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________________ 70 स्वामी रावण को स्वशक्ति व परशक्ति का ज्ञान नहीं है? वह इतनी धृष्टता क्यों कर रहा है ? जाईये व अपने स्वामी से कहिये, लक्ष्मण ने कहा है, हे प्रमत्त मानव ! धिक्कार है तुझे ! अगर धैर्य है तो आ, युद्ध कर ! मैं लक्ष्मण उसे यमपुरी भेजने के लिए उत्सुक हूँ । हे कापुरुष ! क्या राम-लक्ष्मण के अतुल्य पराक्रम ने तेरे अंतर्मन में इतना भय उत्पन्न किया है कि अब तू युद्धविराम कराने के लिए विवश हो गया है ?" दूत ने समस्त वृत्तांत कथन करने के उपरांत रावण ने पुनः अपने मंत्रियों के साथ विचार विमर्श किया। उन्होंने पुनः रावण से कहा, "यदि आप सीताजी को मुक्त नहीं करेंगे, तो आपका एवं समस्त राक्षसकुल का विनाश अटल है।" निराश होकर रावण ने बहुरूपिणी विद्या की साधना करने का निर्णय लिया। जिनालय में जाकर उसने श्री शांतिनाथ भगवान की अनेकानेक भाववाही स्तुतिओं द्वारा प्रार्थना की। फिर वह एक रत्नशिला पर बहुरूपिणी साधना के लिए हाथ में अक्षमाला लेकर आसनस्थ हुआ। मंदोदरी ने यम नामक राक्षस द्वारा नगर में उद्घोषणा करवाई “आज से दो दिन समस्त लंकानिवासी धर्मसाधना में लीन रहें, ऐसी राजा की आज्ञा है। यदि कोई इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा तो उसे मृत्यु-दंड दिया जाएगा।" गुप्तचर ने इस उद्घोषणा का वृत्तांत सुग्रीव को सुनाया। सुग्रीव ने सत्वर रामचंद्रजी से कहा “हे कौशल्यानंदन ! जब तक रावण को बहुरूपिणी विद्या सिद्ध नहीं होती, तब तक उसका प्रतिकार शक्य है। साधना सिद्धि के उपरांत हमारा विजय अशक्य है। अतः उसकी साधना में अवरोध निर्माण करना आवश्यक है- 'शंठं प्रति शाठ्यं' करना ही हमारे लिए योग्य है।" किंतु रामचंद्र ने कहा, "रावण कुटिल है. कुटिलता उसका स्वभाव है, मेरा नहीं.. उसकी साधना में अवरोध निर्माण करने की मुझे इच्छा नहीं है।" रावण द्वारा बहुरूपिणी विद्या की साधना रामचंद्रजी का यह वचन सुनकर अंगद आदि सुभट गुप्तरूप से रावण के साधनास्थान पर पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही अंगद बोले, "हे रावण! क्या राम के शौर्य से तू इतना आतंकित है कि ऐसे पाखंड करने के लिए विवश हुआ है। अरे दुष्ट ! रामपत्नी सती सीता का तूने परोक्ष अपहरण किया है, अब देख मैं तेरी पत्नी का अपहरण तेरी उपस्थिति में ही कर रहा हूँ। तेरे में सामर्थ्य हो, तो मुझे परावृत्त कर" यह कहकर उसने मंदोदरी का केशकलाप खिंचा व उसे घसीटने लगा। मंदोदरी करुण रुदन करने लगी, परंतु रावण अपनी साधना में इतना मग्न हो चुका था कि उसने अपनाशीष तक ऊपर नहीं किया। DEDICINDI International GRILésonal & Plug Use ON www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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