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जब वह अपरिचित राजा सीताजी के समीप आने लगा, तो वे उसे अपराधी समझ बैठी। अतः अपने आभूषण उतारकर वे राजा के सामने फेंकने लगी, ताकि शील की रक्षा हो सके। राजा ने उन्हें आश्वासन देते कहा "हे अपरिचित भगिनी आप • अपने आभूषण क्यों फेंक रही है, इन्हें अपने शरीर पर ही रहने दीजिये । आप निर्भय, निःशंक होकर बताईये कि आप कौन हैं ? किस निर्मम, निर्दय ने आपको यहाँ छोड़ दिया है। आप विश्वास रखिये। आपके कष्ट के कारणमुझे कष्ट हो रहा है।"
तब सुमति नामक राजमंत्री ने अपने स्वामी के कथन की पूर्ति में कहा, "पुंडरीकपुरी के राजा गजवाहन और रानी बंधुदेवी
के
सुपुत्र राजा वज्रजंघ आपके समक्ष खडे हैं। यह राजा भगवद्भक्त महासत्वशाली एवं परनारी के लिए सहोदर समान है। हम सब इस वन में बनहस्ती पकड़ने आये थे व अपना काम पूर्ण करके निकल ही रहे थे, इतने में आपका करण रुदन सुनकर आपके समक्ष आये हैं। हम आपके दुःख से दुःखी हैं, अतः अपना दुःख निःसंशय होकर हमें बताईये।”
मैथिली सीता जान गयी कि वे निष्कारण ही भयभीत हुई थी। रोते-रोते सीता ने समस्त वृत्तांत सुनाया। सीताजी की आपबीति सुनकर राजा एवं मंत्री दोनों अपने अश्रुओं को रोक नहीं पाये । निष्कपट वज्रजंघ राजा ने कहा, “आज से आप मेरी धर्मभगिनी हैं। भामंडल के स्थानपर मैं हूँ, अतः मेरे साथ अपने घर चलिये। पति के घर पश्चात् स्त्री के लिए यदि कोई योग्य स्थान है तो वह है भाई का घर । लोकापवाद के कारण राम ने
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आपका त्याग किया है। अतः मुझे विश्वास है कि कुछ समय के पश्चात् स्वयं रामचंद्र आपकी शोध करेंगे व सम्मानपूर्वक आपको पुनः अयोध्या ले जाएँगे। जब तक राम आपको ढूँढते हुए नहीं आते, तब तक आप निःशंक होकर प्रसन्नतापूर्वक हमारे घर रहिये ।" वज्रसंघ राजा के वे शब्द सुनकर सीता त्वरित आश्वस्त हो गई। राजा ने शिबिका मंगवायी, सीताजी निःशंका उसमें विराजमान हुई। पुंडरीकपुर पहुँचने के उपरांत राजा द्वारा दिये गए प्रासाद में रहकर धर्माराधना करते वह समय व्यतीत करने
लगी।
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राम का पश्चाताप
सीता को वन में छोडकर कृतान्तवदन का राम के पास आना
सेनापति कृतान्तवदन, सीताजी को सिंहनिनाद वन में छोड़कर पुन अयोध्या लौटे आते ही राजप्रासाद पहुँचकर उन्होंने सीताजी का संदे रामचंद्रजी को सुनाया। संदेश सुनते ही रामचंद्र अपनी सुध-बुध खोकर धर पर गिर पडे। लक्ष्मण के चंदनजल छींटकने पर उन्हें पुनः होश आया व विलाप करने लगे, "चिक्कार है मेरे दुर्भाग्यपर! दुर्जन लोगों के प्रवाद डरकर मैंने महासती सीता का त्याग किया। चिंतामणिरत्न का त्याग किया और मिट्टी के ढेलें को जतनपूर्वक संभाल रहा हूँ। मैंने निष्ठुर होकर उस निष्कलंक गर्भिणी का त्याग किया, किंतु वह तो मेरी कल्याणमित्र रही। उस तो मुझे जिनधर्म के साथ सदैव रहने का अनुपम संदेश भेजा है..."
JANAAKA
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