं भरत के साथ जाकर मेरे पुत्रों एवं पुत्रवधू को मनाकर ले आऊँगी।" आशा नामक शृंखला में बद्ध मंत्रीगण राम के पीछे-पीछे चलते चलते एक अटवी के नजीक आए। वहाँ भयानक आसुरी दिखनेवाले वृक्ष थे। मंत्रीगण ने कभी इतने भयानक वृक्ष देखे नहीं थे। उस अटवी में गंभीरा नामक एक नदी बहती थी। वहाँ पहुँचते ही राम ने मंत्री एवं सामंतो को पुनः अयोध्या लौटने की विनति की। उन्होंने कहा, “यहाँ से आगे पथ अतिभयानक एवं कष्टकारी है। अतः आप लौट जाइए। अयोध्या पहुँचकर हमारे माता-पिता को हमारा क्षेम-कुशल समाचार तथा प्रणाम पहुँचाइए। आज तक जो सम्मान मेरे पूजनीय पिताश्री एवं मुझे देते आए हो, वह ही सम्मान मेरे अनुज राजा भरत को दीजिए।" इतना कहकर राम आगे चलने लगे। "रामचंद्र की सेवा के लिए हम अयोग्य हैं... हमें धिक्कार हो" इस प्रकार विलाप करते करते नदी के तट पर खडे रहे हुए वे रामचंद्रजी को देखते रहे। दुस्तर गंभीरा नदी पार कर शनैः शनैः घने वृक्षों के झुरमुट में राम, लक्ष्मण, सीता अदृश्य हुए। मंत्री व सामंतगण दुःखित हृदय से पुनः लौटे। आते ही उन्होंने दशरथ राजा से समस्त वृत्तांत कहा। राजा दशरथ ने उन्हें सहर्ष अनुज्ञा दी। भरत एवं मंत्रियों के साथ कैकेयी छः दिन में राम के पास पहुँची । एक वृक्ष तले राम, लक्ष्मण व सीता को देख वह रथ से नीचे उतरी । “हे पुत्र... पुत्र' कहते उन्होंने प्रणाम करते हुए राम का मस्तक चूम लिया व विलाप करने लगी। फिर उस ने लक्ष्मण एवं सीता को आलिंगन दिया। नेत्रों से निरंतर अश्रु, बहाते हुए भरत, राम को प्रणाम करते करते बेहोश हो गए। राम ने उन्हें उठाया। चेतना लौटते भरत कहने लगे, "आपने तो अभक्तों की भाँति मुझे त्याग दिया व यहाँ आए। क्या आप भी मानते हैं कि भरत राजा बनने की लालसा हृदय में रखता है। अपनी माता के कारण मैं भी निंदनीय बना हूँ... आप मुझे अपने साथ ले चले व लोकापवाद से मेरी रक्षा कीजिये । आप, सौमित्र व जानकी पुनः अयोध्या पधारें व राज्यलक्ष्मी को ग्रहण करें। यदि आप ऐसा करेंगे, तो मैं लोकनिंदा से मुक्त हो जाऊँगा। जब आप अयोध्याधिपति बनेंगे, तब जगन्मित्र भ्राता लक्ष्मण आपके मंत्री बनेंगे। यह भरत आपका For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिहारी सेवक बनेगा व अनुज शत्रुघ्न आपका छत्रधारी बनेगा।" अचानक कैकेयी बोली, “हे वत्स राम...! अपने अनुज भरत की यह विनति मान्य करो! तुम्हें वनवास दिलाने के लिए उत्तरदायी न आर्यपुत्र दशरथ है न भरत । यदि कोई है तो मैं ही हूँ मैं ही दोषों की खानि हूँ । चारित्रहीनता को छोड़कर अन्य समस्त दोष तुम्हारे इस अभागिनी माँ में है। मैंने अपने पति, पुत्र व अन्य रानियों को दुःख देने का घिनौना कार्य किया है, हे पुत्र ! मुझे क्षमा करो। " PILIP For Personal & Private Use Only भरत का जंगल में राज्याभिषेक दुःख से फूट-फूट कर रोनेवाली अपनी माता से राम ने कहा, "क्षत्रिय का शर व वचन एक बार निकलकर पुनः लौटता नहीं है। माता ! मैं दशरथपुत्र हूँ व क्षत्रिय भी हूँ। क्या आप चाहती हैं कि पिताश्री एवं मुझपर वचनभंग का दोष लगें ? पिताश्री ने अनुज भरत को राज्य सौंपा है। उनके निर्णय को मेरी अनुमति है। अपने वचन का भंग करके हम जीवित मृत बन जायेंगे । हम दोनों चाहते हैं कि भरत ही राजा बनें। ज्येष्ठ भ्राता पितासमान होता है। हम दोनों की आज्ञा का उल्लंघन करना भरत के लिए योग्य नहीं है।" इतना कहकर राम ने सीता के द्वारा लाये गये जल से सभी मंत्री एवं सामंतो की साक्षी में उसी स्थान पर भरत का राज्याभिषेक किया। कैकेयी को मधुर भाषण से सांत्वना देकर तथा प्रणाम कर राम ने उन्हें पुनः प्रस्थान करने के लिए कहा। उन्होंने मितशब्दों में भरत को भी राजकर्तव्यों से परिचित किया। माता एवं अनुज के प्रस्थान के पश्चात् राम, लक्ष्मण व जानकी दक्षिण दिशा में चलने लगे। पिता व पितासमान भ्राता इन दोनों का आदेश शिरोधार्य मानकर भरत पुनः अयोध्या पधारे। राज्य का पदभार उन्होंने आनंद से नहीं, अपितु दुःखित हृदय से ग्रहण किया। वे अपने आप को राम का सेवक मानते थे। अतः राम की धरोहर (अमानत ) मानकर राज्यग्रहण किया। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KUD LOD दशरथ की दीक्षा उसके बाद राजा दशरथ एवं बहत्तर (७२) सुभटों ने मुनिश्री सत्यभूति से संयम का अंगीकार किया व विशिष्ट साधना में लौलीन हो गए । अपने पूज्य भ्राता के विरह से दुःखी भरत, अरिहंत परमात्मा की आराधना में उद्यमवंत बने । उन्होंने यह अभिग्रह किया कि जब रामचंद्रजी पुनः अयोध्या लौटेंगे, तब मैं दीक्षा ग्रहण करूँगा। For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 अवंति प्रदेश में परोपकारी राम, सौमित्र एवं जानकी का प्रवेश अयोध्या की सीमाओं से निकलकर चित्तौड होकर राम, लक्ष्मण एवं सीता ने अवंति देश में प्रवेश किया। यात्रा में सीता काफी थकी थी। अतः एक वटवृक्ष की छाया में वे सब विश्राम करने के लिए बैठ गए चारों दिशाओं में विहंगावलोकन करने पर उन्हें ज्ञात हुआ जैसे यह प्रदेश अभी अभी उजड़ गया हो। कुतूहलवशात् राम ने एक पथिक से इसका कारण पूछा, तब पथिक ने कहा कि "अवंति प्रदेश में सिंहोदर नामक राजा है, उसका सामंत वज्रकर्ण दशांगपुर में राज्य करता था। उसने प्रीतिवर्धन मुनिराज से नियम लिया कि वह अरिहंतप्रभु एवं साधु के अलावा अन्य किसी को प्रणाम नहीं करेगा। किंतु सामंत राजा होने के कारण उसे सिंहोदर राजा को प्रणाम करना पड़ता था। अतः उसने भगवान मुनिसुव्रतस्वामी की मूर्ति, अपनी मुद्रिका (अंगुठी) में बनवाई। जब कभी वह राजा को नमस्कार करता, तब उनके नेत्र मुद्रिकास्थित मुनिसुव्रतस्वामी की मूर्ति पर स्थिर रहते। वह वीतराग प्रभु को बद्धांजली मुद्रा से प्रणाम करता और राजा मानता कि वज्रकर्ण उसे ही प्रणाम करता है। इसका लाभ यह था कि न सामंत का नियमभंग होता, न राजा के अभिमान को ठेस पहुँचती। एक दिन सिंहोदर राजा को यह वास्तविकता ज्ञात हुई। वह शुद्ध भक्ति को कपट समझ बैठा, उसका क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो गया व उसने वज्रकर्ण सामंत की हत्या करने का प्रण किया। एक श्रावक द्वारा वज्रकर्ण को इस बात का पता चला और उसने सिंहोदर राजा से कहलवाया, मुझे मिथ्या अहंकार नहीं है, किंतु मैं नियम में बद्ध हूँ, अतः आपको प्रणाम नहीं करता। यह सुनते ही सिंहोदर राजा ने दशांगपुर को घेर लिया है। अतः प्रजाजन बाहर चले जाने से यह बाहरी प्रदेश उजड़ा हुआ दिखता है।” यह सुनकर कौशल्येय राम, लक्ष्मण व सीता दशांगपुर आए। राम ने लक्ष्मण को सिंहोदर राजा की सभा में भेजा। उन्होंने सिंहोदर राजा से कहा, "हे राजन् ! आपका सामंत वज्रकर्ण अभिग्रह के कारण आपके समक्ष नतमस्तक नहीं होता। अतः आप से अनुरोध है कि उन पर क्रोध न करें। यह राजा भरत का संदेश है।" भरत का संदेश ! यह सुनते ही सिंहोदर राजा क्रोधित हुआ । उसने उच्च स्वर में कहा, "वज्रकर्ण का पक्षपात करनेवाला यह भरत कौन है ? यह मैं नहीं जानता और नहीं मैं उस मूर्ख को जानता हूँ जो उसका संदेशवाहक बनकर मेरे समक्ष आने का दुःसाहस कर बैठा है।" लक्ष्मण द्वारा बंदी बनाया गया सिंहोदर राजा राम के समक्ष 41 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 यह सुनकर लक्ष्मण कुपित हुए। क्रोध से उनके नेत्र आरक्त बनें। अपने दाँतो को भींसकर वे बोले, “हे मूर्ख ! अब तक मैं अपने राजा का दूत बनकर तेरा सम्मान कर रहा था, परंतु तू सम्मान के योग्य नहीं है। उठ ! मैं तुझे युद्ध के लिए आह्वान करता हूँ ! सावधान...." लक्ष्मण की चुनौती सिंहोदर ने स्वीकार कर सेना सहित उस पर आक्रमण किया। लक्ष्मण अपने भुजाबल से हस्तियों का आलानस्तंभ (हाथी बाँधने के लिए बनाये गए स्तंभ) कमलनाल की भाँति उखाड़ कर उनसे शत्रुओं पर प्रहार करने लगे। देखते देखते समस्त सेना हतवीर्य एवं हतोत्साह बन गई। एक ही छलांग मारकर लक्ष्मण हाथी पर आरुढ हुए व सिंहोदर राजा की ग्रीवा में उसका उत्तरीय वस्त्र बाँधकर पशु की तरह अपने भ्राता के समक्ष लाए। 15 Jain Educatio 20480 रामचंद्रजी को देखते ही सिंहोद राजा ने विनम्र होकर उन्हें प्रणाम किया व क्षमायाचना की। राम ने राजा वज्रकर्ण व राजा सिंहोदर की संधि करवायी। राजा सिंहोदर ने अपना आधा राज्य वज्रकर्ण को दिया। इस प्रकार इस बंधुद्वय ने निःस्वार्थभाव से साधर्मिक एवं धर्मनिष्ठ वज्रकर्ण की सहायता की। वज्रकर्ण ने आठ कन्याएँ व सिंहोदर ने तीन सौ कन्याएँ लक्ष्मण को वाग्दानद्वारा दी। लक्ष्मण ने उन्हें आश्वासन दिया कि अयोध्या पुनरागमन के समय निश्चित उन तीनसौ आठ कन्याओं का पाणिग्रहण करेंगे। इसके पश्चात् वे मलयाचल की दिशा में चल दिए । गोकर्ण यक्ष द्वारा सेवा 'For Personal & Private Use Only दिलीप साकरिया 8/97 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्महत्या का प्रयास राम, लक्ष्मण, सीता वहाँ से निकल कर अनेक ग्राम व नगर पार करते हुए एक बड़े वन में पहुँचे। वर्षाऋतु का आरंभ होने के कारण वे एक विशाल वटवृक्ष के तले रुक गए। वहाँ इभकर्ण नामक एक यक्ष रहता था। राम के रूप, तेजस्विता एवं भाषण से उसके मन में भय निर्माण हुआ । इसलिए वह गोकीर्ण यक्ष के पास पहुँचा । गोकीर्ण यक्ष अवधिज्ञानी था। अतः उसे इन पुण्यशाली व पराक्रमी बंधुद्वय की सभी विशेषताएँ तथा आगमन के विषय में संपूर्ण जानकारी हुई। इतना कहकर कंठ में पाश बांधकर वह वृक्ष से लटकने लगी। उसकी प्रार्थना सुनते ही लक्ष्मण ने कहा, "हे आयें ! ऐसा दुःसाहस मत कीजिये ! क्या आप जानती नहीं कि आत्महत्या महापाप है। मैं ही वह लक्ष्मण हूँ, जिसका आपने चयन किया है।" उन्होंने पाश तोड़कर राजपुत्री को वृक्ष से नीचे उतारा। गोकीर्ण यक्ष ने नगरी बसाई उस यक्ष ने अपने दैविक शक्ति का विनियोग कर एक ही रात्रि में अडतालीस कोस लंबी व छत्तीस कोस चौडी एक नगरी बसायी, व उसका नाम 'रामपुरी' रख दिया। गोकीर्ण यक्ष की विनति सुनकर रामचंद्रजी ने चातुर्मास वहाँ बीताया। चातुर्मास संपन्न होते ही गोकीर्ण यक्ष ने राम को स्वयंप्रभ हार, लक्ष्मण को रत्नकुंडलद्वय व सीता को चूडामणि तथा वीणा सौगात के तौर पर दी। चातुर्मास के पश्चात् वे आगे चल दिए। वन पार कर तीनों संध्या के समय विजयनगर की सीमाओं के बाहर एक बगीचे में वटवृक्ष तले रुके। उस नगर के राजा महीधर और रानी इन्द्राणी की वनमाला नामक एक पुत्री थी। शैशव से उसने लक्ष्मण के रूप, गुण एवं पराक्रम की प्रशंसा सुनी थी। वह मनोमन लक्ष्मण को अपना पति भी मानने लगी। दशरथ की दीक्षा व राम, लक्ष्मण और जानकी के वनवास के समाचार सुनकर राजा महीधर दुःखी हो गए थे। अतः उन्होंने चंद्रनगर के राजा वृषभ के सुपुत्र सुरेन्द्र से अपनी कन्या का विवाह निश्चित किया। यह जानकर वनमाला ने आत्महत्या करने का निर्णय किया। रात्रि के समय वह राज्य की सीमाओं के बाहर प्रातः उन्होंने पूर्ण हकीकत भ्राता राम को सुनायी। प्रातः उसी उद्यान में आई। वटवृक्ष पर चढ़कर उसने अपने ही उत्तरीय वस्त्र राजा महीधर अपनी कन्या को ढूंढते ढूंढते वहाँ आ गये। आंगतुकों को देखकर उन्हें लगा कि वे चोर है। अतः उन्होंने राम-लक्ष्मण पर आक्रमण से कंठपाश बनाया व वटवृक्ष की शाखा से बांध दिया। उस समय राम किया। उनका पराक्रम देखते ही राजा को ज्ञात हुआ कि वे दोनों कोई व सीता निद्राधीन थे। परंतु लक्ष्मण जाग रहे थे। सामान्य युवक नहीं है। अतः उन्होंने युवकों से अपना परिचय पूछा। वनमाला ने वनदेवता से प्रार्थना की, "हे वनदेवता...! इस जब उन्हें पता चला कि वे युवक राम और लक्ष्मण हैं, तो उन्होंने हाथ जन्म में तो मैं लक्ष्मण की पत्नी न बन पाई, कम से कम समस्त भावी जोड़कर लक्ष्मण से अपनी पुत्री स्वीकारने का अनुरोध किया। राजा जन्मजन्मांतर में केवल लक्ष्मण ही मेरे पति बनें, यह वरदान महीधर ने उन्हें अपने प्रासाद बुलाकर उनका सम्मान किया। कुछ दीजिए।" दिन प्रासाद में रहकर राम ने राजा से गमन के लिए अनुज्ञा माँगी। For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम, लक्ष्मण व सीता विहरते विहरते वंशशैल्य पर्वत तट पर स्थित वंशस्थल नगर आए। वहाँ पर राजा से लेकर सामान्य प्रजा तक समस्त जन भयभीत दीख रहे थे। राम ने इस विषय में एक पुरुष से चर्चा की, तब ज्ञात हुआ कि गत तीन रात्रि से पर्वत पर भयंकर कोलाहल चल रहा था। इससे आतंकित सभी जन अन्य स्थान पर रात्रि व्यतीत कर प्रातः पुनः लौटते थे। राम, लक्ष्मण एवं सीता ने पर्वतारोहण किया। पर्वत शिखर पर उन्हें जयभूषण एवं कुलभूषण मुनि के दर्शन हुए। उन तीनों ने मुनियों के समक्ष गीत नृत्यादि प्रस्तुत किये। MARA लक्ष्मण ने वनमाला को वचन दिया लक्ष्मण भी गमन के लिए तैयार हो गए तब वनमाला ने कहा, "हे प्राणनाथ...! इतना दुःख भुगतने के पश्चात् आप मुझ अभागिन को मिलें, अब मैं आपका विरह सहनहींपाऊँगी। मैं आपकी अनुगामिनी बनना चाहती हूँ। आप मुझसे ब्याह करें व अपने साथ ले चलें।" लक्ष्मण ने कहा, “सांप्रत में अपने भ्राता व भाभी की सेवा में तत्पर हूँ, यदि आप मेरे साथ रहोगी, तो मैं न अपना सेवकधर्म निभा पाऊँगा नही पतिधर्म। इससे मेरे भ्राता, भाभी, एवं आप- तीनों पर अन्याय होगा। अतः आप यहीं रहें। जब मेरे भ्राता इष्ट स्थान प्राप्त करेंगे, तब मैं अवश्य आपको लेने यहाँ आऊँगा । यदि मैं वनचभंग करूँ, तो मुझे रात्रिभोजन का पाप लगें।" शास्त्रों में रात्रि भोजन को महापाप एवं नरक का द्वार कहा गया है। For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 जटायुसे मिलन राम-लक्ष्मण द्वारा उपसर्ग का निवारण सूर्यास्त के पश्चात् अनंगप्रभ नामक देव उस स्थान पर आया। उसने उपद्रव आरंभ किया। राम व लक्ष्मण उसे मारने के लिए उद्यत बने। उनके क्षात्रतेज को सहना देव के लिए अशक्य हो गया, अतः वह वहाँ से भागा । मुनिद्वय को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। त्रिगुप्त मुनि का राम आदि को प्रवचन । दंडकारण्य में महागिरि की एक गुफा को इस त्रिपुटी ने अपना अस्थायी आवास बनाया। एक दिन त्रिगुप्त व सुगुप्त नामक दो चारण मुनि आकाशमार्ग से मासक्षमण तप के उद्यापनार्थ वहाँ पधारे । राम लक्ष्मण ने उन्हें वंदन किया व सुपात्र दान का लाभ लिया। देवों ने वहाँ आकर केवलज्ञान महोत्सव मनाया । वंशस्थल के राजा सूरप्रभ भी वहाँ पधारे और राम का सम्मान व आदरसत्कार किया। उस पर्वत पर अहँत प्रभु का चैत्य बनवाया। तब से वंशशैल्य पर्वत रामगिरि नाम से प्रसिद्ध हुआ। रामगिरि से निकलकर रामचंद्र, लक्ष्मण व सीता ने दंडकारण्य में प्रवेश किया। उस समय प्रसन्न होकर देवों ने स्वर्लोक से रत्न एवं सुगंधित जल की वृष्टि की। उसी समय कंबुद्वीप के विद्याधरों के राजा रत्नजटी व दो देव भी वहाँ पधारे। उन्होंने प्रसन्न होकर राम को अश्वों सहित उत्तम रथ अर्पण किया । सुगंधित जलवृष्टि से आकृष्ट होकर गंध नामक एक रुग्ण पक्षी वृक्ष से नीचे उतरा । मुनि के दर्शनमात्र से उसे जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ। वह बेहोश होकर गिर पड़ा। सीता ने उसके शरीर पर शीतल जड छींटका। होश में आते ही उसने मुनियों के चरणों को स्पर्श किया। मुनि के स्पौषधि लब्धि के माध्यम से वह तत्काल निरोगी बना। उसके पंख कंचनमय बने व मस्तक पर रत्नांकुर की श्रेणीसमान जटा बन गई। इससे उसका नाम जटायु रखा गया। राम ने मुनि से पूछा, "मांसभक्षक यह पक्षी आपश्री के चरणों में आते dan Edugalon Iternational For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ही शांत क्यों हुआ?'' तब मुनिराज ने उस पक्षी के पूर्वजन्म की घटना सुनाई। उसे सुनते ही जटायु ने पुनः मुनि के चरणों में प्रणाम किए और धर्मश्रवण से मांसत्याग व रात्रिभोजन त्याग का पच्चक्खाण लिया। मुनिराज ने राम से कहा, “आज से यह पक्षी आपका साधर्मिक हो चुका है। अतः इसकी सारसंभाल का उत्तरदायित्व आपके स्कंधों पर है।" इतना कहकर मुनियों ने आकाशगमन किया। राम ने लक्ष्मण, सीता व जटायु को अपने साथ रथ में बिठाया व आगे रवाना हुए। रावण की बहन शूर्पनखा का ब्याह खर नामक राजा के साथ हुआ था। उसके शंबूक व सुंद नामक दो पुत्र थे। पिता की इच्छा के विरुद्ध शंबूक दंडकारण्य में सूर्यहास खड्ग की साधना करने गया था। बाँस की झाडी वाली गुफा में बारह वर्ष व सात दिन साधना करने से ही सूर्यहास खड्ग सिद्ध होता है। शंबूक ने बारह वर्ष व चार दिन की साधना पूर्ण की। साधना संपन्न होने में अब केवल तीन दिन शेष थे। साधना के कारण सूर्यहास खड्ग आकाश में प्रगट हुआ। सीता का अपहरण झाडी की गुफा में रहे शंबूक की गर्दन लक्ष्मण द्वारा कट गई। वनक्रीडा करते करते लक्ष्मण उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ चारों दिशाओं मे किरण बिखरती थी। उन किरणों से व्याप्त सूर्यहास खड्ग देखते ही उनके मन में कुतूहल जगा। वैसे, नया शस्त्र देखते ही क्षत्रिय के मन में उसे पाने की व उसका प्रयोग करने की तीव्र इच्छा जगती है। लक्ष्मण ने खड्ग प्राप्त किया व बाँस की झाडीवाली गुफा पर प्रहार किया। प्रहार करते ही शाखा से लटके हुए शंबूक का मस्तक कट कर धरती पर गिरा, मस्तकविहीन कबंध अभी भी शाखा पर लटक रहा था। Jain जटायु के पूर्वजन्म के लिये पढिये परिशिष्ट क्र. ४ For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 लक्ष्मण के साथ खर का युद्ध विवाह के प्रस्ताव की अस्वीकृति एवं पुत्रवध के दुःख से क्रुद्ध वह शूर्पणखा अपने पति के समक्ष गई व उन्हें पुत्रहत्या का वृत्तांत सुनाया। कुपित खरराजा चौदह सहस्र विद्याधरों की सेना लेकर वंहा युद्ध करने आए। लक्ष्मण ने राम से सीता के निकट रहने का अनुरोध किया व स्वयं ने युद्ध हेतु जाने के लिए अनुमति प्राप्त की। DAIRS राम ने कहा, "अनुज ! यशस्वी भव ! तुम विजयी बनोगे, यह मेरा केवल आशीर्वाद ही नहीं अपितु आत्मविश्वास भी है। फिर भी यदि तुम पर कोई घोर संकट आता है, तो सिंहनाद करना। मैं सत्वर तुम्हारी सहायता के लिए दौड आऊँगा।" For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 LIP SON 29/9/99 2 For Personal & Private Use Only लक्ष्मण के साथ खर का युद्ध विवाह के प्रस्ताव की अस्वीकृति एवं पुत्रवध के दुःख से क्रुद्ध वह शूर्पणखा अपने पति के समक्ष गई व उन्हें पुत्रहत्या का वृत्तांत सुनाया । कुपित खरराजा चौदह सहस्र विद्याधरों की सेना लेकर वहा युद्ध करने आए। लक्ष्मण ने राम से सीता के निकट रहने का अनुरोध किया व स्वयं ने युद्ध हेतु जाने के लिए अनुमति प्राप्त की। राम ने कहा, "अनुज यशस्वी भव! तुम विजयी बनोगे, यह मेरा केवल आशीर्वाद ही नहीं अपितु आत्मविश्वास भी है। फिर भी यदि तुम पर कोई घोर संकट आता है, तो सिंहनाद करना। मैं सत्वर तुम्हारी सहायता के लिए दौड आऊँगा।" Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 सूर्पणखा का रावण के पास आना युद्धभूमि में जाकर लक्ष्मण चौदह सहस्त्र विद्याधरों के साथ अकेले ही लडने लगे। अपने पति का पक्ष बलशाली बनाने के लिए व पुत्रवध के प्रतिशोध के लिए शूर्पणखा लंका पहुँची । भ्राता रावण के समक्ष जाकर उसने कहा, "दंडकारण्य में आए हुए आगंतुक राम-लक्ष्मण ने आपके भांजे शंबूक की हत्या की है। अतः चौदहसहस्त्र सुभटों को साथ लेकर आपके जीजाजी, लक्ष्मण के साथ युद्ध लड रहें हैं। लक्ष्मण अकेला ही लड रहा है, किंतु वह अभी तक हारा नहीं है। NAT FDINDOdAPre विनीतापुत्र गरुड जिस तरह सर्पसमूह को निमिषार्ध में नष्ट करता हैं, ठीक उसी तरह वह हमारे सुभटों के समूह को नष्ट कर रहा है और अपने बल पर अहंकारी व अपने अनुज के पराक्रम से गर्वित उसका भ्राता राम, सौंदर्यवती सीता के साथ दूर बैठकर विलास कर रहा है ! भ्राताश्री ! आप छल कपट का प्रयोग करके भी इस अद्वितीय सीता को ग्रहण कीजिये । त्रिभुवनसुंदरी सीता केवल मेरे त्रिभुवन-पराक्रमी भ्राता के लिए बनी है। HANUMBINE For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 DILIP SONI 30-12-2000 For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xn 00000 यदि वह आपकी नहीं हो सकती तो... धिक्कार है आपके अर्थहीन जीवन पर !" रावण के समक्ष शूर्पणखा ने जो प्रलाप किया, उसने एक महाविध्वंसक संघर्ष एवं रावणविनाश के बीज बोयें। अपनी प्रिय भगिनी की बातें सुनकर रावण की वासना उत्तेजित बनी। वह तत्काल उठकर पुष्पक विमान में दंडकारण्य आया। वहाँ सीता के समीप उसने क्षात्रतेज से दमकते, बलवान राम को देखा। अग्नि को देखते ही वनव्याघ्र भयाकुल बनता है, वैसे ही रावण का हृदय अतुल पराक्रमी राम को देखते ही कॉपने लगा। कुछ दूर जाकर उसने अवलोकिनी विद्या का स्मरण किया। विद्या तुरंत ही दासी की तरह उसके सामने आकर खड़ी रही। रावण ने अनुरोध किया, "मैं सीता का अपहरण करना चाहता हूँ, आप मेरी सहायता करें।” विद्या ने कहा "राम ने लक्ष्मण से कहा है कि महासंकट के समय वे सिंहनाद करें। अतः सिंहनाद करके राम को दूर हटाया जा सकता है, ताकि सीता का अपहरण हो सके।" रावण ने विद्या को कहा कि, “आप ही सिंहनाद कीजिए।" उसके कथनानुसार विद्या ने जब सिंहनाद किया, तब राम को संभ्रम हुआ कि, “हस्तीमल्ल के समान मेरा अनुज अपराजित है, किंतु यह सिंहनाद तो संकट का संकेत कर रहा है। अतः क्या किया जाए ?" इतने में सीता ने कहा, “आर्यपुत्र ! शीघ्र जाईये व अपने अनुज को बचाईये। अन्यथा वे चौदह सहस्त्र सुभट उनके शरीर के खंड खंड कर देंगे।" राम सत्वर युद्धभूमि की दिशा में चल दिए। राह में अनेक अपशकुन हुए, किंतु उन संकेतों को अनदेखा कर राम अपने अनुज की रक्षा के लिए दौडे। रावण द्वारा सीता का अपहरण रामचन्द्रजी के निर्गमन के पश्चात् रावण सत्वर विमान से उतरा व आंसू बहाती हुई सीता को उठाकर विमान में बिठा ले गया। सीता का रुदन सुनकर जटायु मनोमन बोला, “हे स्वामिनि ! आप इस मायावी राक्षस से कतई न डरें। मैं एक ही पल में आपको इससे मुक्त कराता हूँ।" मनोमन उसने रावण से कहा, “हे मायावी राक्षस ! कापुरुष की भाँति एक असहाय अबला को उठाकर कहाँ जा रहा है ? सावधान...” इतना कहकर उसने रावण पर आक्रमण किया। For Personal & Private Use Only 51 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 क्रोध से संदीप्त जटायु की स्वामिभक्ति अतुलनीय थी। अपनी तीक्ष्ण चोंच व पैने नाखूनों से उसने रावण का वक्षस्थल क्षतविक्षत कर डाला। जमीन पर हल चलाने वाले किसान की भाँति जटायु के नाखून, रावण का सीना फाड़ रहे थे। अंत में रावण ने अपने खड्ग का प्रहार उसके पंखो पर किया व उसे भूमि पर गिरने के लिये विवश किया। रावण, बलशाली एवं मायावी था। जटायु, पक्षी था... रावण की तुलना में उसके पास कुछ भी नहीं था। किंतु उसका सब से महान बल था धर्म । अधर्म को रोकने के लिए धार्मिक आत्माओं को जटायु की तरह अधर्मी से लड़ना चाहिए, ताकि अपने कर्तव्यपूर्ति का संतोष उन्हें मिले। अपनी राह से उन्हें पीछे हटना नहीं चाहिए। अन्यत्र कहा है कि, धर्मध्वंसे क्रियालोपे स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे। पृष्टेनापृष्टेन वा यतितव्यं निषेधितुं । नम्रतापूर्वक वार्तालाप करने लगा। “मैं रावण, आकाशगामी एवं पृथ्वीपर बसे हुए अनगिनत राजाओं का स्वामी हूँ। आप मेरी पटरानी बनोगी, तो जो मेरा है, वह सब आपका हो जाएगा। अतः शोक के स्थान पर आपको हर्ष होना चाहिए। आपका भाग्य अब तक शक्तिहीन था, इसीलिए आप इतने दिन राम से जुड़ी रही। राम को आपके रूप के अनुरूप कुछ भव्य कार्य करना चाहिए था, किंतु उसने जो नहीं किया, वह मैं कर रहा हूँ। हे देवी ! मैं आपका दास हूँ.. आप मुझे ही अपना पति मानिये । जब त्रिखंडस्वामी रावण आपका दास बन सकता है, तब विद्याधरों का क्या कहना ? वे एवं उनकी स्त्रियाएँ आपकी दासदासी बनेगी।" अर्थात् धर्म का ध्वंस होता हो या धर्मक्रिया का लोप होता हो, तो बिना पूछे ही अशक्त व्यक्ति को भी प्रतिकार करना चाहिये । अशक्त व्यक्ति को जटायु की तरह निडर होकर प्राण की होड लगाकर भी प्रतिकार करना चाहिए। MANTIMa रत्नजटी राजा का प्रतिकार आकाशमार्ग से रावण का विमान सागर पर से गुजर रहा था। सीता "हे राम... हे लक्ष्मण.... हे भामंडल...." इन करुण शब्दों में अपने पति, देवर व अनुज का नाम ले लेकर विलाप कर रही थी। सीता का करुण विलाप सुनकर कंबुद्वीप के विद्याधर राजा रत्नजटी ने अपना खड्ग निकाला व रावण पर आक्रमण किया। परंतु रावण ने अपनी मायावी शक्ति से उसकी समस्त विद्याएँ छीन ली। अंत में रत्नजटी राजा बेहोश होकर कंबुद्वीप में जा गिरा। समुद्र की शीतल हवा के कारण जब उसे पुनः चेतना प्राप्त हुई, तब वह कंबु पर्वत पर चढा। विमान मैं बैठा रावण तीन खंडों का स्वामी था, बलशाली एवं बुद्धिशाली था, किंतु कामवासना का शिकार होकर वह शोकातुर सीताजी से For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा बोलते बोलते रावण, सीताजी के पदयुगलों पर नतमस्तक हुआ। किंतु सती सीता के लिए तो परपुरुष का स्पर्श भी विषसमान था, अतः उन्होंने अपने पैर हटा लिये व क्रोधावेश में बोली, “हे दुष्ट ! तू परस्त्री का अभिलाषी है। तुझ जैसे लंपट की मृत्यु निश्चित है।” लंका की सीमा पर अनेक सारण मंत्री एवं अन्य सामंत राक्षसराजा रावण का स्वागत करने आये थे। रावण के लंकाप्रवेश के उपलक्ष्य में एक महोत्सव मनाया गया। साहसी रावण ने उत्साहपूर्वक लंकाप्रवेश किया। उसी समय सीता ने अभिग्रह किया "जब तक राम एवं लक्ष्मण के कुशल समाचार प्राप्त न हो, तब तक मैं अन्न-पान नहीं करूंगी।" लंका की पूर्व दिशा में देवरमण नामक वाटिका थी। उस वाटिका में एक रक्त अशोक वृक्ष के तले त्रिजटा एवं अन्य रक्षकों को सीता के निगरानी के लिए नियुक्त कर रावण राजप्रासाद में गया। इधर जब राम अकेले ही लक्ष्मण की सहायता के लिए गए, तब लक्ष्मण ने आश्चर्य से उन्हें पूछा, "वहाँ भाभीश्री को अकेला छोड़कर आप यहाँ क्यों आये हैं?" राम ने कहा, “प्रिय अनु ! तुम्हारे द्वारा किये गए सिंहनाद को सुनते ही मुझे ज्ञात हुआ कि तुम संकट में फँसे हो, अतः तुम्हारी सहायता के लिए मैं यहाँ आया हूँ ।" तब लक्ष्मण ने कहा, "भ्राताश्री ! मैंने सिंहनाद किया ही नहीं, किंतु आपने नाद सुना.... इसका अर्थ है हमारे साथ किसीने छलकपट किया है... आप शीघ्र भाभी के पास जाईये.... मैं अभी शत्रु को पराजित करके लौटता हूँ।” राम त्वरित स्वस्थान पर पहुँचे। किंतु जानकी तो वहाँ थी ही नहीं । Pendly via A राम ने घायल जटायु को नमस्कार मंत्र सुनाया दुःखावेग से राम, मूर्च्छित होकर धरा पर गिर पडे। होश में आने पर उन्होंने चारों दिशाओं में दृष्टिक्षेप किया, तब उन्हें मरणोन्मुख जटायु पक्षी दिखाई दिया। परोपकारी राम ने उसे नमस्कार महामंत्र सुनाया। समाधिपूर्वक मंत्र सुनकर जटायु ने अंतिम श्वास ली। नमस्कार महामंत्र के प्रभाव से मरणोपरांत जटायु का जीव देवलोक में गया। नवकार महामंत्र णमो अरिहंताणी णमो सिद्धाणी णमो आयरियाणी णमो उवज्झायाणी णमो लोए सव्वमाहूपी एसी पीच णामकारी सव्व पाव प्यणासणी मंगलापांच सव्वेसिं पदमी हवाइ मंगली ॥ For Personen & Private Use Only 53 w Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 यहाँ राम वन के कोने कोन में सीता की शोध करने लगे। वहाँ लक्ष्मण खर के साथ युद्ध कर रहे थे । इतने में खर के अनुज चंद्रोदर का पुत्र विराध अपनी सेना सहित लक्ष्मण की सहायता करने आ गए व कहने लगे, "मैं विराध आपका दास हूँ तथा आपके शत्रुओं का शत्रु हूँ। रावण ने मेरे पिताश्री चंद्रोदर से पाताललंका का साम्राज्य छीन लिया है और वहाँ विद्याधर खर को अधिपति बनाया है।" अपने शत्रु विराध को लक्ष्मण की सहायता के लिए आता हुआ देखकर खर राजा क्रोधायमान हुआ व लक्ष्मण को युद्ध के लिए चुनौती दी। लक्ष्मण ने चुनौती का स्वीकार किया व खरराजा पर शरवर्षा की। दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ। अंत में लक्ष्मण ने क्षुरप्र अस्त्र से खर राजा का मस्तक छेद लिया। खर का भाई दूषण भी मारा गया। युद्ध समाप्त होते ही लक्ष्मण अपने साथ विराध को लेकर राम के समक्ष गए। वहाँ उन्हें सीता के अपहरण का समाचार ज्ञात हुआ । विराध ने त्वरित • अपने सुभटों को सीता की शोध के लिए रवाना किया। परंतु वे सीता को ढूँढ नहीं पाये। अतः विराध ने उनसे कहा, “आप मेरे साथ पाताल - लंका पधारिये। वहाँ सीताजी की शोध करेंगे।" वहाँ जाते ही पाताललंका के प्रवेशद्वार पर खर का पुत्र सुंद विराध के साथ युद्ध करने आया। परंतु लक्ष्मण को युद्धभूमि में देखते ही उसने वहाँ से पलायन किया। पाताल लंका से भागकर वह सीधा लंका पहुँचा । राम-लक्ष्मण ने पाताल लंका में प्रवेशकर राजकुमार विराध को अपने पिता चंद्रोदर के सिंहासन पर पुनः स्थापित किया । वह अब सुंद के प्रासाद में रहने लगे, राम व लक्ष्मण खर के प्रासाद में रहने लगे। 18 दो सुबीच की लड़ाई चौकिदार का दोनों सुग्रीव को रोकना किष्कियाधिपति वानरवंशीय सुग्रीव की पत्नी का नाम तारा था। साहसगति नामक एक विद्याधर, तारा के सौंदर्य पर लुब्ध बना था। एक दिन उसने प्रतारणी विद्या के प्रयोग से सुग्रीव का रूप धारणकर किष्किंधापुरी में प्रवेश किया। सुग्रीव उस समय उद्यान में क्रीडा के लिए गया था। योग्य अवसर को देखकर कपटवेषधारी सुग्रीव अंतःपुर में प्रवेश करने लगा। इतने में उद्यान क्रीडा समाप्त कर सुग्रीव, प्रासाद के प्रवेशद्वार पर आया। प्रहरी ने उसे रोक दिया। 解 * ( वानर वंश की स्थापना देखिये परिशिष्ट ५) XXX For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 अपनी भगिनी शूर्पणखा को आश्वासन देते रावण ने कहा"हे प्रियभगिनी ! क्या तुम रावण के पराक्रम से अपरिचित हो ? शस्त्रविद्या, अस्त्रविद्या व मायावी विद्या के अलावा मेरे पास असीम बाहुबल व बुद्धि भी है। मैं त्रिखंड पृथ्वी का स्वामी हूँ, मेरा नाम सुनते ही देवता भी भयभीत होते हैं। वालीनंदन चंद्ररश्मि के मन में संदेह उत्पन्न होने से उसने कपटवेषधारी सुग्रीव को भी अंतःपुर में प्रवेश करने से रोका । फिर सेना बुलाई गई । सुग्रीव के सुभट भी सच्चे सुग्रीव को पहचान न पाये। अतः सेना का दो पक्षों में विभाजन हुआ। सुग्रीव ने हनुमानजी को सहायता के लिए बुलाया। वे भी भेद पहचान न सके । इसके पश्चात् सुग्रीव ने रामचंद्र को संदेश भेजा - "यदि आपकी कृपा से मैं इस दुविधा से मुक्त हो जाता हूँ, तो मैं आपका सेवक बनकर रहूँगा व सीता की शोध करने में सहायता करूँगा।" परोपकार करने के लिए तत्पर राम किष्किंधापुरी गए। सुग्रीव ने युद्ध के लिए आह्वान किया। दोनों सुग्रीवों का भयंकर युद्ध हुआ। पृथ्वी भी कंपायमान होने लगी। दोनों सुग्रीवों का रूप इतना समान था कि राम भी भेद न जान सके। बहन ! तुम्हारे साथ जो भी हुआ, उससे मैं दुःखित हूँ व शीघ्र ही तेरे पति एवं पुत्र की हत्या करनेवाले को यमलोक पहुँचाने वाला अंत में राम ने वज्रावर्त धनुष्य का टंकार किया.. टंकार की ध्वनि इतनी प्रचंड थी कि साहसगति की प्रतारणी विद्या हरिणी की तरह भाग गई। “हे अधम... पापी..! क्या तू अन्य स्त्री के प्रति कामेच्छा रखता है ?" यह कहकर राम ने एक ही बाण छोडकर उसे विध डाला। कपटवेषधारी सुग्रीव का वध करके रामचंद्र ने वास्तविक सुग्रीव को किष्किंधापुरी के राज्यासन पर बिठाया। एक तरफ सीताजी के लिए प्रदीप्त कामवासना ने, तो दूसरी तरफ अपने बहनोई एवं भांजे की मृत्यु के दुःख ने रावण की निद्रा हरण की थी। वह रातभर करवटें बदला करता, किंतु सो नहीं पाता । तब पट्टरानी मंदोदरी ने उनसे कहा, "प्राणनाथ ! त्रिखंड पृथ्वी के स्वामी होते हुए भी आप एक सामान्य मानव की भाँति शून्यमनस्क व निद्राविहीन अवस्था से क्यों पीडित हैं ? मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ। आपकी इस मनोवस्था ने मेरा हृदय क्षतविक्षित किया है। आप निःसंकोच अपने मन की बात मुझे कहिये।" रावण ने कहा, “त्रिखंड पृथ्वी का स्वामी होते हुए भी सीता के हृदय में मेरे लिए कोई स्थान नहीं है। इसी बात ने मुझे निद्राहीन बनाया है। यदि आप उनके पास जाकर अनुनय विनय कर उन्हें, मुझे दैहिक सुख देने के लिए इच्छुक एवं उत्सुक बनाती हो, तो मैं जीवनभर आपका ऋणी रहूँगा। सुग्रीव अपनी तेरह कन्याएँ राम को अर्पण करने के लिए तैयार हुआ। तब रामचंद्र ने कहा, "पहले सीता की शोध करना आवश्यक है, अतः अन्य कन्याओं के साथ विवाह इस समय योग्य नहीं है।" मैंने गुरुभगवंत के समक्ष नियम लिया है कि किसी भी स्त्री की अनिच्छापूर्वक भोग नहीं लूँगा। यदि सीता स्वेच्छा से मेरे समीप आती है, तो मुझे दैहिक सुख तो मिलेगा साथ ही साथ मेरा नियम भी अबाध्य रहेगा।" लंका में खर व दूषण के मृत्यु के समाचार मिलते ही रावणपत्नी मंदोदरी एवं परिवार की अन्य स्त्रियाँ आक्रंदन करने लगी। विधवा शूर्पणखा भी अपने पुत्र सुंद को साथ लिए शोकप्रदर्शन करती लंका पहुँची। रावण से मिलते ही अपने वक्षःस्थल पर प्रहार करती वह कहने लगी, "शत्रु ने मेरे पति की हत्या की, मेरा पुत्र मुझसे छीन लिया, पुत्र के समान दो देवरों को जीवित नहीं रखा, मेरे पति के चौदह सहस्र सुभटों के शरीर छिन्न विछिन्न कर कालाग्नि की कराल मुख में उनकी आहुति दी। जिस पाताललंका का अधिपति आपने मेरे पुत्र को बनाया था, वह भी उससे छीन ली गई। कोई भी नारी अपने पति को किसी अन्य नारी के साथ बाँटना नहीं चाहती। मंदोदरी तो सती थी, पतिव्रता थी। सिंहसमान पराक्रमी मेरा पुत्र आज शशक की भाँति भीरु बन चुका है। आज आपकी यह विधवा भगिनी आप के शरण आई है। यदि आप इस अपमान का प्रतिशोध लेंगे, तो ही मेरे मृत पति, पुत्र, देवर व सैनिकों की आत्माएँ शांत होगी।" एक बार रावण मेरू पर्वत पर गया था। वहाँपर अनंतवीर्य मुनि देशना दे रहे थे। वन्दनपूर्वक वह देशना सुनने लगा। देशना के अंत में उसने पूछा...."मेरी मौत किस कारण से होगी ?" तब मुनि ने प्रत्युत्तर देते कहा कि, “तुम प्रतिवासुदेव हो। अतः तुम्हारी मौत परस्त्री के दोष के कारण वासुदेव द्वारा होगी।" तब रावण ने उनके पास नियम ग्रहण किया कि, "किसीभी स्त्री का उसकी अनिच्छा से, भोग नहीं करूंगा।" For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदोदरी का सीता को समझाना एक कुलीन व सती स्त्री होने पर भी मंदोदरी, पति के सुख के लिए एवं दाक्षिण्यता व मोहनीय कर्म के उदय से सीता के समीप जाकर कहने लगी, “आर्ये ! मैं रावण की राजमहिषी मंदोदरी हूँ। धन्य है आप ! क्योंकि समस्त विश्व जिनके नाम से भयभीत होता है, ऐसे प्रचंड पराक्रमी मेरे पति रावण आपके कारण बाँवरे बने हैं। यदि आप मेरे स्वामी के प्रेम को स्वीकार करोगी, तो मैं जन्मजन्मांतर के लिए आपकी दासी बनूंगी।" क्रोधाग्नि में जलती सीता ने उत्तर दिया, “कहाँ मृगेंद्र वनराज व कहाँ लालची जंबूक ! कहाँ मेरे सुसंस्कारी पति आर्य श्रीराम और कहाँ तुम्हारे स्त्रीलंपट पति रावण ! तुम भी अपने पति की भाँति पापी हो। तुम्हारा पति परस्त्री लंपट है व तुम उसकी दूती बनकर यहाँ अनुनय करने आई हो तुम्हारा मुखदर्शन भी महापाप है। यहाँ से चली जाओ... अभी... !" इसके पश्चात् कई बार आकर रावण ने कभी दीन बनकर अपनी प्रेमभावना व्यक्त की, तो कभी विनयपूर्वक FLIP SUNI सीता का प्रेम पाने की चेष्टा की, किंतु पतिव्रता सीता तनिक भी विचलित नहीं हुई। फिर रावण ने सीताजी के मन में भय उत्पन्न करने के लिए उलूक (उल्लू) मार्जार (बिल्ली) पिशाच, वेताल व प्रेत आदि के उपसर्ग किये किंतु क्षत्रा सीताजी पर्वत की भाँति अविचलित रही। उनके मनमंदिर में पंचपरमेष्ठी की प्रतिष्ठापना हुई थी। पंचपरमेष्ठी, पति व धर्म इनके अलावा सीताजी के हृदय में किसी अन्य वस्तु के लिए कोई स्थान नहीं था । For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T रावण द्वारा किए उपसर्गादि सर्व वृत्तान्त जानकर प्रातःकाल में विभीषण सीता के समीप आकर बोला, "हे भद्रे ! आप कौन हैं ? किसकी स्त्री हो ? कहाँ से आई हो ? आपको यहाँ पर कौन लाया है? आप निःशंक, निर्भय होकर मुझसे समस्त बात कहिए। मैं परस्वी के लिए सहोदर समान हूँ।" तब सीताजी ने उसे अपने शैशव से लेकर अपहरण तक सभी बातें निष्कपट भाव से कही फिर विभीषण रावण से मिलकर बोला, "भ्राता ! हमारे कुल का क्षय अब निश्चित है। क्या आपको उस ज्ञानी के कथन का विस्मरण हुआ, जिसने भरी सभा में आपसे कहा था कि दशरथ व जनक राजा की संताने आपके मृत्यु का निमित्त बनेंगी ?" जब तक राम अपने अनुजसमेत यहाँ आकर लंका का विध्वंस न करें, आप सीताजी को सम्मानसहित राम को लौटा दीजिये।" कोपायमान होकर रावण बोला, "हे कायर! क्या तुम मेरे भुजाबल व पराक्रम से अपरिचित है ? साम, दाम, दंड, भेद नीतियों का विनियोग करके मैं सीता को अपनी पत्नी बनाकर ही रहूँगा । यहाँ आने वाले राम-लक्ष्मण तो यमराज का भक्ष्य बनेंगे ।" बिभीषण ने कहा, “विधि की लीला विचित्र है । अन्यथा दशरथ राजा का मैंने वध किया, इसके उपरांत भी वह जीवित है। इस सत्य का क्या स्पष्टीकरण संभव है ? होनी को कोई भी टाल नहीं सकता, यह सत्य है। आप स्वघात तो करेंगे ही, परंतु भविष्य में आनेवाली अपनी पीठियाँ भी चिरकाल तक निंदा का विषय बनेगी। मैं आपका अनुज हूँ, भक्त ! आप मेरी विनति पर अवश्य विचार करें" बिभीषण की भावभीनी विनति को सुना अनसुना कर रावण सीता समेत पुष्पक विमान में विहरने के लिए चला गया। उसने सीता को क्रीडास्थान, उद्यान, उपवन, वाटिकाएँ, निर्झर, रत्नपर्वत, स्वर्ग से सुंदर रतिभवन आदि दिखाये। अपने राजवैभव का प्रदर्शन कर सीता का प्रेम प्राप्त करना उसका हेतु था। परंतु सती सीता के मन में न क्षोभ उत्पन्न हुआ, न अनुराग रावण की वासना का निंदनीय उद्रेक देखकर विभीषण ने कुलप्रधानों को बुलवाकर उनके साथ विचार विमर्श किया। वह बोला, "हे कुल प्रधानो जिस प्रकार ! मिध्यादृष्टि व्यक्ति सबै धर्म को मानने के लिए तत्पर नहीं होता, वैसे ही वासना का दास बना मेरा भाई सत्य का स्वीकार नहीं कर रहा है हनुमान इत्यादि कई राजा राम के न्यायी पक्ष में हैं। अतः ज्ञानीद्वारा जिसकी भविष्यवाणी 57 हो चुकी थी, वह कुलक्षय होनेवाला है। किंतु वर्तमान समय में हम योग्य दिशा में पुरुषार्थ करें, तो कुलक्षय टाला जा सकता है।" इस प्रकार विचार-विमर्श कर बिभीषण ने किले पर आशालिका विद्या व यंत्रादि का आरोपण कराया, क्योंकि योग्य मंत्री अपने विचार रूपी नेत्रों से भविष्य देखते हैं। 19 हनुमान - सीता साक्षात्कार राम के पास सुग्रीव इस ओर सीता का विरह सहना राम के लिए दुष्कर बना। लक्ष्मण, सुग्रीव के प्रासाद पहुँचे व उन्हें धमकाने लगे, "अपना काम निकलवाकर आप यहाँ निश्चित होकर बैठे हैं ? वहाँ वृक्ष के तले बैठे राम के लिए विरह का एक दिन एक वर्ष के समान हो चुका Ra For Personal & Private Use Only org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 है और आप यहाँ सुखों का उपभोग कर रहे हैं? भूतकाल में सीता की शोध में जुड़ जानेका वचन क्या आपने नहीं दिया था? क्या आपकी स्मरणशक्ति कुंठित हो गई है ? शीघ्र उठकर हमारे साथ चलिये, अन्यथा आपको साहसगति विद्याधर की तरह परलोकयात्रा पर भेजने के लिए मैं विवश हो जाऊँगा।" सुग्रीव ने लक्ष्मण के चरणस्पर्श कर क्षमायाचना की व सत्वर अपने सुभटों को सीता की शोध हेतु निकलने की आज्ञा दी। वे द्वीप, सागर, पर्वत, भूगर्भ में सीता के शोध के लिए रवाना हुए। सुग्रीव स्वयं कंबुद्वीप पहुँचे । दूर से सुग्रीव को आते देखकर रत्नजटी ने विचार किया कि क्या रावण ने मेरी विद्याओं का हरण करने के पश्चात् सुग्रीव को मेरी हत्या के लिए भेजा है? रत्नजटी के भय का कारण यह था कि पहले सुग्रीव रावण के पक्ष में था। इतने में तो सुग्रीव ने उनके समीप आकर कहा, "मुझे आते हुए देखकर आप मेरे स्वागत के लिए उठे क्यों नहीं? आकाशगामी विद्या के ज्ञाता आज आलस्य का शिकार कैसे बने ?" उत्तर में रत्नजटी ने कहा, "न मैं आलस्य का शिकार बना हूँ, न अपना आतिथ्य धर्म भूला हूँ, परंतु राम की पत्नी सीता का अपहरण कर जब रावण पुष्पक विमान में लंका जा रहा था, तब सीता को उससे मुक्त करने के लिए मैंने रावण से युद्ध किया, तब उसने मेरी समस्त विद्याएँ मुझसे छिन ली। तब से मुझपर भय का साया सतत मँडरा रहा है। इस भय से कैसे मुक्ति पाऊँ इन्हीं विचारो से सांप्रत त्रस्त हो चूका हूँ। अतः आपको आते हुए देखकर मैं खडा नहीं हुआ, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।" सुग्रीव द्वारा रत्नजटी को राम के पास लाना उदारहृदय सुग्रीव ने उन्हें क्षमा किया। दोनों सत्वर रामचंद्रजी के समीप आ गए। रत्नजटी ने राम को प्रणाम किया व सीताहरण की समस्त हकीकत उन्हें कह दी। राम ने उन्हें आनंदपूर्वक आलिंगन दिया। अपहृत सीता की मनोदशा के बारे में राम ने बारंबार रत्नजटी से प्रश्न किए। उन्होंने भी सीता के क्रोध, निराशा एवं रुदन का विस्तृत वर्णन राम के समक्ष किया। सीता के अपहरण का समाचार मिलते ही सीता के अनुज भामंडल एवं पाताललंका के अधिपति विराध, अपनी अपनी सेनाएँ लेकर रामचंद्रजी के पास आए। राम ने सुग्रीव, भामंडल आदि से पृच्छा की कि, “राक्षस रावण की लंकापुरी यहाँ से कितने अंतर पर स्थित है ?" सुभटों ने कहा, "लंका चाहे सुदूर हो या समीप, इससे कार्यसिद्धि नहीं होनेवाली, क्योंकि बलशाली मायावी रावण के समक्ष हम तृणसमान हैं। हममें से कोई भी रावण को हराने के लिए सक्षम नहीं है।" राम ने कहा, "जय, पराजय तो दूर की बात है, आप केवल इतना ही बता दें कि लंका कहाँ है ? रावण के सुभटों को ही क्या, रावण को भी परास्त करने के लिए पर्याप्त शक्ति अकेले मेरे For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुज लक्ष्मण में है। वह अकेला ही सीता को मुक्त करा सकता है। लक्ष्मण तुरंत बोले, "कौन है यह रावण जिसने सियार की भाँति कपट किया है ? कहाँ है वह रावण जिसने क्षात्रधर्म को कलंकित किया है ? मैं तो उसका मस्तक छेद कर क्षात्रधर्म को पुनः प्रकाशमय बनाऊँगा । आप समस्त केवल इस महानाट्य के साथी बनेंगे !"" जांबवानजी ने लक्ष्मण से कहा, “आप अकेले ही यह कर सकते हैं किंतु अनंतवीर्य मुनि ने हमें बताया है कि जो कोटीशिला उठाएगा, वह ही रावण की हत्या करेगा। अतः आप हमारे साथ चलें व एक बार कोटीशिला उठाकर हमें प्रतीति करवाईये।" जांबवानजी की बात लक्ष्मण ने स्वीकारी व वे आकाशमार्ग से लक्ष्मण को कोटीशीला के समीप ले आये। लक्ष्मण ने एक लता कि भाँति कोटीशिला अपने भुजाओं में उठाई। इसके बाद जांबवानजी लक्ष्मण के साथ पुनः किष्किंधापुरी पधारे। एक वृद्ध पुरुष ने कहा कि, "युद्ध में प्राणहानि एवं वित्तहानि अटल है । अतः जहाँ तक हो सके, युद्ध को टालना चाहिये नीतिकारों का कहना है कि युद्ध के पूर्व एक संदेशवाहक दूत को शत्रुपक्ष में भेजना चाहिये। यदि संदेशवाहक से ही प्रयोजन सिद्ध हो जाता है तो युद्ध के आरंभ का क्या प्रयोजन है ? हम भी एक दूत लंका भेजें, वह दूत सबसे पहले विभीषण के साथ मंत्रणा करेगा, क्योंकि राक्षस वंश का होते हुए भी विभीषण नीतिवान है। वह सीताजी की मुक्ति कराने के लिए रावण को समझा सकता है। यदि रावण उसकी बात नहीं मानता हैं, . तो संभव है कि वह हमारे पक्ष में आ जाएँ ।” वृद्ध पुरुष के सूचनानुसार सुग्रीव ने राम की अनुमति लेकर श्रीभूतिद्वारा हनुमानजी को बुलाया । सुग्रीव का संदेश मिलते ही हनुमानजी त्वरित किष्किंधापुरी पधारे सुग्रीव ने रामचंद्रजी से कहा, "पवनंजय के पुत्र हनुमान अतुल बलशाली एवं विनयशील हैं आपत्ति के समय ये सदैव मेरे मित्र रहे हैं।” सुमित्र के विषय में शास्त्रकारों ने कहा है 1 शुचित्वं त्यागिता शौर्यं सामान्यं सुखदुःखयोः । दाक्षिण्यं चानुरक्तिश्च सत्यता च सुहृद्गुणाः । 59 पवित्रता, त्याग, शौर्य, समत्व, दाक्षिण्यता, अनुराग और सत्य, सुमित्र के गुण हैं। हनुमानजी में ये सारे गुण एकत्रित हुए हैं। सीता की शोध के लिए इनसे ज्यादा योग्य कोई नहीं है। अतः आप इन्हें ही लंकागमन का आदेश दीजिये। हनुमानजी ने उत्तर में कहा, “मैं तो एक साधारण वानर हूँ, किंतु वानरराज सुग्रीव को मेरे प्रति प्रगाढ स्नेह होने के कारण वे अकारण मेरी स्तुति कर रहे हैं। उनकी सेना में मुझ समान ही नहीं, किंतु मुझसे बढ़कर शक्तिशाली अनेकानेक सुभट हैं। यद्यपि आप आदेश देते हैं, तो मैं सत्त्वर लंकागमन कर समस्त राक्षस वंश को उठाकर आपके समक्ष लाऊँ ? अथवा उस राक्षसराज को बंधुगण समेत उठा लाऊँ ? अथवा रावण का सपरिवार वध कर सीताजी को ले आऊँ ?" Gujar For Personal & Private रामद्वारा हनुमानजी को अंगुठी DILIC SONI telibrat Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 रामचंद्रजी ने कहा, "महाबलशाली हनुमान के लिये क्या असंभव है ? किंतु अब आप लंका जाकर केवल सीता की शोध कीजिए । सीता के मिलते ही मेरी यह मुद्रिका उन्हें देकर कहिए कि, हे भद्रे ! राम आपकी विरहव्यथा से पीडित है, हे तन्वंगी ! राम केवल आपका चिंतन कर रहे हैं। आत्मा क्या अपने आवास देह से पृथक् रह सकती है ? तो राम भी आपके बिना कैसे जी सकते हैं? हे चारुशीले ! मेरा वियोग असह्य होने के कारण कहीं तुम देहत्याग तो नहीं करोगी? बस कुछ समय के लिए स्वयं पर संयम रखिये । शीघ्र ही लक्ष्मण लंका आयेंगे व रावण का हनन कर आपको मुक्त कराएँगे। हे कपिवर ! मुझे विश्वास है की आप, मेरा यह काम करेंगे ही, किंतु सीताजी के संदेश के साथ साथ यदि आप उनका चूडामणि ले आएंगे, तो मेरी विरहाग्नि कुछ शांत हो जाएगा।" हनुमानजी ने कहा, जब तक मैं पुनः लौटकर न आऊँ, आप यहीं रहिएगा।" फिर राम को प्रणाम कर हनुमानजी ने लंका की दिशा में गमन किया। पथ में हनुमान के मातामह महेन्द्र राजा की महेंद्रनगरी आई। हनुमानजी के मन में विचार आया "इन्होंने मेरी निर्दोष माता को ॐदेशनिकाला देकर अन्याय किया था। आज मैं उस अन्याय का प्रतिशोध क्यों न लूँ ?" अतः हनुमानजी ने अपने मातामह से एवं मातुल प्रसन्नकीर्ति के साथ तुमुल युद्ध किया व उन्हें पराजित कर राम के पास भेजा। इसके पश्चात् हनुमान दधिमुख नामक द्वीप में पधारे। वहाँ दो मुनि कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर खड़े थे। उनके समीप निर्दोष अंगवाली एवं विद्यासाधन में तत्पर तीन कुमारिकाएँध्यानमग्न थी। वहाँ अकस्मात् द्वीप में दावानल प्रगट हुआ। उन पाँच तपस्वी जीवों के लिए यह दावानल भयंकर सिद्ध हो सकता था, किंतु हनुमान ने अपने विद्या के माध्यम से समुद्रजल लाकर दावानल शांत किया । उसी समय उन कन्याओं को विद्या सिद्ध हुई। हनुमान ने उन कन्याओं के पिता गंधर्वराज नामक राजा को सैन्य समेत रामचंद्रजी के पास भेजा। JalnEdiशनिकाला का कारण जानने पढिए "एक थी राजकुमारी" For Personal & Private Use Only L A Pary.orgot Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Op आशालिका विद्या के मुँह में प्रवेश करता हनुमान अपने कुल का विनाश न हो, इसके लिए बिभीषण ने किले के ऊपर, आशालिका नामक एक विद्या की स्थापना की थी। वह कालरात्रि के समान भयंकर व उसके चारो ओर विकराल ज्वालाएँ थी। भयानक सर्प की भाँति फुत्कार करती यह शक्ति सदैव अपना मुख खोलकर खड़ी रहती। वह किसी आगंतुक को नगर में प्रवेश करने नहीं देती। यदि कोई नगर में प्रवेश करने का प्रयत्न करता, तो वह उसे खा जाती। लंका की सीमा पर हनुमान का सामना उस आशालिका नामक महाशक्ति के संग हुआ। उस शक्ति ने कहा, "हे वानर तू कहाँ जा रहा है ? मैं बहुत क्षुचित हूँ। कहीं तुझे विधि ने मेरा भोजन बनने हेतु तो यहाँ नहीं भेजा है ?" इन उपहासजनक उद्गार के साथ जब उस विद्या ने अपना भयंकर मुख खोला, तब हनुमान ने अपनी गदा सहित उसके मुख में प्रवेश किया एवं जिस प्रकार काले घने मेघों के मध्य से तेजस्वी सूर्यबिंब बाहर निकलता है, उसी प्रकार उस महाभयंकर विद्या का उदर चीरकर बाहर निकले। For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) लंका सुंदरी के साथ हनुमान का युद्ध आप कौन है ? पिता के मृत्यु के कारण मैं व्यर्थ ही कुपित हुई। मुझे एक मुनिराज ने कहा था कि जो तुम्हारे पिता को मारेगा, वह ही तुम्हारा पति होगा। अतः हे नाथ ! मेरे भाग्य से आप मुझे मिले हैं।" हनुमान ने विनयपूर्वक उसके साथ गांधर्वविवाह किया। इतने में सूर्यास्त हुआ। हनुमानजी लंका की ओर चल दिए। लंका के इर्दगिर्द जो संरक्षक किला बना था, उसे हनुमान ने मिट्टी के पात्र की भाँति एक ही क्षण में तोड दिया। किले के टूटने की आवाज से किले के रक्षक वज्रमुख ने सक्रोध हनुमानजी पर आक्रमण किया। हनुमान ने एक क्षण में उसे मार दिया। रक्षक वजमुख की कन्या लंकासुंदरी अपने पिता के मृत्यु के कारण अत्यंत कुपित हुई। उसने भी हनुमान पर आक्रमण किया। उसने हनुमानजी के शरीर पर बार-बार गदाप्रहार किए। हनुमान ने अपने गदाप्रहार से उसके शस्त्रों का चूर्ण बना दिया। अचानक उस राक्षसकन्या के क्रोध का स्थान आश्चर्य एवं लज्जा ने लिया। वह बोली, "हे वीर! (२) बिभीषण के महल में हनुमान प्रातः उन्होंने लंका में प्रवेश किया। वे बिभीषण के प्रासाद गए । विभीषण ने उनका आदरसत्कार किया व आगमन का कारण पूछा। तब हनुमान ने उनसे कहा, "आपके ज्येष्ठ भ्राताने सती सीता 106009 400ODCY ARipapadGO-OPE LEADEEEEEEE anAAAAAA कएछछछा loan Edupligunguinomy & Private Use ON Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अपहरण किया है। अतः आपसे अनुरोध है कि अपने भ्राता को समझाकर सीताजी को मुक्त करवाईये। राम की पत्नी का अपहरण केवल इस भव में ही नहीं, अपितु परलोक में व भविष्यकालीन भवों में भी दुःखदायी होगा।" बिभीषण ने कहा "हे रामभक्त ! आपका कथन सत्य ही है। मैंने स्वयं अपने भ्राता से इस विषय में अनुरोध किया था, परंतु "विनाशकाले विपरीत बुद्धि" उन्होंने मेरी माँग अस्वीकार की। परंतु अब मैं पुनः प्रयत्न करूँगा। यह प्रश्न मेरे भाई के अहंकार का नहीं, अपितु लंका के अस्तित्व का है।" GC CIALA DO Tajal PILIPS सीताजी का राम की मुद्रिका देखकर साश्चर्य हर्ष विभोर होना बिभीषण के प्रासाद से निकलकर हनुमानजी देवरमण उद्यान में गये । अशोक वृक्ष के तले उन्होंने सीता को देखा, उनकी बिखरी रुखी लटें गालों पर लटक रही थी। नेत्रों से अविरत बहता जल मानो धरित्री का प्रक्षालन कर रहा था। सतत इक्कीस दिन के अनशन (उपवास) से उनका शरीर कृश एवं मुख म्लान हो चुका था। परंतु उनका वज्रनिर्धार अबाधित था। यद्यपि उनका मुख हिमपीडित कमलिनी-सा म्लान था, परंतु नेत्र अग्निशिखा की भाँति दहक रहे थे। निश्चल बैठी हई सीताजी योगिनी के समान दीख रही थी। उनका ध्यान राम पर केंद्रित था। यह दृश्य देखकर हनुमानजी, मन ही मन में कहने लगे, "वास्तव में ये तो महासती हैं। इनके विरह से रामचंद्रजी को जो मरणप्राय पीडा हो रही है, वह भी स्वाभाविक है। इस अपहरण के कारण रावण दो प्रकार से दंडित होनेवाला है, एक श्रीराम से व दूसरा अपने भयंकर पापकर्म से" इसके पश्चात् अदृश्य होकर हनुमानजी ने सीताजी के आँचल में रामचंद्रजी की मुद्रिका रख दी। मुद्रिका देखते ही सीताजी हर्ष-विभोर हो गई। सीताजी की मुखमुद्रा पर हर्ष देखते ही त्रिजटा ने रावण तक ये समाचार पहुँचा दिए। “आज तक जिस सीता की मुखमुद्रा म्लान एवं दुःखी थी, उस पर अचानक आनंदभाव प्रकट हुआ है। निश्चित ही उसे राम का विस्मरण हो गया है।" यह सुनकर रावण ने पुनः एक बार मंदोदरी को सीता से मिलने के लिए कहा। दोबारा रावण की पट्टरानी सती मंदोदरी, अपने ही पति की दूती बनकर देवरमण उद्यान गई। उन्होंने सीता से कहा, "महाशक्तिशाली रावण ऐश्वर्य एवं सुंदरता का संगम है। आपका लावण्य भी अद्वितीय है। दुर्दैववशात् अभी भी आप परस्पर प्रेम से वंचित है। आपका आनंदित मुखारविंद देखकर मुझे लगता है कि अब आप दोनों का भाग्योदय होनेवाला है। आप लंकापति के प्रेम को स्वीकृति क्यों नहीं देती?" यदि आप आज ऐसा करेगी, तो मैं एवं अन्य रानियाँ आजीवन दासी बनकर आपकी सेवा करेंगी। Jair Education inte DILIPRONI For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रतीति हो जाएगी कि मैं आपसे मिला था।" 64 क्रोध से तिलमिलाती सीता ने कहा, "हे पापिनि! हे दुर्मुखी ! तुम्हारे पति का मुख देखना भी पाप है और तुम्हारा मुख देखना तो उससे भी बढ़कर महापाप है। यहाँ से चली जाओ। अल्पसमय में ही तुम मुझे अपने पति के समीप देखोगी। खर, दूषण की जो गति हुई है, वह अब तुम्हारे पति की होगी। तुम्हारे पति के गले में यमपाश बाँधने के लिए मेरे देवर लक्ष्मण शीघ्र ही आ रहे हैं।" इस तरह सीताद्वारा तिरस्कृत मंदोदरी वहाँ से उठकर स्वस्थान के लिए रवाना हो गई। यह वृत्तांत सुनकर प्रमुदित सीता ने हनुमान के अत्यंत आग्रह से अपने इक्कीस दिवसीय अनशन व्रत का पारणा किया। उन्होने हनुमान से कहा, "यह मेरा चूडामणि, जिसे मेरे प्राणनाथ ने मंगवाया था। इसे लेकर आप शीघ्र यहाँ से प्रस्थान कीजिये। अन्यथा यहाँ उपद्रव की संभावना है।" - हनुमाजी ने मुस्कराकर कहा “माता ! वात्सल्यवश आप इस प्रकार बोल रही हैं। त्रिजगत् के जेता राम-लक्ष्मण का मैं सेवक हूँ। अपनी समस्त सेना समेत भी रावण मेरे समक्ष तृणवत् है। हे स्वामीनि! यदि आप आदेश दें, तो मैं सैन्यसहित रावण का पराभव कर, आपको अपने कंधों पर बिठाकर अपने स्वामी राम के पास ले जाऊँ?" सीताजी ने कहा, "वत्स ! आप ठीक कह रहे हैं, किंतु स्वेच्छापूर्वक अन्य पुरुष का स्पर्श सती के लिए उचित नहीं है। अतः आप शीघ्र दशरथनंदन की ओर प्रस्थान कीजिए, जिससे वे प्रयत्नशील बनेंगे” हनुमान ने कहा, “आपका आदेश शिरोधार्य है, किंतु चलते चलते इन मूर्ख राक्षस वंशियों के समक्ष शक्तिप्रदर्शन इसके पश्चात् हनुमानजी सीता के समक्ष दृश्यमान होकर, बद्धांजली मुद्रा में स्थिर खड़े हुए, व कहने लगे, "हे देवी, मैं रामसेवक हनुमान हूँ। रामचंद्रजी एवं उनके अनुज लक्ष्मण सकुशल तो हैं, किंतु रामचंद्र की मनोदशा आपके विरहाग्नि के कारण अस्वस्थ है। रामचंद्रजी की आज्ञा से मैं उनकी मुद्रिका लेकर आपकी शोध करते करते यहाँ आया हूँ। शीघ्र ही मैं यहाँ से पुनःप्रस्थान करूँगा। मेरे लौटते ही रामचंद्र एवं लक्ष्मण सेनासमेत शत्रुविनाश करने यहाँ पधारेंगे।" ये समाचार सुनते ही सीताजी के नेत्रों से आनंद के आँसू बहने लगे। वे बोली “हे महाबली ! आप कौन है ? इतना अथाग सागर आपने कैसे लाँघा ? लक्ष्मण समेत मेरे प्राणनाथ अब कहाँ है ? आपने उन्हें कहाँ व कब देखा था ? वे किस तरह काल व्यतीत कर रहें हैं?" SALANATA DILIPS हनुमानजी ने शांतिपूर्वक उनसे कहा, "मैं पवनंजय व अंजनासुंदरी का पुत्र हूँ। आकाशगामिनी विद्या के माध्यम से मैं विशाल जलधि लाँघपाया। किष्किंधानगरी में लक्ष्मण समेत आपके प्राणनाथ हैं। अपनी माता से बिछडे हुए गाय के बचडे की तरह लक्ष्मण आपके वियोग से पीडित हैं व निरंतर आकाश की ओर शून्य नजर से ताकते रहते हैं। उनके हृदय में तनिक भी शांति एवं आनंद की अनुभूति नहीं है । आपके अनुज भामंडल एवं पाताललंका के अधिपति विराध अपनी अपनी सेना समेत रामचन्द्रजी के निकट है। किष्किंधाधिपति सुग्रीव की प्रेरणा से रामचंद्रजी ने अपनी मुद्रिका देकर मुझे यहाँ भेजा है और आपका चूडामणि मंगवाया है। चूडामणि देखकर उन्हें इस बात Personal Private se Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने की इच्छा है। रावण स्वयं को सर्वत्र विजयवंत मानता है, अन्य किसी के पराक्रम को स्वीकारता नहीं है अतः उसे रामचंद्र के सेवक का पराक्रम बताकर ही जाऊँगा" सीताजी ने उन्हें अपना चूडामणि दिया, उसे लेकर वे वसुंधरा को कंपायमान करने लगे । देवरमण उद्यान की तोडफोड इसके पश्चात् वन्य हस्ती की तरह उन्होंने देवरमण के विध्वंस का आरंभ किया। अशोक वृक्ष, बकुल वृक्ष, आम्रवृक्ष, मंदारवृक्ष, कदलीवृक्ष आदि उखाड़कर इतस्ततः कर उन्होंने देवरमण उद्यान में हाहाकार मचाया। कोलाहल सुनते ही रावण के नियुक्त द्वारपाल वहाँ आए, उनके हाथो में मुद्गर थे। जब वे हनुमानजी के शरीर पर प्रहार करने की चेष्टा करने लगे, तब उन्होंने समूल उखाड़े हुए वृक्षों से राक्षसों पर प्रहार किया। पराक्रमी पुरुष चाहे निःशस्त्र हो, अकेला हो या विपदाओं से घिरा हो, वह चलायमान नहीं होता। Ja Education International को वीरस्य मनस्विनः स्वविषयः को वा विदेशस्तथा । देशं श्रयते तमेव कुरुते बाहुप्रतापार्जितम् ॥ यदंष्ट्रानखलांगुलप्रहरणः सिंहो वनं गाहते। तस्मिन्नैव हत द्विपेन्द्ररुधिरैस्तृष्णां छिनत्त्यात्मनः ॥ कितने ही सुभटों ने रावण के समक्ष जाकर उसे संपूर्ण वृत्तांत सुनाया, तब रावण ने अपने पुत्र अक्षयकुमार को हनुमान को मार देने का आदेश दिया। दोनों का तुमुल युद्ध हुआ। अंतमें अक्षयकुमार मारा गया। अक्षयकुमार के बाद उसका अनुज इंद्रजित वहाँ आया। उसके सभी शस्त्रास्त्र हनुमानजी की वज्रकाया पर निष्फल होने लगे, अंत में क्रोधावेश में आकर उसने हनुमान पर नागपाश का प्रयोग किया। कौतुकवशात् हनुमानजी उन पाशो में बद्ध हो गए। फिर सैनिक उन्हें रावण के पास ले गये। रावण ने कहा, "हे वानर ! तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है क्या ? राम और लक्ष्मण तो वनवासी हैं। फलाहारी, मलिन वस्त्रधारी और कुटिया निवासी वे दोनों तुम पर तुष्ट भी होते हैं, तो तुम्हें क्या निहाल कर देंगे ? मंदबुद्धि हनुमान ! उनके वचन सुनकर तुम क्यों अपने प्राण गँवाने के लिए तैयार हो गए ? तुम मेरे भूतकालीन सेवक हो और शत्रु के दूत हो, अतः तुम अवध्य हो।" रावण का कहना सुनते ही हनुमान ने कहा, "मैं तुम्हारा सेवक कब था ? और तुम मेरे स्वामी कब से हो ? अपनी आवश्यकतानुसार तुम हमें सहायता के लिए बुलाते थे व हम तुम्हारी सहायता करते थे। मेरे पिता पवनंजय ने तुम्हें व तुम्हारे बहनोई खर को वरुण के बंधन से छुडाया था। वरुण के पुत्रों के क्रोध से मैंने ही तुम्हारी रक्षा की थी। परंतु अब तुम सहायता के लिए योग्य नहीं हो, क्योंकि तुमने परदारा हरण का पाप किया है। तुमसे बात करना भी मेरे लिए पाप है। क्या तुम्हारे परिवार में ऐसा कोई व्यक्ति है, जो तुम्हें पराक्रमी लक्ष्मण से बचा सके ? राम की बात तो दूर रही ।" यह सुनकर क्रोध से कंपायमान रावण ने प्रलाप किया, "एक तो तुम हमारे शत्रु के पक्ष में गए हो, अतः तुम भी हमारे शत्रु हो, यद्यपि दूत को मारा नहीं जाता, परंतु अनुचित बोलने वाले दूत को दंड जरूर दिया जाता है। हे अधम ! तुम्हें तो गधे पर आरूढ कराकर लंका के प्रत्येक मार्ग में लोगों की भीड समक्ष घूमाया जायेगा ।" क्रोध से कोपायमान हनुमान ने कमलनाल की भाँति नागपाश तोड़ दिए और विद्युल्लेखा की तरह लपककर रावण के मुकुट पर पादप्रहार कर उसे चूर चूर कर डाला । अतिक्रोध से उन्मत्त रावण, "इस अधम को Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 पकड़ो... पकड़ो... मार डालो" चिल्लाता रहा, परंतु हनुमान का रौद्रस्वरूप देखकर कोई भी रक्षक उनके समीप जाने का साहस न कर पाया। हनुमान ने पादप्रहार कर लंका के अत्युच्च प्रासाद, हवेलियाँ, अटरियाँ भी चूर्णचूर्ण कर दी। फिर किष्किंधापुरी पहुँचे। राम को प्रणाम कर उन्होंने सीताजी का चूडामणि उनको अर्पण किया। चूडामणि 20 राम एवं उनके सुभट अब लंकाविजय के लिए रवाना हो गए। रास्ते में वेलंधर नगर होकर उसके राजा समुद्र एवं सेतु को साथ लेकर राम सुवेलगिरि आए। वहाँ के शासक हंसरथ का पराभव कर वहीं राम ने अपना अस्थायी आवास बनाया। राम धीरे धीरे लंका के समीप आ पहुँचे हैं, यह जानकर हस्त, प्रहस्त, मारीच, सारंग आदि रावण के सुभट युद्ध के लिए सज्ज हो गए। रावण ने शंखनाद किया। रणभेरियाँ बजने लगी। युद्ध प्रारंभ विभीषण ने शिष्टता की अंतिम चेष्टा प्रारंभ की। वे रावण के समक्ष जाकर कहने लगे, "हे भ्राता ! परस्त्री का अपहरण धार्मिक एवं सामाजिक नीतिनियमों के विपरीत है। यह जघन्य कृत्य इस जन्म में कुल का विनाश व परलोक में दुर्गति की प्राप्ति कराता है। राम अपनी पत्नी को प्राप्त करने के लिए पधारे है। उनका स्वागत कीजिए, आतिथ्य कीजिए व सम्मान सहित उन्हें सीता लौटा दीजिए। राम सीता को लेने आये हैं व उन्हें लेकर ही जाएँगे। यदि आप सम्मानसहित सीताजी को लौटाते हैं, तो अनर्थ टलेगा। किंतु यदि आप राजहठ पर अडे रहेंगे, तो प्रलय होगा, अपने कुल का विनाश हो जाएगा। - विद्याधर साहसगति एवं खर का नाश करने वाले लक्ष्मण लंका में क्या नहीं करेंगे ? इसका कभी विचार किया है आपने ? हनुमान तो राम का साधारण सेवक है, किंतु क्या उसका प्रभाव एवं प्रकोप आपने देखा नहीं ? आप इंद्र राजा से अधिक धनवान है, किंतु आपकी लंपटता के कारण यह सब व्यय हो जाएगा।" देखते ही रामचंद्र का कंठ गद्गद् हो गया, मानो साक्षात् सीताजी ही उनके समक्ष खड़ी हो राम बार बार उस चूडामणि को अपनी छाती से लगाते रहे, फिर उन्होंने हनुमान को पुत्र के समान आलिंगन दिया व मस्तकावघ्राण किया । इसके पश्चात् हनुमानजी ने अपनी लंकायात्रा का रोचक व रोमहर्षक अनुभव सब को सुनाया। रावण कुछ कहे, इसके पूर्व इंद्रजित कहने लगा, "काकाश्री! आप तो जन्म से ही भीरु व कायर रहे हैं। आपके ही कारण हमारा कुल दूषित हुआ है क्या आप वास्तव में चंडपराक्रमी रावण के अनुज है ? मेरे पिताश्री ने इंद्र राजा को पराजित कर उसके राज्य को जित लिया है, उनका अपमान करनेवाले आप क्या मरना चाहते हैं ? इसके पहले भी असत्य बोलकर आपने पिताश्री को फँसाया था। आपने तो भरी राज्यसभा में दशरथ एवं जनकवध करने की प्रतिज्ञा की थी क्या हुआ आपकी प्रतिज्ञा का ? क्यों पूर्ण नहीं हो पायी आपकी प्रतिज्ञा ? अरे आप इतने बुद्धिहीन हैं कि मूर्ति व मानव के बीच क्या अंतर होता है, यह भी समझ नहीं सके। आप गए तो थे दशरथ की हत्या करने, और किसकी हत्या की ? मूर्ति की....! और यहाँ असत्य बोलकर हमें ठगा। अभी आप मेरे वीर पिताश्री के मन में राम का भय निर्माण करने की चेष्टा कर रहे हो। मैं तो मानता हूँ कि आप राम के ही पक्ष में है, कदाचित् आप राम के गुप्तचर भी हो सकते हैं। मंत्रणा करने का आपका कोई अधिकार नहीं मंत्रणा तो आप्तमंत्रियों के साथ राजा व स्वराज्य की सुरक्षा एवं शुभकामना के लिए की जाती है। आप जैसे आप्त से तो शत्रु भला " बिभीषण ने कहा "हे वत्स इंद्रजित मैं तो शत्रु के पक्ष में नहीं परंतु पुत्र के रूप में ज़रूर तुम ही शत्रु हो। तुम्हारे पिताश्री कामांध तो हैं ही, परंतु उन्हें अपने बल और ऐश्वर्य का मिथ्या अभिमान भी है। उनका समर्थन करनेवाले तुम कुलविनाश के लिए उत्तरदायी बनोगे । तुम अभी बालक हो, क्या तुम जानते हो कि तुम कितने बड़े विनाश को निमंत्रण दे रहे हो ?” फिर उसने रावण से कहा, “अपने दुश्चरित्र के कारण आप का पतन होगा और आपका यह पुत्र उस पतन में आपके साथ होगा।" यह सुनते ही रावण का क्रोधाग्नि प्रज्वलित हुआ व उसने अपना खड्ग उठाया। बिभीषण भी भौंहें चढाकर हाथ में एक स्तंभ लेकर अपनी रक्षा करने के लिए खड़ा हुआ। किंतु कुंभकर्ण For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व इंद्रजित ने मध्यस्थी करके दोनों को पृथक् किया। तब रावण ने कहा, "अरे, श्वान व सूकर भी अपने अन्नदाता के उपकारों को नहीं भूलते और सदा सर्वदा उनका साथ देते हैं। तुम अपने ज्येष्ठ भ्राता के उपकारों को भूल गए ! तुम तो श्वान सूकरों से भी गए बीते हो.... चले जाओ यहाँ से! मुझे न तुम्हारी सहायता चाहिये, न मंत्रणा !” भ्राता रावण के यह कटु वचन सुनकर बिभीषण रामचंद्रजी की तरफ रवाना हो गया। सेना सहित बिभीषण को अपनी ओर आते देखकर सुग्रीवादि सुभट चिंतित एवं क्षुब्ध बन गए अचानक विशाल नामक विद्याधर ने कहा, “राक्षसों में बिभीषण धर्मात्मा है। सीता मुक्ति के लिए उसके प्रयत्नों के कारण अत्यंत क्रोधित होकर क्रूर रावण ने इसे निकाल दिया है। अतः वह रामचंद्रजी की शरण में आया है।" राम के समीप आते ही बिभीषण राम के चरणों पर नतमस्तक हुआ। राम ने उसे उठाकर आलिंगन दिया। बिभीषण ने कहा “अपने अन्यायी भ्राता को त्यागकर मैं आपकी शरण में आया । भक्त सुग्रीव की भाँति मैं भी आपका आज्ञाकारी सेवक बनने के लिए इच्छुक हूँ।” राम ने उनसे 21 राक्षस सुभटों के विनाश को देखकर रावण क्रोधपूर्वक युद्ध करने लगा। रामसेना के सुभट रावण के सामने युद्ध करते करते थक गए। तब राम, रावण के समक्ष आए, किंतु उन्हें रोककर बिभीषण रावण के समक्ष आया। उसके साथ द्वंद्व आरंभ होते ही रावण बोला, "वाह रे वीर! त्रिभुवनजेता, दशरथनंदन राम ने आत्मरक्षा के लिए क्या तुम्हें मेरे समक्ष भेजा है ? तुम राजद्रोही होने से वध्य हो, किंतु तुम मेरे सहोदर हो, आज भी मेरे मन में तुम्हारे प्रति प्रेम व वात्सल्यभाव जीवित है, अतः मैं तुम्हारा वध नहीं करूँगा। कुंभकर्ण, इन्द्रजित इत्यादि सुभटों को शत्रुओं ने जकड लिया है, किंतु उन कायर रामलक्ष्मण के लिए मेरा एक ही बाण पर्याप्त होगा, आज मैं उन दोनों का वध अवश्य करूंगा, ताकि कुंभकर्णादि वीर मुक्त हो सकें" बिभीषण ने कहा, "राम आपके साथ युद्ध करने के लिए आ ही रहे थे, किंतु मैंने उन्हें रोका, ताकि मैं पुनः एकबार आपसे मिलूँ व इस युद्ध की व्यर्थता आपको प्रकट करूँ ! अभी भी समय है। आप सीताजी को मुक्त कीजिए। मुझे न मृत्यु का भय है, न राज्य की 0/ कहा कि, युद्ध में विजय होने पर लंकापुरी की बागडौर आप ही को संभालनी होगी।" हंसद्वीप में एक सप्ताह रहकर राम, सेनासहित वहाँ से लंका के लिए रवाना हो गए। वे लंका की सीमा पर पहुँचे। रावण भी अपने सैन्य के साथ सीमा पर आ पहुँचा। दोनों सेनाओं में तुमुल युद्ध हुआ । राम के सुभट नल ने हस्त को, नील ने प्रहस्त को एवं हनुमान ने वज्रोदर को मार डाला। युद्ध में अनेक सुभट यमराज के शिकार बन गये। फिर कुंभकर्ण व सुग्रीव युद्धभूमि में आये । सुग्रीव ने कुंभकर्ण को उठाकर भूमिपर पटक दिया। तब रावण ने युद्धप्रवेश किया। किंतु इंद्रजित ने उसे रोका व स्वयं सुग्रीव के साथ लडने लगा। मेघवाहन भामंडल के साथ लड रहा था। इंद्रजित व मेघवाहन, सुग्रीव एवं भामंडल को नागपाश में बाँधने लगे। राम ने महालोचन देव का स्मरण किया। देव ने प्रसन्न होकर राम को सिंहनिनादा शक्ति, मुसल व रथ प्रदान किया। लक्ष्मण को गारुडी विद्या एवं रथ प्रदान किया । लक्ष्मण को गारुडी विद्यासमेत देखते ही सुग्रीव व भामंडल, नागपाशों से मुक्त हुए। राम की सेना में उत्साह का वातावरण फैला। लक्ष्मण घायल लालसा । मैं अन्याय व अपकीर्ति से बचने के लिए राम के पक्ष में गया हूँ । आप मेरे भ्राता हैं, अतः मेरे लिए सदा पूजनीय हैं। ज्येष्ठ भ्राता की हत्या का साक्षी बनने की मुझे इच्छा नहीं है। यदि आप इस क्षण सीता को मुक्त करते हैं, तो मैं इसी क्षण आप के पास आकर आपका किंकर बनकर शेष जीवन व्यतीत करूँगा! आपसे यह बात कहने के लिए ही मैं इस स्थानपर आया हूँ, अन्य किसी भी कारण से नहीं ।" अतिक्रोध के कारण रावण की सदसद्विवेक बुद्धि क्षीण हो चुकी थी। उसने सक्रोध धनुष्य का टंकार किया व बिभीषण के साथ युद्ध का आरंभ किया। उन राक्षससहोदरों के प्रहारों से धरती कंपायमान होने लगी। * अब रावण ने धरणेन्द्र द्वारा दी गई अमोघविजया नामक विद्या शक्ति हाथ में धारण की। धक् धग् शब्दों के साथ प्रज्वलित वह शक्ति वनाग्नि जैसी भीषण थी। तड़-तड् आवाज करती इस शक्ति की अग्निशिखाएँ मानो त्रिभुवन को स्वाहा करने के लिए अपनी असंख्य जिह्वाएँ लपलपा रही थी। रावण, अष्टापदतीर्थ पर भक्ति कर रहे थे। अचानक उनके वीणा का तार टूट गया, अतः उन्होंने अपने भुजा की नस निकाल कर उस पर जोड़ दी धरणेन्द्र देव ने उनकी प्रभुभक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें यह अमोघविजया विद्या भेट दी थी। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 05 MER रावण और लक्ष्मण का युद्ध सीता भी इस दुर्घटना का समाचार मिलते बेहोश हो गई। जल छींटकने पर वे होश में आकर विलाप करने लगी। इतने में अवलोकिनी विद्या के एक ज्ञाता ने सीता को यह कहकर आश्वस्त बनाया कि, “कल प्रातः लक्ष्मण पुनः स्वस्थ हो जाएंगे।" विभीषण के शरीर में यह शक्ति सहने का सामर्थ्य नहीं था। अतः राम ने लक्ष्मण से कहा, "हे अनुज ! अपना आश्रित बिभीषण इस अमोघविजया शक्ति के प्रयोग से मारा जा रहा है, सत्वर जाकर उसकी रक्षा करो।" लक्ष्मण त्वरित रावण से युद्ध करने के लिए खडे हो गए । रावण ने उनसे कहा, "मैंने यह शक्ति तुम्हें मारने के लिए ग्रहण नहीं की है, किंतु राजद्रोही, वंशद्रोही, मातृभूमिद्रोही विभीषण का वध करने के लिए ग्रहण की है। यदि तुम उसकी रक्षा करना चाहते हो, अथवा उसके लिए प्राणत्याग करना चाहते हो, तो तुम्हें मरना ही इष्ट होगा।" रावण ने इस प्रकार लक्ष्मण के मन में भय निर्माण का यत्न किया, परंतु लक्ष्मण अपने निश्चय पर अड़ग रहे। अंत में रावण ने वह चंडशक्ति लक्ष्मण पर छोड दी। भामंडल, सुग्रीव, नल, नील, हनुमान व अन्य सुभटों ने अपने अस्त्रोंद्वारा उस शक्ति को छेदने के लिए प्रयास किये, किंतु वे सब निष्फल रहे और उस शक्ति ने लक्ष्मण के वक्ष पर प्रहार किया। तत्काल लक्ष्मण मूर्छित हो गए। यहाँ बिभीषण ने राम से कहा कि, “इस शक्तिद्वारा ताडित मनुष्य प्रायः एक रात्रि तक ही जीवित रह सकता है। अतः प्रतिघात के लिये मंत्र, तंत्रादि का प्रयोग आवश्यक हैं।" इतने में कोई रामसैनिक, एक विद्याधर को लक्ष्मण के समीप लाया। उस विद्याधर ने कहा, "मेरा अनुभव यह है कि भरत के मातुल द्रोणमेघ की पुत्री विशल्या के स्नानजल से यह शक्ति अवश्य नष्ट हो जाएगी, क्योंकि उसने पूर्वजन्म में कठोर तप किया था।" यह सुनते ही रामचंद्र ने भामंडल, हनुमान एवं अंगद को अयोध्या जाकर भरत के साथ द्रोणमेघ की राजधानी कौतुकमंगल नगर जाने का आदेश दिया। रामचंद्र की आज्ञा के अनुसार वे अयोध्या पहुँचे । भरत उन्हें लेकर कौतुकमंगल आए व द्रोणमेघ से अनुरोध किया कि वे अपनी पुत्री विशल्या को उनके साथ लंका जाने की अनुमति दें। द्रोणमेघ से किसी नैमित्तिक ने कहा था कि विशल्या का विवाह दशरथपुत्र लक्ष्मण के साथ होगा। इसलिए उन्होंने सत्वर विशल्या को उनके साथ जाने की अनुमति दी। श्री रामचंद्रजी के सुभट फिर अयोध्या गए। वहाँ भरत को छोड़कर वे राम के पास आए। क्रोधित राम ने रावण पर आक्रमण किया व पाँच बार उसे रथहीन बना दिया। रावण ने सोचा- उस अमोघशक्ति के प्रहार से लक्ष्मण तो जी नहीं पाएँगे और अपने अनुज की मृत्यु से विह्वल राम उसी रात्रि, प्राणत्याग करेंगे। अतः युद्ध करने का अब कोई प्रयोजन नहीं है। इतने में सूर्यास्त हुआ और रावण पुनः लंका लौटा। युद्धभूमि से राम अपने छावनी में लौटे। भूमि पर पड़े लक्ष्मण को देखकर राम स्वयं बेहोश हो गये। सुग्रीव आदि सुभटों ने ज्योंही जल छींटका, राम होश में आये व विलाप करने लगे। वहाँ लंका में For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशल्या द्वारा शक्ति से घायल लक्ष्मण को स्वस्थ करना ज्योहि विशल्या ने लक्ष्मण को अपने हाथ से स्पर्श किया, दीजिये।" उसे छोडते ही वह अदृश्य हो गयी। विशल्याने लक्ष्मण को त्योंहि अमोघविजया शक्ति ने लक्ष्मण के शरीर को छोड दिया। इतने दूसरी बार स्पर्श किया। इसके पश्चात् गोशीर्ष चंदन आदि से विलेपन में हनुमानजी ने उसे पकडा, तब उसने कहा, "मैं प्रज्ञप्ति महाविद्या किया। लक्ष्मणजी के शरीर पर जितने घाव हुए थे, वे सब भर गए और की भगिनी हूँ। धरणेन्द्र ने मुझे रावण को सौंपा था। मुझे रामलक्ष्मण के लक्ष्मण इस तरह उठे जैसे अभी अभी निद्रात्याग किया हो। रामचंद्रजी साथ कोई वैर नहीं है। जिस व्यक्ति पर मुझे छोडा हो, उसे मृत्यु के ने उन्हें गले से लगाया और विशल्या की संपूर्ण हकीकत कही। विशल्या नगरी में पहुँचाना मेरा काम है। मैं अपना काम यथायोग्य कर रही थी, का स्नानजल लक्ष्मण एवं समस्त घायल सैनिकों पर छीटंका गया। परंतु विशल्या के तपःशक्ति-सामर्थ्य को सहने की शक्ति मुझ में नहीं रामचंद्र की आज्ञानुसार एकसहस्र कन्याओं के साथ लक्ष्मण का विवाह है। अतः मैं लक्ष्मण का शरीर छोडकर जा रही हूँ। मुझे जाने विशल्या के साथ संपन्न हुआ। 22 बहुरूपी रावण की लक्ष्मण द्वारा मृत्यु की अनुज्ञा देंगे, तो मैं आपको मेरा आधा साम्राज्य एवं तीन सौ कन्याएँ दूंगा।" दूसरे दिन महायोद्धा लक्ष्मण को युद्धभूमि में देखकर चिंतित रावण बोला, "अब मैं कुंभकर्णादि वीरों को कैसे मुक्त करवा सकूँगा ?" रावण के मंत्रियों ने कहा- “स्वामिन् ! अब सीताजी की मुक्ति के अलावा कोई अन्य विकल्प हमारे पास नहीं है। अन्यथा आपके सहोदर कुंभकर्ण एवं आत्मज युवराज इंद्रजित की मुक्ति असंभव है। यदि आप राम का अनुसरण नहीं करेंगे, तो कुल का विनाश निश्चित है।" रावण ने उनकी अवज्ञा कर सामन्त नामक एक दूत को रामचंद्रजी के पास भेजा। दूत को साम, दाम, दंड, भेद नीतिओं के अनुसरण का आदेश दिया गया था। दूत ने राम को प्रणाम कर मधुरवाणी में कहा, "मैं सामन्त, लंकाधिपति रावण का दूत हूँ। मेरे स्वामी ने कहलवाया है कि यदि आप मेरे कुलजनों को मुक्त करेंगे व सीता को मेरे पास रहने रामचंद्र ने कहा, “अरे मुढ ! न मुझे रावण के आधे साम्राज्य में रस है, न तीन सौ कन्याओं में, यदि आपके स्वामी मेरी पत्नी सती सीता को मुक्त करते हैं, तो मैं उनके कुलजनों को मुक्त करुंगा।" दूत ने कहा, “एक स्त्री के लिए आप इतना बडा साहस क्यों कर रहे हैं? अमोघविजया शक्ति से लक्ष्मण अपने सौभाग्य के कारण ही जीवित बचे हैं। मेरे स्वामी के पास ऐसी अमोघविजया जैसी अनंत शक्तियाँ हैं। क्या आप अपने अनुज लक्ष्मण की बलि पुनः मृत्युदेव को चढाने के लिए उत्सुक है ?" लक्ष्मण ने क्रोधपूर्वक कहा, "क्या आपके For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 स्वामी रावण को स्वशक्ति व परशक्ति का ज्ञान नहीं है? वह इतनी धृष्टता क्यों कर रहा है ? जाईये व अपने स्वामी से कहिये, लक्ष्मण ने कहा है, हे प्रमत्त मानव ! धिक्कार है तुझे ! अगर धैर्य है तो आ, युद्ध कर ! मैं लक्ष्मण उसे यमपुरी भेजने के लिए उत्सुक हूँ । हे कापुरुष ! क्या राम-लक्ष्मण के अतुल्य पराक्रम ने तेरे अंतर्मन में इतना भय उत्पन्न किया है कि अब तू युद्धविराम कराने के लिए विवश हो गया है ?" दूत ने समस्त वृत्तांत कथन करने के उपरांत रावण ने पुनः अपने मंत्रियों के साथ विचार विमर्श किया। उन्होंने पुनः रावण से कहा, "यदि आप सीताजी को मुक्त नहीं करेंगे, तो आपका एवं समस्त राक्षसकुल का विनाश अटल है।" निराश होकर रावण ने बहुरूपिणी विद्या की साधना करने का निर्णय लिया। जिनालय में जाकर उसने श्री शांतिनाथ भगवान की अनेकानेक भाववाही स्तुतिओं द्वारा प्रार्थना की। फिर वह एक रत्नशिला पर बहुरूपिणी साधना के लिए हाथ में अक्षमाला लेकर आसनस्थ हुआ। मंदोदरी ने यम नामक राक्षस द्वारा नगर में उद्घोषणा करवाई “आज से दो दिन समस्त लंकानिवासी धर्मसाधना में लीन रहें, ऐसी राजा की आज्ञा है। यदि कोई इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा तो उसे मृत्यु-दंड दिया जाएगा।" गुप्तचर ने इस उद्घोषणा का वृत्तांत सुग्रीव को सुनाया। सुग्रीव ने सत्वर रामचंद्रजी से कहा “हे कौशल्यानंदन ! जब तक रावण को बहुरूपिणी विद्या सिद्ध नहीं होती, तब तक उसका प्रतिकार शक्य है। साधना सिद्धि के उपरांत हमारा विजय अशक्य है। अतः उसकी साधना में अवरोध निर्माण करना आवश्यक है- 'शंठं प्रति शाठ्यं' करना ही हमारे लिए योग्य है।" किंतु रामचंद्र ने कहा, "रावण कुटिल है. कुटिलता उसका स्वभाव है, मेरा नहीं.. उसकी साधना में अवरोध निर्माण करने की मुझे इच्छा नहीं है।" रावण द्वारा बहुरूपिणी विद्या की साधना रामचंद्रजी का यह वचन सुनकर अंगद आदि सुभट गुप्तरूप से रावण के साधनास्थान पर पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही अंगद बोले, "हे रावण! क्या राम के शौर्य से तू इतना आतंकित है कि ऐसे पाखंड करने के लिए विवश हुआ है। अरे दुष्ट ! रामपत्नी सती सीता का तूने परोक्ष अपहरण किया है, अब देख मैं तेरी पत्नी का अपहरण तेरी उपस्थिति में ही कर रहा हूँ। तेरे में सामर्थ्य हो, तो मुझे परावृत्त कर" यह कहकर उसने मंदोदरी का केशकलाप खिंचा व उसे घसीटने लगा। मंदोदरी करुण रुदन करने लगी, परंतु रावण अपनी साधना में इतना मग्न हो चुका था कि उसने अपनाशीष तक ऊपर नहीं किया। DEDICINDI International GRILésonal & Plug Use ON Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 इतने में अपने तेज से नभोमंडल को प्रकाशित करती बहुरूपिणी विद्या वहाँ अवतीर्ण हुई व बोली, “वत्स रावण ! तुम्हारी साधना सिद्ध हो चुकी है। मैं प्रसन्न हूँ। बताओ, मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ? मैं समूचे जगत को वश कर सकती हूँ। मेरे समक्ष राम अथवा लक्ष्मण केवल नाम मात्र है...." रावण ने कहा, "मातः ! आप सर्वशक्तिमान हैंकिंतु इस पल मुझे आपकी आवश्यकता नहीं है। आपात्काल में जब आपका स्मरण करूँ, तब मेरी सहायता के लिए पधारिये, इतनी ही विनति है।" 'तथास्तु' कहकर बहुरूपिणी विद्या अदृश्य हो गई। नम्रतापूर्वक समझाया है। अब मैं तेरे पति का वध करुंगा व नियमभंग कर तुम्हारे ऊपर बलात्कार भी करुंगा।" रावण का यह दर्पोक्तिपूर्ण भाषण सुनकर सीता बेहोश हो गयी। कुछ समय के पश्चात् सीता होश में आकर कहने लगी, "राम व लक्ष्मण की मृत्यु हो गई, तो मैं भी अनशन करके प्राणत्याग करूंगी।" सीताजी की बात सुनकर रावण यह विचार करने के लिए विवश हुआ कि सीताजी का राम के प्रति प्रेम स्वाभाविक है। अतः सीता के मन में मेरे लिए अनुराग निर्माण करना बंजर जमीन में बीज बोने की हास्यास्पद चेष्टा होगी। मैंने तो अपने कुल को भी कलंकित किया है। कल प्रातः युद्धभूमि से राम-लक्ष्मण को बंदी बनाकर लाऊँगा और सीता को उन्हें सौंप दूंगा। मेरा यह कर्म धार्मिक एवं नैतिक भी कहलवाएगाँ। जब उसे अंगदद्वारा मंदोदरी पर किए गए अपमान के समाचार मिले, तब उसने अहंकारपूर्वक कहा, “यह अंगद कौन है ? अब अल्प समय में उसकी मृत्यु होनेवाली है" रावण स्नानादि क्रिया के उपरांत देवरमण बगीचे में गया व सीता से कहने लगा, “मैंने तुम्हें अनेकबार For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 72 25 For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HO SS DILIP SONI 8/1999 For Personal & Private Use Only बहुरूपिणी विद्या से अनेक रावण के साथ लडते हुए लक्ष्मण प्रातः उठते ही बहुत अपशकुन हुए., फिर भी रावण युद्धभूमि पर गया। 73 वहाँ लक्ष्मण का भीमपराक्रम देखकर भयभीत बने रावण ने बहुरूपिणी विद्या का स्मरण किया। अचानक युद्धभूमि में पूर्व पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाओं में रावण के रूप दीखने लगे। हर दिशा से बाणवृष्टि करते हुए अनेक रावण देखकर राम की सेना भयभीत हुई। लक्ष्मण, गरुडपर खडे होकर रावण की बाणवर्षा का प्रतिकार करने लगे। निरंतर चलती उनकी शरवर्षा ने रावण को उद्विग्न बना दिया। अतः रावण ने प्रतिवासुदेव के चिन्ह रूप सुदर्शनचक्र का स्मरण किया । क्रोध से आरक्त रावण ने आकाश में गति देकर चक्र को लक्ष्मण की दिशा में फेंका, किंतु वह चक्र लक्ष्मण की प्रदक्षिणा कर उनके दक्षिण हस्त में आया, क्योंकि लक्ष्मण स्वयं वासुदेव थे वासुदेव पर सुदर्शन चक्र प्रहार नहीं करता। अब रावण को नैमित्तिक के कथन का स्मरण होने लगा। तब बिभीषण ने एक बार पुन: रावण को कहाँ "भाताश्री ! आप अभी भी सीताजी को सौंप दीजिए। इससे आपका विनाश नहीं होगा" परंतु अहंकारी रावण ने कहाँ रे दुष्ट चक्र निष्फल गया तो क्या हुआ ? मैं अपनी एक ही मुठ्ठी से लक्ष्मण को खत्म कर दूँगा । लक्ष्मण ने सत्वर चक्र को गति देकर रावण के वक्ष पर फेंका और उस तेजस्वी चक्र ने रावण की छाती चीर दी। विशाल वृक्ष की भाँति, रावण धराशायी हो गया। रामसेना ने जयनाद किया। स्वर्ग से देवों ने लक्ष्मण पर पुष्पवृष्टि की। मरणोपरांत रावण का जीव चौथे नरक में गया । - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 23 अपने भ्राता को धराशायी होते देखकर विभीषण शोकावेग से संतप्त होकर आत्महत्या करने ही वाले थे किंतु राम ने रुदन करते विभीषण के हाथों से कटार छीन ली विलाप करती मंदोदरी के साथ बिभीषण रावण के शव के समीप गए। राम एवं लक्ष्मण ने उन्हें आलिंगन देकर आश्वासन देते कहा, "युद्ध तो क्षत्रिय के लिए क्षात्र धर्म है व भीरुता अधर्म है। आपके भ्राता युयुत्सु थे, उन्हें वीरमरण प्राप्त हुआ है, क्योंकि अंतिम क्षण तक वे वीरतापूर्वक युद्ध करते रहे। जब दो क्षत्रियों के बीच युद्ध होता है, तब किसी एक का मृत्यु निश्चित है, परंतु क्षत्रिय वीरतापूर्वक युद्ध करते हैं व वीरतापूर्वक वीरगति पाते हैं। वीरगति पानेवाले क्षत्रिय की प्रशंसा देवगण भी करते हैं रावण की मृत्यु वीरोचित थी अब उनकी अंत्येष्टि एवं उत्तरक्रिया कीजिए।” यह कहकर राम ने कुंभकर्ण, इंद्रजित, मेघवाहन आदि रावणसेना के सुभटों को बंधमुक्त करवाया। कुंभकरण आदि की दीक्षा नेत्रों से निरंतर अश्रुधाराएँ बहाते हुए बिभीषण, कुंभकर्ण, इंद्रजित, मेघवाहन ने गोशीर्ष चंदन कर्पूर आदि सुगंधी द्रव्यों से रावण का अग्निसंस्कार किया। अंत्येष्टि के पश्चात् रामचंद्र ने उन चारों से कहा, "आप सभी मिलकर अपना यह साम्राज्य चलाईये। हमें न आपके राज्य की आवश्यकता है, न धन की। " किंतु कुंभकर्णादि वीर व वीरागंना मंदोदरी ने कहा, "मृत्यु तो क्षत्रिय के जीवन का एक अविभाज्य अंग है, स्वजन का असमय मृत्यु देखकर हमारे मन में वैराग्य जागृत हुआ है जीवन क्षणिक है, मृत्यु निश्चित है, केवल मोक्ष ही शाश्वत है। हमारे मन में अब राज्यवैभव की लालसा नहीं रही। हम तो मोक्षसाधना के लिए दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं। " आज हम प्रत्येक क्षण मृत्यु का साक्षात्कार करते हैं। प्रत्येक दिन हम किसी जाने अंजाने व्यक्ति का मृत्यु देखते हैं, या उसके विषय में सुनते हैं, पर हम यह नहीं समझते आज उनके साथ जो हुआ है वह कल हमारे साथ होगा - फिर क्या ? शास्त्र में कहा है कि, अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शस्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्य धर्मसंचयः ॥ , शरीर अनित्य है, उसका कोई भरोसा नहीं, कब व्यधिग्रस्त बन जाए। वैभव संपत्ति व सत्ता शाश्वत नहीं है। मृत्यु हमेशा पास में खड़ी हैं। इसलिये चारित्र धर्म का संचय करना चाहिये अर्थात् दीक्षा लेनी चाहिये। मरणोपरांत मेरा क्या होगा ? इसके विषय में विचार करने के लिए हमारे पास समय ही कहाँ है ? भूकंप से, बाढ से, दुर्घटना से, बमविस्फोट से अनगिनत लोग मरते हैं किंतु हमारे कठोर हृदय में वैराग्य जागृत नहीं होता। हमें विचार करना चाहिए कि एक स्वजन की असमय मृत्यु ने जिन्हें दीक्षा लेने की प्रेरणा दी, वे कुंभकर्ण, इंद्रजित, मेघवाहन व मंदोदरी कितनी महान आत्माएँ थी, दुसरी ओर हम हैं, जो मृत्यु का रौद्र तांडव देखकर भी अपनी भोगलालसा को छोड़ नहीं पाते । For Persone voto Ubey ary.org Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंभकर्ण आदि की दीक्षा कुंभकर्णादि सुभटों के मन में वैराग्य जागृत हुआ ही था, इतने में कुसुमायुध नामक वाटिका में चतुर्ज्ञान के स्वामी अप्रमेयबल मुनि पधारे। उन्हें उसी स्थान पर उसी रात्रि में उज्वलतम केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तब देवताओं ने हर्षपूर्वक केवलज्ञान महोत्सव मनाया। रामचन्द्र, लक्ष्मण, कुंभकर्णादि समस्त उनके दर्शनार्थ आए। इन्द्रजित व मेघवाहन ने मुनिश्री की वैराग्यपूर्ण देशना सुनकर उनसे अपने पूर्वभवों के विषय में प्रश्न किए। केवलज्ञानी मुनिश्री ने उन्हें पूर्वभव का संपूर्ण विवरण किया। अपने पूर्वभवों का वृतान्त सुनकर उनका वैराग्य तीव्रतम हो गया। अतः कुंभकर्ण, इंद्रजित, मेघवाहन, एवं मंदोदरी ने केवलज्ञानी मुनिश्री अप्रमेयबल से दीक्षा ग्रहण की। 24 रामचंद्रजी का लंकाप्रवेश व अयोध्या में पुनरागमन राम-लक्ष्मणादि वीरों ने समारोहपूर्वक लंका में प्रवेश किया। वे सत्वर देवरमण उद्यान में गए। वहाँ सीताजी को पाकर वे हर्ष से पुलकित हुए। लक्ष्मण, सुग्रीव व हनुमान ने सती सीताजी को सादर प्रणाम किया। वहाँ से निकलकर राम, लक्ष्मण, सीता आदि श्रीशांतिनाथजी के जिनालय में गये विभीषण ने उत्तमोत्तम अक्षत, पुष्प, केसरादि सुगंधीद्रव्य, मिष्टान्न, फल इत्यादि पूजासामग्री का पहले ही प्रबंध कर रखा था। पूजा के पश्चात् वे राजप्रासाद गए। राजसभा में श्रीराम को सिंहासन ग्रहण करने का अनुरोध कर बिभीषण बोला, “यह राक्षसद्वीप अब आप का है। आप इसे ग्रहण कीजिये। मैं आपकी सेना का एक सामान्य सैनिक बनकर रहूँगा। हमारी इच्छा है। कि आपका राज्याभिषेक हो, अतः आप इस विषय में हमें आज्ञा दें।" राम ने कहा, "हे बिभीषण ! क्या आपको स्मरण है कि रामसेना में आपका स्वागत करते समय मैंने क्या कहा था? मैंने आपसे वचन दिया था कि युद्ध में विजय के उपरांत आप ही लंका का पदभार संभालेंगे। मुझे तो लगता है कि निःस्वार्थ भक्तिभाव के कारण आप बाँवरे तो नहीं बने ?" इसके पश्चात् सुमहूर्त देखकर रामचंद्र ने विभीषण का अभिषेक करवाया। अभिषेक के उपरांत वे समस्त, रावण के प्रासाद में गए। इन्द्रजित व मेघवाहन के पूर्वभव के लिए पढिये परिशिष्ट : ६ सिंहोदरादि जिन राजाओं ने लक्ष्मण से अपनी कन्याओं के पाणिग्रहण के विषय में वचन लिए थे, वे समस्त अपनी-अपनी कन्याओं को लेकर वहाँ पहुँच गए। लक्ष्मण के साथ उन सभी का विधिवत् विवाह संपन्न हुआ। विंध्यस्थल में इन्द्रजित व मेघवाहन, इन दोनों मुनिओं को मोक्ष प्राप्त हुआ । यह स्थान मेघरथ, इस नाम से प्रसिद्ध हुआ। नर्मदा नदी के तट पर मुनि कुंभकर्ण को मोक्षप्राप्ति हुई। उसके पश्चात् यह स्थान पृष्टरक्षित, इस नामसे प्रसिद्ध हुआ। एक दिन धातकीखंड से नारदजी अयोध्या पधारे। राजमहल जाकर वे माता कौशल्या व माता सुमित्रा से मिले। वे दोनों दुःखी एवं चिंतित थी। नारदजी ने उनसे दुःख का कारण पूछते ही उन्होंने राम के वनवास से लेकर विशल्या के लंकागमन तक का वृत्तांत बड़े करुण स्वर में नारदजी से कहा। उन्होंने आगे यह भी बताया कि राम, लक्ष्मण के जीवित होने की जानकारी उन्हें न मिलने के कारण वे चिंतित थी । यह सुनते ही नारदजी ने उनको आश्वासन दिया कि वे व्यर्थ ही चिंता कर रही थी व वे स्वयं लंका जाकर राम, लक्ष्मण, सीता को पुनः अयोध्या लेकर आनेवाले हैं। लोगों द्वारा लंका का वृत्तांत जानकर नारदजी ने भी राम के पास जाने का निर्णय किया। For Personal & Private Use Only 75 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 DILIP SONI 03.2000 nformo For Personal & Private Use Only CICIONO Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50000ococon PROTON CA ADO Rasy LETO 7 SC For Personal & Private Use Only लंका के अतिथिगृह में नारदजी का आगमन राम, लक्ष्मण, सीता व उनकी सेना के सदस्यों ने छह वर्ष लंका में खुशी से व्यतीत किये। नारदजी लंका में पधारे तब नारदजी का सम्मानपूर्वक स्वागत कर राम ने उनसे आगमन का प्रयोजन पूछा। तब नारदजी ने उन्हें उनकी माताओं की चिंता का विशद किया। नारदजी का वृत्तांत सुनते ही रामचंद्रजी ने राजा विभीषण से कहा, “राजन्! आपकी भक्ति एवं आतिथ्य के कारण हम अपनी माताओं का दुःख भी भूल चूके थे। गत छः संवत्सरों से हम यहाँ वास कर रहे हैं। हमारे वियोग से उनका मृत्यु हो न जाए। इसलिए हमें अयोध्या पहुँचना चाहिये। राजन् ! आप यह न समझिये कि आपके आतिथ्य में कोई क्षति होने के कारण हम पुनः अयोध्या 1 जाना चाहते हैं किंतु इस बात पर विचार करे कि जो आतिथ्य हमें छः संवत्सर तक यहाँ बद्ध कर सकता है, वह स्वयं में संपूर्ण है ही।" विभीषण ने कहा, "यद्यपि अपनी माताओं का दुःखहनन करने हेतु आपका यहाँ से शीघ्र गमन अनिवार्य हैं, किंतु केवल सोलह दिन तक आप लंकानिवासियों को अपने सहवास से वंचित न करें। इस अंतराल में मेरे शिल्पी अयोध्या जाकर उसे स्वर्ग नगरी-सी सुंदर बनाएँगे।" रामचंद्रजी के पुनरागमन के समाचार उनकी माताओं को देते हुए नारदजी ने कहा कि "दुःख एवं निराशा की काली रात, जिसने अयोध्या, अयोध्यावासी एवं आपके हृदयों को दीर्घकाल सुख से वंचित रखा था, अब शीघ्र ही पूर्ण होनेवाली है केवल सोलहदिनों के पश्चात् आप राम, लक्ष्मण व सीताजी के पुनः दर्शन पायेंगे।" यह समाचार सुनकर माताएँ हर्षविभोर हो गई। 77 केवल सोलह दिनों के अल्पसमय में विभीषण राजा के शिल्पियों ने अयोध्या का इतना रमणीय कायापरिवर्तन किया कि वह साक्षात् कुबेर के अलकानगरी से सुंदरतर दीखने लगी। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 东 Sadikha Nove सोलहवें दिन राम, लक्ष्मण एवं सीताजी, लंकावासियों की उपस्थिति में पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या के लिए रवाना हुए। भरत व शत्रुघ्न भी हाथी पर आरूढ होकर उनके स्वागत के लिए आ गये। क्षितिजपर पुष्पक विमान को दिखते ही वे हाथी से उतर कर पैदल चलने लगे। राम, लक्ष्मण व सीताजी विमान से उतर गए। निरंतर बहती अश्रुधाराओं से भरत एवं शत्रुघ्न ने अपने दो भ्राता व भाभी के चरणों का प्रक्षालन किया। राम ने उन्हें दृढ आलिंगन देकर विमान में बिठाया। स्वर्ग एवं धरित्री के मधुर वाद्यों के सुरों की साक्षी में राम, लक्ष्मण व सीता का अयोध्याप्रवेश संपन्न हुआ आनंदविभोर एवं रामदर्शन के लिए उत्कंठित प्रजाजन, विशेष साज शृंगार धारण किए अयोध्या के पथ पर खडे थे। उन्होंने रामचंद्रजी का हर्षोल्लासपूर्वक स्वागत किया। विमान से उतरते ही रामचंद्र सत्वर अपनी माताओं के दर्शन करने उनके प्रासादों में गए। For Personal & Private Use Only राम वगेरे का अयोध्या में प्रवेश Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम आदि का माताओं को नमस्कार राम, लक्ष्मण एवं सीता ने अपनी माताओं का चरणस्पर्श किया। विशल्या आदि नूतन पुत्रवधुओं ने भी अपनी सासुओं को प्रणाम कर उनके आशीर्वाद प्राप्त किए। कौशल्या ने अपने भ्राता की सेवा व सहवास के लिए राजसुखों का त्याग करने वाले लक्ष्मण की प्रशंसा की। लक्ष्मण ने राम एवं सीताजी की स्नेहादरपूर्ण प्रशंसा की। अपनी लघुता बताते हुए उन्होंने कहा, “माता! सीताजी के अपहरण के लिए मैं ही उत्तरदायी हूँ। 305/ नये शस्त्र का प्रयोग करने के लिए उत्सुक बनकर मैंने ही शंबूक का वध किया था। तभी से सीताहरण की प्रकिया का आरंभ हुआ। परंतु आपके आशीर्वादों से हम विशाल सागर लाँघकर लंका पहुँचे व विजयश्री प्राप्त कर पुनः लौटे हैं।" विनयशील भारत ने राम के पुनरागमन के उपलक्ष्य में अयोध्या में एक महान उत्सव का आयोजन किया। SHOO For Personal & Private Use Only 24 79 PILIR Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 भरत एवं कैकेयी की दीक्षा व मोक्ष भरतजी की स्त्रीपरिवार के साथ जलक्रीडा पुनः राज्य के पदभार संभालने हेतु राम का आग्रह सुनकर भरत वहाँ से निकल रहा था कि सीता, विशल्या आदि स्त्रीजनों ने उन्हें जलक्रिडा हेतु प्रार्थना की। यह प्रार्थना उन्होंने भरतको दीक्षा के निश्चय का विस्मरण कराने के लिए की थी। भरत, अंतःपुर से संपूर्ण विरक्त होते हए भी अपनी भाभीओं के आग्रह से जलक्रिडा करने गए। एक दिन भरत ने राम से सविनय कहा, "आपकी आज्ञा से आज तक मैंने राज्य-शकट चलाया है। मेरी इच्छा तो पिताश्री के साथ दीक्षा ग्रहण करने की थी। किंतु पिताश्री एवं आपकी आज्ञा के अर्गलाओं में मैं निबद्ध था। आज मैं संसार से संपूर्णतः उद्विग्न बना हूँ। संसारपंक में रहने की अब मुझे तनिक भी इच्छा नहीं है। अतः आप राज्य का पदभार ग्रहण करें व मुझे दीक्षा लेने की अनुमति दें। भरत की बातें सुनकर राम के नेत्रों से अश्रुधाराएँ बहने लगी व वे बोले, "हे अनुज ! क्या तुम यह समझते हो कि राज्यग्रहण के लिये मैं अयोध्या लौट आया हूँ। मैं तो केवल इन माताओं की दुःखनिवृत्ति करने व तुम्हें मिलने की उत्कंठा से यहाँ आया हूँ। यदि तुम राज्यत्याग करते हो, तो राज्य के साथ-साथ हमारा भी त्याग करते हो। क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे विरह की व्यथा हम सह नहीं पाएंगे। हे अनुज ! पहले की तरह अभी भी मेरी आज्ञा मानकर राज्यपालन करो !' जलक्रिडा करने के पश्चात् वह सरोवर के तट पर खडे थे कि भुवनालंकार नामक एक गंधहस्ती वहाँ पहुँचा। किंतु भरत को देखते ही वह मदरहित बना। इतने में देशभूषण व कुलभूषण नामके दो केवलज्ञानी मुनि वहाँ पधारे। राम ने उनसे पृच्छा की कि, “भरत को देखने मात्र से हाथी मदरहित कैसे बन गया ?" केवलज्ञानियों ने भरत के पूर्वभव विशद किए व पूर्वजन्मों में भरत व हाथी का संबंध क्या था ? वह भी स्पष्ट किया। भरत को देखते ही उस हाथी को जातिस्मरण होने से वह मदरहित बना। भपूर्वभव के लिए पढिये परिशिष्ट क्र.७ For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www LAD भरत और कैकेयी को केवलज्ञान व मोक्ष केवलज्ञानियों की बातें सुनकर भरत का वैराग्य तीव्रतर बना व उन्होंने अन्य अनेक राजाओं के साथ साथ दीक्षा ग्रहण की व सिद्धगिरि महातीर्थ पर ३ करोड मुनियों के साथ मोक्षप्राप्ति करने में यशस्वी बने। कैकेयी ने भी दीक्षा अंगीकार की। कठोर साधना के माध्यम से केवलज्ञान प्राप्त कर उन्होने भी मोक्ष पाया। * कई रामायणों में अनेक पत्नियाँ बताई हैं। देखिए उत्तर पुराण (६८Jain 8888 महापुरणा ७०-१३, पउमचरियं ९१-१७) DILIP SONI 11-2906 DILIP 81 26 लक्ष्मण का राज्याभिषेक व गर्भवती सीता का त्याग भरतजी के दीक्षा के पश्चात् अनेक राजा व विद्याधरों ने भक्तिभाव से राम को सूचित किया कि अब राज्य का पदभार वे स्वयं ग्रहण करें। किंतु राम ने कहा कि, "हमारे जन्म के समय स्वप्नसूचन हुए थे, उनके अनुसार मेरा अनुज लक्ष्मण वासुदेव बनेगा । अतः उसका राज्याभिषेक करना ही उचित है।" रामचंद्रजी के आग्रहानुसार लक्ष्मण का राज्याभिषेक हुआ एवं उन्हें वासुदेव घोषित किया गया रामचंद्रजी का अभिषेक कर उन्हें बलदेव घोषित किया गया। वासुदेव लक्ष्मणजी ने बिभीषण को राक्षस द्वीप, सुग्रीव को वानरद्वीप, विराध को पाताल लंका, प्रतिसूर्य को हनुपूर, भामंडल को रथनुपूर, हनुमान को श्रीपुर, शत्रुघ्न को मथुरा, इस प्रकार यथायोग्य पद्धत्ति से विविध राज्य प्रदान किए। लक्ष्मणजी की सोलह हजार रानियाँ थी । विशल्या, वनमाला व अन्य चार पटरानियाँ थी। रामचंद्रजी की सीता, प्रभावती, रतिनिभा और श्रीदामा ये चार पटरानियाँ थी । सीता को स्वप्न दर्शन एक समय ऋतुस्नात होने के पश्चात् सीताजी ने रात्रि के अंत में दो अष्टापद प्राणी देवविमान से च्युत होकर अपने मुख में प्रवेश करते हुए स्वप्न में देखे। उन्होंने इस स्वप्न का वर्णन रामचंद्रजी से किया। रामचंद्र बोले, "हे देवी! आप की कृषि से दो वीर पुरुष उत्पन्न होनेवाले हैं, यह स्वप्नद्वारा सूचित होता है। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 गर्भवती सीता, राम को सर्वाधिक प्रिय लगने लगी। अतः सपत्नियों को ईर्ष्या होने लगी। मानव को विनाशक कार्य करवानेवाली ईर्ष्या सब से बड़ा अवगुण है एवं मोक्षसाधक के मार्ग पर सब से बड़ा अवरोध है, ऐसा शास्त्रकारों ने कहा है। ईष्या के कारण ही अंजनासुंदरी को २२ वर्ष का विरह हुआ था। सीता द्वारा रावण के पैरों का चित्र बनाना एक दिन सपत्नियाँ सीता से पूछने लगी, “आपका हरण करनेवाला रावण क्या बहुत सुंदर था ? उसे चित्रित कर क्या आप हमें दिखा सकती है ?” सीता ने कहा, “मैंने तो उसका मुख कभी देखा ही नहीं, केवल पैर देखे थे।" "तो ठीक है, आप केवल "उसके पैर चित्रित कीजिए", सपत्नियों ने कहा। सीता मानिनी थी, मन्युमती थी, किंतु बहुत सरल व सीधीसादी भी थी। उन्हें तनिक भी संशय नहीं हुआ। सरल स्वभावी सीता रावण के पैर चित्रित कर रही थी, अचानक रामचंद्रजी वहाँ पधारे। सीताजी की सौतनों ने राम से कहा, "देखिये, आपकी प्रिय पटरानी सीता अभी भी रावण को भूल नहीं पाई। इसका प्रमाण चाहिये, तो उनके द्वारा चित्रित रावण के इन पैरों को देखिये ।” tio For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र देखते ही राम पहचान गए, यह अन्य स्त्रियों के ईर्ष्यालु स्वभाव का परिपाक है। अतः वे कुछ भी उपालंभ दिए बिना वहाँ से चले गए। इसके पश्चात् भी वे सीता के लिए कोई भी दुर्भाव लाए बिना पहले की तरह स्वस्थ रहने लगे। किंतु सपत्नियों ने अपनी दासियों द्वारा सीता के इस काल्पनिक दोष को लोगों में प्रचारित किया। प्रायः ऐसी अफवाएँ जल में गिरे तैल बिंदु की भाँति चारों दिशाओं में शीघ्र ही फैलती है। अतः स्थान-स्थान पर सीता के विषय में चर्चाएँ होने लगी । जैनेतर रामायणनों में यह दोषारोपण, एक रजक धोबीद्वारा किया गया था, ऐसा उल्लेख है। पुष्प वाटिका में राम और सीता । वसंतऋतु का आगमन होने पर राम ने सीताजी से विनोद के लिए महेंद्रोदय नामक पुष्पवाटिका में जाने के लिए कहा। सीता ने कहा कि उन्हें भगवान की पूजा का दोहद उत्पन्न हुआ है। इसलिए उन्होंने रामचंद्रजी से पुष्पवाटिका को विविध प्रकार के पुष्पों से माली द्वारा सज्ज करने के लिए कहा। रामचंद्र ने वाटिका सजवा कर विविध पुष्पों से भगवान की पूजा करवाई। इसके पश्चात् वे सीताजी को लेकर महेंद्रोदय वाटिका में गए। वहाँ पर सीताजी ने नगरजनों की विचित्र क्रीडा एवं अरिहंत भगवान की पूजा से व्याप्त वसंतोत्सव देखा। उसी समय सीताजी की दक्षिण आँख फरकने लगी। जब उन्होंने राम से इस विषय में कहा, तो उन्होंने कहा कि यह अशुभसूचक संकेत है। सीताजी बोली, "क्या मेरा अशुभ भाग्य राक्षस द्वीप में रहने से भी समाप्त नहीं हुआ ? आपके वियोग से अधिक दुःखद मेरे लिए क्या हो सकता है ?" राम ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा, "हे देवी! आप खेद मत कीजिये सुख एवं दुःख शुभाशुभ कर्मों के आधीन है। किए हुए कर्म, हे देवी! भुगतने ही पडते हैं। अतः आप राजप्रासाद जाईये। वहाँ प्रभुपूजा, सुपात्र दान आदि में तत्पर रहिए। इससे अशुभ कर्मों का नाश हो जाएगा। अयोध्या में बनती घटना का तादृश वर्णन करनेवाले विजय, सुरदेव आदि गुप्तचर एक दिन रामचंद्र के समक्ष आकर बद्धांजली मुद्रा में खड़े हुए वे इतनी क्षोभित मनःस्थिति में थे कि पत्ते के समान थर-थर काँप रहे थे। राम ने उनसे कहा, “आप लोगों को अभयदान है जो घटना आपने देखी है, सुनी है, उसका विवरण कीजिये।" उन अधिकारियों का For Personal & Private Use Only PAL Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 भी राजपुरुष के लिए अपनी किसी भी भावना का प्रदर्शन करना योग्य नहीं होता। अतः संयत स्वर में रामचंद्रजी ने कहा, "आपने मुझे यह विषय ज्ञात कराया, यह बडी अच्छी बात है।" गुप्तचरों के जाने के बाद राम विचार करने लगे, "राजधर्म कितना गहन, कितना जटिल है, सर्वसत्ताएँ तो शासक के स्वाधीन होती हैं, फिर भी वह अंत में होता है जनता का सेवक ही ! भक्त जिस प्रकार अपने आराध्य देव को कुपित नहीं कर सकता वैसे, शासक भी जनता को नाराज़ नहीं कर सकता। सीता, सती है, निष्कलंक है, किंतु उनके कारण मेरी अपकीर्ति हो रही है, जिसे मैं व्यक्तिगत स्तर पर तो सहन कर सकता हूँ किंतु उज्जवल सूर्यवंश के ऊपर दोषारोपण का सहना बड़ा कठिन है।" प्रमुख विज धैर्यशाली था। उस अधिकारी ने कहा- “प्रभु ! सामान्य जनगण द्वारा चर्चित प्रवाद से अघटित भी घटना घटित कहलवाती है, ऐसा विद्वानों का मानना है। सांप्रत जानपदों व नगरों में यह प्रवाद चल रहा है - कि सीताजी का अपहरण करके रावण उन्हें अपने आवास में ले गया था। सीताजी, वहाँ दीर्घ समय रह चुकी है। सीता ने रावण का प्रेम स्वीकार किया हो या अस्वीकार किया हो, परंतु स्त्रीलंपट रावण बलशाली था। उसने साम, दाम, दंड, भेद इन नीतियों का प्रयोग कर उन्हें मनाने में यश प्राप्त किया हो..... | अथवा स्वेच्छा व अनिच्छा का विचार किए बिना उसने बलपूर्वक सीता का भोग लेकर उन्हें दूषित किया हो... | लोक उक्ति भी प्रसिद्ध है - स्त्रियाश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम् । देवोऽपि न जानाति कुतो मनुष्यः ।। गुप्त वेशधारी राम की नगर परिक्रमा स्त्रीचरित्र और पुरुषका भाग्य कभी भी परिवर्तित हो सकता है। उनके विषय में साक्षात् देव भी अनभिज्ञ हैं, तो मानव क्या जान सकता है। यद्यपि यह प्रवाद असत्य है, परंतु तर्कसंगत है। अतः आप इस प्रवाद को सहन मत कीजिये व आपकी विमलकीर्ति एवं सूर्यवंश पर दोषारोपण मत होने दीजिये।" गुप्तचरों ने अपने ये अभिप्राय व्यक्त किए। एक शाम को रामचन्द्रजी गुप्त रुप से राजप्रासाद से बाहर निकले, व नगर में भ्रमण करने लगे। चौराहे पर खडे होकर जनसामान्य, सीताजी के विषय में चर्चा कर रहे थे। वे कह रहे थे, यह मान लिया कि अबला सीता की अनिच्छा होते हुए भी रावण ने उनका अपहरण किया, परंतु यह कैसे मान सकते हैं कि उन पर अनुरक्त रावण ने इतने दीर्घ समय तक अपने आप पर संयम रखकर उनके सतीत्व को अबाधित रखा हो ! वैसे भी अनीति का दूसरा नाम है रावण ! यह भी हो सकता है कि सीता के साथ रावण ने बलपूर्वक कुछ अनैतिक कर्म किया हो। फिर भी राम को देखिये... उन्हें अभी भी प्रासाद में रखा है - कहते ही है.... कामातुराणां न भयं न लज्जा। सीता के प्रेम में पतित राम को न लोकापवाद की लज्जा है, न लोकक्षोभ का भय । यह प्रवाद सुनकर दुःखी रामचंद्र लौटकर प्रासाद आये व गुप्तचरों को पुनः नगर परिक्रमा के लिए भेजे। अपने गुप्तचरों की बात सुनकर राम बहुत दुःखी हो गए। फिर For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे भी अयोध्या में चलते लोकप्रवाद को सुनकर पुनः लौटे। किंतु अब की बार जब वे रामचंद्रजी से वार्तालाप कर रहे थे, लक्ष्मण भी वहाँ उपस्थित थे। तब सीता की निंदा सुनते ही शीघ्रकोपी लक्ष्मण क्रोधित होकर बोले, "सती सीता के हर निंदक के लिए मैं यमराज हूँ। मैं, सीता की निंदा कतई सह नहीं सकता" रामचंद्रजी बोले, "हे अनुज विजय आदि गुप्तचरों ने मुझे इस प्रवाद से पहले ही परिचित किया था। मैं स्वयं छद्मवेश धारण कर नगर की परिक्रमा कर आया हूँ। लोगों की चर्चा मैंने स्वयं सुनी है। अब सीता का त्याग करने से ही यह प्रवाद मिटेगा । राजपुरुष के लिए उसकी व वंश की कीर्ति से बढकर कोई अन्य वस्तु नहीं हो सकती। लक्ष्मण शरीर के जिस अंग में विष फैलता है, उसे छेदकर वैद्य रुग्ण को जीवित रखते हैं। संपूर्ण विध्वंस से व्यक्तिगत हानि श्रेयस्कर है। “सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पंडितः । अर्थेन कुरुते कार्य कार्यध्वंसो हि दुःसहः ॥" सर्वनाश होने पर प्रज्ञ व्यक्ति, आधा त्यागकर बचे आधे से काम चलाता है क्योंकि संपूर्ण कार्य का नाश, दुःसह होता है। मेरे लिए अपनी एवं सूर्यवंश की कीर्ति अक्षुण्ण रखने के लिए सीता का त्याग करना अनिवार्य हो चुका है। इससे मैं व्यक्तिगत स्तर पर दुःखी बनूँगा, सीताविहीन जीवन मेरे लिए रौद्र यातनाओं से बढ़कर है, किंतु मुझे कुल की प्रतिष्ठा को जीवित रखने के लिए आत्मप्रेम की बलि चढ़ानी ही होगी।" लक्ष्मणजी ने विनति की, "लोकापवाद के लिए सीताजी का त्याग न कीजिये। लोग तो मृदंग के समान होते हैं। आज एक मुख से सीता की निंदा करनेवाले ये अनभिज्ञ लोग कल उनकी स्तुति करेंगे। हम किसीका मुख बाँध नहीं सकते। दूसरी ओर पवित्रतम नारीरत्न सीताजी पर ऐसा करने से क्या अन्याय नहीं होगा ? अतः मैं आपसे विनति कर रहा हूँ कि सीताजी का त्याग मत कीजिए । सीता गर्भवती है, ऐसी कोमल अवस्था में यदि आप उन्हें दुःखी करेंगे, तो राजकुल के भावी वंशजों पर इसका विपरीत परिणाम हो सकता है।" रामचंद्रजी ने कहा, "पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्नः । जितने जन उतनी ही जिहाऐं होती है। जनसामान्य की स्मरणशक्ति भी निर्बल होती है, किंतु क्या तुमने यह नहीं सुना 85 राजशक्ति को जनशक्ति का कभी अवमान नहीं करना चाहिये।” इतना कहकर उन्होंने सेनापति कृतान्तवदन के द्वारा सीता के लिए बुलावा भेजा। राम के पैर में गिरकर लक्ष्मण की विनति भावुक लक्ष्मण रामचंद्र के चरणों में गिरकर फूट-फूट कर रोने लगे। उन्होंने बारबार राम से कहा कि, “महासती सीता का त्याग अनुचित एवं अनैतिक है।" परंतु रामचंद्रजी ने उनकी एक नहीं सुनी, फिर भी लक्ष्मण उन्हें मनाते रहे, अंत में क्रोधावेश में आकर वे बोले, "अनुज लक्ष्मण ! तुम अब इस विषय में मौन रहोगे, क्यों कि मैंने निश्चय किया है और चाहे कुछ भी हो, अब उसमें परिवर्तन नहीं आने दूंगा।" यह सुनते ही दुःखावेग से गलितगात्र लक्ष्मण ने उत्तरीय से अपना मुख ढॉक लिया और वहाँ से चल दिये। उन्होंने रामचंद्रजी के साथ अन्य कोई प्रतिकार अथवा विद्रोह नहीं किया। सारथि कृतान्तवदन के आते ही रामचंद्रजी ने उसे कहा, “हमारी आज्ञा से आप वह कर्म करने जा रहा है, जो बहुत अप्रिय, अनैतिक होते हुए भी अनिवार्य है। सांप्रत चल रहे सीताजी के चारित्र्यहनन की चर्चा सुनकर मैंने राज्यहित एवं सूर्यवंश के निर्मल यश के लिए उन्हें त्यागने का निर्णय लिया है। गर्भवती सीता के मन में सम्मेतशिखरजी की यात्रा करने का दोहद उत्पन्न हुआ है। अतः यात्रा का निमित्त बनाकर उन्हें अयोध्या की सीमाओं से बाहर ले जाईये और कहीं भी भयंकर घनघोर बिहावणे जंगल में छोडकर पुनः लौट आईये।" For Personal & Private Use Only PILIP 96 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 आज्ञाधारी कृतान्तवदन तत्काल सीताजी के प्रासाद पहुँचा व उन्हें बोला, "रामचंद्रजी ने मुझे आपको सम्मेतशिखरजी की यात्रा कराने का आदेश दिया है। यात्रारंभ इसी क्षण होगा ऐसी आज्ञा है ।" निःशंक मन से सीताजी रथ में बिराजमान हुई। पथ पर बहुत दुर्निमित्त एवं अपशकुन हुए। परंतु पति की आज्ञा को स्वधर्म मानने वाली सती सीता तनिक भी विचलित नहीं बनी। अयोध्या की सीमाओं से निकलकर रथ बहुत दूर तक जाकर क्रमशः सिंहनिनाद नामक घोर वन में रुका। सारथी कृतान्तवदन रथ से उतरकर अधोमुख खड़े हुए । उनके आँखो से अश्रुधारा बह रही थी। उनका म्लान मुख देखकर सीताजी ने कहा, "सेनापति कृतान्तवदन रथ क्यों रोका गया है? आप शोकमग्न होकर इस तरह क्यों खडे हैं ?" internation PILIP SON रथ में से सीता का गिरना कृतान्तवदन ने कहा, "मैं आपका सेवक हूँ, अतः न आपके साथ दुर्वचन बोल सकता हूँ, नहीं दुर्व्यवहार कर सकता हूँ। किंतु सेवक होने के कारण यह जननिंद्य कर्म करने के लिए विवश हूँ । कामी रावण के आवास में आप दीर्घकाल रही हैं, अतः उत्पन्न हुए लोकापवाद के भय से रामचंद्रजी ने मुझे आपको वन में ले जाकर वहीं आपका त्याग करने का आदेश दिया है। राजा लक्ष्मण ने इस निर्णय का निषेध किया, अंत में वे एक बालक की भाँति रोने लगे, परंतु रामचंद्रजी अपने निर्णय से विचलित नहीं हुए। पश्चात् यह जघन्य पापकर्म करने के लिए उन्होंने मुझ पापात्मा का चयन किया। अब इस घनघोर और भंयकर श्वापदों से भयकारी जंगल में आपको अकेली छोडकर लौट जाऊँगा मुझे क्षमा कीजिए आप अपने पुण्यप्रभाव से जीवित रहोगी।" सारथी के यह शब्द सुनते ही दुःखावेग के कारण सीताजी बेहोश हो गई व रथ में से गिर गई। सारथी समझ बैठा कि उनका जीवन समाप्त हुआ। अतः वह अपने आपको उनकी मृत्यु के लिए उत्तरदायी मानकर रोने लगा । कुछ समय पश्चात् वन के शीतल पवन के कारण सीताजी को होश आया किंतु वे पुनः बेहोश हो गयी। इस प्रकार वे कई बार बेहोश हुई व पुनः होश में आई। कुछ समय बाद अपने आपको संभालकर उन्होंने पूछा- "सारथी ! यह तो बताईये इस स्थान से अयोध्या कितनी दूरी पर स्थित है ?" सारथी ने कहा, "माताजी! अयोध्या तो यहाँ से कई कोस दूर है, किंतु आपका प्रश्न वर्तमान स्थिति में निरर्थक है। अपने वज्रनिर्णय से रामचंद्र को राजा लक्ष्मण भी विचलित नहीं कर सके। आपका अयोध्या Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पुनरागमन असंभव है। यदि आप श्रीरामचंद्र से कुछ कहना चाहती हैं, तो कहिये । आपका संदेश मैं अक्षरशः स्वामी रामचंद्र तक पहुँचाऊँगा।" पतिव्रता सीता ने कहा, "अपने राजा के भ्राता से कहिए कि उनकी परित्यक्ता पत्नी ने प्रश्न किया है कि यदि आप लोकापवाद के कारण भयभीत बने थे, तो मेरी परीक्षा क्यों नहीं की? जब पत्नी के चरित्र पर शंका उत्पन्न होती है, तब विवेकी जन अग्निदिव्य आदि का आश्रय लेते हैं। क्या आपने अपने कुल व विवेक की मर्यादाओं के अनुसार ऐसा किया है ? मेरे साथ जो हुआ है, वह मेरे अशुभ कर्मों का परिणाम है। मैं अपने अशुभ कर्म वन में रहकर भुगत लूँगी। किंतु उनसे अवश्य कहिये - जिस प्रकार दुर्जनों के मिथ्यावचनों 87 के कारण उन्होंने आज मेरा त्याग किया है, उस प्रकार अन्य मिथ्यादुष्टि लोगों के वचन सुनकर मोक्षदायी शाश्वत जिनधर्म का त्याग आप मत करना। उनका सदा कल्याण हो। मातासमान मेरी सासुओं तक मेरे प्रणाम पहुँचा देना । लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न को मेरे अंतर आशीर्वाद कहियेगा । आप संभालकर अयोध्या लौट जाईये । आपका मार्ग कल्याणकारी बनें।" __ "पति की विपरीत वृत्ति का तनिक भी विरोध किए बिना सीताजी ने कितना कल्याणकारी संदेश भेजा है। वास्तव में सीता श्रेष्ठ सती है।" इस प्रकार विचार करते करते सीता को प्रणाम कर सारथी, सीताविहीन रथ लेकर पुनः अयोध्या लौटा। सीताजी पुंडरीकपुर में सीताजी को वज्रजंघ राजा का निमंत्रण पुरुष चाहे कितना भी पराक्रमी हो, सिंहनिनाद जैसे निबिड भयानक जंगल में आते ही प्रायः भयभीत हो जाता था। सीता ठहरी एक निःशस्त्र अबला... वह भी गर्भवती, राजवंशी... एवं परित्यक्ता ! अतः उनका भय से आतंकित होना स्वाभाविक था । वे अत्यंत भयाकुल होकर इतस्ततः भटकने लगी। पग-पग पर ठोकरें खाती सीता अपने अशुभ कर्म को कोसने लगी। वे विचार कर रही थी, "यह सब मेरे अशुभकर्मों का दोष है, अन्य किसीका नहीं।" इस प्रकार करुण रुदन करती सीताजी ने अचानक, वन में कुछ सैनिकों को देखा । सैनिक भी सीताजी को देखकर डर कर खडे रह गए। यह क्या...? इतनी सुंदर नारी... अकेली... इस भयानक वन में ? क्या यह देवलोक की कोई देवी पृथ्वी पर उतरी है ? अथवा यह वनलोक में रहने वाली कोई यक्षिणी है ? यदि यह कोई असामान्य दिव्य स्त्री है, तो इस प्रकार विलाप क्यों कर रही है ? इस प्रकार विचार करते हुए सैनिकों ने अचानक अपने राजा की आवाज सुनी व उनकी विचारशृंखला टूट गई। शब्दवेदी राजा ने वैदेही का रुदन सुनकर पहचान लिया कि, यह आवाज किसी गर्भवती महासती की है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 जब वह अपरिचित राजा सीताजी के समीप आने लगा, तो वे उसे अपराधी समझ बैठी। अतः अपने आभूषण उतारकर वे राजा के सामने फेंकने लगी, ताकि शील की रक्षा हो सके। राजा ने उन्हें आश्वासन देते कहा "हे अपरिचित भगिनी आप • अपने आभूषण क्यों फेंक रही है, इन्हें अपने शरीर पर ही रहने दीजिये । आप निर्भय, निःशंक होकर बताईये कि आप कौन हैं ? किस निर्मम, निर्दय ने आपको यहाँ छोड़ दिया है। आप विश्वास रखिये। आपके कष्ट के कारणमुझे कष्ट हो रहा है।" तब सुमति नामक राजमंत्री ने अपने स्वामी के कथन की पूर्ति में कहा, "पुंडरीकपुरी के राजा गजवाहन और रानी बंधुदेवी के सुपुत्र राजा वज्रजंघ आपके समक्ष खडे हैं। यह राजा भगवद्भक्त महासत्वशाली एवं परनारी के लिए सहोदर समान है। हम सब इस वन में बनहस्ती पकड़ने आये थे व अपना काम पूर्ण करके निकल ही रहे थे, इतने में आपका करण रुदन सुनकर आपके समक्ष आये हैं। हम आपके दुःख से दुःखी हैं, अतः अपना दुःख निःसंशय होकर हमें बताईये।” मैथिली सीता जान गयी कि वे निष्कारण ही भयभीत हुई थी। रोते-रोते सीता ने समस्त वृत्तांत सुनाया। सीताजी की आपबीति सुनकर राजा एवं मंत्री दोनों अपने अश्रुओं को रोक नहीं पाये । निष्कपट वज्रजंघ राजा ने कहा, “आज से आप मेरी धर्मभगिनी हैं। भामंडल के स्थानपर मैं हूँ, अतः मेरे साथ अपने घर चलिये। पति के घर पश्चात् स्त्री के लिए यदि कोई योग्य स्थान है तो वह है भाई का घर । लोकापवाद के कारण राम ने T आपका त्याग किया है। अतः मुझे विश्वास है कि कुछ समय के पश्चात् स्वयं रामचंद्र आपकी शोध करेंगे व सम्मानपूर्वक आपको पुनः अयोध्या ले जाएँगे। जब तक राम आपको ढूँढते हुए नहीं आते, तब तक आप निःशंक होकर प्रसन्नतापूर्वक हमारे घर रहिये ।" वज्रसंघ राजा के वे शब्द सुनकर सीता त्वरित आश्वस्त हो गई। राजा ने शिबिका मंगवायी, सीताजी निःशंका उसमें विराजमान हुई। पुंडरीकपुर पहुँचने के उपरांत राजा द्वारा दिये गए प्रासाद में रहकर धर्माराधना करते वह समय व्यतीत करने लगी। 28 राम का पश्चाताप सीता को वन में छोडकर कृतान्तवदन का राम के पास आना सेनापति कृतान्तवदन, सीताजी को सिंहनिनाद वन में छोड़कर पुन अयोध्या लौटे आते ही राजप्रासाद पहुँचकर उन्होंने सीताजी का संदे रामचंद्रजी को सुनाया। संदेश सुनते ही रामचंद्र अपनी सुध-बुध खोकर धर पर गिर पडे। लक्ष्मण के चंदनजल छींटकने पर उन्हें पुनः होश आया व विलाप करने लगे, "चिक्कार है मेरे दुर्भाग्यपर! दुर्जन लोगों के प्रवाद डरकर मैंने महासती सीता का त्याग किया। चिंतामणिरत्न का त्याग किया और मिट्टी के ढेलें को जतनपूर्वक संभाल रहा हूँ। मैंने निष्ठुर होकर उस निष्कलंक गर्भिणी का त्याग किया, किंतु वह तो मेरी कल्याणमित्र रही। उस तो मुझे जिनधर्म के साथ सदैव रहने का अनुपम संदेश भेजा है..." JANAAKA For Personal & Private Use Only ATAPAYAIHANA Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब लक्ष्मणजी ने कहा कि, “अपने आप से भी आपको अधिक प्रेम करनेवाली महासती सीता ने सारथी द्वारा आपका वचन सुनकर कितना विलाप किया होगा... क्या आपका पुनः विरह सीताजी सहन कर पाएगी। लंकापुरी में तो वे यह आशा मन में लेकर जीवित रही थी कि किसी दिन आप अवश्य आएँगे व दुष्ट रावण को दंडित कर उन्हें सम्मानसहित पुनः स्वीकारेंगे। किंतु अब तो स्वयं आपने ही उनका त्याग किया है, अब वे किस आशा से जीवित रहेगी ? अब तक तो आपके विरह की वेदनाओं ने शायद उनके प्राणहरण कर दीये होंगे !” रामचंद्रजी बोले, “मुझे विश्वास है अपने पुण्य के आधार से वह अभी भी जीवित होगी ही!" लक्ष्मणजी ने कहा, "तब तो आपसे अनुरोध है कि आप स्वयं सेनापति कृतान्तवदन एवं अन्य विद्याधरों को साथ लेकर त्वरित वन में जाएँ व उन्हें शोधकर पुनः लौट आईये। अन्यथा उनकी मृत्यु हो जाएगी।" लक्ष्मणराजा का यह वचन Jain Eddcaliunto com ANACA शवय DILIP SONI 89 सुनते ही स्वयं राम कृतान्तवदन एवं अन्य विद्याधरों के साथ सिंहनिनाद वन आ पहुँचे। वहाँ पर्वत पर्वत वृक्ष वृक्ष सर्वत्र सीता की शोध की, फिर भी सीताजी के जीवित या मृत होने का कोई भी चिन्ह उन्हें नहीं मिला । अतः उन्होंने मान लिया कि किसी वन्य पशु ने सीताजी को अपना भक्ष्य बनाया होगा हताश होकर वे पुनः अयोध्या लौटे। अब लोकप्रवाद का मुख रामचंद्रजी की दिशा में था। लोग कहने लगे, "निष्ठुर राम ने अपनी निर्दोष स्त्री का निर्दयता पूर्वक त्याग किया, किंतु सती सीता ने उनके प्रति दोषारोप तक नहीं किया, अपितु मिथ्यात्वी जनों के बहकावे में आकर जिनधर्म का त्याग न करें, यह आत्महितकारी संदेश भेजा । धन्यधन्य है सती सीता । न्यायनिष्ठ राम अन्यायी कैसे बन गए !" लोकप्रवाद ढोलक की तरह दोमुहाँ होता है। ढोलक कभी दाहिनी बाजू से तो कभी बायी बाजू से बजती है जो लोग पहले सीताजी की निंदा करते थे, अब वे राम पर बरसने लगे । 29 लव-कुश का जन्म व पितृमिलन पुंडरीकपुरी में सीताजी ने दो युगल पुत्रों को जन्म दिया। अपनी भगिनी सीता के मातृत्व प्राप्ति का महोत्सव वज्रजंघ राजा ने इतने ठाट-बाटपूर्वक मनाया कि लोग कहने लगे “राजा ने स्वयं अपने पुत्रजन्म का उत्सव भी इतने हर्षोल्लास पूर्वक नहीं मनाया होगा ।" सीता के पुत्रों के नाम अनंगलब एवं मदनांकुश रखे गये। आगे जाकर वे लव व कुश इन नामों से प्रसिद्ध हुए योग्य पालन पोषण एवं संस्कारों द्वारा वासित वे दोनों पुत्र देखते ही देखते बढ़ने लगे । 1 एक दिन सिद्धपुत्र नामक एक श्रावक मेरुपर्वत की चैत्य यात्रा कर आकाशगामिनी विद्या द्वारा सीता के प्रासाद में पहुँचे। सीताजी ने उनका यथायोग्य आदर-सत्कार किया। सिद्धपुत्र श्रावक अष्टांग निमित्त के ज्ञानी थे। सिद्धपुत्र श्रावक द्वारा पूछे जाने पर सीताजी ने अपनी जीवन कहानी उन्हें सुनाई। सीता को आश्वासन देते हुए उन्होंने कहा, "आप व्यर्थ चिंता क्यों कर रही है? आपके दोनों पुत्र शुभलक्षणयुत हैं। वे साक्षात् राम-लक्ष्मण बनने वाले हैं और आपके समस्त मनोरथ पूर्ण करेंगे।” 17-10-2006or Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 अपने दोनों पुत्र को अध्ययन करवाने के लिए सीताजी ने सिद्धपुत्र श्रावक को पुंडरीकपुरी रुकने का आग्रह किया। कुछ ही समय में दोनों पुत्रों ने सभी विद्या- कला प्राप्त की। उन्होंने जब युवावस्था में पदार्पण किया, तब वज्रजंघ राजा ने अपनी रानी लक्ष्मीवती से प्राप्त, पुत्री शशीचूला एवं अन्य बत्तीस कुमारिकाओं का विवाह लव के साथ करवाया। लव - कुश का पृथु राजा के साथ युद्ध PILIPS पृथिवीपुरनरेश पृथु राजा व अमृतवती रानी की कुक्षि से जन्मी पुत्री कनकमालिका की माँगनी वज्रजंघ राजा ने कुश के लिए की। परंतु पृथुराजा ने कहा कि " जिनके वंश के विषय में ज्ञान नहीं, उन्हें अपनी प्रिय पुत्री कौन सौंप सकता है ?" इस उत्तर से कुपित वज्रजंघराजा ने पृथुराजा के साथ युद्ध किया। पृथुराजा की सेना इतनी पराक्रमी थी कि उनके सामने टिकना वज्रजंघराजा की सेना के लिए जटिल समस्या बनी। अतः वे भागने लगे। तब नवयुवा लव एवं कुश, शत्रुसेना पर इस प्रकार टूट पडे कि पृथुराजा युद्धभूमि से अपनी सेनासहित पलायन करने के लिए विवश हो गए। For Personal & Private Use Only - तब लव-कुश हँसते हुए कहने लगे कि, "अज्ञान वंशीय हम से आप विख्यात वंशीय योद्धा डरकर क्यों पलायन कर रहे हैं ?” पृथुराजा ने कहा, “केवल आपका पराक्रम ही क्षत्रिय कुल की पहचान है। आपके पराक्रम से मुझे इस बात का परिचय हुआ है कि आप उच्च कुलीन क्षत्रिय है। वास्तव में वज्रजंघ ने मेरी पुत्री के लिए सुयोग्य वर का चयन किया था ऐसा पति केवल भाग्यवान कन्या को ही मिलता है। मेरे वर्तन एवं दुर्भाषण के लिए मैं क्षमा चाहता हूँ।” नम्रतापूर्वक यह कहकर पृथुराजा ने कनकमालिका की सगाई कुश के साथ की एवं वज्रजंघ राजा के साथ संधि की। नारदजी का आगमन वज्रजंघराजा पृथुराजा और अन्य राजा छावनी में बैठे थे। अचानक वहाँ नारदजी का आगमन हुआ । वज्रजंघराजा ने उनसे पृच्छा कि यदि उन्हें लवकुश के वंश के विषय में कुछ ज्ञात हो, तो वे उसे अवश्य बताएँ, ताकि पृथुराजा को अपने दामाद के चयन पर संतोष हो सके। नारदजी ने उन्हें प्रथम, सूर्यवंश का संपूर्ण इतिहास सुनाया, उसके पश्चात् राम के शैशव से लेकर निष्कलंक निर्दोष सीता के त्याग तक सारी घटनाएँ सुनाई। www.janglibrary. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब नवयुवा लव और कुश विचार करने लगे कि 'लोकप्रवाद से बचने के लिए अन्य अनेक उपाय हो सकते थे फिर भी विद्वान पिताश्री ने ऐसा घोर अन्याय किया ही क्यों ?' लव ने नारदजी से सादर प्रश्न किया, "मुनिश्रेष्ठ जहाँ पिताश्री एवं चाचाश्री का वह स्थायी आवास है, अयोध्यानगरी इस स्थान से कितने अंतर पर है ?" नारदजी ने कहा, “आप के पिताश्री का स्थायी आवास अयोध्या, यहाँ से चौसठ योजन की दूरीपर है।" यह सुनते ही लव एवं कुश ने वज्रजंघ राजा से कहा, "हमें राम व लक्ष्मण के दर्शन करने की तीव्र इच्छा है। क्या हम ऐसा कर सकते हैं ?" वज्रसंघ राजा ने उनका प्रस्ताव स्वीकार किया। इसके कुछ दिन पश्चात् पृथुराजा ने महोत्सवपूर्वक राजपुत्री कनकमालिका का विवाह कुश के साथ किया। सीताजी को नमस्कार करके लव कुश का प्रस्थान फिर अनेक देशों पर विजय प्राप्त कर वे पृथु वज्रजंघ, रुष, लंपाक, काल आदि अनेक राजाओं समेत पुंडरीकपुर पधारे। आते ही वे सीताजी के चरणों पर नतमस्तक हुए। सीताजी ने उन्हें वात्सल्यपूर्वक आशीर्वाद दिया "दशरथ पुत्र के समान आप भी पराक्रमी बनें।" लव कुश तुरंत वज्रजंध से कहने लगे "मामाजी आपने हमें पहले अयोध्या जाने की अनुमति प्रदान की थी। लंपाक एवं रुषनरेश को हमारे साथ आने की आज्ञा दीजिए। रणवाद्यों का घोष करवाईये, सैनिकों से कहें कि इतनी भारी संख्या में उपस्थित रहिये कि दिक्कुमारियों के मुख भी For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 कोई देख न पाएँ । देखते हैं हमारी निर्दोष माता को अकेली वन भिजवानेवाले वीरपुरुष में कितना शौर्य है।" यह सुनते ही सीताजी की आँखे भर आयी। वे कहने लगी "हे पुत्रो इस तरह युद्ध कर तुम दोनों कौनसा अनर्थ करना चाहते हो ? पृथुराजा आदि पर विजय प्राप्त करने से तुम दोनों अहंकारी बन चुके हो। क्या तुम नहीं जानते कि त्रिलोकविजेता राक्षसपति रावण को तुम्हारे काकाश्री ने चक्र से जीर्णपट की भाँति चीर डाला था। यदि तुम अपने पिताश्री एवं काका श्री से मिलना चाहते हो, तो विनीत होकर जाओ, पूर्वज पूजनीय होते हैं। अतः उनके प्रति विनय, वंशजों के लिए कल्याणकारी होता है।" लव और कुश ने सीता लव और कुश द्वारा अयोध्या नगरी को घेरना अयोध्या से बाहर आकर उन्होंने नगरी को घेर ली। लक्ष्मण के चरपुरुषों ने उन्हें अयोध्या की सीमा के बाहर चलती यह गतिविधि देखकर कहा, “हे राजन्! आपके राज्य की सीमाओं के बाहर से दो क्षत्रिय नवयुवक अपने सैनिकों के साथ आये हैं, उनकी गतिविधियाँ देखकर लगता है कि वे युयुत्सु वृत्तिवाले हैं। किंतु क्या वे आपके समक्ष टिक पाएँगे ? जिस प्रकार दावानल तृण को एक ही क्षण में भस्म करता है, उसी प्रकार उन युवकों को आपका क्रोधाग्नि भस्म कर देगा। हमें लग रहा है कि उनकी मृत्यु अब अटल है।” युवकों का आह्वान स्वीकार कर राम व लक्ष्मण ने सुग्रीवादि वीर एवं चतुरंग सेनासमेत युद्धभूमि में प्रवेश किया। Persona& से कहा, "माताश्री ! आपका कथन संपूर्ण सत्य है। किंतु क्या आप यह चाहती है कि हम उनके समक्ष कायरों की भाँति हाथ जोड़कर खड़े हो जाएँ ? यह तो उन्हें भी लज्जास्पद लगेगा। युद्ध में जित चाहे किसीकी भी हो, अंतिम विजय तो कुल की ही होगी।" यह कहकर वे अनेक राजा व अत्यधिक सैनिकों के साथ अयोध्या की दिशा में निकल पडे। सीताजी के अश्रु तो थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। वे विचार कर रही थी, “यदि सब कुछ इन दोनों के कथनानुसार होगा तो ठीक है, परंतु इन चारों में से किसी एक की भी मृत्यु हो जाए, तो मैं कैसे जी पाऊंगी ?" Only COT p 10% COW Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम-लक्ष्मण का लव-कुश के साथ युद्ध युद्ध का आरंभ तो हुआ, किंतु जब-जब राम-लक्ष्मण उन कुमारों को अपना लक्ष्य बनाने की चेष्टा करते, उनके हृदय में प्रेम व स्नेह उमड आता था अतः वे अपने शस्त्रों का योग्य नियंत्रण नहीं कर पाते व उनके बाण नीचे गिरने से लक्ष पर नहीं पहोंच पाते। मगर कुमारों के बाण तो लक्ष्यवेधी थे। दोनों कुमार बाणों की अविरत वर्षा कर रहे थे। दशरथपुत्रों ने वज्रावर्त व अर्णावर्त धनुष्यों का टंकार 12 pach DILIP SON किया, परंतु उसका विपरीत परिणाम हुआ। शत्रुहृदयों को भयाकुल करनेवाली उस रौद्र ध्वनि को सुनते ही रामसेना, भयभीत होकर पलायन करने लगी। अब वासुदेव लक्ष्मण ने कुश की दिशा में सुदर्शन चक्र फेंका, किंतु कुश को एक प्रदक्षिणा देकर चक्र पुनः लक्ष्मण के हाथ में लौटा। राम व लक्ष्मण चिंतित होकर विचार करने लगे कि, 'यह कैसा अघटित चमत्कार है ? क्या हम बलदेव व वासुदेव नहीं है ? क्या ये दो कुमार नूतन बलदेव व वासुदेव हैं ? क्या अब सूर्यवंश का नाश होनेवाला है ?" For Personal & Private Use Only 9:2000) 93 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 लव-कुश का पितृमिलन आनंद कीजिये ! इतने वर्षों के पश्चात् आप अपने पुत्रों से मिले है व उनसे पराभूत हुए हैं - यह तो दोहरी खुशी का अवसर है।" इतने में आकाश मार्ग से नारदमुनि युद्धभूमि पर आये। उन्होंने अन्यमनस्क राम-लक्ष्मण को देखकर कहा, “आप दोनों हर्ष के स्थानपर विषाद क्यों कर रहे हैं ? 'पुत्रादिच्छेत् पराजयम्' पुत्र से पराजाय की इच्छा रखनी चाहिये । पुत्र, पिता से अधिक पराक्रमी होना चाहिये। ये दो कुमार आप ही के वंशज हैं। ये सीतापुत्र लव व कुश हैं। आश्चर्य, लज्जा, खेद, व हर्ष इन सभी अनुभूतियों का तीव्रतम अनुभव एक साथ करनेवाले राम बेहोश हो गए। शीतल चंदनजल के छिटके जाने पर उन्हें होश आया, वे लक्ष्मणसमेत अपने पुत्रों को आलिंगन देने के लिए चलने लगे। उन्हें अपनी दिशा में आते हुए देखकर लव-कुश अपने रथों से नीचे उतरे व नतमस्तक होकर अपने पिता एवं काका को प्रणाम किया। राम-लक्ष्मण ने उन्हें आलिंगन दिया। युद्ध का निमित्त बनाकर आपके दर्शन करने आये हैं। इस सुदर्शन चक्र की निष्फलता ही इनका आपके पुत्र होने का प्रमाण है । आपके पूर्वज भरत ने यह चक्र बाहुबली पर छोडा था, तब वह निष्फल हुआ था। समानवंशी शत्रु पर यह चक्र चलता नहीं है। अब For Personal & Private use only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने पुत्रों का पराक्रम और पिता से मिलन देखकर सीता आनंदविभोर बनी। उसके पश्चात् वह विमान में बैठकर पुंडरीकपुरी चली गई। यहाँ राम को वज्रजंध का भी परिचय हुआ। उन्हें आलिंगन देकर राम ने कहा, “आप तो मेरे लिए भामंडल के समान हो। मेरी अनुपस्थिति में आपने मेरे पुत्रों की इतनी उत्तम देखभाल की है और इन्हें उच्च श्रेणी का वीरत्व प्रदान किया है। मैं निरंतर आपका ऋणी रहूँगा।" 30 | लक्ष्मण, सुग्रीव, बिभीषण, हनुमान, अंगद आदिने मिलकर राम से विनति की कि, “आपकी विरहव्यथा से पीडित सीता दीर्घ समय तक परदेश में रही हैं। अब अपने दो पुत्रों के विरह से तो वे एकदम दुःखी बनेंगी। अतः आपश्री आज्ञा दें, तो हम स्वयं प्रस्थान कर उन्हें अपने साथ लेकर शीघ्र ही लौटेंगे। अन्यथा पति व पुत्रों के विरह से उनकी मृत्यु हो सकती है।" राम ने उनसे कहा, "मुझे ज्ञात है कि सीता के विषय में जो लोकापवाद हुआ, वह मिथ्या है सीता तो महासती है। अपितु मेरी इच्छा है कि अयोध्या में पुनः प्रवेश करने के पूर्व सीता जनसमुदाय के समक्ष अग्निदिव्य करें। अग्निदिव्य से शुद्ध बनी सीताजी का मेरे संग गृहवास निर्दोष रहेगा।" राम के आदेशानुसार सुग्रीव ने अयोध्या के बाहर विशाल मंडप बंधवाया। राम की आज्ञा से सुग्रीव पुंडरीकपुर पधारे। सीता को प्रणाम कर वे कहने लगे, मेरे स्वामी ने आपके लिए पुष्पक विमान भिजवाया है। उसमें बिराजमान होकर आप दिव्य हेतु अयोध्या पधारिये सीताजी ने कहा, "निबिड़ कानन में मेरे त्याग से दशरथनंदन को जो दुःख हुआ था, वह अभी तक शांत नहीं हुआ है। अब पुनः अयोध्या आकर मैं उनके लिए एक नया दुःख क्यों निर्माण करू ? क्योंकि लोग कहेंगे, पहले तो जंगल में त्यागकर सज़ा की और अब दिव्य करवा रहे हैं। पानी पीकर घर पुच्छना क्या उचित माना जाता है।" सुग्रीव नम्रतापूर्वक बोले, "राम को तो ज्ञात है कि आप विशुद्ध महासती है, अपितु जनसमुदाय के संतोष के लिए यह दिव्य करवाया जा रहा है। आप क्रोधित न बनें। रामचंद्रजी अयोध्या में आपके पुनरागमन की प्रतीक्षा कर रहें हैं ?" सुग्रीव के मनाने के बाद सीताजी अयोध्या आने के लिए तैयार हो गई। विमान में बैठकर वे अयोध्या के बाहर महेंद्र नामक उद्यान में पुष्पक विमान में राम-लक्ष्मण ने अपने साथ साथ लव-कुश को बिठाया व अयोध्यानगरी पहुँचे। अयोध्यानगरी में लव-कुश को देखने के लिए जनसमुदाय आया, उन्हें देखकर लोग आश्चर्यचकित होकर उनकी प्रशंसा करने लगे। विमान प्रासाद के प्रांगण में पहुँचा, सब नीचे उतरें। प्रासाद में राम ने महोत्सव मनाया। सीताद्वारा अग्निदिव्य व दीक्षा उतरी। लक्ष्मण व अन्य राजाओं ने आकर उनसे कहा, “आप अयोध्या के प्रासाद में पधार कर धरती को पावन करें।" परंतु सीताजी ने कहा, “अब अग्निदिव्य के उपरांत ही नगर एवं प्रासाद में प्रवेश करूँगी। अन्यथा यह लोकापवाद शांत नहीं होगा।" राजाओं ने राम से मिलकर सीताजी की प्रतिज्ञा के विषय में जानकारी दी। राम ने सीताजी से मिलकर कहा, "रावण के नगरी में इतने दिन रहने के पश्चात् भी रावण ने आपकी इच्छा या अनिच्छा को तनिक भी महत्व दिये बिना आपके साथ अपवित्र संबंध रखे थे अथवा नहीं, इस विषय में लोग अभी भी साशंक है अतः उनका संशय दूर कराने के लिए आपको अग्निदिव्य करना होगा" 95 सीताजी ने हँसकर उत्तर दिया- “आप जैसे सज्जन व विद्वान महापुरुष ने मेरे अपराध को जाने अथवा परखे बिना मुझे देशनिकाला दे दिया। मेरा निरपराधित्व सिद्ध करने के लिए मुझे एक अवसर भी नहीं दिया। आपने मेरे अपराध की जाँच किए बिना ही मुझे दंड दिया और आज इतने वर्ष बीतने के बाद आप मुझ से दिव्य करवा रहे हैं, यह आश्चर्य है मैं तो आर्यनारी हूँ आपका आदेश कैसे ठुकरा सकती हूँ । आपकी इच्छानुसार जब आप कहेंगे, तब दिव्य के लिए मैं तैयार हूँ।" रामचंद्रजी ने कहा, आप संपूर्णतः दोषरहित हैं, यह मुझे ज्ञात है। । किंतु लोगों के हृदय में उत्पन्न हुए काल्पनिक दोष की निवृत्ति के लिए आपसे दिव्य करवा रहा हूँ।" सीताजी ने कहा, "आपके आदेशानुसार पाँचों दिव्य करने के लिए मैं तैयार हूँ । आपकी इच्छा हो, तो मैं अग्निप्रवेश करूंगी, अथवा अभिमंत्रित अक्षतों का भक्षण करुँगी अथवा तुला पर चढूँगी अथवा जीभ से शस्त्र की धार ग्रहण करूंगी अथवा ऊष्ण सीसे का पान करुँगी ! आपको जो इष्ट हो, वह For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 दिव्य मुझसे करवाईये।" तब वहाँ उपस्थित जनसमुदाय ही नहीं, अपितु आकाशस्थित नारदजी भी दिव्य का निषेध करते कहने लगे, "हे राघव ! आप यह क्या अनाचार कर रहे हैं ? सीता तो महासती हैं। अतः दिव्य का कोई विकल्प उनके समक्ष नहीं रखा जाना चाहिये।" तब क्रोधित होकर रामचंद्र बोले, "हे लोगों ! क्या आप भूल गए कि आप स्वयं सीता की इतनी निंदा करते थे कि अंतमें निरपराधी होते हुए भी मुझे उन्हें दंड देना पडा। आज आप उनके निर्दोषत्व की घोषणाएँ कर रहे हैं। कल कुछ निमित्त मिलते ही आप पुनः उन पर दोषारोपण करेंगे। अतः आपकी शंकाकुशंकाओं का निराकरण होना, अब आवश्यक है, ताकि भविष्य में कोई दोषारोपण का प्रश्न खडा न हो।" सीताजी का अग्नि प्रवेश अयोध्याके बाहर रामचंद्रजी ने तीन सौ हाथ लंबा, तीन सौ हाथ चौडावदो पुरुष प्रमाण गहरा खड्डा खुदवाया। उसे चंदन काष्टों से भर दिया। फिर अग्नि से प्रज्वलित कर दिया। धधक करती अग्निशिखाओं ने आकाश को व्याप्त किया। उन विकराल ज्वालाओं को देखकर रामचंद्र स्वयं भविष्य के लिए चिंतित हो गये। अग्नि के समीप सुस्नात, सुवस्त्रधारी सीताजी पहुँची व एकाग्रता पूर्वक पंचपरमेष्ठी का स्मरण कर उच्च स्वर में बोल उठी, "हे अग्निदेव....! हे लोकपालों....! हे उपस्थित जन समुदाय....! यदि राम के अलावा किसी भी अन्य पुरुष की मैंने काया, वाचा, मन से, निद्रा या जागृत अवस्था में तनिक भी अभिलाषा की हो तो हे अग्निदेव ! मुझे जलाकर भस्म बना दीजिये। अन्यथा इस विकराल अग्निशिखाओं को मेरे लिए शीतल जल के समान सुखदायी बनाईये।' इतना कहकर सीताजी ने अग्नि में प्रवेश किया। ZTZIP For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only 97 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOORESCRIORTESEXSTORYESTERDASEAR CH सतीत्व का चमत्कार एक ही क्षण में समस्त अग्निशिखाँए शीतल जल में परिवर्तित हो गई। खड्डा जल से व्याप्त हो गया। जल में सुगंधित कमल खिले । एक विशाल कमल पर सिंहासन था, जिस पर सीताजी अधिष्ठित थी। उनका दिव्य शरीर कुन्दन की भाँति दमक रहा था। दिव्य वस्त्रों व आभूषणों से भूषित सीताजी, साक्षात् लक्ष्मी लग रही थी। कुछ ही समय में जल खड्डे से उछल कर चारों दिशाओं में फैल गया। बड़े बड़े मंच व मंडप भी जल में अदृश्य होने लगे। भयभीत होकर विद्याधर आकाश में उड़ान करने लगे। आतंकित भूचर पुकारने लगे, "हे महासती ! हमारी रक्षा कीजिये ।" आसन से उठकर सीताजी ने जल प्रवाह को स्पर्श किया व पुनः खड्डा की दिशा में मोड दिया। अब केवल खाड्डे में ही पानी था, जिससे वह एक विशाल तालाब जैसे दीख रहा था। जल में अनगिनत कमल व हंस थे। सीताजी की प्रशंसा करते हुए नारदजी व अन्य देव आनंदविभोर होकर नृत्य करने लगे। उन्होंने सीताजी पर दिव्य पुष्पों की वर्षा की। “धन्य.. धन्य" के जयघोष से सीताजी के सतीत्व की प्रशंसा होने लगी... परंतु..... For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीताजी की दीक्षा परंतु सीताजी के मन में कुछ अन्य विचार चल रहे थे। संयत स्वर में वे राम से बोली, "हे आर्यपुत्र ! संपूर्णतया निर्दोष होने पर भी मुझ पर जो कलंकवर्षा की गई, उसका उत्तरदायित्व न आपका है, न अयोध्यावासियों का संपूर्ण निर्दोष होते हुए भी मुझे महाअटवी में जो दुःख भुगतने पडे, उसके लिए न आप दोषी है, न ये अयोध्यावासी। संपूर्णतया पति के आधीन होते हुए भी मुझे दो बार विरह अग्नि में दीर्घ समय जलना पड़ा, उसके लिए अपराधी न रावण है, न आप। यह सब मेरे अशुभ कर्मों का दोष है। एक जन्म में कर्मबंध करना, दूसरे जन्म में उन्हें भुगतकर और नया बाँधना..... कब तक चलता रहेगा, यह दुष्टचक्र ? अब इस संसार से मेरा मन उद्विग्न हो चुका है। अतः मैंने कर्मों का विनाश करनेवाली व मोक्ष मार्ग में सहायक दीक्षा का स्वीकार करने का निश्चय किया है।” इतना कहकर सीता ने अपनी मुट्ठी से अपने कुरल केशों को उखेडकर राम के हाथों में थमा दिए । DILIP COM 9-1999 For Personal & Private Use Only 99 यह देखते ही उपस्थित जन दिव्यगण के मानसपर भगवान के दीक्षा ग्रहण की स्मृति उभर आई। क्योंकि भगवान निर्विकार मुद्रा से स्वयं केशलोच कर उन्हें इन्द्र के हाथों में थमा देते हैं। यह दृश्य देखकर रामचंद्र बेहोश हो गए। कुछ समय के पश्चात् वे स्वस्थ बने। परंतु उनके स्वस्थ होने के पूर्व सीता, केवलज्ञानी जयभूषण मुनि के पास पहुँच चुकी थी । वहाँ उन्होंने विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की नूतन साध्वीजी सीता, सुप्रभा नामक गणिनी के परिवार में कठोर साधना एवं तपश्चर्या में तत्पर बन गई। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 चंदनजल छिटकने पर जब राम स्वस्थ हुए तब उन्होंने पाया कि सीताजी उनके समीप नहीं हैं। वे उच्च स्वर में बोले, "मेरी सीता कहाँ है ? आप सब मौन क्यों खडे हैं ? क्या आपको अपना जीवन प्रिय नहीं है। कोई मुझे बताएगा कि केशलोच पश्चात् सीताजी कहाँ गई ? अनुज लक्ष्मण ! शीघ्र किसी को भिजवाकर मेरा धनुष्यबाण मंगवाओ। इन मूक मूढों को जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है में दुःखी हूँ.. महादुःख के सागर में गोते खा रहा हूँ.. 27 परिस्थिति की विषमता जानकर लक्ष्मण ने राम को प्रणाम किया और बोले, “भ्राताश्री! आप यह क्या अनर्थ कर रहे हैं ? ये सभी आपके सेवक है.. अपने ही आत्मज समझे जाने वाले इन सेवकों पर तीर चलाना उचित नहीं है। अन्य तर्क यह है कि लोकापवाद से भयभीत होकर न्यायनिष्ठ आपने सीताजी का त्याग किया था, वैसे ही संसारचक्र से भयभीत होकर आत्महित में तत्पर सीताजी ने आपका त्याग किया है। वे तो आपके समक्ष केशलोच कर जयभूषण मुनि के पास विधिपूर्वक दीक्षा लेने गई है। आपको वहाँ जाकर उनकी महिमा एवं अनुमोदना करनी चाहिये। मुनिश्री को अभी अभी केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है। महाव्रतधारी स्वामिनी सीताजी भी उन्हीं के पास गई हैं। आज तक सीताजी विशुद्ध सतीमार्ग पर चल रही थी, अबसे वे साध्वी सीताजी विशुद्धतम मोक्षमार्ग पर चलेगी।” अनुज लक्ष्मण के इन वचनों को सुनते ही रामचंद्र के मन में जो क्षोभ शेष था, वह शांत हो गया। उन्होंने कहा- "मेरी धर्मपत्नी सती सीता ने केवलज्ञानी जयभूषण मुनिराज से दीक्षा प्राप्त करनेका जो निर्णय किया है, वह यथायोग्य है।” इसके बाद रामचंद्रजी, सपरिवार जयभूषण मुनि के समीप गए। वहाँ यथायोग्य स्थान पर बैठकर उन्होंने शांतिपूर्वक देशना सुनी। देशना के अंत में रामचंद्रजी ने मुनिराज से प्रश्न किया "क्या मैं भव्य आत्मा हूँ... अथवा... अभव्य हूँ ?” केवलज्ञानी मुनिराज ने कहा, “आप भव्य आत्मा हैं... इतना ही नहीं.. आप इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करेंगे।" राम ने पुनः प्रश्न किया- "सीताजी ने तो मुझे त्यागा है... किंतु में अनुज लक्ष्मण को कैसे त्याग पाऊँगा ?" केवलज्ञानी मुनिराज ने उत्तर दिया “जिस पुण्य के उदय से आप बलदेव बने हैं, वह अभी शेष है। उसके पूर्ण बिभीषण, सुग्रीव, हनुमान, भामंडल और सीता के पूर्वभव के लिए देखिए Jain Edपरिशिष्ठ लव-कुश के पूर्वभव के लिए देखिए परिशिष्ट नं. ९ होते ही आप दीक्षाग्रहण करेंगे व अवश्य मोक्ष पाएंगे।" फिर बिभीषण ने पृच्छा की कि, “भ्राता रावण किस कर्म के उदय के कारण मारे गये ? मैं, सुग्रीव, हनुमान, भामंडल, सीता, लव-कुश आदि सब राम के प्रति अति अनुरागी क्यों हैं?" इन प्रश्नों के पूर्वभव आधारित उत्तर केवलज्ञानी से सुनकर अनेक आत्माओं के हृदयकमलों में मोक्ष का भाव जागृत हुआ। राम के सेनानी एवं सारथि कृतान्तवदन ने दीक्षा ग्रहण की। राम, लक्ष्मण व समस्त परिवार एवं अन्य राजा श्रद्धापूर्वक साध्वी सीताजी को वंदन कर पुनः अयोध्या लौटे। कृतान्तवदन मुनि, तपश्चर्या कर मरणोपरांत पाँचवें देवलोक में गए। साध्वीजी सीताजी ने साठ वर्ष विविध प्रकार की तपोसाधना की अन्त में तैंतीस दिन अनशन कर मरणोपरांत वे बारहवें देवलोक में अच्युतपति इंद्र बनी । 31 For Personal & Private Use Only हनुमान की दीक्षा व लक्ष्मण की मृत्यु PILIC SONT 1659 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनुमान को वैराग्य एक समय हनुमानजी मेरुपर्वतस्थित जिनालय में दर्शनार्थ गए थे। वहाँ से लौटते समय सूर्यास्त का दृश्य देखकर उनके मन में विचार आया, “जिसका उदय होता है, उसका अस्त अटल है। इस विश्व की प्रत्येक वस्तु अनित्य, अशाश्वत है, किसी न किसी दिन विनाश होनेवाली है। सामान्य जन उगते सूर्य को अर्ध्य प्रदान करते हैं, वंदन करते हैं, डूबता सूरज कितना अकेला होता है। कोई उसे न प्रणाम करता है, न उसके लिए आँसू बहाता है। सीताजी की शोध में जानेवाला मैं, उगते सूरज की भाँति था... आज भी हूँ.. किंतु आयुष्य के अंतिम क्षण तक पहुँचते पहुँचते में भी अस्तमान सूर्य की भाँति एकाकी हो जाऊँगा.. किंतु अभी समय है। ऐसा कुछ होने के पूर्व में भी शाश्वत सुख पाने के लिए पुरुषार्थ करूँ । संसार अशाश्वत है। क्षणिक एवं नाशवंत संसार को धिक्कार है! केवल दीक्षा के माध्यम से ही शाश्वत सुख पर स्वामित्व संभव है।" मुनि हनुमान का विहार इस प्रकार विचारकर वे अपने नगर पहुँचे। अपने पुत्र के हाथों में राज्य की बागडोर सौंपकर उन्होंने श्रीधर्मरत्नाचार्य महाराज से भागवती दीक्षा की। उनके साथ साथ उनकी पत्नियों ने भी दीक्षा ग्रहण की। मुनि हनुमानजी ने ध्यानस्थ बनकर समस्त कर्मों का क्षय किया व मोक्षलक्ष्मी प्राप्त की। हनुमानजी की दीक्षा के समाचार मिलते ही राम ने विचार किया कि, “सब भौतिक सुख उपलब्ध होते हुए भी हनुमान ने परमकष्टकारी दीक्षा क्यों ग्रहण की ?" उसी समय देव सभा में देवराज इंद्र ने अवधिज्ञान से रामचंद्रजी के विचार जान लिए व बोले, “रामचंद्रजी तो मोक्षगामी भव्य आत्मा हैं। वे इसी 101 भव में मोक्ष पानेवाले हैं। फिर भी वे मानवलोक में चारित्र धर्म का उपहास एवं क्षणिक भोग सुखों की प्रशंसा कर रहें हैं ! यह कर्मों की कैसी विचित्र लीला है। मोहनीयकर्म की गति कौन समझ सकता है ? रामचंद्र के इस वर्तन का कारण है लक्ष्मण के प्रति उनका अगाढ स्नेह । इसी ममत्वभाव के कारण उनके अंतर में वैराग्य जागृत नहीं हो रहा है।" देवसभा में बैठे दो देवों के मन में कौतुकभाव जागृत हुआ, वे विचार करने लगे कि "दो मानव भाईयों के बीच यह कैसा प्रेमभाव है, जिसकी प्रशंसा देवलोक में स्वयं देवेंद्र कर रहे हैं।" अतः इस स्नेहभाव की परीक्षा करने वे देवलोक से अयोध्या नगरी में लक्ष्मणजी के प्रासाद में आए और वहाँ देवमाया से एक ऐसा दृश्य निर्माण किया कि राम का मृत्यु हो गया है। अन्तःपुर की स्त्रियाँ आक्रन्दन कर रही हैं "हे राम ! हे पद्मनयन !! समस्त विश्व के लिए अभयंकर ऐसे हमारे रामचंद्रजी की असमय मृत्यु कैसे हो गई ?" PILYWW.Janelibrary.org Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOARD NAGMCCIMO । महापुरुष का मृत्यु हमारे कारण हुआ। धिक्कार है हमें !" इस प्रकार आत्मनिंदा करते करते वे दोनों देव स्वर्ग में गए। लक्ष्मणजी का अकस्मात मृत्यु देखकर अंतःपुर की स्त्रियों ने अपने बाल बिखेर दिएव अपने मस्तक कूटकूटकर विलाप करने लगी। रामचंद्रजी दौडकर वहाँ आए व शोकाकुल स्त्रियों से कहने लगे - "अरे! आप सब किस अमंगल की आशंका से रुदन कर रही हैं? यहाँ कौनसा प्रलय आया है कि आप इस तरह से रो रही हैं। देखिये, मैं अभी जीवित हूँ और यहाँ पर निश्चेष्ट यह मेरा अनुज भी जीवित है। कोईदुष्ट ग्रह अथवा रोग इसे पीडित कर रहा है - जिसका प्रतिकार औषध द्वारा अथवा पूजापाठद्वारा हो सकता है। राजवैद्य व ज्योतिषियों को सत्वर बुलाईयो" AUDI HTARNINARENTINFRINA लक्ष्मण की मृत्यु इस प्रकार केश बिखेरती अत्यंत करुण विलाप करनेवाली उन स्त्रियों का दृश्य देखते ही लक्ष्मणजी शोकाकुल होकर बोले, “अरे ! विधि की यह कैसी विचित्रता है? मेरे प्राणप्रिय भ्राता का मृत्यु यकायक कैसे हो गया ? यमराज ने यह कैसा कपट किया..." आत्यंतिक दुःखाघात से हताश लक्ष्मणजी जब ऐसे विचार कर रहे थे, तब यकायक उनके प्राणपखेरु उड गए। एक मूर्ति की भाँति वे निश्चल, निश्चेष्ट बनें । मृत लक्ष्मण को देखकर अत्यंत दुःखी पश्चात्ताप करते हुए वे देव एकदूसरे से कहने लगे "हमारे हाथों यह भयानक कृत्य कैसे हो गया ? हाय ! विश्वके आधारभूत इस For Personal & Private Use Only nelit Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ @. रामचन्द्रजी द्वारा लक्ष्मण को औषध पीलाने का प्रयास राजवैद्यों एवं ज्योतिषियों को बुलवाया गया। औषधादि प्रयोग किये गए, मंत्र तंत्रादि के भी प्रयोग किये गए, किंतु वे सब असफल हुए। PHAR SONE राम मूर्च्छित हुए किंतु कुछ समय पश्चात् होश में आकर उच्च स्वर में विलाप करने लगे। रामचंद्रजी का विलाप सुनकर बिभीषण, सुग्रीव और शत्रुघ्न फूट-फूटकर रोने लगे। कौशल्यादि माताएँ, पुत्रवधुएँ भी करुण रुदन करते करते बार-बार मूर्च्छित होने लगी। अयोध्या नगरी के घर-घर में, अरे ! पुरी नगरी में शोक का वातावरण छा गया। For Personal & Private Use Only 103 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 लव-कुश द्वारा दीक्षा की आज्ञा मांगना ))) 7014 innadada amy TIDE अपने काकाश्री का असमय मृत्यु देखकर संसार की अनित्यता से अत्यंत भयभीत होकर लव-कुश, रामचंद्रजी को प्रणाम करते हुए बोले, “मृत्यु तो सभी को कभी भी अकस्मात् आ सकता है। अतः मनुष्य को परलोकगमन के लिए सदैव तैयार रहना चाहिये। हे तात! आपके प्राणप्रिय अनुज व हमारे काकाश्री की असमय मृत्यु देखकर हमें तीव्र वैराग्य आया है। इस संसार के प्रति हमें तनिक भी आसक्ति नहीं है। अब हमें यहाँ रहना नहीं। आपश्री हमें अनुमति दीजिये" इस प्रकार अपने पिता से अनुमति लेकर अमृतघोष मुनि से दीक्षा प्राप्त की। कितना अटूट वैराग्य जगा, इन दो युवाओं के मनमें! घर से प्रिय काकाश्री का शव अभी अंत्येष्टि के लिये बाहर निकाला नहीं गया। घर में शोकाकुल वातावरण है। फिरभी उत्तम भावपूर्वक चारित्रग्रहण करने के लिए उन्होंने तनिक भी विलंब नहीं किया। दोनों युवा मुनिओं ने उत्तम आराधना के माध्यम से केवलज्ञान पाकर मोक्ष प्राप्त किया। For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 105 32 लक्ष्मणजी के शवसमेत रामचंद्रजी का वनविचरण अपने प्राणप्रिय अनुज के असमय एवं अकस्मात् मृत्यु से निर्माण आए हो ! जाओ अपने भ्राताओं की अंत्येष्टि करो । मेरा अनुज, मेरा विषम परिस्थिति और दो युवा पुत्रों के वियोग के कारण अन्यमनस्क वत्स लक्ष्मण तो दीर्घायु है। हे अनुज ! अपना क्रोध त्याग दो। मुझसे रामचंद्रजी बार-बार मोहवश होकर मूर्च्छित होने लगे। वे कभी प्रलाप कुछ तो बोलो। हे वत्स ! दुर्जनों की भाँति कोपायमान होना तुम्हारे करते थे, "हे अनुज ! तुम्हें मृत मानकर मेरे युवा पुत्रों ने गृहत्याग लिए उचित नहीं है।" इस प्रकार बोलते हुए रामचंद्रजी ने अपने अनुज किया है। अतः हे अनुज ! विना विलंब किए तुम उठ जाओ ! सत्वर का शव अपने स्कंधों पर उठाया और वहाँ से चल दिए। उठो!" रामचंद्रजी का यह उन्मत्त-सा भाषण सुनकर बिभीषण गद्गद् होकर बोले, “हे रामचंद्रजी ! आप धैर्यवान पुरुषों से अधिक धैर्यवान, रामचंद्र कभी लक्ष्मण के मृत शरीर को स्वयं स्नान कराते, तो वीरों में महावीर हो, फिर भी सत्यस्थिति को स्वीकार क्यों नहीं कर कभी विलेपन करते। कभी उसके लिए भोजन की थाली परोसते, तो रहे हो ? आपका यह अधैर्य लज्जास्पद एवं जुगुप्सा प्रेरक है। अब हम कभी उत्संग में बिठाकर उन्हें चूमते । कभी उसे कपडे पहनाते, तो सब को एकत्रित होकर अपने प्रिय शासक राजा लक्ष्मणजी का कभी उसके समीप स्वयं निद्रा लेते थे। यहाँ एक तात्विक बात जानना अग्निसंस्कार एवं उत्तरक्रिया करनी चाहिये।" बिभीषण के शब्द सुनकर आवश्यक है कि वासुदेव का शरीर विशिष्ट परमाणुओं से बनने के क्रोधावेश से तिलमिलाते हुए रामचंद्रजी बोले, “आप सब मुझे अकेला कारण मरणोपरांत छः मास तक सडता नहीं है। सामान्य मानवी का क्यों नहीं छोड़ देते ? मेरे जीवित भाई का अग्निसंस्कार करने चले मृतक तो कुछ ही समय में सड़ने लगता है। जटायुदेव द्वारा रामचन्द्रजी को प्रतिबोध ITaitadharma rivat Only www.sainamaraparg. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 (1) रामचंद्रजी को प्रतिबोध देने स्वयं जटायुजी देव चौथे देवलोक से पृथ्वी पर उतरे और रामचंद्रजी के समक्ष एक शुष्कवृक्ष पर जल सिंचने लगे। उनकी यह चेष्टा देखकर रामचंद्रजी बोले, "हे मित्र ! इस अचेतन वृक्ष को आप चाहे कितना भी पानी पिलाईगा, उसका नव पल्लवित होना अशक्य है। आपके सभी प्रयत्न निष्फल बनेंगे।" (2) तब वह देव एक पाषाण पर गोबर, बकरी की मैंगनी आदि खाद डालकर कमलिनी को रोपने लगा। तब रामचंद्रजी बोले "बंधु ! पाषाण के ऊपर आप चाहे कितना भी उत्तम खाद डाले व उत्तम वृक्षारोपण करेंगे, तो वह निष्फल प्रयत्न कहलाएगा। क्योंकि उत्तम प्रकार की मृत्तिका में ही वृक्षारोपण करने से सफलता मिलती है, पत्थर के ऊपर वृक्षारोपण करने से क्या मिलेगा ?" उसी समय सेनापति कृतांतवदन की आत्मा, जो अब देव बन गई थी, वह अवधिज्ञान से समस्त वृत्तांत जान गई । कृतांतवदन देव ने मानव रूप धारण किया। वह अपने कंधों पर एक स्त्री का शव उठाकर रामचंद्रजी के समीप आया रामचंद्रजी ने कहा, "हे मुग्ध ! इस तरह एक स्त्री का शव अपने कंधोंपर उठाए क्यों फिर रहे हो ?" मानवदेहधारी देव ने कहा, "आप ऐसी अमंगल बाते क्यों कर रहे हैं ? यह तो मेरी प्यारी पत्नी है। इस तरह मेरी जीवित पत्नी को आप मृत क्यों कहते हो ? यदि आपको ज्ञात है कि जो स्त्री मेरे कंधों पर है, वह मृत है, तो Jain Ed international (3) फिर देव ने चक्की में रेत डाली व चक्की पिसने लगा। राम ने उनसे पूछा “बंधु आप क्या कर रहें हैं !" देव ने उत्तर दिया, “मैं रेत पिसकर तेल निकाल रहा हूँ।" तब राम बोले, "आप ऐसा क्यों कर रहें हैं ? क्या असाध्य, कभी प्रयास करने पर भी साध्य हो सकता है ?" यह सुनकर जटायु देव मुसकराकर बोले- “आप तो महाज्ञानी हैं, फिर साक्षात् अज्ञान का चिह्न यह शव अपने स्कंधों पर उठाकर क्यों जा रहे हैं ?" तब लक्ष्मणजी के शव के आलिंगन देकर रामचंद्र बोले "आप ऐसी अमंगल बाते क्यों बोल रहें हैं? आप यहाँसे चले जाइये।" (४) एवं ऋतु के बिना निर्जल समय में मृतबैल को जोत कर खेती का प्रयास करने पर भी वह देव प्रतिबोध करने में निष्फल रहा। 7 आपने अपने स्कंधों पर जिस पुरुष का शरीर रखा है, वह भी मृत है, यह क्यों नहीं समझ सकते ?" रामचंद्रजी गंभीरता से विचार करने लगे, अंतमें उन्होंने इस वास्तविकता का स्वीकार किया कि मेरा अनुज लक्ष्मण अब जीवित नहीं है। तब रामचंद्रजी को आत्मपरिचय करवा कर जटायुदेव व कृतांतवदनदेव पुनः देवलोक लौट गए। रामचंद्रजी ने लक्ष्मणजी का दाहसंस्कार एवं अंत्येष्टि विधिवत् की । DILIP SONI AA Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 Jain Edo रामचंद्रजी की दीक्षा व मोक्ष रामचंद्रजी की दीक्षा अब रामचंद्रजी का मन भी संसार की असारता एवं अनित्यता के कारण वैराग्य की तरफ आकृष्ट होने लगा । अतः अपने अनुज शत्रुघ्न का राज्याभिषेक करवा कर उन्होंने दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की, किंतु शत्रुघ्न का मन भी संसार से उब चुका था। वे बोले, "भ्राताश्री मुझे राज्याभिषेक में कोई रुचि नहीं है, मेरी इच्छा है कि आप ही के साथ मैं दीक्षा ग्रहण करूं !” अतः लव के पुत्र अनंगदेव को राज्य सौंपकर वे मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के वंशज सुव्रतमुनि के पास गए वहाँ पर श्री रामचंद्रजी ने शत्रुघ्न, सुग्रीव, बिभीषण व अन्य सोलह सहस्र राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। अब वे रामर्षि बन गए। उनके साथ सडतीस सहस्र कुलीन महिलाओं ने प्रवज्या ग्रहण कर श्रीमती साध्वीजी की निश्रा प्राप्त की । जब एक भव्य आत्मा वैराग्य के मार्ग पर चलती है, तब उनका अनुसरण करने के लिए अनेक जीव लालायित हो जाते हैं। गुरुचरणों में रहकर पूर्वागश्रुत का अध्ययन करके रामर्षि ने विविध प्रकार के कठोर अभिग्रह किए। अनेक तपश्चर्या के उपरांत एक दिन वे गुरू की आज्ञा लेकर वन में अकेले निर्भय रूप से वास करने के लिए चले गए। वहाँ उन्होंने अवधिज्ञान प्राप्त किया। 107 एक समय रामर्षि छट्ट का पारणा करने नगर में पधारे। उनके • आगमन के शुभ समाचार सुनकर हर्ष से उभरते नगरजन उनके स्वागत के लिए समक्ष आये नगरनारियाँ अपने अपने घरों के द्वार पर खाद्य से परिपूर्ण पात्र हाथों में लिए खड़ी थी। लोगों के कोलाहल से भयभीत हाथियों ने अपने आलानस्तंभ तोड दिए। नगर में भगदड़ मची। रामर्षिजी ने किसी से भी आहार ग्रहण नहीं किया। जिस आहार को गृहस्थ न अपने घर रखना चाहता हो, न खाना चाहता हो, वह आहार उज्झित धर्मवाला कहलाता है। वे प्रतिनंदी राजा के प्रासाद गए। वहाँ राजा ने उज्जित धर्म का आहार सुपात्रदान में दिया। देवों ने उस For Personal & Private Use Only www.jamelibrary.org Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 स्थान पर वसुधारी पंचदिव्य की वृष्टि की। रामर्षि पुनः वन की ओर चल दिए। उन्होंने विचार किया कि मेरे नगर में जाने से कोलाहल मचता है और संघट्टा आदि भी होता है। अतः उन्होंने अभिग्रह किया कि वन में ही भिक्षा के समय भ्रमण करने से गोचरी में जो कुछ प्राप्त होगा, उससे ही वे पारणा करेंगे अन्यथा नहीं। इस प्रकार अपने शरीर के प्रति निरपेक्ष रामर्षि कायोत्सर्ग में रहकर समाधिसाधना करने लगे। वन में वे कभी मासक्षमण, कभी दो मास, तीन मास, चार मास के उपवास आदि तपश्चर्या करते। कभी साधक को संसारसमुद्र से पार करानेवाले पर्यंकासन में बैठते, तो कभी उत्कट आसन में बैठते। कभी भुजाएँ उँची करके, तो कभी लंबीकर, तो कभी पैरों के अंगुठे के आधारपर खड़े रहकर तप तपते । एक बार तप करते करते विहार कर वे कोटिशिला गए। वहाँ शिला पर बैठकर रात्रि में प्रतिज्ञा धारणकर रामर्षि ने शुक्लध्यान का आश्रय लेकर क्षपक-श्रेणि का आरंभ किया। रामर्षि पर सीतेन्द्र द्वारा उपसर्ग अवधिज्ञानी सीताजी की आत्मा जो अभी सीतेंद्र देव बन चुकी थी, रामचंद्रजी को ध्यानस्थ मुद्रा में देखकर सोचने लगी “यदि ये केवलज्ञानी बनेंगे, तो हमारा पुनर्मिलन कैसे हो सकेगा? किसी भी प्रकार से वे संसारी बने रहे, तो ही पुनर्मिलन की संभावना है। अतः कुछ ऐसे अनुकूल उपसर्ग करूँ, जिससे वे मेरे मित्रदेव बनें।' यह विचारकर सीतेंद्रजी ने वहाँ अपनी दैवी शक्ति से एक बडा सुंदर उपवन बनाया। उपवन में कामोत्तजक वसंत ऋतु आई। कोयल टहुकने लगी, भ्रमर गुंजारव करने लगे, आम्र, चंपक, मल्लिका आदि वृक्ष पल्लवित हो गए। पुष्पों की मनोहर सुगंध ने वातावरण चित्ताकर्षक बनाया। स्वयं सीतेंद्र ने सीताजी का रूप धारण किया व राम के समक्ष आकर कहने लगी, “हे प्राणनाथ ! आपके प्रेम को त्याग कर दीक्षा लेने का मुझे पश्चात्ताप हो रहा है। ये विद्याधर कन्याएँ जो अब मेरे साथ हैं, सब आप से प्रेम करती हैं, ये चाहती हैं कि आप दीक्षा त्याग कर इनसे विवाह करें। आप की पटरानी होने की इच्छा, मेरे हृदय में भी है । अतः आप इन कन्याओं से विवाह कीजिये। मैं भी आपके साथ रहूँगी व प्रेमक्रीडाएँ करुंगी। आपका प्रेम ठुकराकर मैंने दीक्षा ग्रहण की, अतः मुझे क्षमा कीजिये। सीताजी का कथन पूर्ण होते ही विद्याधर कन्याओं ने उपवन में कामुक रागरागिणियों की धूम मचा दी। PILIP SON For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADY'S Ou An For Personal & Private Use Only 109 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 मोहनीय कर्म कितना भयंकर होता है। अच्युतेंद्र सम्यग्दृष्टि होता है, फिर भी रामर्षि के पतन के लिए उन्होंने प्रयत्न किया। सीतेंद्र के वचन एवं कामोत्पादक संगीत से राम तनिक भी विचलित नहीं हुए। रामर्षि को केवलज्ञान रामर्षि ने अपने ध्यान के बल से माघ शुक्ल द्वादशी की रात्रि के अंतिम प्रहर में केवलज्ञान प्राप्त किया। सीतेंद्र एवं अन्य देवों ने केवलज्ञान का महोत्सव मनाया। रामर्षि की सव्य व दक्षिण दिशा में चामर घूमने लगे। उन्हें सुवर्ण सिंहासन पर अधिष्ठित किया गया। उनके शीर्ष पर सुवर्णछत्र बनाया गया। केवलज्ञानी रामचंद्रजी ने धर्मदेशना दी। देशना के अंत में सीतेन्द्र के पूछने पर उन्होंने लक्ष्मण, रावण एवं सीताजी के भविष्यकालीन जन्मों को स्पष्ट किया 34 लक्ष्मणजी, सीता व रावण के आगामी भव यहाँ पर रावण एवं लक्ष्मण परस्पर तिरस्कार करते थे । वे उभय, एक भव में अशुभ कर्म की निर्जरा कर शुभ कर्म उपार्जित करेंगे। I इसके पश्चात् दूसरे भव में वे पूर्व महाविदेह क्षेत्र की विजयावती नगरी में सुनंद की पत्नी रोहिणी से दो पुत्र, जिनदास व सुदर्शन होंगे वे जैनधर्म की आराधना करेंगे। कर्म की विचित्रता कैसी है! एक भव के परम शत्रु अन्य भव में सहोदर बनेंगे। मरणोपरांत वहाँ से वे पहले देवलोक में देव बनेंगे। यह उनका तीसरा भव होगा। चौथे भव में वे विजयानगरी में मनुष्य देह धारण कर श्रावक जीवन का पालन करेंगे। वहाँ से हरिवर्ष क्षेत्र में दोनों अलग अलग पुरुष रूप में युगलिक बनेंगे। For Personal & Private se C www.library.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anang छठ्ठे भव में पुनः देवलोक जाकर देव बनेंगे। वहाँ से च्यवन प्राप्त कर पुनः विजयापुरी में कुमारवर्ति राजा व लक्ष्मीरानी के जयकांत व जयप्रभ नाम के राजकुमार, जिनोक्त धर्म का पालनकर मृत्यु को प्राप्त करेंगे। मरणोपरांत छठ्ठे देवलोक में देव होंगे। तब सीतेन्द्र का जीव बारहवें देवलोक से च्यवनकर भरतक्षेत्र में जन्म लेगा । वहाँ पर सीतेंद्र, सर्वरत्नमति चक्रवर्ती बनेंगे। देवलोक से लक्ष्मणजी व रावण के जीव च्यवन कर चक्रवर्ती बने सीताजी के पुत्र होंगे। उसमें रावण के जीव का नाम इन्द्रायुध और लक्ष्मण के जीव का नाम मेघरथ रहेगा। कर्म की गति कितनी विचित्र है। सीता का अपहरण करेनवाला रावण दसवें भव में सीता का पुत्र होगा। चक्रवर्ती सीताजी का जीव दीक्षा लेकर अनुत्तर देवलोक में जाएगा। उसके पश्चात् इंद्रायुध जो रावण का जीव है, वह तीन श्रेष्ठ भव पार कर तीर्थंकर नाम कर्म बांधेगा। उसके बाद रावण का जीव तीर्थंकर बनेगा। सीताजी का जीव वैजयन्त से जन्म लेकर तीर्थकर रावण का गणधर बनेगा और अंत में दोनों मोक्ष प्राप्त करेंगे। लक्ष्मणजी के शेष भव इस प्रकार हैं (१) लक्ष्मण का जीव मेघरथ अपना आयुष्य पूर्ण करके अनेक शुभगति प्राप्त करेगा । (२) उसके पश्चात् पुष्करवर द्वीप में पूर्व महाविदेह के आभूषण रूप रत्नचित्रा नगरी में वे तीर्थंकर होंगे व मोक्ष प्राप्त करेंगे। केवलज्ञानी रामर्षि ने पच्चीस वर्ष विहार कर मरणोपरांत श्री सिद्धगिरि महातीर्थ पर ३ करोड मुनियों के साथ मोक्ष पाया। वाचकमित्रों ! रामायण एक विशाल महासागर है। हमने उसका मंथन किया व कुछ रत्न प्राप्त किए जिन्हें इस पुस्तक के रूप में आपके लिए प्रस्तुत किए हैं। आप का रामायणपठन आपके आध्यात्मिक उन्नत्ति के लिए सहायक बने। आपके इष्टमित्र, एवं परिवारजन भी मधुकरवृत्ति से रामायण का रसास्वाद करें। लोकोत्तर रामायण वैराग्य की खानि है। लोकोत्तर रामायण का संदेश यह है कि अधमाधम व्यक्ति के लिए भी मोक्ष पाना संभव है, यदि वह पश्चात्ताप व अपने कर्म की निर्जरा करें तो ! यह मोक्ष उसे केवल अपने ही पुरुषार्थ के बल पर प्राप्त हाता है....... इति । 111 For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 परिशिष्ट - १ राक्षसवंश की स्थापना तब वहाँ राक्षस नामक व्यंतर देवों के इन्द्र ने घनवाहन को कहा "आप भगवान की शरण में आये हैं, यह बहुत अच्छा हुआ। अब वैताढ्य पर्वत पर न जाकर समुद्र के बीच में स्थित राक्षस द्वीप में जाईये। वहाँ पर किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं होगी। अतः वही पर राज्य कीजिए।" इस प्रकार कहकर उसने उछलते हुए भावों के साथ राक्षसी आदि अनेक विद्याएँ व देव रक्षित हार साधार्मिक भक्ति के रूप में, घनवाहन को दिया। आज से असंख्यात वर्षों पहले की बात है। इस पृथ्वी पर ऋषभदेव भगवान हुए। चारों तरफ लोग भी निष्कपट व निर्लोभी थे। उनका ईक्ष्वाकु वंश था। उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती थे। उनके पुत्र आदित्ययश से सूर्यवंश चला। उसमें अनरण्य, दशरथ, राम, लक्ष्मण वगैरह हुए। भगवान ऋषभदेव की दीक्षा में उनके पौत्र नमि-विनमि अनुपस्थित थे। वे दीक्षा के बाद आकर भगवान के पास राज्य मांगते थे। एक बार धरणेंद्र ने उन दोनों को वैताढ्य पर्वत की दोनों श्रेणि का राज्य व अनेक विद्याएँ दी। भरत क्षेत्र में उत्तर व दक्षिण के विभाजक वैताढ्य पर्वत के उत्तर क्षेत्र में विनमि और दक्षिण क्षेत्र में नमि राज्य करने लगे। उनसे विद्याधर वंश शुरु हुआ। उसमें असंख्य राजा हुए। कई राजा मोक्ष, तो कई देवलोक में गये। उनके बाद जब अजितनाथ भगवान् हुए, उस वक्त दक्षिण वैताढ्य के रथनुपुर नगर में पूर्णघन राजा था। उसके पुत्र का नाम घनवाहन था। उत्तरीय वैताढ्य क्षेत्र के गगनवल्लभ नगर में सुलोचन राजा था। उसका पुत्र सहस्रनयन व पुत्री रूपवती थी। पूर्णघन राजा ने घनवाहन राजकुमार के लिए राजकुमारी रूपवती की मंगनी की। पूर्णघन राजा द्वारा घनवाहन के लिये माँग करने पर भी ज्योतिषियों के वचन के अनुसार सुलोचन राजा ने अपनी कन्या की शादी अजितनाथ भगवान के चचेरे भाई सगर चक्रवर्ती के साथ करने का सोचा। घनवाहन, राक्षस द्वीप की लंका में राज्य करने लगा। उसकी पत्नी सुप्रभा ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम महाराक्षस रखा गया। इससे सुलोचन व पूर्णघन के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। भौतिक आनन्द हेतु युद्ध की भयंकर हिंसा शुरु हो गई। अन्त में पूर्णघन ने सुलोचन को मार डाला, तब उसका पुत्र सहस्रनयन अपनी बहन को लेकर जंगल में भाग गया। एक दिन उसे जंगल में सगर चक्रवर्ती मिले। सहस्रनयन ने अपनी बहन की शादी उसके साथ कर दी। सगर चक्रवर्ती ने उसे एक राज्य दिया। एक दिन घनवाहन राजा अजितनाथ भगवान को वन्दन करने गया था, तब उसने भगवान की देशना सुनी । उसे वैराग्य भावना जागृत हुई। 'आहा ! मैं पाँच इन्द्रियों में कितना लुब्ध बन ___ गया हूँ, स्त्री के राग में दब गया हूँ व सत्ता के लुभावने कीचड़ में फँस गया हँ ? मेरा क्या होगा? मैंने वास्तव में अपनी आत्मा को ठगी है। क्योंकि अपने योग्य साधना न करके दूसरी झंझटों में आज तक पड़ा रहा हूँ। स्वप्न के समान क्षणिक, बिजली के समान चंचल जीव का क्या भरोसा है। अतः उस पर विश्वास कैसे रखा जाए ? वह कब समाप्त होगा ? क्या भविष्य काल की भयंकर व्यथाओं को यह परिवार व राज्य की सत्ता रोक सकेगी? नहीं, तो फिर इसे तुरन्त छोड़कर संयम साधना में क्यों न लग जाऊँ?' इस प्रकार वैराग्य पाकर उन्होंने महाराक्षस का राज्याभिषेक किया । राजा घनवाहन ने अजितनाथ भगवान के पास आकर दीक्षा ग्रहण की व चारित्र का पालन करते हुए कर्मों को काटकर मोक्ष प्राप्त किया। ये दोनों राजा राक्षस द्वीप की रक्षा करते हुए वहीं पर रहे। इसलिए राक्षस कहलाये। जैसे जर्मनी एशिया वगैरह देशों में रहने वाला मनुष्य जर्मन, एशियन वगैरह कहलाता है। वास्तव में वे राक्षस नहीं थे, बल्कि विद्याधर मनुष्य थे। इनका वंश राक्षस वंश कहलाया। इस प्रकार इस वंश के प्रथम राजा घनवाहन हुए। उनके बाद असंख्येय राजा होने पर भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में राक्षसवंशीय रत्नश्रवस् राजा के पुत्र रावण, कुंभकर्ण व बिभीषण हुए। ये सभी राक्षसवंश के कहलाए। कुछ समय बाद सहस्रनयन शक्तिशाली बना। बदला लेने के लिये उसने पूर्णघन राजा व उसके पुत्र घनवाहन के सामने घोर युद्ध छेड़ा। क्रोध वगैरह कषायों की कितनी विचित्रता है ? इस महाभयंकर युद्ध में पूर्णघन राजा मारा गया । तब उसका पुत्र घनवाहन, अजितनाथ भगवान के शरण जाकर निर्भय बन गया। गर्व का त्याग कर सहस्रनयन भी वहाँ आया। दोनों ने भगवान की देशना में अपने पूर्व भव सुने । घनवाहन ने भगवान की स्तुति की। Jan Education International For Person a le Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ चंद्रगति, भामंडल आदि के पूर्वभव. - पिंगल देव ने विदेहापुत्र भामंडल का अपहरण क्यों किया ? चंद्रगति राजा के साथ भामंडल का पूर्व भव में क्या संबंध था ? I भरत के क्षेत्रपुर में सागरदत्त की पत्नी रत्नप्रभा की कुक्षि से गुणधर और गुणवती का जन्म हुआ। परिशिष्ट ८ के अनुसार शादी किए बिना ही गुणवती मरकर हरिणी व गुणधर हरिण बना अनेक भवों के बाद हरिणी सरसा बनी। भरत क्षेत्र के दारुगांव में वसुभूति नामक ब्राह्मण की पत्नी अनुकोशा से हरिण का जीव अतिभूति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी शादी सरसा नाम की कुमारी के साथ हुई। कयान नामक ब्राह्मण ने सरसा प्रति आसक्ति उत्पन्न होने से छल-कपट कर उसका अपहरण किया। काम वासना के अधीन मनुष्य ने अपने ब्राह्मण कुल की मर्यादा को छोड़कर निर्लज्ज बन ऐसा अपकृत्य कर दिया। उसकी शोध खोज के लिये पति अतिभूति जंगल में भटकता रहा व सास ससुर भी जंगल में खोज करने लगे। वहाँ वसुभूति और अनुकोशा को मुनि के दर्शन हुए। उनके पास धर्म सुनकर दोनों ने दीक्षा ग्रहण की। अनुकोशा, साध्वीजी कमलश्री की शिष्या बनी । दोनों मृत्यु पाकर लोकान्तिक देव मतान्तर से पहले देवलोक के देव व अनेक भव करके वसुभूति का जीव चंद्रगति नाम का राजा व अनुकोशा का जीव उनकी पत्नी पुष्पवती बनी। पुत्रवधू सरसा ने भी किसी साध्वीजी के पास धर्म को जान कर दीक्षा ली। स्वर्गवासी बनकर वह दूसरे देवलोक में देवी बनी। परंतु पति अतिभूति भयंकर आर्तध्यान में मरकर हंस बना। एक बार बाज पक्षी से घायल बना हुआ वह हंस, वृक्ष पर से किसी मुनि के पास गिर पड़ा। मुनि ने उसे नमस्कार महामंत्र सुनाया। उसके प्रभाव से वह १० हजार वर्ष आयुष्यवाला व्यंतर देव बना । वह मरकर विदग्धनगर में प्रकाशसिंह राजा की पत्नी प्रवरावती से कुण्डल मंडित नाम का पुत्र हुआ। चक्रपुर में चक्रध्वज राजा का धूमकेश नामक पुरोहित था । परस्त्री लंपट कयान अनेक भव भ्रमण करने के बाद उसकी पत्नी स्वाहा को पिंगल नामक पुत्र हुआ। राजा चक्रध्वज की पुत्री अतिसुन्दरी के साथ पिंगल एक गुरु के पास पढता था। पूर्व भव में सरसा के प्रति water intamational पिंगल देव कयान अनेक भव राग उत्पन्न हुआ था। कयान का शरीर बदल गया, मगर राग भाव के संस्कार आत्मा के साथ होने से वह अपनी सहाध्यायी राजपुत्री अतिसुंदरी का अपहरण करके विदग्ध नगर में चला गया। फर्क इतना ही था कि पूर्वभव में वह सरसा थी और इस भव में अतिसुंदरी। व्यक्ति बदल गया मगर राग-भाव के संस्कार न बदले। वह जंगल में घास, लकडी बेचकर अतिसुन्दरी के साथ जीवन निर्वाह करने लगा। एक दिन वहाँ पर कुंडल मंडित ने अतिसुंदरी को देखा। परस्पर स्नेह उत्पन्न होने से उसने पूर्वभव में अपनी पत्नी सरसा का अपहरणकर्ता कयान व वर्तमान में पिंगल के सान्निध्य में रही अतिसुन्दरी का अपहरण किया। पूर्व भव के पैर का अनुबन्ध इस प्रकार चला। पिता के डर से कुंडल मंडित, दुर्ग देश में झोंपडी बनाकर वहीं रहने लगा। पिंगल, पागल की तरह पृथ्वी पर घूमने लगा। एक दिन उसने आचार्य देवश्री गुप्तसूरीश्वरजी के पास में धर्म सुनकर दीक्षा ली व पिंगल ऋषि बने । कुंडलमंडित, दशरथ राजा की राज्य सीमाओं पर लुट मचाकर जंगल में घूमता था। एक बार राजा बालचंद्र ने उसे बांधकर दशरथ राजा के समक्ष लाया । धीरे धीरे क्रोध शान्त होने पर उसने उसे छोड दिया। जंगल में भटकते उसे मुनिचन्द्र मुनि मिले। उनसे धर्म श्रवण कर वह श्रावक बना। मृत्यु पश्चात वह मिथिला नगरी में रही जनक राजा की पत्नी विदेहा की कुक्षि में गर्भ के रूप उत्पन्न हुआ। दूसरी ओर सरसा, भव भ्रमण करती हुई श्रीभूति पुरोहित की पुत्री वेगवती बनी। सुदर्शन मुनि के ऊपर आरोप लगाने के बाद, वैराग्य भाव में दीक्षा लेकर वह विदेहा की कुक्षि में उत्पन्न हुई। जैसे ही विदेहा ने युगल को जन्म दिया, उसी समय पिंगल देव अविधिज्ञान से उसमें पूर्व भव के वैरी कुंडल मंडित के जीव को देखकर क्रोध से तमतमा उठा और उसका अपहरण कर दिया। यहाँ पर हमें यह भी कर्म की विचित्रता देखने मिलती है कि एक भव में अतिभूति पति व सरसा उसकी पत्नी थी वही अतिभूति का जीव भामंडल और सरसा का जीव उसकी बहिन सीता बनी। भामंडल गुणधर हरिण अतिभूति अनेक भव हंस व्यंतरदेव पिंगल ऋषि कुण्डल मण्डित पिंगल देव भामंडल तालिका सीता गुणवती हरिणी सरसा १२ रा देवलोक For Personal & Private Use Only वेगवती ५ वां देवलोक सीता चंद्रगति वसुभूति लोकान्तिक देव पहला देवलोक व अनेक भव चंद्रगति पुष्पवती अनुकोशा लोकान्तिक देव पहला देवलोक व अनेक भव पुष्पवती 113 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 परिशिष्ट १ दशरथ, सत्यभूति मुनि व जनकराजा के पूर्वभव - पूर्वभव सुनकर दशरथ को वैराग्य क्यों हुआ ? एवं पूर्वभव में जनकराजा व सत्यभूति मुनि के साथ उनका क्या सम्बंध था ? सेनापुर नगर में भावन नाम के वणिक की पत्नी दीपिका से उपास्ति नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। वह साधुओं की निन्दा करती थी। इस प्रकार अनेक भयंकर पाप कर जानवर आदि भवों में परिभ्रमण करके वह चन्द्रपुर नगर में धन की पत्नी सुंदरी की कुक्षि से वरुण नामक पुत्र हुई। वरुण ने उदारवृत्ति अपनाकर भक्ति से साधुओं को दान दिया। एक दिन साधु के प्रति द्वेषी वह जीव आज साधु का भक्त बन गया । दान देने वाला जीव मनुष्य बनता है। इसलिये वरुण मरकर घातकी खंड के उत्तर कुरु में युगलिक मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुआ। अल्प कषायवाला युगलिक होने से वरुण का जीव मरकर देव बना । वहाँ से मृत्यु पाकर पुष्कलावती विजय के पुष्पकला नगरी में नंदिघोष राजा की पत्नी पृथ्वी देवी की कुक्षि से वह नंदिवर्धन नामक पुत्र हुआ। नन्दिवर्धन को राज्य सोंप कर नंदिघोष ने यशोधर मुनि के पास दीक्षा ली। वह मरकर ग्रैवेयक देवलोक में गया। नंदिवर्धन, श्रावक धर्म का पालन कर पाँचवें देवलोक का देव बना आयुष्य पूर्ण होने पर पश्चिम महाविदेह के वैताढ्यपर्वत की उत्तरश्रेणी के शशिपुर नगर में वह विद्याधर राजा रत्नमाली की पत्नी विद्युल्लता की कुक्षि से सूर्यंजय नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। एक बार अहंकारी सिंहपुर के राजा को जीतने के लिये रत्नमाली ने सिंहपुर की ओर प्रयाण किया । रत्नमाली ने सिंहपुर को दशरथ उपास्ति तिर्यचादि भव भ्रमण वरुण युगलिक देव नंदिवर्धन पांचवां देवलोक सूर्यजय ७ वां देवलोक दशरथ सत्यभूति नंदिघोष ग्रैवेयक आग्नेय विद्या से जलाने का प्रारंभ किया। इतने में तो आठवें देवलोक का देव जो पूर्वभव में उपमन्यु नाम का पुरोहित था, उसने कहा, "हे राजन् ! ऐसा अनर्थ मत करो। आप पूर्व भव में भूरिनंदन नाम के राजा थे मैं आपका पुरोहित उपमन्यु था। एक बार आपने मांसत्याग का नियम लिया था। मगर मैंने गुमराह कर उस नियम को तुडवा दिया। वह पापी पुरोहित मैं स्कन्द नाम के पुरुष से मारा गया। मरकर हाथी बना। एक बार युद्ध में हाथी मारा गया। उसके बाद में, हाथी का जीव भूरिनंदन राजा ऐसे आप की पत्नी गंधारी की कुक्षि से अरिसूदन नामक पुत्र हुआ। जातिस्मरण होने पर मैंने दीक्षा ली व मरकर आठवें देवलोक में देव बना । भूरिनंदन नाम के राजा, आप मरकर जंगल में अजगर बने। वहाँ से मरकर दूसरी नरक में उत्पन्न हुए। मैं सहस्रार देव पूर्वभव के स्नेह से आपको प्रतिबुद्ध करने आया था। वहाँ से मरकर आप रत्नमाली राजा बने। मांस त्याग का नियम भंग कर आप भयंकर वेदनाओं के शिकार बने हैं। अब नगर जलाकर नया पाप कर्म न बांधे" देव के मुख से पूर्वभव सुनकर रत्नमाली व उनके पुत्र सूर्यजय वैरागी बनें। अतः सूर्यंजय के पुत्र कुलनंदन को राजगद्दी पर बिठाकर रत्नमाली ने अपने पुत्र सूर्यजय के साथ आचार्य देव श्री तिलकसुन्दरसुरीश्वरजी महाराज के पास दीक्षा ली। वहाँ से दोनों सातवें देवलोक में देव बने देवलोक से च्युत होकर सूर्यजय आप दशरथ बने, रत्नमाली जनक राजा बनें, आठवें देवलोक से च्युत होकर उपमन्यु देव, जनकराजा का छोटा भाई कनकराजा बने। नंदिवर्धन के पिता मुनि नंदिघोष ग्रैवेयक से च्युत होकर सत्यभूति मुनि बने। दशरथ को अपने पूर्वभव सुनकर वैराग्य उत्पन्न हुआ। संसार में कर्म की कितनी विचित्रता है, एक दिन रत्नमाली पिता व सूर्यंजय पुत्र थे व इस भव में समधि (वेवाई) बने। एक भव में गुरु की निंदा करने वाली उपास्ति नाम की कन्या, दशरथ बनी। कर्म की विचित्रता जानकर अधर्म को छोड़कर धर्म में पुरुषार्थ करना चाहिये । 1 सत्यभूति तालिका जनक राजा भूरिनंदन अजगर २ री नरक रत्नमाली ७ वां देवलोक जनकराजा For Personal & Private Use Only कनक राजा उपमन्यु हाथी अरिसूदन देव कनकराजा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- ४ जटायु का पूर्वजन्म इस भरत क्षेत्र के कुंभकारकट नामक नगर में दंडक राजा राज्य करता था। उसकी शादी श्रावस्ती नगरी के राजा जितशत्रु की पुत्री पुरंदरयशा के साथ हुई। उसके भाई का नाम स्कंदकुमार था। एक बार दंडक राजा का मंत्री पालक श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा के राजदरबार में आया। उस वक्त तात्विक चर्चा चल रही थी। उसमें स्कंदकुमार ने पालक को पराजित कर दिया। उसे शरमिंदा होना पड़ा। अतः उसने अपने दिल में बदला लेने की एक गांठ बांध ली। उसके बाद वैराग्यभाव जागृत होने पर स्कंद राजकुमार ने मुनिसुव्रत भगवान के पास ५०० राजपुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। विशिष्ट अध्ययन करने के बाद उन्हें आचार्यपदवी से विभूषित किया गया। एक बार मुनिसुव्रत स्वामी को पूछकर प. पू. आ. खंधकसूरीश्वरजी म. सा. ने अपनी सांसारिक बहिन पुरन्दरयशा को प्रतिबोध देने के लिए कुम्भकारकट नगर की ओर ५०० शिष्यों के साथ विहार किया। कई वर्षों से मन में रही वैरानुबंध की गांठ की स्मृति होने से पालक ने साधुओं के आवास योग्य उद्यान की जमीन में गुप्तरीति से शस्त्र गढ़वा दिए। क्रमशः विहार करते प. पू. आचार्य श्री कुंभकारकट नगर के बाहर उद्यान में पधारे। वहाँ दंडकराजा ( सांसारिक बहनोई) • आदि व प्रजाजन धर्मदेशना सुनने के लिए आए। सभी अत्यन्त प्रभावि व हर्षविभोर बने । दंडक राजा महल में आया, तब राजा को अकान्त में पालक मंत्री ने कहा "मुख में राम बगल में छूरी। यह सब बाहर का दीखावा है। वास्तव में ये आचार्य संयम की कठोर साधना से उद्विग्न बन गए है। इसलिए वे आपका राज्य हड़पने आए हैं। इनके साथ ५०० मुनि नहीं, परन्तु एक एक सहस्र योद्धा के बराबर है। उन्होंने उद्यानभूमि में शस्त्र गाढे हैं।" उसके बाद दंडक राजा ने जमीन खुदवाई। खोदने पर शस्त्र निकले। उन्हें देखकर राजा क्रोध से तमतमा उठा। उसने मंत्री से कहा- “हे मंत्री ! आप अतिशय बुद्धिशाली है... इसलिए आपने पहले ही सारा षड्यंत्र जान लिया। अब इनको जो सज़ा करनी हो, वह आप कर सकते हैं। मुझे इसके लिए पूछने की कोई ज़रुरत नहीं है।" यह सुनकर द्वेषी पालक हर्ष विभोर बना। उसने मानव पीलन नामक विशाल यंत्र बनवाया और आचार्यश्री के समक्ष ही एक एक शिष्य को यंत्र में डालने लगा। आचार्यश्री एक एक साधु को निर्यमणा (अंतिम आराधना) करवाते रहें, समाधि रखने के लिए हरेक को समझाते कि पालक अपना दुश्मन नहीं है। यह तो भाई से भी ज्यादा उपकारी है, क्योंकि यह कर्मक्षय करने के लिए निमित्त बना है। इस प्रकार गुरुदेवश्री की वाणी का स्वीकार करते हुए ४९९ आत्माएँ पीला पीलाते केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में पहुंची। 115 उसके बाद जब वह एक बालमुनि को यंत्र के पास ले गया, तब आचार्यदेवश्री ने करुणा से उसको कहा “मैं इस बालमुनि को पीलते हुए नहीं देख सकता, इसलिए पहले मुझे पील, बाद में जो उचित लगे, वह करना।” पालक ने कहा “तुम्हारे दिल में ज्यादा दुःख व दर्द हो, इसलिये तुम्हारे सामने ही पीलूंगा।" ऐसा कहकर उसने बालमुनि को यंत्र में डाल दिया। वे भी केवलज्ञान पाकर मोक्ष में गए। किन्तु आचार्य श्री खंधकसूरीश्वरजी म. सा. ने निदान किया कि मेरे तप का फल हो, तो मैं दंडक, पालक तथा उनके कूल और राष्ट्र का नाश करने वाला बनूं। पालक ने उनका पीलन किया। वे मरकर वह्निकुमार देव बने । उनका रजोहरण खून से लथपथ बन गया था। चील पक्षी उसे मांस-पिंड समझकर अपनी पक्कड़ में लेकर उड़ गया । परंतु उडते उडते पक्कड शिथिल होने पर वह पुरंदरयशा के आंगन में गिर गया। उसने जैसे ही उठाकर देखा, तो उसे ज्ञान हुआ कि यह तो मेरे द्वारा दिया गया मेरे भाई का रजोहरण (ओघा) है उसे महान ऋषि की हत्या का भयंकर दुःख हुआ। शासन देवी ने उसको उठाकर मुनिसुव्रत भगवान के पास रख दी। भाई के मृत्यु द्वारा वैराग्य से भावित बन कर उसने दीक्षा ली। 1 वह्निकुमार खंधक देव ने अवधिज्ञान से निर्दोष ५०० मुनियों की हत्या जानकर दंडक, पालक व सारे नगर को जला दिया। किसी को बचने नहीं दिया। उस दिन से वह क्षेत्र दंडक राजा के नाम से दंडकारण्य कहलाया गया। पालक सातवीं नरक में गया। दंडक राजा पाप कर्म के कारण अनेक दुःखदर्दभरी योनिया में भटक कर अपने पाप कर्म के उदय से गंध नामक महारोगी गिद्ध पक्षी हुआ। सुगुप्त मुनि के दर्शन से उसे जातिस्मरण हुआ। मुनि स्पर्शलब्धिवाले थे। इसलिए उनके स्पर्श से गिद्ध पक्षी नीरोगी बन गया उसके पंख सुवर्णमय बन गए, चांच विद्रुमरत्न-सी व पद्मरागरत्न- से पैर, नाना रत्न जैसा शरीर और सिर पर रत्नांकुर जैसी जटा हो गई इसलिये यह जटायु कहलाया । For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 परिशिष्ट - ९ बाग़रवंश की स्थापना वाली, सुग्रीव वगैरह वानर कहलाते थे। वे काले मुँह व लम्बी पूंछ वाले बन्दर नहीं थे, किन्तु विद्याधर मनुष्य थे, फिर भी वानर वंश के होने से वानर कहलाये । वानर वंश की स्थापना इस प्रकार हुई...... I इस भरत क्षेत्र में जब श्रेयांसनाथ भगवान का शासन चल रहा था, तब राक्षसद्वीप में कीर्तिधवल राजा राज्य करता था । उस समय वैताढ्य पर्वत के दक्षिण भाग में मेघपुर नामक नगर में अतीन्द्र राजा था। उसकी पत्नी श्रीमती ने एक पुत्र व पुत्री को जन्म दिया। पुत्र का नाम श्रीकण्ठ व पुत्री का नाम देवी रखा। देवी, वास्तव में स्वर्ग की देवी के समान अत्यन्त रूपवती थी। यौवन अवस्था प्राप्त होने पर रत्नपुर नगर के राजा पुष्पोत्तर ने अपने पुत्र राजकुमार पद्मोत्तर के लिए राजकुमारी देवी की मंगनी की पुष्पोत्तर राजा को पद्मा नामक एक पुत्री थी । अतीन्द्र राजा ने पुष्पोत्तर की माँग ठुकरा दी और भाग्य योग्य से देवी की शादी राक्षस वंश के राजा कीर्तिधवल के साथ कर दी। इससे अतीन्द्र राजा व उनके पुत्र राजकुमार श्रीकण्ठ और पुष्पोत्तर के बीच में वैरभाव शुरू हुआ। दुनिया के अन्दर यह चलता ही रहता है कि जब कोई व्यक्ति किसी की बात नहीं मानता, तो विवेकहीन भौतिक वस्तु का प्रेमी उसे अपना शत्रु मान बैठता है। जबकि विवेकी मनुष्य यह सोचता है कि मेरी दृष्टि से मुझे कुछ योग्य लगा था, उसको अपनी दृष्टि से दूसरा योग्य लगा। अतः उसने वह किया होगा। उस पर अपनी दृष्टि थोपने का मेरा कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार विवेक द्वारा मन का समाधान न करने से मेघपुर व रत्नपुर के राजाओं के बीच में वैर के अंकुर का प्रादुर्भाव हो गया। एक बार श्रीकंठ राजकुमार यात्रा के लिये गया हुआ था। वहाँ से लौटते उसने रत्नपुर में पद्मा नाम की राजकुमारी को देखा। देखते ही उसके प्रति प्रेम उभर आया। पद्मा की भी दृष्टि राजकुमार श्रीकण्ठ के ऊपर गिरी। आँखों से आँखें मिल गई। हृदय से हृदय मिल गया। प्रेम से प्रेम जुड़ गया। पद्मा सोचने लगी कि यह राजकुमार यहाँ से • अपहरण करके मुझे लेकर चला जाए, तो कितना अच्छा हो ? विचक्षण राजकुमार श्रीकण्ठ, पद्मा के मन की परिस्थिति को तुरन्त भांप गया और साहस करके पद्मा को अपने विमान में बैठाकर आकाश मार्ग से चल पड़ा। पद्मा की दासियों ने हाहाकार मचाया। वे जोर से चिल्लाने लगी। अपहरण. पद्मा का अपहरण.... । यह हृदयद्रावक समाचार सुनते ही पुष्पोत्तर राजा क्रोध से तमतमाने लगा । अपना ही शत्रु अपनी पुत्री का अपहरण करके भाग गया, यह जानकर उसकी क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी, मानो जलती हुई आहूति में घी डाल दिया हो । उसने सेना सज्ज बनाई और सेना सहित श्रीकण्ठ का पीछा करने आकाश मार्ग से विमान द्वारा प्रयाण किया । भागता हुआ श्रीकण्ठ राजकुमार लंका नगरी में पहुँच कर अपने बहनोई राक्षस वंश के राजा कीर्तिधवल की शरण में गया और उसे राजकुमारी पद्मा की प्रेम कहानी सुनाई। इतने में पुष्पोत्तर राजा आ पहुंचा। उसने लंका नगरी को घेर ली। कीर्तिधवल राजा ने पुष्पोत्तर राजा के पास संदेशवाहक दूत भेजा। दूत ने पुष्पोत्तर राजा के पास आकर कहा “आपका प्रयास निष्फल है क्योंकि आपकी कन्या दूसरे को ब्याहनी ही थी और उसने अपने आप अपना जीवन साथी ढूँढ लिया है, तो इसमें श्रीकण्ठ को दोषी क्यों माना जाए ? • आपको व हमें युद्ध भी क्यों करना चाहिये। युद्ध से तो आपकी पुत्री के दिल में भी दर्द होगा। अब अवसर तो यह है कि आप इन दोनों वर-वधु का विवाह कृत्य सानंद कर लें व युगल को अपने शुभ आशीर्वाद प्रदान करें मेरी दृष्टि से यही समयोचित है।" 1 इतने में राजकुमारी पद्मा की एक दासी ने पुष्पोत्तर राजा के पास आकर कहा "राजकुमारी पद्मा ने कहलाया है कि वास्तव में राजकुमार श्रीकण्ठ ने मेरा अपहरण नहीं किया है किन्तु मैंने ही उसको अपने जीवन साथी के रूप में पसन्द किया है।" यह सुनकर पुष्पोत्तर राजा का क्रोध शान्त हो गया। विचारशील पुरुषों का क्रोध अतितीव्र न होकर योग्य समाधान होने पर शीघ्र शान्त हो जाता है। पुष्पोत्तर राजा ने श्रीकण्ठ व पद्मा का विवाह धूमधाम महोत्सव पूर्वक किया और रत्नपुर नगर की ओर प्रयाण किया । कीर्तिधवल राजा ने श्रीकंठ से कहा "आप वैताढ्य पर्वत पर मत जाइये, क्योंकि वहाँ पर आपके बहुत से शत्रु हैं, मैं यह नहीं कहना चाहता कि आप डरपोक हो, मगर जीवन, युद्ध के भयंकर विचार में ही समाप्त करना उचित नहीं हैं। वास्तव में तो आपके हृदयस्नेह के तार से हमारे स्नेह के तार जुड़े हैं। अब उनके टूटने से भविष्य में होने वाले वियोग को मैं सहन नहीं कर सकूंगा। राक्षस द्वीप के पास में ही वानर, सिंहल, बर्बरकुल वगैरह अनेक द्वीप मेरे अधीन है उनमें से किसी एक द्वीप में आप अपनी राजधानी बनाकर निश्चिंत राज्य कीजिए।" यह सुनकर श्रीकण्ठ ने वानर द्वीप के किष्किन्ध नगर में राज्य करना प्रारम्भ किया। श्रीकण्ठ राजा वहाँ पर मनुष्यों के अलावा वानरों (बन्दरों पर For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी स्नेह रखता था। अतः उन छोटे बड़े बन्दरों की कोई भी हिंसा न करें, ऐसा उसने ढिंढोरा पिटवा दिया। राजा के आदेश से राज्य की ओर से वानरों को भोजन वगैरह भी दिया जाने लगा। “यथा राजा तथा प्रजा" इस कथन के अनुसार प्रजा भी बन्दरों को भोजन देती व उन पर प्रेम रखती। ध्वज, छत्र वगैरह पर बन्दरों के चिन्ह बनाये जाने लगे। इस प्रकार वानर द्वीप में रहने से व ध्वज वगैरह पर वानरों के चिन्ह होने से विद्याधर मनुष्य भी वानर कहलाए। उनका वंश वानर वंश कहलाया। इस प्रकार वानर वंश की स्थापना हुई। इस वानर वंश का प्रारम्भ श्रीकण्ठ राजा से हुआ। श्रीकण्ठ का महापराक्रमी पुत्र वज्रकंठ था। राज्यदरबार भी किस काम का? इस प्रकार निर्वेद पाकर उसने सोचा "अब मैं तप की साधना कर लूं। परन्तु शुद्ध तप वही हैं, जहाँ कषायों का शमन हो, भगवान का भजन हो, ब्रह्मचर्य का पालन हो, भगवान की आज्ञा का पालन हो। यह दीक्षा लेने के सिवाय संभव नहीं है। कषायों के शमन के लिये क्षमा, भगवान के भजन के लिये अवकाश, ब्रह्मचर्य के पालन के लिये नव गुप्तियों का पालन, पाप आने के कारणभूत आश्रवों को रोकना व भगवान की आज्ञा का पालन, दीक्षा के बिना संपूर्णतः सम्भव नहीं है।" इसलिये अपने पुत्र वज्रकण्ठ को राज्य सौंप कर श्रीकण्ठ ने चारित्र लिया व कठोर तप करके सभी कर्मों का नाश कर मोक्ष में गए। इसके बाद वानर वंश में घनोदधिरथ, किष्किन्ध, आदित्यरज व वाली वगैरह राजा हुए। एक बार इन्द्र, देवों के साथ नन्दीश्वर द्वीप तीर्थ की यात्रा के लिये जा रहे थे। उनको देखते ही श्रीकण्ठ राजा को भी यात्रा का मनोरथ हुआ और वह भी विमान में बैठकर इन्द्र के विमान को अनुसरने लगा। प्रयत्न करने पर भी विमान आगे न बढ़ने से श्रीकण्ठ को बहुत दुःख हुआ। अररर ! यात्रा करने का भी मनोरथ सफल नहीं हुआ। उसने चिन्तन-सागर में मन्थन करते हुए सोचा - 'मैंने पूर्व भव में तप की साधना नहीं की, इसलिये यात्रा का मनोरथ सफल न हो सका। यदि मेरा यह मनोरथ सफल नहीं होता, तो राज्य भी किस काम का? पुत्र आदि परिवार भी क्या काम का ? पत्नी भी किस काम की? यद्यपि वाली, सुग्रीव वगैरह वानर वंश के थे। किन्तु पवनंजय, हनुमानजी वगैरह वानर वंश के नहीं थे। वे विद्याधर वंश के थे। फिर भी उत्तरपुराण आदि रामायण के ग्रंथों के अनुसार वाली व सुग्रीव ने अपनी पुत्री पद्मरागा की शादी हनुमानजी के साथ की थी। इसलिये उनका ससुराल पक्ष वानरवंश का होने से वे वानरवंश के कहलाये, ऐसा रामायण ग्रंथों के चिन्तन से लगता है। वाल्मिकी आदि रामायण के ग्रंथों के अनुसार हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे, उन्होंने शादी नहीं की। तत्व केवलज्ञानी जाने। परिशिष्ट - ६ इंद्रजित, मेघवाहन, मंदोदरी के पूर्वभव कौशाम्बी नगरी में प्रथम व पश्चिम नाम के दो गरीब भाई थे। से अपने भूतपूर्व भाई को राजपुत्र जानकर वह देव, मुनि के रूप में उसे एक बार भवदत्त मुनि से धर्म सुनकर दोनों ने दीक्षा ली। प्रतिबोध करने आया। भाई के स्नेह से उसने पूर्व भव का सारा वृत्तान्त विहार करते दोनों मुनि कौशाम्बी पहुँचे। वहाँ पर वसंत ऋतु के बताया। उसे जानकर जातिस्मरण हो जाने से रतिवर्धन ने निदान का उत्सव में खुशी का प्रसंग पाकर नंदिघोष राजा अपनी रानी के साथ पश्चाताप कर दीक्षा ली। मृत्यु पाकर रतिवर्धन मुनि पाँचवें देवलोक में क्रीडा कर रहे थे। उसे देखकर पश्चिम मुनि ने निदान किया - "मेरे तप देव बने । यद्यपि निदान करने वाला जीव पापानुबंधि पुण्य से वस्तु के प्रभाव से भविष्य में मैं इन दोनों का पुत्र बनूं।" यद्यपि दूसरे साधुओं मिलने पर नरकादि दुर्गति में जाता है। परंतु वह, पश्चाताप से पाप का के द्वारा समझाने पर वे निदान से निवृत्त नहीं बने । मृत्यु के पश्चात् अनुबंध तोडकर पुण्यानुबंधि पुण्य से देव बना। उसके बाद महाविदेह के विबुद्धनगर में दोनों भाई राजा बने। दोनों दीक्षा लेकर १२वें देवलोक पश्चिम मुनि का जीव इन्दुमुखी रानी की कुक्षि से रतिवर्धन नामक पुत्र हुआ। क्रम से यौवनावस्था प्राप्त होने पर वह पिता की तरह पत्नियों में गए। वहाँ से च्यवन कर रावण के पुत्र इंद्रजित व मेघवाहन बने। रतिवर्धन की माता इंदुमुखी अनेक भवभ्रमण करके मन्दोदरी बनी। के साथ क्रीडा करने लगा। बडे भाई प्रथम मुनि, निदान रहित तप के फल स्वरूप पांचवें देव लोक में बहुत ऋद्धिवाले देव बने। अवधिज्ञान कुंभकरण इंद्रजित, मेघवाहन व मन्दोदरी ने दीक्षा ग्रहण की। तालिका इंद्रजित मेघवाहन मन्दोदरी प्रथम पश्चिम रतिवर्धन इन्दुमुखी ५ वां देवलोक ५वां देवलोक अनेक भव राजा राजा १२ वां देवलोक १२ वां देवलोक इंद्रजित मेघवाहन मन्दोदरी For Personal & Private Use Only wiw.jainelibrary.org Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 परिशिष्ट - ७ भरत व भुवनालंकार हाथी के पूर्वभव भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा ली, तब उनके साथ ४००० राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की थी। भगवान मौन और निराहार यानी उपवास करके विहार कर रहे थे। कच्छ महाकच्छ ने अग्रणी मुनिओं को आहार ग्रहण की विधि पुछी, परंतु उन्होंने कहा "हम नहीं जानते। दीक्षा के पहले भगवान को पुछा नहीं और अभी भगवान मौन है, अब क्या करें ? घर जाना भी उचित नहीं और आहार के बिना यहाँ पर भी रह नहीं सकते।" ऐसे विचारों से सभी तापस बन गए। उनमें से दो तापस प्रहलाद राजा के पुत्र चंद्रोदय और सुप्रभराजा के पुत्र सूरोदय थे। भवभ्रमण करते चंद्रोदय गजपुर नगर में हरिमति राजा की रानी चन्द्रलेखा की कुक्षि से कुलंकर नामक पुत्र हुआ और सुरोदय उसी नगर में विश्वभूति ब्राह्मण की अग्निकुंडा पत्नी से श्रुतिरति नामक पुत्र हुआ । अनुक्रम से कुलंकर राजा हुआ। एक दिन वह तापस के आश्रम में जा रहा था। बीच में अवधिज्ञानी मुनि मिले। उन्होंने इस प्रकार कहा “हे राजन् ! तू जिसके पास जा रहा है, वह तापस पंचाग्नि तप कर रहा है। वहाँ पर दहन के लिये लाए हुए लकडे में एक सर्प है। वह सर्प पूर्वभव में क्षेमंकर नामक आपके दादाजी का जीव है। अतः उस लकड़े को चीराकर उनकी रक्षा करो।" यह सुनकर वह आकुल व्याकुल बना। उसने लकडे को चीराया और उसमें से निकले हुए सर्प को देखकर आश्चर्यचकित बन गया। “अरे ! मेरे दादाजी की यह हालत हुई। अगर मैं सावधान नहीं बनूँगा तो मेरी भी हालत ऐसी ही होगी।" इत्यादि शुभविचार की श्रेणी में चढ़कर वह वैराग्यवासित बना और दीक्षा की भावना जगी । इतने में पुरोहित श्रुतिरति वहाँ पर आकर इस प्रकार कहने लगा "हे राजन् जैनधर्म आपके कुल परंपरा से आया हुआ धर्म नहीं है फिर भी आपको यदि दीक्षा लेने की इच्छा हो, तो अंतिम अवस्था में दीक्षा लीजिएगा। अभी राज्य व्यवस्था में क्यों उद्विग्न बने हो ?" पुरोहित की बातें सुनकर राजा को दीक्षा लेने का उत्साह टूट गया। अतः वह अब विचार करने लगा कि, 'मुझे क्या करना चाहिये।' उसे उदास देखकर उसकी पत्नी श्रीदामा, जो श्रुतिरति पुरोहित के साथ दुराचार करती थी, वह शंकित हुई - "आज जरूर राजा ने हमारा अनैतिक संबंध जाना है। अतः वह हमें मारे नहीं, इसके पहले मैं उन्हें मार डालूं ।” ऐसा विचार कर पुरोहित की संगति से श्रीदामा ने विष देकर अपने पति कुलंकर राजा को मार डाला कितनी विचित्रता है कर्म की ! चन्द्रोदय तापस के जीव कुलंकर को, सूरोदय तापस के जीव श्रुतिरति ने मारने की अनुमति दे दी। धिक्कार है कामवासना को ! कि जिससे एक आर्य नारी ने अपने पति की हत्या कर दी। उसके बाद अनेक भव भ्रमण करके दोनों राजगृही में कपिल ब्राहाण की पत्नी सावित्री की कुक्षि से विनोद और रमण नाम के युगल भाई के रूप में उत्पन्न हुए। रमण वेद पढने हेतु देशांतर गया। विनोद की शादी शाखा नामकी कन्या के साथ हुई। काल व्यतीत होने. पर रमण पढकर रात्री के समय राजगृही में आया। उसे बेवख्त में आया जानकर चौकिदार ने नगर प्रवेश करने नहीं दिया। वह गाँव के बाहर सर्वसाधारण यक्ष के मंदिर में सो गया। उस समय दत्त नाम के एक ब्राह्मण द्वारा संकेत की हुई विनोद की पत्नी शाखा, वहाँ पर आई। उसके पीछे विनोद भी वहाँ पर आया शाखा ने यह दत्त है, ऐसा जानकर रमण को उठाया और उसके साथ रतिक्रीडा की। यह देखकर विनोद ने रमण के ऊपर तलवार से आक्रमण किया। रमण ने भी छुरी से उसका सामना किया, इसमें रमण मारा गया। शाखा ने रमण की छुरी से विनोद को मार डाला कितना विचित्र संसार है कि व्यभिचारिणी शाखा ने अपने पति की हत्या कर दी। विनोद मरकर अनेक भव भटककर धन नामक एक श्रेष्ठी पुत्र हुआ। रमण अनेक भव में भ्रमण कर लक्ष्मी की कुक्षि से धन का, भूषण नामक पुत्र हुआ। पिता के कहने से भूषण ने बत्तीस कन्याओं के साथ शादी की। एक रात्रि में वह अपने घर की छत पर अपनी पत्नियों के साथ क्रीडा कर रहा था उस रात्रि के चौथे प्रहर में श्रीधर मुनि को केवलज्ञान होने से देवता द्वारा किया गया उत्सव उसने देखा। अच्छे भाव जागृत होने से वह छत पर से उतरकर उन्हें वंदन करने जा रहा था, तब रास्ते में ही एक सर्प ने उसे काट दिया। For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GD शुभ ध्यान में मरकर अनेक शुभगति में भ्रमण कर वह जंबुद्वीप के महाविदेह में अचल चक्रवर्ती की हरिणी नामकी पत्नी से प्रियदर्शन 'नामक पुत्र हुआ। वह बहुत ही धर्मात्मा था व बाल्यवय में ही दीक्षा ग्रहण करने का विचार कर रहा था । परन्तु यौवनावस्था प्राप्त होते ही पिता के आग्रह से तीन हजार कन्या के साथ उसकी शादी हो गई। प्रियदर्शन ने गृहस्थवास में भी चौसठ हजार वर्ष तक उत्कृष्ट तप किया। फिर मृत्यु पाकर वह ब्रह्मदेवलोक में देव बना। धनश्रेष्ठी भी संसार में परिभ्रमण करके पोतनपुर में अग्निमुख ब्राह्मण की पत्नी शकुना से मृदुमति नामक पुत्र हुआ । वि होने से पिता ने उसको घर से बाहर निकाल दिया। वह स्वच्छंदी बनकर भटकने लगा एवं जुआ आदि सभी कला में चतुर तथा ठग बन गया। जुआ खेलने में चतुर होने से वह किसी से भी पराजित नहीं होता। इससे वह बहुत ही धनवान बना । वसंत नाम की वेश्या के साथ कामवासना में धन खर्च करता वह जुआरी वेश्यागामी भी बन गया। जीवन की अंतिम अवस्था में खराब व्यसनों को छोड़कर उसने दीक्षा ली। मृत्यु पाकर वह ब्रह्म देवलोक में देव बना । वहाँ से च्यवन कर पूर्व भव के कपट से वह वैताढ्य गिरि पर भुवनालंकार नाम का हाथी बना। प्रियदर्शन का जीव ब्रह्म देवलोक से च्यवन कर भरत बना । भरत को देखकर हाथी को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। इससे विवेक प्राप्त होने से रौद्र ध्यान को छोड़कर वह मदरहित बना । तालिका भुवनालंकार हाथी चन्द्रोदय राजा कुलंकर अनेक भव विनोद अनेक भव श्रेष्ठी पुत्र भव भ्रमण मृदुमति ब्रह्म देवलोक भुवनालंकार हाथी For Personal & Private Use Only _ भरत सूरोदय राजा श्रुतिरति अनेक भव रमण अनेक भव भूषण उच्चगति भ्रमण प्रियदर्शन ब्रह्म देवलोक भरत 119 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 परिशिष्ट -८ राम-लक्ष्मण, विशल्या, बिभीषण, रावण, सुग्रीव व सीता के पूर्वभव दक्षिण भारत के क्षेमपुर नगर में नयदत्त नाम का एक वणिक् था। उसकी पत्नी सुनंदा की कुक्षि से धनदत्त और वसुदत्त का जन्म हुआ। उनका मित्र याज्ञवल्क्य था। उसी नगर में सागरदत्त की पत्नी रत्नप्रभा की कुक्षि से पुत्र गुणधर और पुत्री गुणवती का जन्म हुआ। युवावस्था प्राप्त होने से सागरदत्त ने अपनी पुत्री की सगाई धनदत्त के साथ की। परंतु माता रत्नप्रभा ने धन के लोभ में गुप्तरूप से धनपति श्रीकान्त के साथ उसकी सगाई कर दी। यह वृत्तान्त याज्ञवल्क्य ने अपने मित्र दोनों भाई को कहा। यह सुनकर छोटे भाई वसुदत्त ने रात्रि के समय श्रीकान्तशेठ के साथ लडाई की। एक दिन वह घूमता घूमता अपने पूर्वभव की नगरी में आया। पूर्वभव का जन्मस्थान देखकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। वहाँ पर राजपुत्र वृषभध्वज ने जिनमंदिर बनाया। मंदिर की दीवार पर मृत्यु की तैयारीवाले बैल को नमस्कार महामंत्र सुनाता हुआ पुरुष और उसके पास घोडे को चित्रित किया और जिनमंदिर की रक्षा करनेवाले चौकीदार को आदेश दिया कि यदि इस चित्र का परमार्थ कोई जान सके, तो उस व्यक्ति को मुझे बताना। इस प्रकार कहकर वृषभध्वज अपने घर चला गया। एक बार श्रेष्ठीपुत्र पद्मरुचि घूमते घूमते उस जिनमंदिर में आया। भगवान के दर्शन करके भित्ति-चित्र को देखकर आश्चर्य चकित होकर बोला कि, "यह सब मेरी ही घटना है।' चौकिदार ने वृषभध्वज को बुलाया। उसने आकर पुछा कि, “आपने चित्र का वृत्तान्त कैसे जाना?" तब पद्मरुचि ने कहा- "मृत्यु की, तैयारीवाले बैल को मैंने नमस्कार मंत्र सुनाया था। यह चित्र किसी जानकार व्यक्ति ने बनाया है।'' यह सुनकर वृषभध्वज बोला- "वह वृद्धबैल मैं ही था। नमस्कार महामंत्र सुनकर आज मैं राजपुत्र वृषभध्वज बना हूँ। यदि आप ने नमस्कार मंत्र सुनाया नहीं होता, तो मैं मरकर कोई जानवर के भव में उत्पन्न हो जाता। आप ही मेरे गुरु हो ! स्वामि हो ! देव हो ! मेरे अधिकार का राज्य आप ग्रहण कीजिये।" परस्पर दोनों लडते लडते मर गये। मरकर दोनों विंध्याचल पर्वत के जंगल में हरण बने और गुणवती शादी किए बिना ही मरकर हरणी बनी। वहाँ पर भी पूर्वभव का वैरानुबंध होने से उस हरणी की प्राप्ति के लिये मरकर परस्पर वैरभाव से दोनों ने अनेक भवों में भ्रमण किया। धनदत्त, छोटे भाई की हत्या से दुःखी बनकर धर्मरहित बने जंगल में भूखा, प्यासा भटकने लगा। एक रात्री उसने एक मुनिभगवंत को देखकर उनसे भोजन माँगा। तब मुनि ने कहा - "मुनि तो दिन को भी भोजन का संग्रह नहीं करते। अतः तुम्हें भी रात्रि को खाना, पीना उचित नहीं है। अंधकार के कारण उसमें उत्पन्न जीवोत्पत्ति को कौन पहचान सकता है। अतः रात्रि में भोजन का त्याग करना ही उचित है। रात्री-भोजन नरक का प्रथम द्वार है।" यह सुनकर वह श्रावक बना। वहाँ से मरकर पहले देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन कर महापुर नगर में धारिणी और मेरू का पुत्र पद्मरुचि, श्रेष्ठ श्रावक बना। एक बार वह घोडे पर सवार होकर गोकुल में जा रहा था। बीच में मृत्यु की तैयारीवाले वृद्धबैल को देखकर वह घोडे पर से नीचे उतरा और उसके कानों मे नमस्कारमंत्र सुनाया। मरकर वह नमस्कार मंत्र के प्रभाव से छत्रछाय राजा की पत्नी श्रीदत्ता की कुक्षि से वृषभध्वज नाम का पुत्र हुआ। उसके बाद पद्मरुचि के साथ वृषभध्वज श्रावक व्रत का पालन करने लगा। मरकर दोनों ईशान देवलोक में महान ऋद्धिवाले देव बने। वहाँ से च्यवन कर वैताढ्य पर्वत के नंदावर्त्त नगर में पद्मरुचि का जीव नंदीश्वर राजा की पत्नी कनकाभा की कुक्षि से नयनानंद नामक पुत्र हुआ। वह मरकर माहेन्द्र नाम के चौथे देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन कर पूर्व विदेह में क्षेमापुरी के राजा विपुलवाहन की पत्नी पद्मावती रानी का श्रीचन्द्र नामक कुमार हुआ। उसने समाधि मुनि के पास दीक्षा ली। वहाँ से कालधर्म पाकर ब्रह्मनाम के पाँचवें देवलोक में इन्द्र हुआ। वहाँ से च्यवन कर महाबलवान राजा हुआ। वृषभध्वज का जीव सुग्रीव हुआ। श्रीकान्त का जीव भवभ्रमण करके मृणालकंद नगर में शंभु राजा हुआ । वसुदत्त भी अनेक भवों में भ्रमणकर मृणालकंद नगर में शंभु राजा के पुरोहित विजय की पत्नी रत्नचूड़ा की कुक्षि से श्रीभूति नामक पुत्र हुआ। म गुणवती भी अनेक भवभ्रमण करके श्रीभूति की पुत्री वेगवती बनी। यही वेगवती यहाँ से तीसरे भव में सीता बनी। ॥ गुणवती के अन्य भव देखिए परिशिष्ट २ phata Jain Edapat For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता के ऊपर आरोप क्यों ? एक बार मृणालकंद नगर में सुदर्शन मुनि काउस्सम्म ध्यान में खडे थे । अनेक लोग उनको वंदन करने आए थे। यह सब देखकर सीता का जीव वेगवती ने मज़ाक में सभी को कहा- “हे लोगो ! पहले मैंने इस साधु को स्त्री के साथ क्रीडा करते हुए देखा था। उस स्त्री को इसने अभी दूसरी जगह पर भेज दीया है। आप लोग इसको वंदन क्यों करते हो ? यह तो सिर्फ वेशधारी साधु है।" यह सुनकर तुरंत ही सभी लोग कलंक की उद्घोषणा करते हुए मुनि की निंदा करने लगे। उस वक्त मुनि ने न वेगवती पर क्रोध किया, न लोगों पर । उन्होंने तो समताभाव में आकर अभिग्रह किया "जब तक मेरे ऊपर से कलंक दूर नहीं होगा, तब तक मैं काउस्सग्ग नहीं पाऊँगा । ' महान आराधक सुदर्शन मुनि के भक्त देव ने वेगवती का मुख श्याम बना दिया। तब उसके पिता श्रीभूति ने साधु के ऊपर दिए कलंक को जानकर वेगवती का बहुत ही तिरस्कार किया। पिताजी के रोष से भयभीत वेगवती ने सभी लोगों को एकत्रित करके कहा- “मुनिश्री तो बिल्कुल निर्दोष है। मैंने कुतुहल से उन पर झुठा आरोप लगाया है। हे मुनि ! मुझे क्षमा कीजिए, माफ कीजिए।" यह सब सुनकर सभी लोग फिर से उस मुनि को वंदन पूजन करने लगे। उसके बाद वह वेगवती परम श्राविका बनी। परंतु देवलोक में से च्यवन कर जब सीता बनी, तब प्रायश्चित्त न लेने से उसके ऊपर आरोप आया, क्योंकि उसने मुनि के ऊपर दुराचार का कलंक चढाया था। - सीता, रावण के मृत्यु में निमित्त क्यों बनी ? अत्यन्त रूपवती कन्या वेगवती को देखकर शंभूराजा ने श्रीभूति के पास उसकी याचना की। तब श्रीभूति ने कहा- "मैं अपनी कन्या किसी भी मिथ्यादृष्टि को नहीं दूँगा।" यह सुनकर शंभुराजा ने श्रीभूति को मारकर वेगवती के साथ बलात्कार किया। उस समय वेगवती ने शाप दिया "भविष्य में, मैं तेरे वध का कारण बनूंगी।" शंभुराजा रावण बना, तब वेगवती का जीव सीता के रूप से उत्पन्न हुआ । पूर्वभव में दिये हुए शाप के कारण सीता, रावण की मृत्यु में कारण बनी। वेगवती ने प्रायश्चित्त लेकर हरिकांता आर्या के पास दीक्षा ली। उत्तम कन्याएँ एक बार भी बलात्कार से भोग का शिकार बन जाए, तो दूसरे के साथ शादी नहीं करती, परंतु संयम का मार्ग स्वीकारती है। आयुष्य पूर्ण करके वह पाँचवें ब्रह्मदेवलोक में गई । शंभुराजा का जीव भवभ्रमण कर कुशध्वज नाम के ब्राह्मण की पत्नी सावित्री से प्रभास नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। उसने विजयसेन मुनि के पास दीक्षा ली और कठोर तप तपने लगा। calon isterations एक बार विद्याधर राजा कनकध्वज, इंद्र जैसी श्रेष्ठ ऋद्धि सहित सम्मेत शिखरजी तीर्थ की यात्रा करने जा रहा था। तपस्वी प्रभास मुनि ने उसको देखकर निदान किया “मेरे तप के प्रभाव से मैं इस विद्याधर राजा जैसा समृद्धिवाला बनूं।" वहाँ से मृत्यु पाकर वह तीसरे देवलोक में उत्पन्न हुआ वहाँ से च्यवन कर तीन खंड के राजा प्रतिवासुदेव रावण के रूप में हुआ। पापानुबंधि पुण्य से वह मरकर चौथी नरक में गया। धनदत्त और वसुदत्त का मित्र याज्ञवल्क्य जो ब्राह्मण था, वह कितने ही भव भटक कर बिभीषण बना । "श्रीभूति, लक्ष्मण कैसे बना" शंभुराजाद्वारा मारा गया श्रीभूति देवलोक में गया । वहाँ से मृत्यु पाकर वह सुप्रतिष्ठपुर में पुनर्वसु नामक विद्याधर हुआ। एक बार उसने कामातुर बन कर पुंडरीक विजय में से त्रिभुवनानंद नामके चक्रवर्ती की कन्या अनंगसुंदरी का अपहरण किया। चक्रवर्ती ने उसका पीछा करने के लिए विद्याधरों को भेजा। उनके साथ युद्ध करते पुनर्वसु आकुल व्याकुल बना । तब पुनर्वसु के विमान में से अनंगसुंदरी किसी एक लतागृह में गिर पडी। पुनर्वसु की इच्छा उस सुंदरी को प्राप्त करने की थी, परंतु वह निष्फल हुई। तब उसको प्राप्त करने हेतु निदान करके पुनर्वसु ने दीक्षा ग्रहण की व आयुष्य पूर्ण करके देवलोक में गया। वहाँ से च्यवन कर लक्ष्मण बने । वह अनंगसुंदरी वन में रहकर उग्र तप करने लगी। अंत में उसने अनशन किया। ऐसी स्थिति में अजगर ने उसको निगल ली। वह मरकर ईशान देवलोक में देवी बनी। वहाँ से च्यवन कर वह लक्ष्मण की पत्नी विशल्या हुई । पूर्वभव में तप किया था, अतः रावण द्वारा लक्ष्मण के ऊपर जिस अमोघ विद्या का प्रहार हुआ था, वह विशल्या के स्पर्श से नष्ट हो गई। 121 वसुदत्त का जीव श्रीभूति ब्राह्मण बना। गुणवती का जीव श्रीभूति की पुत्री वेगवती बना। शंभुराजा ने श्रीभूति को मारा। कर्म की कितनी विचित्रता है कि भविष्य में लक्ष्मण बनने वाले श्रीभूति और उनकी भाभी बननेवाली सीता, श्रीभूति की पुत्री बनी पिता-पुत्री के संबंधवाले भविष्य में देवर भोजाई बनें शंभुराजा ने श्रीभूति को मारा था. इस वैरानुबंध से भविष्य में श्रीभूति का जीव लक्ष्मण, रावण को मारने the Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 Jain वाला बना । पउमचरियं रामायण में लिखा है कि श्रीकान्त का जीव शंभुराजा बना था। पूर्वभव 筑 में वसुदत्त ने श्रीकान्त को मारा था। अतः शंभूराजा ने वसुदत्त के जीव श्रीभूति को मारा । जो गुणधर नामक गुणवती का भाई था। वह भव भ्रमण करके कुंडलमंडित नामक राजपुत्र बना। वह चिरकाल तक श्रावकपना पालकर मृत्यु पश्चात् सीता का सहोदर भामंडल बना । सुग्रीव बैल वृषभध्वज ईशान अनेक भव सुग्रीव राम धनदत्त १ ला देवलोक पद्मरुचि ईशान नयनानन्द ४ था देवलोक श्रीचन्द्र ५ वां देवलोक राम त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र के अनुसार श्रीकान्त का जीव • शंभु राजा का पुत्र वज्रकंठ बना था। तालिका लक्ष्मण वसुद हरिण अनेक भव श्रीभूति देवलोक पुनर्वसु देवलोक लक्ष्मण परिशिष्ट - ९ लव कुश के पूर्वभव काकंदी नगरी में वामदेव ब्राह्मण की श्यामला नामक पत्नी की कुक्षि से वसुनंद और सुनंद ये दो पुत्र हुए। एक बार दोनों ने मासक्षमण के तपस्वी मुनि को भक्तिभाव से सुपात्र दान दिया दानधर्म के प्रभाव से दोनों मरकर उत्तरकुरु में युगलिक के रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से मरकर सौधर्म नाम के पहले देवलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यवन कर वापिस काकंदीपुरी में ही रतिवर्धन राजा की रानी सुदर्शना की कुक्षि से प्रियंकर और शुभंकर नाम के दो पुत्र हुए। लंबे समय तक राज्य का पालन करके दोनों ने दीक्षा ली और कालधर्म पाकर ग्रैवेयक में देव बने। वहाँ से च्यवन कर सीता के पुत्र लव और कुश के रूप में विशेष घटना परिशिष्ट नं. २ में देखिए। उपसंहार धनदत्त का जीव पद्मरुचि, श्रीचन्द्र आदि भव करके राम बने। पद्मरुचि ने सुग्रीव के जीव वृद्धबैल को नमस्कार महामंत्र सुनाया था। अतः सुग्रीव राम के पक्ष में आया । धनदत्त के भव में याज्ञवल्क्य उसका मित्र था। इससे राम के भव में याज्ञवल्क्य का जीव बिभीषण मित्र बना । रावण श्रीकान्त हरिण अनेक भव शंभू प्रभास ३ रा देवलोक रावण लव वसुनंद युगलिक प्रथम देवलोक प्रियंकर ग्रैवेयक लव बिभीषण याज्ञवल्क्य Pur Pursunar & Threat dse only बिभीषण उत्पन्न हुए । उनके पूर्वभव की माता सुदर्शना चिरकाल तक भव भ्रमण कर लव कुश के अध्यापक सिद्धपुत्र बनी । तालिका विशल्या अनंगसुंदरी ईशान देवी विशल्या कुश सुनंद युगलिक प्रथम देवलोक शुभंकर ग्रैवेयक कुश सिद्धपुत्र सुदर्शना सिद्धपुत्र wwwww.jainellorary.org Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पावापुरी जैन तीर्थधाम कृष्णगंज- पावापुरी - सीरोही (राज.) श्री सरेमलजी प्रतापजी हरजीवाले, बेलगाम स्व. श्राद्धवर्य श्रेष्ठी श्री महेता दोलतराम वेणीचंद, सपुर (उ.गु.) श्रीमति धापूबाई रघुनाथमलजी, निंबज (राज.) (मोन्टेक्स, मुंबई) स्व. श्राद्धवर्य श्रेष्ठी श्री महेता भीखालाल वेणीचंद, (उ.सु.) मूख्य सौजन्य दाता श्रीमति कमलाबेन रमणभाई जैन, निंबज (राज.) (मोन्टेक्स ग्रुप, मुंबई) बाबुलालजी जोमाजी व उनकी धर्मपत्नी विमलाबेन पूरण, जि. जालोर के. पी. संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट, सुरत- मुंबई For Personal & Private Use Only श्रीमति पुष्पाबेन सरेमलजी, बेलगाम Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्यसौजन्य १) के.पी. संघवी चेरीटेबल ट्रस्ट मुंबई - पावापुरी - सुरत - मालगांव २) रमणभाई रघुनाथजी (निम्बजवाले) मोन्टेक्ष गुप दोलतराम वेणीचंद (सिद्धपूर) ४) सरेमलजी प्रतापजी (हरजीवाले) बेलगांव ५) बाबुलालजी जामाजी (पूरणवाले) ६) श्री सुरत २८ सामूहिक दीक्षा महोत्सव समिति ३) जैन रामायण के सहयोगीयों को धन्यवाद उपसौजन्य १) श्री सुरेन्द्रनगर-पालीताणा छ'रीपालक संघ के संघपति २) श्री गिरधरनगर-तारंगा छ'री पालक संघ के संघपति श्री भटार रोड - भरुच छ'रीपालक संघ के संघपति ४) सूरजमलजी जीवराजजी की सुपुत्री विक्की कुमारी (वर्तमान में विरांगरेखाश्रीजी) की दीक्षा निमित्ते ५) श्री गिरधरनगर जैन संघ संरक्षक १) शावसराजजी सांकलचंदजी शिवगंज - तखतगढ संघवाले २) श्रीनारलाई छ'रीपालक संघ के यात्रिक ३) शाजालमचंदजी सागरमलजी - नारलाई ४) शाताराचंदजी रतनचंदजी - नारलाई ५) शा उमेदमलजी रतनचंदजी- नारलाई ६) शामहीपालचंदजी गुलाबचंदजी - नारलाई ७) संघवी उत्तमचंदधरमचंदजी - सुरत ८) संघवी प्रवीणभाई कचराभाई - भावनगर ९) संघवी सांकलचंदजी दानाजी- तखतगढ १०) मिश्रीमलजी रुपाजी - मालवाडा ११) संघवी दिलीपभाई माणेकचंदजी - चामुंडेरी १२) एस. एम. ज्वेलर्स हस्ते:-प्रकाशभाई १३) ओरोगोल्ड ज्वेलर्स हस्ते:- अमृतभाई १४) देवीचंदजी सागरमलजी - शिवगंज १५) शा रतनचंदजी चिमनाजी - तखतगढ १६) संघवी भेरमलजी हकमाजी - मालगांव १७) सुंदरबेन भेरमलजी संघवी - मालगांव १८) मुनिनंदिरत्न विजयजी के सदुपदेश से विजयराजजी कुंदनमलजी - सायला १९) जयंतिलालजी हस्तीमलजी जवानमलजी - सायला २०) अंबिका इन्डस्ट्रीज़ तिलोकचंदजी साकरिया २१) मोहनलालजी सरदारमलजी - सेवाडी २२) शा गेनमलजी चिमनलालजी - साबरमती २३) शादानमलजी किसनाजी - साबरमती २४) शा धरमचंद कपूरचंदजी - बीजापूर २५) शा केवलचंदजी नरसाजी- सिरोडी २६) शाबाबूलालजी अमीचंदजी - नांदिया २७) शा सोमचंदजी धुडाजी - शिवगंज २८) शा भूरमलजी भीखमचंदजी - शिवगंज २९) शेठवीरचंदभाई भूधरभाई- वाव ३०) महेतानाथुबेन हरीलाल देवचंदजी झवेरी - भोरोल ३१) दोशी रिखबचंद त्रिभोवनदासजी - वाव ३२) शाह अमृतलाल नरपतलालजी - वाव ३३) वोरा धुडालाल खेमचंदजी - वाव ३४) कंचनलाल गभरूचंदजी - चाणस्मा ३५) ककलदास रिखबचंदजी परिख - वाव ३६) दोशी रसिकलाल लक्ष्मीचंद - पालनपुर ३७) श्री भीलडी जैन पैढी ३८) शा वेनमलजी छोगाजी - हरजी ३९) शाचुनीलालजी खुमाजी - तखतगढ़ ४०) शामगनलालजी कस्तुरजी - मालवाडा ४१) शा पुखराजजी हंजारीमलजी - पूरण ४२) शाचुनीलालजी हंजारीमलजी- पूरण ४३) शामूलचंदजी केसाजी - पूरण ४४) शा भभूतमलजी भाणाजी - पूरण ४५) शालहेरचंदजी भूराजी - पूरण ४६) शा वालचंदजी टोकराजी-पूरण ४७) शा राजमलजी पुनमाजी - पूरण ४८) शाआर. जे. माघाणी - पूरण ४९) शा वालचंदजी खेमाजी- पूरण ५०) शा नवीनचंदजी ताराजी - पूरण ५१) शालीलचंदजी हरनाथजी- पूरण ५२) शासोमचंदजी सोमाजी - पूरण ५३) शाचोथमलजी टोकराजी- पूरण ५४) शा कपूरचंदजी हनाजी - पूरण ५५) शा गोदमलजीवनाजी-पूरण ५६) शा चोथमलजी रुपाजी - मालवाडा ५७) शा जसवंतराज अमृतलालजी - भावनगर ५८) शाभूरमलजी हंजारीमलजी- पिंडवाडा ५९) शाकुंदनमलजी हंजारीमलजी- पिंडवाडा ६०) संघवी कांतिलालजी भीखमचंदजी खोडा (हाल. मुनि परमरत्न विजय) Jain Ede n international For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१) श्री रानीवाडा जैन संघ ६२) शाभलराजजी लवजी टीना कुमारी की दीक्षा निमित्ते ६३) शा. सोहनलालजी तलकाजी बोकडीया ६४) नवदीप कंस्ट्रक्शन ह. शांतिलालजी ६५) शा उकाजी डोमराजजी रानीवाडा ६६) शाभलराज केवलचंद - रानीवाडा ६७) दोशी रसिकलाल लक्ष्मीचंद पालनपुर ६८) शा रघुनाथमलजी समरथमलजी दोसी मंडार ६९) मातुश्री संशीबेन प्रतापचंदजी मकाजी मंडार (धुलीया) ७०) रजनीभाई - रांदेर रोड ७१) जीवराजजी नरसिंगजी तखतगढ ७२) चामुंडेरी राणकपुर छ' री पालक संघ ७३) शा बाबुलालजी किसनाजी, चाँदराई ७४) श्रीमति पंकुबाई मगनलालजी हंसाजी पिंडवाडा ७५) शा बाबुलाल रिखबचंदजी तखतगढ ७६) शा रतनचंदजी प्रतापजी तखतगढ ७७) एक सद्गृहस्थ पाली ७८) सा. महावीररेखाश्रीजी की प्रेरणा से हस्ते शा. मोहनलालजी सांकलचंदजी पादरली ७९) शा. मांगीलालजी ताराचंदजी बंबोली- सादडी ८०) शा. थानमलजी कस्तुरचंदजी मालवाडा उपसंरक्षक - - - १) २) ३) ४) ५) ६) श्री जैन युवक मंडल नारलाई शा माणेकचंदजी बेताला मद्रास शा गुलाबचंदजी छगनलाल कोठारी आहोरवाला शा जीवाजी धूपाजी पिंडवाडा शा रणजीतमलजी छोटालालजी पिंडवाडा Jam Education international शा शंकरलालजी जवेरचंदजी - कालंद्री ७) एक सद्गृहस्थ मुंबई ८) मुथा मेघराजजी सुगालचंदजी लुंकड - आहोर ९) शाह गिरीशभाई विनयचंद शाह भावनगर १०) शाह चुनीलालजी भलाजी - बीजापूर ११) शाह हितेन्द्रभाई ईश्वरलाल झवेरी सुरत १२) शाह चंपालालजी बाबुलालजी आमलारी १३) शाह चंपालालजी रायचंदजी अमदावाद १४) श्री भीलडीयाजी जैन तीर्थ पेढी १५) संघवी लीलचंदजी हकमाजी मांलगांव ह. प्रकाशभाई १६) दीपकभाई प्रवीणचंदभाई शाह सुरत (पाटण) १७) वीरवाडिया ईश्वरलाल भोगीलाल- वाव १८) शेठ ईश्वरलाल पोपटलाल बाव १९) शेठ वाघजीभाई भूधरभाई वाव २०) शेठ नेमजीभाई हकमचंद - वाव २१) शेठ वाडीलाल सरूपचंदभाई बाव २२) शा प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल - खिंवाडा २३) शा चंपालालजी प्रकाशजी रूपचंदजी - चेलावास २४) पोपटलालजी सरेमलजी २५) शा. भभूतमलजी अनाजी २६) शा. उकाजी गेमाजी बोकडीया २७) शा. समरथमल वगताजी २८) शा. छोगमलजी गेनाजी पोरवाल - वडगाम २९) शा. हंजारीमलजी अदाजी वडगाम ३०) शा. जयंतिलालजी हरखाजी रानीवाडा ३१) शा. सरेमलजी धरमाजी रानीवाडा ३२) शा. मंगलचंद खेताजी वडगाम ३३) शा. देवाजी टोकरजी पांचेरी ३४) शा. हिंमतमलजी केसाजी - रानीवाडा ३५) शा. मिश्रीमलजी छोगाजी रानीवाडा ३६) शा. जयंतिलाल बाबुलालजी - सीलासन ३७) शा. हंजारीमलजी चौपड़ा भीनमाल ३८) शा. हेमराजजी कपूरचंदजी बेंगलोर ३९) शा. हीराभाई मंगलचंदजी चौधरी मंडार ४०) शा. सागरमलजी वीरभाणजी एवं पुखराजजी कपुरचंदजी कारसीया - बेडा ४१) संघवी रुपाजी मोतीजी वेलांगरी ४२) भापोदवाले नव्वाणुं यात्रा के यात्रिकों की ओर से ४३) बापूनगर जैन संघ- अहमदाबाद ४४) शा रतनचंदजी प्रतापजी तखतगढ ४५) शा मेघराजजी मिश्रीमलजी मद्रास For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृ da zirenger स्ववग-सेटी (1945-ff:)) आचार्यदेव श्रीमद विजय प्रेमसूरीश्वरा -- free 'RESPE एक हती राजकुमारी (गुज., अंग्रेजी) = १००/ प्रासंगिक मल्टी कलर में फोटो युक्त, हनुमानजी की मातृश्री अंजनासुंदरी के चरित्र की करूण स्पर्शी कहानी है। चलो सिद्धगिरि चलें... Ian Education International | श्री विश्वनिविवान की सचित्र मानवात्रा .पू. देशा टेन्शन टु पीस (गुज., हिन्दी ) = १०/दुनिया भर के टेन्शन लेकर घुमते मानव के चित्त की शांति हेतु विविध प्रेक्टिकल प्रयोगों से भरपुर । खवगसेढी (प्राकृत, संस्कृत) ६ वर्ष के अल्प पर्याय में पूज्यश्री द्वारा लिखित २०,००० श्लोक प्रमाण, प्राकृत संस्कृत भाषा में क्षपकश्रेणि का विश्लेषण करता अलौकिक महाग्रंथ है। बर्लीन युनिवर्सिटी के प्रोफेसर क्लाऊझ ब्रून ने भी इसकी खुब प्रशंसा की है। રાજસુમથી टेन्शन सुपीक ध्यान से परमशांनी बंधनकरण (संस्कृत) = १००/ इस ग्रंथ पर पूज्यश्री ने १५००० श्लोक प्रमाण संस्कृत टीका लिखी है। इसमें सत्पदादि द्वार से आठ कर्मों के बन्ध की मार्मिक जानकारी है। આચાર્ય દેવો સૂકો છે જે सुनि प.पू.आ.श्री गुणरत्नसूरीजी म.सा. चलो सिद्धगिरि चले (हिन्दी, गुज., अंग्रेजी) = २००/ श्री शकुंजय महातीर्थ के सभी महत्वपूर्ण स्थानों के १७५ रंगीन फोटो व उन स्थानों की विस्तृत जानकारी एवं प्राचीन ऐतिहासिक घटना इसमें हैं। इस तीर्थ की हूबहू यात्रा का वर्णन यात्रिकों को अपनी यात्रा में खास उपयोगी है। पूज्य श्री द्वारा निम्मित el poo श्री राज की संलिप्त के साथ अनशन को सिद्धवट हो (हिन्दी, गुज., अंग्रेजी) = रंगीन प्रासंगिक फोटो सहित ६ गाउ की ३०/भावयात्रा और साडे आठ करोड मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त करनेवाले शांब व प्रद्युम्न का विस्तृत चरित्र है। अणि रो सिद्रक्ट डी.... emer भास्तोत्र સવાલ: આચાર્યદેવ શ્રી ગુણરત્ન સૂરીશ્વરજી મ. સા. कहीं मुरझा न जाए (गुज., हिन्दी ) २०/ इस भव में हुए भयंकर से भयंकर पापों को मिटाने का सामर्थ्य आलोचना में है। आलोचना द्वारा आत्मशुद्ध बनकर आत्मा मोक्ष तरफ पहुँचती है। पापों के भिन्नभिन्न स्थान एवं आलोचना विधि स्पष्ट करती यह किताब अवश्य पढ़ें। आधार-बेग... भक्तामर स्तोत्र सचित्र (हिन्दी, गुज.) = ३०/ जय तीर्थाधिपति श्री आदिनाथ भगवान के ४४ तीर्थों के दर्शन वाला सचित्र भक्तामर स्तोत्र इसमें हैं। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादित उत्तम साहित्य पूर्वपतसर्यदेवश्री शिवशमंसूरीधर विचित तिगतमुप कर्मप्रकृति CDIOPIO उपशमनाकरण (प्राकृत, संस्कृत) = १००/१५,००० श्लोक प्रमाण प्राकृत संस्कृत भाषा में उपशम श्रेणि के विषय का अद्भुत ग्रंथ है। उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति, क्षयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतानुबंधि कषाय का क्षय, देशविरति और उपशम का तात्विक वर्णन है। --Marelate महाभारता malifilms ATT m marathi AUGUह. श्री जितेन्दत पीजी ., आगामी प्रकाशन .. जैन महाभारत जैन महाभारत के अलग अलग ९० मल्टी चित्रों इम्पोर्टेड आर्ट पेपर छपेंगे। हिन्दी, गुजराती जैन महाभारत चित्र सहित पहली बार छप रहा है। चलो अनानुपूर्वी गीने (हिन्दी, गुज.) = ४०/सुंदर रंगीन अलग अलग २४ तीर्थंकर भगवान के २४ चित्रों सहित अनानुपूर्वी की आकर्षक पुस्तक। प्रेरका..आवादिव बी गुणराज सूरीधरजी म.सा. શતી સવલસરિક ક્ષમાપના, Pated रेकर्म तेरी गति न्यारी (गुज., हिन्दी) : २०/आत्मा, हर क्षण कौन से कर्म किस ढंग से बांधती है और उसका फल किस तरह भुगतती है, उसका बयान करनेवाली तत्वज्ञानमय सुंदर कृति। पर्युषण महापर्व के प्रवचन और सांवत्सरिक क्षमापना (गुज., हिन्दी) = १०/पर्युषण महापर्व के ८ व्याख्यानों सहित सांवत्सरिक क्षमापना हेतु भेजने की अद्भुत भेंट। finalisa ताEिR विपद तत्वज्ञान चित्रमय तत्वज्ञान एल्बम (हिन्दी, गुज.) -५०/प्रवेशकों को संक्षेप में १४ राजलोक, अढ़ी द्वीप, नौ तत्व आदि १७ विषयों पर मल्टी कलर मय १७ चित्रों सहित तत्वज्ञान की एक झाँकी। गुजराथपुरीधरजी .. चालो आपणे साचा जैन बनीये। (गुजराती) श्रावक के दैनिक ६ कर्तव्य आदि विषयों का विस्तार से वर्णन इस पुस्तक में किया गया है। चालोआपणे साचा जैन बनीये श्रीशनंजयादि चार महातीर्थ TOTL निर्देशक परिदन दिशा दर्शक यंत्र (गुज., हिन्दी, अंग्रेजी) = ७०/श्री शत्रुजय आदि ४ महातीर्थों का दिशा-दर्शक यंत्र । दुनिया के किसी भी कोने में रहकर श्री शत्रुजय, शंखेश्वरजी, सम्मेतशिखरजी तथा नाकोडाजी की दिशा में वंदन करने हेतु यह यंत्र अद्भुत साधन है। विश्व में इसकी सर्व प्रथम शोध हुई है। wdनानुमान गरेको Jain Education intamational -For Personal Priv- SAMOnly wwwjainelibrary.org Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य उपसंरक्षक ४६) खीमचंद वरधीचंदजी - बेडा ४७) भंवरलालजीचुनीलालजी ४८) हीराचंदवनेचंदजी ४९) गिरीशभाई विनयचंद शाह - भावनगर हस्ते निकिता, निधी ५०) वसुबेन रमेशचंद्र शाह - भावनगर हस्ते दर्शक, रीना, विश्वा ५१) एक सद्गृहस्थ-पाली ५२) सा. विरक्तरेखाश्रीजी म.सा. की प्रेरणा से जयंतिलालजीबाबुलालजी शाह - पादरली माननीय सदस्य १) हीराचंद मिश्रीमल इंडिया - भीनमाल २) कांतिलाल ताराचंदजी गिरधरनगर - नानावाला ३) भीमराजजी ताराचंदजी गिरधरनर - नानावाला ४) डॉ.बाबुलाल ओटरमलजी-बेड़ा ५) पेपीबेन शेषमलजी- तखतगढ़ ६) शा. चिमनलाल वरदीचंदजी चौधरी-मंडार ७) शा. उत्तमचंदजीनाथाजी चौवटीया - मंडार ८) मधुबेन सुभाषचंदजी सोलंकी - मंडार ९) शा.प्रकाशचंद्र मंछालालजी- कालंद्री १०) श्री जैन श्वे.मू.संघ - काछोली ११) हरीशभाईजे.भायाणी - बापूनगर, अहमदाबाद १२) महेन्द्रभाई मफतलाल शाह - बापूनगर, अहमदाबाद १३) कलाजी भुताजी - बापूनगर, अहमदाबाद १४) डॉ.अचलचंदजी रतनचंदजी संघवी-नारलाई १५) मूलचंदजी रतनचंदजी संघवी - नारलाई १६) एक सद्गृहस्थ १७) सोहनराजजी वालचंदजीचंदालिया १८) शाकांतिलालजी चुनीलालजी-लुणावा १९) श्रीमती हंजाबाई ओटरमलजी चौपडा घाणेराववाला २०) पारसमलजी गोमाजी राठौड २१) चंदनमलजी घासीरामजी - नारलाई २२) दीपचंदजी हंसराजजी नवलखा- देसूरी २३) ऋषभलाल फतेहलाल पवनकुमार उदावन - उदयपुर २४) रोसनलालजी गन्ना भीमवाले २५) वक्तावरमलजी निहालचंदजी-नारलाई २६) मूलचंदजी बाफना २७) नेनमलजी भबुतमलजी- पिंडवाडा २८) सेसमलजी देवीचंदजी - पिंडवाडा २९) मगनलालचीमनलाल कोठारी-रोहिडा ३०) चंदनमलजीभाईचंदजी- पिंडवाडा ३१) सेवंतिलाल भाईचंदजी- पिंडवाडा ३२) प्रतापमलजी जोरावरमलजी ३३) अमरचंदजी सोभागचंदजी- मद्रास ३४) जवानमलजी सुजाजी ३५) देवीचंदजी मिश्रीमलजी ३६) चुनिलाल वीसाजी ३७) हजारीमलजी रुपाजी ३८) मूलचंदजी देवीचंदजी-शिवगंज ३९) ओटरमलजी पुखराजजी ४०) बंसीलालजी इंदाजी ४१) बाबुलालजी कंवरलाल ४२) उगरमलजीनेमीचंदजी ४३) इंदामलजी प्रतापमलजी ४४) दीपिकाबेन गिरीशभाई शाह - भावनगर For Personal & Private Use Only | Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA CA Tulty Graphics For Personal & Private Use Only www.ja nelibrary.org