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भरत एवं कैकेयी की दीक्षा व मोक्ष
भरतजी की स्त्रीपरिवार के साथ जलक्रीडा
पुनः राज्य के पदभार संभालने हेतु राम का आग्रह सुनकर भरत वहाँ से निकल रहा था कि सीता, विशल्या आदि स्त्रीजनों ने उन्हें जलक्रिडा हेतु प्रार्थना की।
यह प्रार्थना उन्होंने भरतको दीक्षा के निश्चय का विस्मरण कराने के लिए की थी। भरत, अंतःपुर से संपूर्ण विरक्त होते हए भी अपनी भाभीओं के आग्रह से जलक्रिडा करने गए।
एक दिन भरत ने राम से सविनय कहा, "आपकी आज्ञा से आज तक मैंने राज्य-शकट चलाया है। मेरी इच्छा तो पिताश्री के साथ दीक्षा ग्रहण करने की थी। किंतु पिताश्री एवं आपकी आज्ञा के अर्गलाओं में मैं निबद्ध था। आज मैं संसार से संपूर्णतः उद्विग्न बना हूँ। संसारपंक में रहने की अब मुझे तनिक भी इच्छा नहीं है। अतः आप राज्य का पदभार ग्रहण करें व मुझे दीक्षा लेने की अनुमति दें।
भरत की बातें सुनकर राम के नेत्रों से अश्रुधाराएँ बहने लगी व वे बोले, "हे अनुज ! क्या तुम यह समझते हो कि राज्यग्रहण के लिये मैं अयोध्या लौट आया हूँ। मैं तो केवल इन माताओं की दुःखनिवृत्ति करने व तुम्हें मिलने की उत्कंठा से यहाँ आया हूँ। यदि तुम राज्यत्याग करते हो, तो राज्य के साथ-साथ हमारा भी त्याग करते हो। क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे विरह की व्यथा हम सह नहीं पाएंगे। हे अनुज ! पहले की तरह अभी भी मेरी आज्ञा मानकर राज्यपालन करो !'
जलक्रिडा करने के पश्चात् वह सरोवर के तट पर खडे थे कि भुवनालंकार नामक एक गंधहस्ती वहाँ पहुँचा। किंतु भरत को देखते ही वह मदरहित बना। इतने में देशभूषण व कुलभूषण नामके दो केवलज्ञानी मुनि वहाँ पधारे। राम ने उनसे पृच्छा की कि, “भरत को देखने मात्र से हाथी मदरहित कैसे बन गया ?"
केवलज्ञानियों ने भरत के पूर्वभव विशद किए व पूर्वजन्मों में भरत व हाथी का संबंध क्या था ? वह भी स्पष्ट किया। भरत को देखते ही उस हाथी को जातिस्मरण होने से वह मदरहित बना।
भपूर्वभव के लिए पढिये परिशिष्ट क्र.७ Jain Education International
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