SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 108 स्थान पर वसुधारी पंचदिव्य की वृष्टि की। रामर्षि पुनः वन की ओर चल दिए। उन्होंने विचार किया कि मेरे नगर में जाने से कोलाहल मचता है और संघट्टा आदि भी होता है। अतः उन्होंने अभिग्रह किया कि वन में ही भिक्षा के समय भ्रमण करने से गोचरी में जो कुछ प्राप्त होगा, उससे ही वे पारणा करेंगे अन्यथा नहीं। इस प्रकार अपने शरीर के प्रति निरपेक्ष रामर्षि कायोत्सर्ग में रहकर समाधिसाधना करने लगे। वन में वे कभी मासक्षमण, कभी दो मास, तीन मास, चार मास के उपवास आदि तपश्चर्या करते। कभी साधक को संसारसमुद्र से पार करानेवाले पर्यंकासन में बैठते, तो कभी उत्कट आसन में बैठते। कभी भुजाएँ उँची करके, तो कभी लंबीकर, तो कभी पैरों के अंगुठे के आधारपर खड़े रहकर तप तपते । एक बार तप करते करते विहार कर वे कोटिशिला गए। वहाँ शिला पर बैठकर रात्रि में प्रतिज्ञा धारणकर रामर्षि ने शुक्लध्यान का आश्रय लेकर क्षपक-श्रेणि का आरंभ किया। रामर्षि पर सीतेन्द्र द्वारा उपसर्ग अवधिज्ञानी सीताजी की आत्मा जो अभी सीतेंद्र देव बन चुकी थी, रामचंद्रजी को ध्यानस्थ मुद्रा में देखकर सोचने लगी “यदि ये केवलज्ञानी बनेंगे, तो हमारा पुनर्मिलन कैसे हो सकेगा? किसी भी प्रकार से वे संसारी बने रहे, तो ही पुनर्मिलन की संभावना है। अतः कुछ ऐसे अनुकूल उपसर्ग करूँ, जिससे वे मेरे मित्रदेव बनें।' यह विचारकर सीतेंद्रजी ने वहाँ अपनी दैवी शक्ति से एक बडा सुंदर उपवन बनाया। उपवन में कामोत्तजक वसंत ऋतु आई। कोयल टहुकने लगी, भ्रमर गुंजारव करने लगे, आम्र, चंपक, मल्लिका आदि वृक्ष पल्लवित हो गए। पुष्पों की मनोहर सुगंध ने वातावरण चित्ताकर्षक बनाया। स्वयं सीतेंद्र ने सीताजी का रूप धारण किया व राम के समक्ष आकर कहने लगी, “हे प्राणनाथ ! आपके प्रेम को त्याग कर दीक्षा लेने का मुझे पश्चात्ताप हो रहा है। ये विद्याधर कन्याएँ जो अब मेरे साथ हैं, सब आप से प्रेम करती हैं, ये चाहती हैं कि आप दीक्षा त्याग कर इनसे विवाह करें। आप की पटरानी होने की इच्छा, मेरे हृदय में भी है । अतः आप इन कन्याओं से विवाह कीजिये। मैं भी आपके साथ रहूँगी व प्रेमक्रीडाएँ करुंगी। आपका प्रेम ठुकराकर मैंने दीक्षा ग्रहण की, अतः मुझे क्षमा कीजिये। सीताजी का कथन पूर्ण होते ही विद्याधर कन्याओं ने उपवन में कामुक रागरागिणियों की धूम मचा दी। PILIP SON Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy