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________________ वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि। लोकोत्तराणां चेतांसि, कोऽहि विज्ञातुमर्हति ।। में केवल आप ही उनका साथ देंगे । हे क्षत्रियश्रेष्ठ ! हे आद्यजिनेश्वरकुलसंभव ! आपत्ति के समय जिस प्रकार मानव कुलदेवता का स्मरण करते हैं, तद्वत् संकटसमय में सुमित्र का स्मरण करते हैं। आपके अलावा मेरे स्वामी का कोई अन्य सुमित्र नहीं है, अतः आप ही उनकी सहायता करें।' आपकी मित्रता दूध और पानी के समान है। जब दूध उबलता है, तब पानी भी उसके साथ उबलता है। उफनकर जब दूध अग्नि में जाने लगता है; तो पानी छींटने से वह बच जाता है। राजा जनक की आंतरिक वेदना सुनकर आप भी संतप्त बने हैं। अतः विनाश की ओर अग्रेसर उन्हें, पानी समान पधारकर, आप शांति प्रदान करें। दशरथराजा ने रणवाद्यों का घोष करवाया। उसी समय राम ने राजसभा में प्रवेशकर विनयपूर्वक कहा- "पिताश्री ! आप अपने सुमित्र की सहायता करने जा रहे हैं, तो अपने अनुजों के साथ यहाँ रहकर राम क्या करेगा ? पुत्रप्रेम से मोहित आप यदि ऐसा विचार करते हैं कि मेरे पुत्र अभी बालक है, वे युद्ध में बर्बर सुभटों का सामना कैसे करेंगे? तो मैं यही कहूँगा कि आग का एक छोटासा तिनका पलभर में महावनों को भस्मीभूत कर देता है। सूर्यवंश में जन्मा प्रत्येक पुरुष स्वयंभू पराक्रमी होता है। अतः सुप्रसन्न मन से हमें युद्ध के लिए अनुमति दीजिए। कुछ ही समय में आप जयवार्ता सुनेंगे।" इससे अनुमान होगा कि प्राचीन भारत के सुपुत्र कितने विनयशील होते थे। जहाँ मृत्यु से मिलाप होने की संभावना होती, वहाँ स्वयं आगे जाते, अपने पूर्वजों को आगे जाने नहीं देते। आज के उपभोक्तावादी युग में खानपान, वस्त्र प्रावरण, हर्ष-उल्लास की प्राप्ति के लिए युवा-वर्ग अंधाधुंध दौड़ रहा है। जीवन संघर्ष, अर्थार्जन और युद्धसंघर्ष का उत्तरदायित्व अपने पूर्वजों के कंधों पर डालते उन्हें तनिक भी पश्चात्ताप नहीं होता। राजा दशरथ से मिथिलानगरी की ओर प्रस्थान की अनुमति दूत ने आगे कहा, “वैताढ्य पर्वत की दक्षिण में तथा कैलाश पर्वत की उत्तर में अनार्य देश है। उनमें अर्धबर्बर की प्रजा अत्यंत निर्दयी है। इस देश के पुरुष क्रूरता की चरमसीमाएँ लाँघ चुके हैं। इस देश में मयुरसाल नामक नगर है। इस नगर का राजा आंतरंगतम अत्यंत क्रूर म्लेच्छ है। जिनशासनद्वेष्टा इस राजा ने अन्य असंख्य राजाओं के साथ मिलकर पवित्र मिथिलानगरी पर महाकाल की भाँति आक्रमण किया है। इस बर्बर सेना ने जिनालयादि धार्मिक स्थानों का विध्वंस किया है। अतः आप मेरे स्वामी जनकराजा की सहायता करें। मेरे स्वामी की सांप्रत स्थिति उस गजराज के समान है, जिसका पैर क्रूरतम नक्रने अपने विकराल मुख में जकड दिया है । हे नरपुंगव ! मेरे स्वामी की सहायता करना ही धर्म की सहायता करना है। हमें निराश न करें।" सज्जन पुरुष का मन वज्र से अधिक कठोर एवं कुसुम से अधिक कोमल होता है । एक सुभाषितकार ने कहा है Jain Education International Soal & Private Use Only www.pahelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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