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________________ 36 तेनुं नाम सासू" कौशल्या क्षत्रिया थी, उत्तम कुलोत्पन्ना थी, पूर्वभव के 5 पुण्य से उनका परिणय प्रथम जिनेश्वर के वंश में हुआ था। इन्हीं कारणों से उनके व्यक्तित्व में झलकती साहसिकता दृष्टिगोचर होती है। रामायण के अधिकतर पात्र किसी न किसी आदर्श से जुड़े हैं। वनवास के लिए सज्ज अपने प्राणनाथ से सीता यह नहीं कहती, किससे पूछकर आपने यह निर्णय लिया ? आपको वन में जाना है, तो जाईये, मैं क्यों आपके साथ चलूँ ? मुझसे पूछे बिना राज्याधिकार छोड दिया और अब जोगी बन रहे हैं। मैं क्यों यह प्रासाद और सुखसुविधाएँ छोडूं ? कौशल्या की बात सुनकर शोकरहित सीता, कौशल्या को प्रणाम कर बोली, “आपके प्रति मेरी भक्ति सदा कल्याणकारी रहेगी। मुझमें कष्ट सहने का अंशमात्र सामर्थ्य नहीं है, परंतु आपकी भक्ति व आशीर्वाद में महाचमत्कारी शक्ति गुहारूप से स्थित है। उसके माध्यम से मेरे सभी कष्ट सुसह्य बनेंगे। पुष्पसुगंध जिस प्रकार पवन का अनुसरण करती है, उसी प्रकार मैं भी राम का अनुसरण करूंगी !" राम के वनवास का समाचार सुनते ही लक्ष्मण का क्रोधाग्नि प्रज्वलित हुआ, वे विचार करने लगे, "मेरे पिताश्री का स्वभाव सरल है, वे तो भरत को राज्य सौंपकर ऋणमुक्त बन गए हैं। किंतु मैं शांत नहीं रह सकता... मैं तो भरत से राज्य छीनूँगा व पुनः राम को सौंप दूंगा... परंतु यदि मैं ऐसा करता हूँ, तो क्या राज्यवैभव को तृणवत् मानकर उसे त्याग ने वाले मेरे भ्राता राम उसे पुनः स्वीकार करेंगे ? नहीं.. कदापि नहीं... और मेरे मुमुक्षु पिताश्री को ऐसा करने से कितना कष्ट होगा ? इससे तो यह योग्य है कि भरत का राज्याभिषेक हो...। मैं राम का अनुज हूँ. भ्रातृसेवा मेरा कर्तव्य है.. मैं एक सेवक की भाँति अपने भ्राता की परछाई बनूँगा।" मन ही मन में यह निश्चय कर लक्ष्मण ने अपने पिता दशरथ को प्रणाम किया और फिर माता सुमित्रा को प्रणाम कर विनयपूर्वक पूछा, "पितृवचन पूर्ण करने के लिए भ्राता श्री वन की ओर चल दिए हैं .... मैं उनका सेवक हूँ ? तो क्या मैं भी उनका अनुसरण करने के लिए वनप्रयाण करूँ ?" सुमित्रा का हृदय विशाल था। उन्होंने कहा, “पुत्र ! अपने ज्येष्ठ भ्राता का अनुसरण करने के लिए तुम तत्पर हो..... तुम्हें मैं कैसे रोक सकती हूँ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ..। किंतु राम तो Jain Education International कब के वनप्रयाण कर चुके हैं... तुम सत्वर निकलो.... ताकि तुम दोनों के बीच अंतर न बढे" सुमित्रा राम की सौतेली माता थी... परंतु राम के लिए कितना प्रेम उमड़ रहा था उनके अंतःकरण में । सुमित्रा से आशीर्वाद पाकर लक्ष्मण कौशल्या को प्रणाम करने गए। कौशल्या के नैत्रों से अभी भी अश्रुधाराएँ बह रही थी। वह बोली, "मेरा पुत्र मुझ अभागिनी को त्यजकर वनवास के लिए चला गया। मेरे क्षतविक्षत हृदय को तुम्हारा ही आधार है। पुत्र.. राम तो जा चुका है... कम से कम तुम तो यहाँ रह जाओ", लक्ष्मण ने कहा, "आप तो राम की माता हो सामान्य स्वी की भाँति दुःखी क्यों हो रही हो ? मैं सदैव राम के अधीन था, अधीन हूँ एवं अधीन रहूँगा । आप धैर्य धारण करें व मुझे अनुमति दें।" राम आदि का वन प्रयाण वन की तरफ प्रस्थान करने वाले राम, लक्ष्मण, सीता को देखकर पौरजनों, की आँखों से आँसू बहने लगे। पिता के आज्ञापालन के लिए राम, पति सेवा के लिए सीता और भ्रातृभक्ति के लिए लक्ष्मण वन गमन कर रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था, मानो अयोध्या के पंचप्राण ही उन महात्मात्री के साथ साथ अयोध्या को त्याग कर अनंतयात्रा के लिए निकल रहे हो.... अयोध्यानगरी के अभिजन, महाजन एवं सामान्यजन आँसू बहाते हुए राम, लक्ष्मण, जानकी के पीछे पीछे जा रहे थे। वे क्रूर कैकेयी और अपने भाग्य को कोस रहे थे। दशरथराजा भी अपनी रानियों के साथ राम के पीछे वन पहुँच गए। अयोध्यानगरी वीरान हो गई। राम ने अपने माता-पिता एवं पौरजनों को विनयपूर्ण वाणी से समझाबुझाकर पुनः अयोध्यानगरी की ओर रवाना किया। अयोध्या में भरत ने राज्याभिषेक के लिए अनिच्छा व्यक्त की। अपने भ्राता के विरह का उन्हें इतना तीव्र आघात लगा कि पुत्र की मर्यादाओं का भी उन्हें विवेक न रहा। अतः अपनी माता कैकेयी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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