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________________ 3 नारदजी का हृदय सदा साधर्मिक प्रेम से छलकता था। अतः रावण की राजसभा से उठकर वे सीधे दशरथ के वहाँ जा पहुँचे । नारदजी को देखते ही दशरथ राजा खड़े हो गए व संपूर्ण सम्मान सहित उन्हें उच्चासन पर बिठाया। इसके पश्चात् दशरथ राजा ने विनयपूर्वक पूछा कि, “आप कहाँ से पधारे हैं ? मेरे लायक कुछ सेवा है ?" उत्तर में नारदजी ने कहा कि, "मैं श्री सीमंधरस्वामी तीर्थकर भगवान का दीक्षा महोत्सव देखने पुंडरीकिणी नगरी गया था। वहाँ से पुनःप्रस्थान के समय मेरुपर्वत होकर समस्त तीर्थकर समुदाय को वंदनादि कर मैं लंकानगरी गया। वहाँ श्री शांतिनाथ भगवंत के जिनप्रासाद में गया व मूलनायक श्री शांतिनाथजी के दर्शन वंदनादि कर मैं रावण की राजसभा में पहुँचा। सभा में नैमित्तिक ने आपके पुत्र एवं जनकपुत्री के निमित्त से रावणवध होगा, ऐसी भविष्यवाणी की। भविष्यवाणी सुनते ही क्रोधित विभीषण ने आपकी एवं जनकराजा की हत्या करने की प्रतिज्ञा की। यह सुनते ही मैं शीघ्र आपसे सावधान रहने के लिए विनति करने आया । आपके नगर से प्रयाण कर मैं जनकजी के वहाँ जाऊँगा एवं उन्हें भी सतर्कता का संदेश पहुँचाऊँगा।" यह कहकर नारदजी ने मिथिला नगरी की दिशा में प्रस्थान किया। वहाँ जाकर उन्होंने मिथिलाधिपति जनकराजा से समस्त समाचार कहे। नारदजी का साधर्मिक प्रेम Jain Education International 5 नारदजी जैसी महान आत्माओं के मन में धर्म एवं धर्मी का अनन्यसाधारण महत्त्व था। यह महत्त्व यह लगाव इतना प्रगाढ था कि अपने सभी कार्यों को भूलकर वे साधर्मिक भाई की सहायता करने के लिए चल पड़े। स्वकार्य से अधिक महत्त्व साधर्मिक कार्य को देते थे महात्मा नारदजी । यदि दूसरी ओर देखते हैं तो एक लोकोक्ति का स्मरण होता है कि भाग्यवान को भूत कमाकर देता है। दशरथ राजा एवं जनकराजा कितने महान पुण्यात्मा रहे होंगे कि इन दोनों के पुण्योदय से नारदजी, रावण की सभा में पधारे और पुण्य के बल से ही नारदजी द्वारा एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण संदेश उन्हें मिला एक ओर पाप बांधने में निपुण महारथी भयंकर भीषण योजनाएँ बनाकर कर्मबंध करते हैं, दूसरी ओर पुण्यशाली का पुण्य इन भीषण योजनाओं को परास्त कर देता हैं। नारदजी यदि चाहते, तो जनकराजा को संदेश पहुँचाने का उत्तरदायित्व दशरथराजा को सौंप सकते थे, किंतु साधर्मिक भक्ति ही जिनके लिए स्वधर्म है, ऐसे नारदजी स्वयं मिथिला नगरी पहुंचे व समस्त हकीकत जनकराजा से कह दी। दशरथ व जनक का वनवास Hal Porvat www.jainelibrary.org. DILIP SON
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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