SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6 दिव्य मुझसे करवाईये।" तब वहाँ उपस्थित जनसमुदाय ही नहीं, अपितु आकाशस्थित नारदजी भी दिव्य का निषेध करते कहने लगे, "हे राघव ! आप यह क्या अनाचार कर रहे हैं ? सीता तो महासती हैं। अतः दिव्य का कोई विकल्प उनके समक्ष नहीं रखा जाना चाहिये।" तब क्रोधित होकर रामचंद्र बोले, "हे लोगों ! क्या आप भूल गए कि आप स्वयं सीता की इतनी निंदा करते थे कि अंतमें निरपराधी होते हुए भी मुझे उन्हें दंड देना पडा। आज आप उनके निर्दोषत्व की घोषणाएँ कर रहे हैं। कल कुछ निमित्त मिलते ही आप पुनः उन पर दोषारोपण करेंगे। अतः आपकी शंकाकुशंकाओं का निराकरण होना, अब आवश्यक है, ताकि भविष्य में कोई दोषारोपण का प्रश्न खडा न हो।" सीताजी का अग्नि प्रवेश अयोध्याके बाहर रामचंद्रजी ने तीन सौ हाथ लंबा, तीन सौ हाथ चौडावदो पुरुष प्रमाण गहरा खड्डा खुदवाया। उसे चंदन काष्टों से भर दिया। फिर अग्नि से प्रज्वलित कर दिया। धधक करती अग्निशिखाओं ने आकाश को व्याप्त किया। उन विकराल ज्वालाओं को देखकर रामचंद्र स्वयं भविष्य के लिए चिंतित हो गये। अग्नि के समीप सुस्नात, सुवस्त्रधारी सीताजी पहुँची व एकाग्रता पूर्वक पंचपरमेष्ठी का स्मरण कर उच्च स्वर में बोल उठी, "हे अग्निदेव....! हे लोकपालों....! हे उपस्थित जन समुदाय....! यदि राम के अलावा किसी भी अन्य पुरुष की मैंने काया, वाचा, मन से, निद्रा या जागृत अवस्था में तनिक भी अभिलाषा की हो तो हे अग्निदेव ! मुझे जलाकर भस्म बना दीजिये। अन्यथा इस विकराल अग्निशिखाओं को मेरे लिए शीतल जल के समान सुखदायी बनाईये।' इतना कहकर सीताजी ने अग्नि में प्रवेश किया। ZTZIP Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy