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________________ इधर दशरथ राजा ने अपने मंत्रियों को बुलवाकर विचार-विमर्श किया। मंत्रियों ने राय दी कि योगी पुरुष के समान कालवंचना के लिए अपने मंत्री को राज्य का उत्तरदायित्व सौंपकर दशरथराजा के लिए वन में जाना उचित होगा। राक्षसवंश का पराक्रम तो अतुल्य है ही, परंतु साथ-ही साथ वे मायावी विद्याओं में भी इतने कुशल हैं कि उनसे बचना अशक्य है। अतः कालवंचना के लिए अयोध्यापति दशरथ का वन में विचरना ही योग्य है । मंत्रियों की राय मानकर दशरथ, योगी जैसे भगवे वस्त्र परिधान कर एकाकी वन की ओर चल पड़े। इसके पश्चात् मंत्रियों ने दशरथ राजा की सरुप, सप्रमाण, लेप्यमय मूर्ति गुप्तस्थान में बनवाई। मूर्तिको राजमहल के शयनखंड में रखा गया। जनकराजा के मंत्रियों ने भी ठीक ऐसी ही राय अपने नरेश को दी। अतः वे भी अपने मंत्रियों को राज्य सौंपकर वन की दिशा में चल दिए। इधर जनकराजा के मंत्रियों ने भी अपने स्वामी की लेप्यमय मूर्ति रात्रि के अंधकार में स्थापित कर दी। राजा दशरथ एवं जनक अब योगियों की भाँति वन-वन विचरने लगे। जब पुण्य का उदय होता है, तब चाहें कितनी भी विपदाएँ आए, कोई अपना बाल तक बांका नहीं कर सकता है। जब दशरथ बाल्यावस्था में थे, उनके पुण्योदय ने उन्हें एवं उनके राज्य को लेशमात्र पीडा से सुदूर रखा और जब पाप का उदय हुआ, तो वे ही दशरथ एवं जनकराजा को अपने प्राण बचाए रखने के लिए राजदरबार का त्यागकर संन्यासीवेष में अटवी में भटकना पड़ा। ISLAM पाप कर्मो का उदय होने पर राजा महाराजा राज्यविहीन हो जाते हैं। पाप का उदय होते ही सोलह सहस्र देव-देवता सेवा में विद्यमान होते हुए भी सुभुम चक्रवर्ती को सागर में डूबकर मरना नसीब हुआ। मुंजराजा को भिक्षा मांगने के लिए विवश किया पाप कर्मो के उदयने! अब दशरथराजा और जनक राजा भी योगी बन कर अकेले ही विचरने लगे । मंत्रियों के अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति को इस बात का पता नहीं चला। यहाँ तक कि स्वेच्छा से परिणीत अपनी कौशल्यादि रानियों को भी दशरथ राजा ने इस बात का पता नहीं लगने दिया। alelated यदि एक मृत्यु से बचने के लिए राज्यत्याग उचित है, तो अनंत मृत्युओं को आँखों के सामने रख, उनसे बचने के लिए सम्यग्दृष्टि आत्माएँ संयमधर्म की ओर आकर्षित हो, तो उसमें आश्चर्य नहीं है। अतः सम्यग्दृष्टि आत्माएँ चाहे कितने भी भौतिक सुख साधनों का उपभोग ले रही हो, अनंत मृत्युओं की असीम वेदना सदा उनके आँखों समक्ष रहती है। अतः भौतिक धन-लक्ष्मी का त्याग कर वे खुशी-खुशी वैराग्य-लक्ष्मी को अपनाते हैं और अपनी ही मस्ती में जीवन जीते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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