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________________ 19 मिलते ही लक्ष्मण एवं राम अपने सैन्य के साथ मिथिला के लिए रवाना जनक का अपहरण हुए। विजयाकांक्षी म्लेच्छ सुभटों ने मिथिलानगरी को चारों दिशाओं से घेर रखा था। महाराजा जनक बहुत चिंताग्रस्त थे। समूचा संसार चिंता से भरा हुआ है। चिंता का एक कारण दूर होते ही दूसरा समक्ष आकर खड़ा हो जाता है। सर्वसंगपरित्याग कर वैराग्यलक्ष्मी की आराधना करनेवाले मुनिजन ही सारी चिंताओं से राम द्वारा म्लेच्छ सैन्य का तितर-बितर होना मुक्त होते हैं। अस्तित्व की चिंता, उदरभरण की चिंता, स्वजनों की चिंता, परजनों की चिंता, आत्मरक्षा की चिंता, पररक्षा की चिंता यह रामसैन्य को देखते ही म्लेच्छ सुभट उस पर टूट पडे। क्षणभर इस मायावी संसार की विशेषता है। में शत्रुओं के शस्त्रआच्छादन ने वातावरण अंधकारमय बना दिया। म्लेच्छ सेना ने मान लिया था कि उनका विजय निश्चित है। महाराज इस माया ने विभिन्न रूप धारण कर जगत को संमोहित किया जनक भी निराशा के सागर में डूब गए थे। सहसा राम ने धनुष्य प्रत्यंचा है। यहाँ तक कि उसने ज्ञानियों को भी नहीं छोडा है। केवल मुनिजन खिंचकर टंकार किया और धनुष्य पर बाण चढ़ाया। पल भर में अविरत ही उसके प्रभाव से दूर है। वर की चिंता से राजा जनक मुक्त तो हुए, बाणवर्षा से म्लेच्छ सेना क्षत-विक्षत होने लगी। राजा जनक का सैन्य परंतु सीता-विवाह के मार्ग में कितनी कठिनाईयाँ आती है- अब मृगशावक अथवा खरगोश की भाँति भयभीत हो चुका था। राम के देखेंगे। सैन्य की मनःस्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। इतने में दशरथनंदन द्वारा जनकद्वारा सीता विवाह की घोषणा होते ही चारों दिशाओं में अचानक मगनक्षत्र के वर्षा की भाँति शरवर्षा प्रारंभ हुई। म्लेच्छ सुभट सीता के लावण्य एवं गुणों की चर्चा होने लगी। सीता के सौंदर्य के विस्मयचकित हुए। अचानक उन्होंने राम व लक्ष्मण को देखा। अपने विषय में बातें सुनकर नारदजी भी सीता के दर्शन करने जनकराजा के अपने शस्त्र उठाकर वे राम की ओर दौडे, परंतु शीघ्र लक्ष्यवेधी राम ने कन्यागृह में आए। वैसे तो नारदजी अतिशुद्ध ब्रह्मचर्य व्रतधारी है। क्षणमात्र में उन्हें तितर-बितर कर दिया। जिस प्रकार एक ही अष्टापद काया, वाचा, मन से दृढ शीलव्रता नारदजी किसी भी राजा के अंतःपुर प्राणी हाथियों को क्षतविक्षत कर देता है, उसी प्रकार राम ने म्लेच्छ । में बिना किसी रोक-टोक के जा सकते थे। उन पर कोई प्रतिबंध नहीं सेना को क्षतविक्षत कर दिया। प्राण बचाने के लिए म्लेच्छ सेना पलायन था। वासना के कारण नहीं, अपितु कौतुहलवशात नारदजी ने सीता करने लगी। युद्धभूमि का दृश्य क्षणभर में परिवर्तित हुआ। जनकसैन्य के प्रासाद में प्रवेश किया। में जयघोष सुनकर महाराजा जनक आश्वस्त हुए। पौरजनों के हर्षकी नारदजी का दुबला-पतला शरीर, भारी तोंद, पीला कौपीन कोई सीमा न रही। (वस्त्र विशेष) पीले केश व नेत्र तथा लंबी शिखा देखकर सीता घबराई राम का अतुलनीय पराक्रम देख हर्षित, राजा जनक ने अपनी और भय से काँपते काँपते चिल्लाने लगी, "ओ माँ.. ओ माँ...दौडो... पुत्री सीता का परिणय राम के संग होगा, ऐसी घोषणा की। दशरथ मुझे बचाओ।" सीता को इस तरह भयाकुल होकर चीखते सुनकर राजा के बजाय राम के युद्धभूमि आने से जनक की दो प्रकार से रक्षक, दास, दासी, द्वारपाल एवं सैनिक दौडते आए और बिना कुछ कार्यसिद्धि हुई। सर्वप्रथम म्लेच्छों के विनाश से जिनालय सुरक्षित पूछे ही नारदजी पर टूट पडे। किसीने उनकी ग्रीवा पकडी, तो किसीने बने तथा स्वकन्या सीता के लिए सुयोग्य वर की प्राप्ति हुई। शिखा खींची। किसीने उनकी भुजाएँ पकडकर मरोडी, तो किसीने उनपर प्रहार किए। फिर भी नारदजी किसी भी प्रकार से मुक्त होकर राम, सीता से परिणय करने के लिए मिथिलानगरी नहीं आये वहाँ से भागे और आकाशमार्ग से वैताढ्य पर्वत पर आ पहुँचे । वहाँ थे। अपितु पितृभक्ति एवं धर्मरक्षा के लिए आए थे। धर्मात्माएँ धर्मपर पहुँचते ही उन्होंने राहत की लंबी-सी साँस ली और विचार करने आक्रमण एवं धर्म का ध्वंस देख नहीं सकती। धर्मरक्षा के लिए रामद्वारा लगे। "सिंहनियों से घिरी हुई गाय शायद ही बच सकती है, मैं भी उन किये गए पराक्रम से प्रभावित होकर जनकराजा ने अपनी पुत्री का सिंहनीसमान दासियों के वज्रहस्तों से बचकर वैताढ्य पर्वत की शिखा विवाह बिना मांगे ही राम के साथ निश्चित किया। जनकराजा भी पुत्री पर आ गया हूँ। मुझे मेरे अपमान का प्रतिशोध लेना ही चाहिये। अब के लिए योग्य पति प्राप्त करने की चिंता से मुक्त हुए। मैं वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में चंद्रगति राजा के प्रासाद में जाऊँगा तथा सीता का चित्र, पटपर बनाकर उसके पुत्र भामंडल को दिखाऊँगा। इससे उसके मने में सीता के प्रति अनुराग जगेगा और वह For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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