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DILIP SONI
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मोहाधीन बिभीषण
दशरथ की मूर्ति का वध
अवसर के खोज में सतर्क बिभीषण ने एक रात, दशरथ के खंड में प्रवेशकर लेप्यमय मूर्ति पर अपने खड्ग का प्रहार किया एवं मूर्ति का मस्तक शरीर से अलग कर दिया । मोहाधीन बिभीषण ने चुपकी से राजप्रासाद में प्रवेश तो किया, परंतु वे इतने भयभीत हो चुके थे कि पलभर वहाँ खड़े नहीं रह सकें। उन्होंने इतना भी विचार नहीं किया कि मैंने वास्तव में दशरथ राजा की हत्या कर दी है या किसी मूर्ति का मस्तक काटा है। लेप्यमय मूर्ति में रक्तसमान दिखनेवाला लाक्षारस भरा था। अंधकार में मूर्ति का मस्तक छेद होते ही बिभीषण का खड्ग लाक्षारस में रंग गया। खड्ग से टपकते लाक्षारस को बिभीषण ने रक्त मान लिया और वे खुशी-खुशी लंका की ओर चल दिए । दशरथ के मंत्रीजनों ने भी ऐसा ही अभिनय किया कि वास्तव में ही राजा मर चुके हो। कौशल्यादि राजमहिषियों एवं परिवार जनों ने शोकप्रदर्शन किया। इसलिए अंगरक्षकों के साथ-साथ सामंत राजा भी वहाँ दौडकर आए। बुद्धिमान एवं गंभीर मंत्रियों ने रहस्यभेद नहीं होने दिया और मरणोत्तर आवश्यक अंत्येष्टि की क्रियाएँ पूर्ण की। मन ही मन में अपने राजा का जीवन बचाने का आनंद होते हुए भी उन्होंने बाह्याकृति से किसी को भी ज्ञात होने नहीं दिया कि वास्तव में मूर्ति कटी थी, न कि राजा दशरथ का देह। उनकी शोकपूर्ण मुखमुद्राएँ देखकर सभी को लगा कि राजा दशरथ अब नहीं रहें । राजा दशरथ की मूर्ति की हत्या करने के पश्चात् बिभीषण ने विचार किया कि अब राजा दशरथ तो नहीं रहें, अब उनके वंश में संतान का जन्म होना असंभव है। केवल जनकराजा की पुत्री से अपने भ्राता रावण का वध संभव नहीं है। अतः जनकराजा के वहाँ जाकर उनकी हत्या करने का व्यर्थ प्रयास कर अपने जीवन को विपत्ति में झोंकना आवश्यक नहीं है।
संन्यासवेषधारी राजा दशरथ एवं जनक अपने जीवनरक्षा के लिए योगियों की भाँति वन में विचर रहे थे। परंतु ऐसा व्यक्ति लाख कष्ट भुगतने के पश्चात् भी त्यागी
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