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प्रतिहारी सेवक बनेगा व अनुज शत्रुघ्न आपका छत्रधारी बनेगा।"
अचानक कैकेयी बोली, “हे वत्स राम...! अपने अनुज भरत की यह विनति मान्य करो! तुम्हें वनवास दिलाने के लिए उत्तरदायी न आर्यपुत्र दशरथ है न भरत । यदि कोई है तो मैं ही हूँ मैं ही दोषों की खानि हूँ । चारित्रहीनता को छोड़कर अन्य समस्त दोष तुम्हारे इस अभागिनी माँ में है। मैंने अपने पति, पुत्र व अन्य रानियों को दुःख देने का घिनौना कार्य किया है, हे पुत्र ! मुझे क्षमा करो। "
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भरत का जंगल में राज्याभिषेक
दुःख से फूट-फूट कर रोनेवाली अपनी माता से राम ने कहा, "क्षत्रिय का शर व वचन एक बार निकलकर पुनः लौटता नहीं है। माता ! मैं दशरथपुत्र हूँ व क्षत्रिय
भी हूँ। क्या आप चाहती हैं कि पिताश्री एवं मुझपर वचनभंग का दोष लगें ? पिताश्री ने अनुज भरत को राज्य सौंपा है। उनके निर्णय को मेरी अनुमति है। अपने वचन का भंग करके हम जीवित मृत बन जायेंगे । हम दोनों चाहते हैं कि भरत ही राजा बनें। ज्येष्ठ भ्राता पितासमान होता है। हम दोनों की आज्ञा का उल्लंघन करना भरत के लिए योग्य नहीं है।" इतना कहकर राम ने सीता के द्वारा लाये गये जल से सभी मंत्री एवं सामंतो की साक्षी में उसी स्थान पर भरत का राज्याभिषेक किया।
कैकेयी को मधुर भाषण से सांत्वना देकर तथा प्रणाम कर राम ने उन्हें पुनः प्रस्थान करने के लिए कहा। उन्होंने मितशब्दों में भरत को भी राजकर्तव्यों से परिचित किया। माता एवं अनुज के प्रस्थान के पश्चात् राम, लक्ष्मण व जानकी दक्षिण दिशा में चलने लगे।
पिता व पितासमान भ्राता इन दोनों का आदेश शिरोधार्य मानकर भरत पुनः अयोध्या पधारे। राज्य का पदभार उन्होंने आनंद से नहीं, अपितु दुःखित हृदय से ग्रहण किया। वे अपने आप को राम का सेवक मानते थे। अतः राम की धरोहर (अमानत ) मानकर राज्यग्रहण किया।
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