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________________ 38 13 कैकेयी का पश्चात्ताप व भरत का राज्याभिषेक पर वे अत्यंत क्रोधित हुए। भरत की मनःस्थिति देखकर दशरथराजा ने सत्वर राम, लक्ष्मण एवं सीता को पुनः बुलवाने के लिए मंत्रियों को रवाना किया। उन्होंने राम से पुनरागमन के लिए दीनभाव से प्रार्थना की। किंतु राम टस से मस नहीं हुए। फिर भी वे निराश नहीं हुए। वे तो राम के पीछे पीछे चलने लगे। आशा तो वह संजीवनी है, जो मानव को मृत्यु से लड़ने की शक्ति देती है। किसीने क्या खूब कहा है - आशा नाम मनुष्याणां कश्चिदाश्चर्यशृंखला। तया बद्धाः प्रधावन्तो मुक्तास्तिष्ठन्ति पंगुवत्। अर्थात् आशा नाम की डोर से बंधे मनुष्य क्रियाशील रहते हैं, और जो उसे छोड़ दे, वे अपंगवत् निष्क्रिय हो जाते हैं। उसके बाद अयोध्या में दशरथ राजा ने भरत को समझाया, “अब राम, लक्ष्मण सीता के पुनः लौटने की कोई संभावना नहीं है। अतः तुम राज्यग्रहण करो, ताकि मेरी दीक्षा में अवरोध न आए।" भरत ने कहा, “किसी भी परिस्थिति में मैं राज्यग्रहण नहीं करूंगा। मैं स्वयं वनगमन करूँगा व अपने भ्राता को मनाकर पुनः अयोध्या लाऊँगा । यह वार्तालाप हो ही रहा था, इतने में कैकेयी वहाँ आई व राजा दशरथ से कहने लगी “आर्यपुत्र ! आपने अपने वचनानुसार भरत को राज्य दे दिया है, अतः आपकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई, आप ऋणमुक्त हो चुके हैं। किंतु विनयशील भरत को राज्यग्रहण करने में कतई रुचि नहीं है। मुझे एवं अन्य माताओं को दुःख की तीव्र अनुभूति हो रही है। मैं पापिणी हूँ - अविचारी हूँ। आप सपुत्र हैं, फिर भी आज राज्य राजा से विहीन है। जिस प्रकार पतिविहीन नारी का अस्तित्व निरर्थक है, उसी प्रकार राजविहीन राज्य का अस्तित्व निरर्थक है। हे मेरे सुपुत्र ! तुम्हारे जाते ही मेरे प्राण क्यों नहीं चले गये ? कहते हैं "कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।" अरे कोई मुझे देखो... मैं अभागिनी सुपुत्र की कुमाता हूँ। नाथ ! आप मुझे अनुज्ञा दीजिए, मैं भरत के साथ जाकर मेरे पुत्रों एवं पुत्रवधू को मनाकर ले आऊँगी।" आशा नामक शृंखला में बद्ध मंत्रीगण राम के पीछे-पीछे चलते चलते एक अटवी के नजीक आए। वहाँ भयानक आसुरी दिखनेवाले वृक्ष थे। मंत्रीगण ने कभी इतने भयानक वृक्ष देखे नहीं थे। उस अटवी में गंभीरा नामक एक नदी बहती थी। वहाँ पहुँचते ही राम ने मंत्री एवं सामंतो को पुनः अयोध्या लौटने की विनति की। उन्होंने कहा, “यहाँ से आगे पथ अतिभयानक एवं कष्टकारी है। अतः आप लौट जाइए। अयोध्या पहुँचकर हमारे माता-पिता को हमारा क्षेम-कुशल समाचार तथा प्रणाम पहुँचाइए। आज तक जो सम्मान मेरे पूजनीय पिताश्री एवं मुझे देते आए हो, वह ही सम्मान मेरे अनुज राजा भरत को दीजिए।" इतना कहकर राम आगे चलने लगे। "रामचंद्र की सेवा के लिए हम अयोग्य हैं... हमें धिक्कार हो" इस प्रकार विलाप करते करते नदी के तट पर खडे रहे हुए वे रामचंद्रजी को देखते रहे। दुस्तर गंभीरा नदी पार कर शनैः शनैः घने वृक्षों के झुरमुट में राम, लक्ष्मण, सीता अदृश्य हुए। मंत्री व सामंतगण दुःखित हृदय से पुनः लौटे। आते ही उन्होंने दशरथ राजा से समस्त वृत्तांत कहा। राजा दशरथ ने उन्हें सहर्ष अनुज्ञा दी। भरत एवं मंत्रियों के साथ कैकेयी छः दिन में राम के पास पहुँची । एक वृक्ष तले राम, लक्ष्मण व सीता को देख वह रथ से नीचे उतरी । “हे पुत्र... पुत्र' कहते उन्होंने प्रणाम करते हुए राम का मस्तक चूम लिया व विलाप करने लगी। फिर उस ने लक्ष्मण एवं सीता को आलिंगन दिया। नेत्रों से निरंतर अश्रु, बहाते हुए भरत, राम को प्रणाम करते करते बेहोश हो गए। राम ने उन्हें उठाया। चेतना लौटते भरत कहने लगे, "आपने तो अभक्तों की भाँति मुझे त्याग दिया व यहाँ आए। क्या आप भी मानते हैं कि भरत राजा बनने की लालसा हृदय में रखता है। अपनी माता के कारण मैं भी निंदनीय बना हूँ... आप मुझे अपने साथ ले चले व लोकापवाद से मेरी रक्षा कीजिये । आप, सौमित्र व जानकी पुनः अयोध्या पधारें व राज्यलक्ष्मी को ग्रहण करें। यदि आप ऐसा करेंगे, तो मैं लोकनिंदा से मुक्त हो जाऊँगा। जब आप अयोध्याधिपति बनेंगे, तब जगन्मित्र भ्राता लक्ष्मण आपके मंत्री बनेंगे। यह भरत आपका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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