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पुत्रवधू के लिए पुत्री से भी अधिक प्रेमभाव रखनेवाली कौशल्या ने कहा, "हे भद्रे ! विनीत राम तो पितृप्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए वनगमन कर रहा है। वह नरशार्दूल है, अतः वनवास के कष्ट उसके लिए असह्य नहीं। किंतु हे वत्से ! तुम तो शैशव से उत्तमोत्तम सुखसुविधाओं में पली हो, वनवास के कष्टों को कैसे सह पाओगी?
वन के काँटे, कंकर तुम्हारे पदकमलों को लहूलुहान करेंगे । सूर्यतेज का प्रचंड प्रकोप तुम कैसे सह सकोगी? वर्षा एवं शीत तुम्हारी कोमल काया पर क्या क्या अत्याचार नहीं करेंगे। हे आर्ये ! तुम्हें कायिक एवं मानसिक कष्टों से जर्जर होते हुए देखकर राम को भी भारी दुःख होगा। फिर भी हे सीते! तुम अपने पति की सहचरी हो, सुख दुःख में पति का साथ देना अपना कर्तव्य समझती हो।
इसलिए वनपथ पर राम की अनुगामिनी बनने की तुम्हारी इच्छा का मैं निषेध कतई नहीं करूँगी, किंतु तुम्हें वनगमन के लिए मैं अनुमति भी नहीं दे सकती। तुम्हारे वनवास की कल्पनामात्र से मेरा रोमरोम कंपायमान हो रहा है।"
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कौशल्या से वनवास की अनुमति माँगती सीता
विनयशीला सीता दशरथराजा को प्रणाम कर माता कौशल्या के समीप आई और बद्धांजली उसने नम्रता से कहा, "माताजी ! क्या शरीर और आत्मा अलग रह सकते हैं? क्या प्रकृति व पुरुष एकदूसरे से अलग हो सकते हैं ? अग्निसमक्ष मैंने हर सुखदुःख में आर्यपुत्र का साथ निभाने का प्रण किया है। वे वन जा रहे हैं । वन में वे फलाहार करेंगे, पर्णशय्या पर शयन करेंगे और यहाँ मैं प्रासाद में रहकर उत्तमोत्तम अन्न एवं मुलायम शय्या जैसे सुखसाधनों का उपभोग कैसे ले सकती हूँ ? अतः मुझे वनगमन कर अपना पत्नीधर्म निभाने के लिए अनुमति दीजिए।"
कौशल्या व्यवहारिक धर्म का मर्म जानती है। पुत्रवधू के प्रति उन्हें वात्सल्य एवं अनन्य करुणाभाव है। प्रासाद में पली जानकी को वनजीवन में कितने कष्ट भुगतने पडेंगे? इसके विचारमात्र से वह काँपती है, परंतु स्वयं कर्तव्यदक्ष पत्नी होने के नाते पत्नीधर्म भी जानती है। पति-पत्नी का अलग होना शरीर और छाया का अलग होना है, यह वे जानती है। अतः उसने जानकी को भले ही वनगमन के लिए अनुमति न दी किंतु उनके निर्णय का निषेध भी नहीं किया।
बरसों तक अपने लाडले लाल पर जीव न्योछावर करनेवाली, बहुतांश माताएँ बहू को अपना शत्रु ही मानती हैं। इसीलिए गुजरात के लोकजीवन में एक कहावत आई है - "जे आँखमाथी पडावे आँसु,
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