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अपनी भगिनी शूर्पणखा को आश्वासन देते रावण ने कहा"हे प्रियभगिनी ! क्या तुम रावण के पराक्रम से अपरिचित हो ? शस्त्रविद्या, अस्त्रविद्या व मायावी विद्या के अलावा मेरे पास असीम बाहुबल व बुद्धि भी है। मैं त्रिखंड पृथ्वी का स्वामी हूँ, मेरा नाम सुनते ही देवता भी भयभीत होते हैं।
वालीनंदन चंद्ररश्मि के मन में संदेह उत्पन्न होने से उसने कपटवेषधारी सुग्रीव को भी अंतःपुर में प्रवेश करने से रोका । फिर सेना बुलाई गई । सुग्रीव के सुभट भी सच्चे सुग्रीव को पहचान न पाये। अतः सेना का दो पक्षों में विभाजन हुआ। सुग्रीव ने हनुमानजी को सहायता के लिए बुलाया। वे भी भेद पहचान न सके । इसके पश्चात् सुग्रीव ने रामचंद्र को संदेश भेजा - "यदि आपकी कृपा से मैं इस दुविधा से मुक्त हो जाता हूँ, तो मैं आपका सेवक बनकर रहूँगा व सीता की शोध करने में सहायता करूँगा।" परोपकार करने के लिए तत्पर राम किष्किंधापुरी गए। सुग्रीव ने युद्ध के लिए आह्वान किया। दोनों सुग्रीवों का भयंकर युद्ध हुआ। पृथ्वी भी कंपायमान होने लगी। दोनों सुग्रीवों का रूप इतना समान था कि राम भी भेद न जान सके।
बहन ! तुम्हारे साथ जो भी हुआ, उससे मैं दुःखित हूँ व शीघ्र ही तेरे पति एवं पुत्र की हत्या करनेवाले को यमलोक पहुँचाने वाला
अंत में राम ने वज्रावर्त धनुष्य का टंकार किया.. टंकार की ध्वनि इतनी प्रचंड थी कि साहसगति की प्रतारणी विद्या हरिणी की तरह भाग गई। “हे अधम... पापी..! क्या तू अन्य स्त्री के प्रति कामेच्छा रखता है ?" यह कहकर राम ने एक ही बाण छोडकर उसे विध डाला। कपटवेषधारी सुग्रीव का वध करके रामचंद्र ने वास्तविक सुग्रीव को किष्किंधापुरी के राज्यासन पर बिठाया।
एक तरफ सीताजी के लिए प्रदीप्त कामवासना ने, तो दूसरी तरफ अपने बहनोई एवं भांजे की मृत्यु के दुःख ने रावण की निद्रा हरण की थी। वह रातभर करवटें बदला करता, किंतु सो नहीं पाता । तब पट्टरानी मंदोदरी ने उनसे कहा, "प्राणनाथ ! त्रिखंड पृथ्वी के स्वामी होते हुए भी आप एक सामान्य मानव की भाँति शून्यमनस्क व निद्राविहीन अवस्था से क्यों पीडित हैं ? मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ।
आपकी इस मनोवस्था ने मेरा हृदय क्षतविक्षित किया है। आप निःसंकोच अपने मन की बात मुझे कहिये।" रावण ने कहा, “त्रिखंड पृथ्वी का स्वामी होते हुए भी सीता के हृदय में मेरे लिए कोई स्थान नहीं है। इसी बात ने मुझे निद्राहीन बनाया है। यदि आप उनके पास जाकर अनुनय विनय कर उन्हें, मुझे दैहिक सुख देने के लिए इच्छुक एवं उत्सुक बनाती हो, तो मैं जीवनभर आपका ऋणी रहूँगा।
सुग्रीव अपनी तेरह कन्याएँ राम को अर्पण करने के लिए तैयार हुआ। तब रामचंद्र ने कहा, "पहले सीता की शोध करना आवश्यक है, अतः अन्य कन्याओं के साथ विवाह इस समय योग्य नहीं है।"
मैंने गुरुभगवंत के समक्ष नियम लिया है कि किसी भी स्त्री की अनिच्छापूर्वक भोग नहीं लूँगा।
यदि सीता स्वेच्छा से मेरे समीप आती है, तो मुझे दैहिक सुख तो मिलेगा साथ ही साथ मेरा नियम भी अबाध्य रहेगा।"
लंका में खर व दूषण के मृत्यु के समाचार मिलते ही रावणपत्नी मंदोदरी एवं परिवार की अन्य स्त्रियाँ आक्रंदन करने लगी। विधवा शूर्पणखा भी अपने पुत्र सुंद को साथ लिए शोकप्रदर्शन करती लंका पहुँची। रावण से मिलते ही अपने वक्षःस्थल पर प्रहार करती वह कहने लगी, "शत्रु ने मेरे पति की हत्या की, मेरा पुत्र मुझसे छीन लिया, पुत्र के समान दो देवरों को जीवित नहीं रखा, मेरे पति के चौदह सहस्र सुभटों के शरीर छिन्न विछिन्न कर कालाग्नि की कराल मुख में उनकी आहुति दी। जिस पाताललंका का अधिपति आपने मेरे पुत्र को बनाया था, वह भी उससे छीन ली गई।
कोई भी नारी अपने पति को किसी अन्य नारी के साथ बाँटना नहीं चाहती। मंदोदरी तो सती थी, पतिव्रता थी।
सिंहसमान पराक्रमी मेरा पुत्र आज शशक की भाँति भीरु बन चुका है। आज आपकी यह विधवा भगिनी आप के शरण आई है। यदि आप इस अपमान का प्रतिशोध लेंगे, तो ही मेरे मृत पति, पुत्र, देवर व सैनिकों की आत्माएँ शांत होगी।"
एक बार रावण मेरू पर्वत पर गया था। वहाँपर अनंतवीर्य मुनि देशना दे रहे थे। वन्दनपूर्वक वह देशना सुनने लगा। देशना के अंत में उसने पूछा...."मेरी मौत किस कारण से होगी ?" तब मुनि ने प्रत्युत्तर देते कहा कि, “तुम प्रतिवासुदेव हो। अतः तुम्हारी मौत परस्त्री के दोष के कारण वासुदेव द्वारा होगी।" तब रावण ने उनके पास नियम ग्रहण किया कि, "किसीभी स्त्री का उसकी अनिच्छा से, भोग नहीं करूंगा।"
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