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________________ 33 Jain Edo रामचंद्रजी की दीक्षा व मोक्ष रामचंद्रजी की दीक्षा अब रामचंद्रजी का मन भी संसार की असारता एवं अनित्यता के कारण वैराग्य की तरफ आकृष्ट होने लगा । अतः अपने अनुज शत्रुघ्न का राज्याभिषेक करवा कर उन्होंने दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की, किंतु शत्रुघ्न का मन भी संसार से उब चुका था। वे बोले, "भ्राताश्री मुझे राज्याभिषेक में कोई रुचि नहीं है, मेरी इच्छा है कि आप ही के साथ मैं दीक्षा ग्रहण करूं !” अतः लव के पुत्र अनंगदेव को राज्य सौंपकर वे मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के वंशज सुव्रतमुनि के पास गए वहाँ पर श्री रामचंद्रजी ने शत्रुघ्न, सुग्रीव, बिभीषण व अन्य सोलह सहस्र राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। अब वे रामर्षि बन गए। उनके साथ सडतीस सहस्र कुलीन महिलाओं ने प्रवज्या ग्रहण कर श्रीमती साध्वीजी की निश्रा प्राप्त की । जब एक भव्य आत्मा वैराग्य के मार्ग पर चलती है, तब उनका अनुसरण करने के लिए अनेक जीव लालायित हो जाते हैं। गुरुचरणों में रहकर पूर्वागश्रुत का अध्ययन करके रामर्षि ने विविध प्रकार के कठोर अभिग्रह किए। अनेक तपश्चर्या के उपरांत एक दिन वे गुरू की आज्ञा लेकर वन में अकेले निर्भय रूप से वास करने के लिए चले गए। वहाँ उन्होंने अवधिज्ञान प्राप्त किया। 107 एक समय रामर्षि छट्ट का पारणा करने नगर में पधारे। उनके • आगमन के शुभ समाचार सुनकर हर्ष से उभरते नगरजन उनके स्वागत के लिए समक्ष आये नगरनारियाँ अपने अपने घरों के द्वार पर खाद्य से परिपूर्ण पात्र हाथों में लिए खड़ी थी। लोगों के कोलाहल से भयभीत हाथियों ने अपने आलानस्तंभ तोड दिए। नगर में भगदड़ मची। रामर्षिजी ने किसी से भी आहार ग्रहण नहीं किया। जिस आहार को गृहस्थ न अपने घर रखना चाहता हो, न खाना चाहता हो, वह आहार उज्झित धर्मवाला कहलाता है। वे प्रतिनंदी राजा के प्रासाद गए। वहाँ राजा ने उज्जित धर्म का आहार सुपात्रदान में दिया। देवों ने उस For Personal & Private Use Only www.jamelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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