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________________ सुमि अयोध्यानरेश राजा अनरण्य का मोक्ष “स्वाभाविकं तु यन्मित्रं, भाग्येनैवाभिजायते। आद्य तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव ने सामाजिक, सांस्कृतिक व तदकृत्रिमसौहार्दमापत्स्वपि न मुञ्चति ।" धार्मिक जीवन की नींव रखी थी। उनके पुत्र राजा भरत चक्रवर्ती थे। उनके अनेक पुत्र थे। उनमें से ही एक पुत्र आदित्य यश से सूर्यवंश का अर्थात् मानव को सुमित्र तो सद्भाग्य द्वारा ही प्राप्त होता है। प्रारंभ हुआ। इस वंश में अनेकानेक राजा हुए । फिर तीर्थकर भगवान सुमित्र की विशेषता है अकृत्रिम मैत्री और सहृदयता ! वह अपना मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में अयोध्या नगरी में अनेक राजाओं मित्रभाव संकटसमये त्यागता नहीं है। आज के युग में कुमित्रों की को शरण एवं सहाय देनेवाले तथा स्नेहीजनों को ऋण से मुक्त बनाने अत्यधिक भरमार होने के कारण हम सब अवनति की तरफ बढ़ते ही वाले अनरण्य राजा हुए। उनकी महिषी पृथ्वीदेवी से अनंतरथ और जा रहें हैं। कुमित्र कैसे होते हैं ? दशरथ नाम के दो पुत्ररत्न उत्पन्न हुए । “परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् । वास्तव में राजधर्म निभाना बहुत जटिल है । प्रायः निरंकुश, वर्जयेत् तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥" अमर्याद राज्यादि सत्ता व्यक्ति को मद, मोह और अहंकार के अथाह हमारे समक्ष मीठी बातें करनेवाले परंतु पीठ मुडते ही हमारा सागर में डुबा देती है। ऐसे व्यक्ति प्रजाजनों को अनंत पीडाएँ पहुँचाने नुकसान करनेवाले कुमित्रों को जहर से भरे दूध के घड़े के समान में कोई कसर नहीं रखते। संतान समान पौरजनों के प्रति तिरस्कारवृत्ति त्यजना उचित है। रखनेवाले ऐसे शासक अपने मनुष्यत्व एवं क्षत्रियत्व दोनों पर कलंक सुमित्र के कारण जीवन में आत्मोत्थान की प्रेरणा मिले बिना लगाते हैं। यदि वे अपने मिथ्या अहंकार त्याग दें, तो वे प्रजाजनों के नहीं रहती। कहते हैं जैसा संग वैसा रंग । सहस्रांशु राजा एवं अनरण्य दुःखभंजक बनते हैं । दुःख का मूल-कारण है पाप और अनंतसुख राजा दोनों के बीच प्रगाढ मित्रता थी। इसी कारणवश एक दिन दोनों ने का कारण है पुण्य एवं धर्म । अहंकार रहित राजा, दुःख के कारणभूत अभिग्रह लिया कि दोनों साथ में ही संयम ग्रहण करेंगे, दीक्षा लेंगे। पापों की घृणा दूर करनेवाले एवं अनंतसुख के कारणभूत धर्म व पुण्य राक्षसवंश के राजा रावण के साथ सहस्रांशु राजा का युद्ध हुआ, जिसमें के कारणों का पोषण करने की प्रवृत्तिधारक होते हैं। राज्य को असार सहस्रांशु राजा परास्त हो गए। उस समय वहाँ उनके पिता मुनिराजश्री और अस्थिर मानने वाले ऐसे शासकों का प्राकृतिक झुकाव राज्यत्याग शतबाहु पधारे। उसी समय सहस्रांशु राजा ने अपने पिता के सान्निध्य कर संयम-साधना में रत रहने के प्रति होता है। "जो राजेश्वरी वह में दीक्षा अंगीकार की और अपने मित्र को एक दूतद्वारा दीक्षा के समाचार नरकेश्वरी" यह वाक्य सदा उनके हृदय में गूंजता रहता है। लेकिन पहुँचाए। जब तक राज्यत्याग के लिए अनुकूल स्थिति प्राप्त न हो, तब तक वे "सद्रक्षणाय खलनिग्रहाय" सज्जनों के सम्मान की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिए ही राज्य चलाते हैं । शक्कर की मक्खी समान ऐसे शासक छोटा-सा निमित्त मिलते ही राज्यत्याग व मोहत्याग कर ऋषि बन जाते हैं। अयोध्या के राजा अनरण्य और माहिष्मती के राजा सहस्रकिरण सुमित्र थे। सुमित्र के योग से जीवन आबाद बनता है। सुभाषितकारों का कहना है PESONI अनरण्य राजा के पास सहस्रांशु राजा के दूत का आगमन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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