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बाल्य एवं किशोरावस्था को लांघकर युवा बनें। आश्चर्य की बात यह है कि जबतक उन्हें युवावस्था प्राप्त न हुई, तब तक उनके राज्य में एक भी उपद्रव न हुआ। उपरोक्त उदाहरण से यह समझा जाता है कि प्राचीन काल के शासक सत्ता लोभी नहीं थे, सिंहासन से लिपटकर रहने में उन्हें तनिक भी रुचि नहीं होती थी। शक्कर पर बैठी हुई मक्खी कोई कारण पाते ही जिस प्रकार उड़ जाती है, उसी तरह योग्य कारण मिलते ही वे सत्वर राज्य का त्याग कर देते थे। वैराग्यवासी बनकर चारित्रधारी बन जाते थे। अनरण्य राजा भी दूत के संदेश का निमित्त पाकर अपने पुत्र सहित चारित्रधारी मुनि बन गए।
उनके मानसपट पर अतीतवैभवका साया तक कभी न पडा । मैं राजकुमार था, सुखसाधनों का उपभोक्ता था, अब मुझसे यह कठोर साधना कैसे होगी? ऐसे क्षुद्र एवं कायर विचारों ने उनकी आत्मा की ऊँचाईयों को कभी स्पर्श भी न किया। "जैसा वृक्ष वैसा फल" इस उक्ति के अनुसार युवा मुनि अनंतरथ भी अपने पिता मुनि की तरह संयम एवं तपसाधना में प्रगति करने लगे।
राजर्षि अनरण्य राज्यवैभव को भूलकर संयम जीवन की साधना में इस प्रकार लीन बने कि शरीर को भी भूल गए। छ? - अट्ठम, मासक्षमण आदि एक से एक कठोर तपश्चर्या से कर्मों की दलदल से निकलकर उनकी आत्मा शुद्ध उर्ध्वगामी बनी। “देहं पातयामि कार्य साधयामि" इस उत्कृष्ट भावना के बल से शरीर को क्षीण बनाते बनाते उन्होंने कर्मों को इस प्रकार कृश बनाया कि घाती कर्मो का नाश हो गया। केवलज्ञान की प्राप्ति से राजर्षि अनरण्य ने मोक्ष प्राप्त किया।
राजा दशरथ पुण्यात्मा थे। अपने पुण्यप्रभाव के फलस्वरुप उन्हें मिला था अतुलनीय धैर्य, साहस एवं पराक्रम का वरदान । इसी वरदान के कारण राज्य में अंतर्गत राजद्रोह तथा अन्य शत्रु राजाओं द्वारा आक्रमण का तनिक भी भय नहीं था। अन्यथा बाल राजा पर कौन लालची शत्रु राजा बिना आक्रमण किये रहता है ? स्वयं सर्वेसर्वा होते हुए भी राजा दशरथ दीन-दुःखियों के प्रति करुणाभाव रखते थे। कोई भी याचक राजा दशरथ के प्रांगण से रिक्त हस्त पुनः नहीं लौटता था । ग्यारहवें कल्पवृक्ष की भाँति वे सबकी इच्छापूर्ति करते थे। राजा दशरथ साधकधर्म एवं क्षात्रधर्म दोनों का पालन सतर्कता से करते थे। सत्ता के मोह से पागल-सी बनी कितनी आत्माएँ सत्ता प्राप्त होते ही प्रायः स्वधर्म को भूल जाती हैं। ऐसी दुर्गुणी आत्माएँ दुर्गति के अलावा और क्या प्राप्त कर सकती हैं?
अनंतरथ मुनि भी अपने राज्यवैभव व विलास के साधनों को भूलकर श्रेष्ठतम तप एवं संयमसाधना में इस प्रकार एकाग्र बनें कि
धर्मशील दशरथ राजा का परिणय
यौवनावस्था में पदार्पण करते ही तीन उत्तम कुल गोत्रोत्पन्ना राजकन्याओं के साथ दशरथ परिणयबंधन में बंधे। उनकी पहली सहचारिणी थी अपराजिता उपाख्या कौशल्या । वे दर्भस्थलनगरनरेश सुकोशल की पत्नी सम्राज्ञी अमृतप्रभा की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी। दूसरी पत्नी थी सुमित्रा, वे कमलसंकुल के शासक राजा सुबंधुतिलक की पत्नी रानी मित्रादेवी की पुत्री थी। तीसरी थी राजकुमारी सुप्रभा जो रथनुपुरनगरसम्राट की आत्मजा थी।
विचार करता है। अपनी पत्नी के साथ एकांत मनाने कहाँ जाऊँ? यहाँ जाऊँ की वहाँ जाउँ इन्हीं विचारो में वह न केवल धर्म को भूल जाता है अपितु धर्म का वैरी भी बन जाता है। विद्वानों ने कहा ही है, “कामातुराणां न भयं न लज्जा।" सम्यग्दृष्टि आत्मा इस सत्य से परिचित होती है कि कर्म के उदय से कामभोग भी करने पड़ते हैं। उसमें भी धर्म एवं अर्थ अक्षत अबाधित रहें, इसका संपूर्णतया ख्याल रखते हुए जीवन जीने का प्रयास करते हैं। जो आत्माएँ कामभोग में आसक्त बनकर धर्मव अर्थ को भूल जाती हैं, वे पृथ्वीतलपर धिक्कार के पात्र बनती हैं, एवं मरणोपरांत जन्मजन्मांतर दुर्गति और ज़ालिम दुःख का अनुभव करती है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं - मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । सम्यग्दृष्टि आत्मा भले ही भोगों का सर्वथा त्याग न कर सकें, परंतु मर्यादा में अवश्य रहती है। इससे वे दुःखद कर्मों का उपार्जन न करते हुए मोक्षमार्ग में प्रगति करती है।
दशरथ राजा परम विवेकी थे। अतः धर्म एवं अर्थ इन दो पुरुषार्थों को क्षति न पहुँचे, इसका संपूर्ण ध्यान रखकर तीनों पत्नियों के साथ वैवाहिक सुख का उपभोग लेते थे। अपने राजधर्म को भूलकर वे विषयसुख में आकंठ नहीं डूबे थे। आधुनिक मानव विषयसुख में इस प्रकार अधीन बन चुका है कि ब्याह होते ही धर्म और कर्तव्य को भूल जाता है और काया वाचा मन से, केवल इंद्रियजन्य सुखों का ही
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