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राम, लक्ष्मण व सीता का वनप्रस्थान
अपने पिता से वनवास की अनुमति पाकर राम धनुष्यबाण आदि लेकर वनवास के लिए चल दिये। पितृभक्त पुत्र के विरह की कल्पनामात्र से दशरथ राजा मूर्च्छित होकर गिर पडे । पुत्र के प्रति
आत्यंतिक स्नेह होने के कारण इस प्रकार दशरथ राजा को बार-बार मूर्छा आना संभव ही नहीं, परंतु सामान्य है।
राम कहने लगे, "माता ! आप तो क्षत्रियाणी हैं... सामान्य स्त्री की भाँति रोना आपके लिए योग्य नहीं। क्या सिंहनी का शिशु वन में अकेला नहीं विचरता? क्या उसकी माता सिंहनी अपने शिशु के लिए चिंतित रहती है ? हे माता ! मेरे पिताश्री अपनी वचनपूर्ति कर ऋणमुक्त बनें और संयम ग्रहण करे, इस हेतु मैं वनप्रस्थान कर रहा हूँ। यदि मैं यहाँ रहता हूँ, तो भरत राज्यस्वीकार नहीं करेगा, अतः मेरा यहाँ से प्रयाण करना आवश्यक है। इस तरह प्रेमयुक्त वचनों की वर्षा से कौशल्या की हृदयाग्नि शीतल कर तथा माता सुमित्रा, सुप्रभा एवं कैकेयी को यथोचित प्रणाम कर रामचंद्र वनवास के लिए चल दिए।
रामचंद्र मनोविज्ञान के ज्ञाता थे। उन्होंने विचार किया कि, "पिता के वचनपालन के लिए मैं वनवास जा रहा हूँ, मेरे पिताजी को मेरे विरह की कल्पना मात्र से इतना आघात पहुँचा है, तो वात्सल्यस्वरूपा मेरी माताजी किस मनोदशा में होगी?" इसलिए कौशल्या को प्रणाम करते समय उन्होंने कहा, "माताश्री ! केवल मैं ही नहीं परंतु भरत भी आपका पुत्र है। मोक्षपथ के यात्री मेरे पिताजी की वचनपूर्ति भरत के राज्याभिषेक से ही होगी। यदि मैं यहाँ रहँगा, तो भरत कदापि राज्यग्रहण नहीं करेगा।
चरितं रघुनाथस्य शतकोटीप्रविस्तरम् । एकैकं अक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ।।
अतः मुझे स्वेच्छा से वनवास ही स्वीकार्य है। जब मैं यहाँ नहीं रहूँगा, तब आप अपनी अमृतदृष्टि से मेरे अनुज भरत का अभिसिंचन करें ! हे माता... मुझ में एवं भरत में कुछ भी अंतर नहीं हैं।"
यह वचन तनिक भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। यदि रामचरित्र के अक्षरमात्र से हम कुछ प्रेरणा प्राप्त करें, तो हमारे महापातकों का विनाश हो सकता है। राम का विनय ही देखिये। जिस माता कैकेयी के कारण इतना उपद्रव मचा, उनके लिए राम ने कभी भी कोई कटुवचन नहीं कहा, किंतु वे उनका यथायोग्य आदर करते रहे। वनगमन के पहले उन्होंने माता कैकेयी को भी प्रणाम किया।
राम का औदार्य, सौहार्द एवं बंधुप्रेम की अनुभूति करते करते अचानक रानी कौशल्या मूर्च्छित हो गई। दासी ने शीतल चंदन जल से उनका अभिसिंचन किया, तब उन्हें होश आया और वे विलाप करने लगी, "हाय ! मैं क्यों इस तरह जी रही हूँ ? राम के विरह की व्यथा मैं कैसे सह पाऊँगी? एक तरफ पति संयममार्ग के यात्री बनने जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ पुत्र वनवास के लिए जा रहा है !
आर्यनारी की विशेषता यह है कि वह काया वाचा मन से पति के प्रति समर्पणभाव रखती है। राम, जब वनगमन के लिए चल दिए, तब सीताजी ने यह न सोचा कि, अभी अभी मुझे ब्याह कर घर लाए हैं और पिता की वचनपूर्ति के लिए वनवास जा रहे हैं।
इतनी वेदनाओं का सामना कर मेरा हृदय अभी भी अक्षुण्ण क्यों है? मृत्यु ही मेरे सर्व दुःखों को समाप्त कर सकती है... परंतु वह मुझपर अभी भी दया क्यों नहीं कर रही है? आखिर किसलिए मैं यह अर्थहीन जीवन जी रही हूँ?"
इतना बड़ा निर्णय लेने के पहले मुझसे बात करना तक उचित नहीं समझा ! जो उनके मन में आया वही करते हैं। अपने राज्याधिकार की कोई किंमत नहीं है। स्वयं वनवास जा रहे हैं? यह भी नहीं सोचते कि मेरा यहाँ क्या होगा? ऐसे विचार आज की नारी ही कर सकती है सीता नहीं!... सीता सती व समर्पित थी।
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